लोकाचार्य स्वामी द्वारा विरचित तत्त्व-त्रय नामक ग्रन्थ को लघु श्री भाष्य या कुट्टी भाष्य भी कहते हैं। स्वामी रामानुचार्यजी ने श्री भाष्य कि रचना की, जो कि ब्रह्म सूत्र के उपर विस्तृत टीका है। वरवर मुनि स्वामीजी ने ‘तत्त्व-त्रय’ नामक ग्रन्थ पर विस्तृत व्याख्यान (व्याख्यान-अवतारिका) की रचना की।
श्री वैष्णव संप्रदाय तीन नित्य तत्त्वों को मानता है, इसलिए इसे ‘तत्त्व-त्रय सम्प्रदाय’ भी कहते हैं। श्री-वैष्णव सन्यासी ‘त्रिदंड’ रखते हैं जो कि ‘तत्त्व-त्रय’ को represent करता है। वेदांत-दर्शन में ३ अनादि, नित्य तत्त्वों की चर्चा हुयी है:
भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा, सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत् ॥ श्वेताश्वतर उप.१.१२॥
यहाँ भोक्ता चित (जीवात्मा) है, भोग्य अचित तत्त्व (प्रकृति) और प्रेरिता ईश्वर (ब्रह्म) है। ये तीन ही अनादि तत्त्व हैं।
क्षरं प्रधानममृताक्षरम हरः क्षरत्मानाविशते देव एकः।। (श्वेताश्वतर उप.१.८०)
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।। (गीता 15.18)
यहाँ अक्षर आत्मा (चित) को, क्षर प्रकृति (अचित) और देव/पुरुषोत्तम ब्रह्म (ईश्वर) को सूचित करता है।
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते। एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।गीता 13.2।।
यहाँ क्षेत्र शरीर है, क्षेत्रज्ञ आत्मा ।
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत। क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।। गीता 13.3।।
यहाँ क्षेत्र समस्त चेतन और अचेतन हैं और क्षेत्रज्ञ सबके अन्तर्यामी भगवान।
परवश जीव स्ववश भगवंता, जीव अनेक एक श्रीकंता।।
उभय बीच सीय सोभति कैसे, जीव ब्रह्म बिच माया जैसे।।
ज्ञान अखंड एक सीतावर माया बस जीव सचराचर।
जो सबके रहे ज्ञान एकरस, ईश्वर जीवहिं भेद कहहु कस।। (रामचरितमानस)
References:
https://srivaishnavagranthamshindi.wordpress.com/thathva-thrayam/
तत्त्व-त्रय
तत्त्वज्ञानान्मुक्तिः। तत्त्व के ज्ञान से व्यक्ति मुक्ति को प्राप्त होता है।
तमेव विद्वानमृत इह भवति, नान्यः पन्थाः अयनाय विद्यते।
चित यानि आत्मा देह, इन्द्रियों, मनस् और बुद्धि से पृथक है। आत्मा स्वभाव से ही ज्ञानमय, आनंदमय और शाश्वत है। आत्मा अणु है और मन, बुद्धि, इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है। आत्मा भगवान द्वारा नियंत्रित, भगवान द्वारा पोषित और उनकी ही शेषभूत (दास) है। जीवात्मा पूर्ण रूप से भगवान के नियंत्रण में है। अर्थात जीवात्मा के सभी कार्य भगवान द्वारा अनुमोदित है। भगवान हर आत्मा के अन्दर अन्तर्यामी परमात्मा के रूप में निवास करते हैं, इस प्रकार हर आत्मा परमात्मा का शरीर है क्योंकि वो पूरी तरह से ब्रह्म द्वारा नियंत्रित और ब्रह्म पे आश्रित हैं तथा ब्रह्म के अधीनस्थ है। जिस प्रकार शरीर के सभी कार्य आत्मा द्वारा नियंत्रित होते हैं, उसी प्रकार आत्मा के सभी कार्य अन्तर्यामी परमात्मा भगवान द्वारा नियंत्रित हैं।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुखराशि
फिर भी भगवान आत्मा को अपने कर्मों के मार्ग को चुनने की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं क्योंकि आत्मा ज्ञान से परिपूर्ण है, जिसका निर्णय लेने में उपयोग किया जा सकता है। अन्यथा शास्त्रों का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। आत्मा के सीखने, समझने, विभिन्न कार्यों और उनके गुण और अवगुणों के मध्य भेद करने और श्रेष्ठ मार्ग के अनुसरण आदि हेतु ही शास्त्रों का अस्तित्व है।
इसलिए, आत्मा के कृत्य के लिए, भगवान निम्न स्थिति में रहते हैं
- साक्षी – अपने कार्यों के लिए आत्मा द्वारा किये जाने वाले प्रथम प्रयासों में निष्क्रिय रहकर साक्षी बनते हैं
- स्वीकृती प्रदान करते हैं – आत्मा द्वारा कर्म का मार्ग चुनने के पश्चाद उसके कृत्यों को अनुमति प्रदान करना
- प्रेरक – एक बार आत्मा द्वारा कार्य के प्रारंभ के पश्चाद, उनके आधार पर आगे के कार्यों के लिए भगवान प्रेरणा प्रदान करते हैं
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अचित ज्ञानहीन, चेतनाशुन्य और परिवर्तनशील है। भगवान हर अचित तत्त्व के अंतर अन्तर्यामी हैं। । सम्पूर्ण विनाश के पश्चाद वे अव्यक्त रूप में थी और सृष्टि के समय वे व्यक्त हो गई। वह ईश्वर के परतंत्र है। नित्य विभूति और लीला विभूति दोनों में अचित उपस्थित है। यद्यपि, साधारणतः, अचित (जड़ वस्तुयें) लौकिक संसार में सच्चे ज्ञान को आवरित करता है, परंतु आध्यात्मिक परिपेक्ष्य में वह सच्चे ज्ञान को सुगम बनता है। अचित को, शुद्ध सत्व (सम्पूर्ण सत्वता, जो परमपद में दिखाई देती है), मिश्र सत्व (सत्वता, जो राग और अज्ञान के साथ मिश्रित है, जिसे मुख्यतः संसार में देखा जा सकता है) और सत्व शून्य (सत्वता का अभाव-जो काल/समय है) इन तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है।
शुद्ध सत्व (दिव्य पदार्थ) ऊपर की ओर असीमित है और नीचे की ओर सीमित है (यह परमपद – परलोक में पुर्णतः स्थित है)। मिश्र सत्व (पदार्थ) नीचे की ओर असीमित है और ऊपर की ओर सीमित है (यह लौकिक संसार में पूर्ण रूप से स्थित है)।
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ईश्वर, श्रीमन्नारायण है, जो परमात्मा है और श्रीमहालक्ष्मीजी के साथ नित्य विराजते है। भगवान छः गुणों से परिपूर्ण है, वे है- ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, वीर्य (वीरता), शक्ति, तेज। यह छः गुण विस्तृत होकर असंख्य दिव्य कल्याण गुणों में परिवर्तित होते है। वे इन सभी असंख्य कल्याण गुणों को धारण करने वाले है। सभी चित्त और अचित उनपर आश्रित है और उनमें व्याप्त है– अर्थात ईश्वर उनके अंदर भी समाये है और उन्हें थामे हुए भी है। ईश्वर एक है और अनेक रूपों में चेतनों की रक्षा करते है। वे सभी के स्वामी है, सभी चित और अचित पदार्थ उन्हीं के आनंद हेतु सृष्टि में है।
राम ब्रह्म परमारथ रूपा, नहीं तव मोह निशा लवलेसा
तत्वों में समानताएं:
- ईश्वर और चित (जीवात्माएं) दोनों ही चेतन है।
- चेतन और अवचेतन वस्तुयें दोनों ही ईश्वर की संपत्ति है।
- ईश्वर और अचित दोनों में ही, चेतनों को अपने स्वरूपानुगत परिवर्तित करने का सामर्थ्य है। उदहारण के लिए, अत्यधिक भौतिक गतिविधियों में प्रयुक्त होने वाली जीवात्मा, ज्ञान के संदर्भ में वह जीवात्मा अचित वस्तु के समान ही हो जाती है अर्थात जड़ वस्तु के समान ही ज्ञान से परे है। उसी प्रकार, जब एक जीवात्मा पूर्ण रूप से भगवत (आध्यात्मिक) विषय में लीन होती है, तब वह सांसारिक बंधनों से मुक्ति प्राप्त करके, भगवान के समान सच्चा सुख/ आनंद प्राप्त करती है।
तत्वों के मध्य असमानताएं:
- सर्वोत्तमता, ईश्वर का विशिष्ट गुण है और वे सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान आदि है।
- चित का विशिष्ट गुण है, ईश्वर के प्रति कैंकर्य के विषय में ज्ञान।
- अचित का विशिष्ट गुण है, उसका ज्ञान रहित होना और उनकी उत्पत्ति संपूर्णतः दूसरों के अनुभव के लिए है।
मायावस परिछिन्न जड़, जीव की इस समान।
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