दिव्य सूक्तियों का सामान्य अर्थ (वाच्यार्थ) लोक-व्यवहार का होता है| यह अन्योपदेश भी हो सकता है| दिव्य प्रबंधों में प्रकट वेदांत-तत्त्व को ‘स्वापदेश‘ कहा जाता है| अपने उज्जीवन के लिए स्वयं को उपदेश ‘स्वापदेश’ कहा जाता है|
स्वामी जनन्याचार्य जी पहले पासुर के स्वापदेश को संक्षेप में कहते हैं:
प्राप्य प्रापकंगल इरंदुम नारायणने|
(उपाय और उपेय, दोनों नारायण ही हैं)| परम पुरुषार्थ (प्राप्य वस्तु) नारायण ही हमें परम पुरुषार्थ प्रदान करेंगे| अवगाहन-स्नान साध्य रूप प्रपत्ति है| प्रापक समस्त मुमुक्षु हैं, प्रपत्ति में कोई भी जन्म, वर्ण आदि भेदभाव नहीं हैं| सभी योग्य हैं| इच्छा मात्र ही पर्याप्त पूर्वापेक्षा है|
पहला पासुर में अर्थ-पंचक और ‘तत्त्व, हित, पुरुषार्थ’ का ज्ञान दिया है गोदाम्बा जी ने:
प्राप्यस्य ब्रह्मणो रूपम्, प्राप्तस्य प्रत्यादात्तमन: ।
प्रप्तोपाय फलम् प्राप्ते: तथा प्राप्ति विरोधि च ।।
वदन्ति सकला वेदाः सेतिहास पुराणका: ।
मुनयेस्य महत्मान : वेद-वेदान्त पारगा: ।।
“नारायणने नमक्के परै तरुवान”
1. परमात्मा स्वरुप: नारायणने
नराणां नित्यानाम अयनम् इति नारायण।
जो समस्त आत्माओं को अन्दर और बाहर से आधार देता है (अंतर्व्याप्ति और वहिर्व्याप्ति) वही नारायण हैं| नारायण शब्द के दो अर्थ हैं:
1. परत्वंम् : सारे आत्मा जिनके अन्दर हैं|
2. सौलाभ्यम्: जो सारे आत्माओं के अन्दर हैं|
2. जीवात्मा स्वरुप: नमक्के
सारे जीवात्मा भगवान के शेषी और परतंत्र हैं| आण्डाल इस शब्द से प्रपन्न जीवात्मा के लक्षण बताती हैं: आकिंचन्य (मेरे पास अपना कोई सामर्थ्य नहीं है); अनन्य गतित्व (भगवन के अलावा मेरी दूसरी अन्य गति नहीं है) और महाविश्वास (भगवान अवश्य मेरी रक्षा करेंगे)|
3. उपाय स्वरुप (हित; परमात्मा को प्राप्त करने का साधन क्या है): नारायणने तरुवान
एकमात्र नारायण ही उपाय हैं| नारायण की कृपा ही नारायण तक ले जा सकती है, कर्म, ज्ञान या भक्ति नहीं|
4. उपेय स्वरुप (लक्ष्य या पुरुषार्थ क्या है): परै
परै का अर्थ है भगवत-कैंकर्य, लेश-मात्र भी स्वयं के लिए आशा से रहित| शास्त्र मोक्ष का निम्नप्रकार से वर्णन करते हैं:
1. सालोक्यं: भगवान के लोक, श्री-वैकुण्ठ में निवास करना|
2. सारुप्य: भगवान के समान रूप होना (चतुर्भुज, शंख-चक्र सहित)
3. सामीप्य: जीवात्मा नित्य परमात्मा के संग होता है और इस अनुभव में पलकांतर का भी वियोग नहीं है|
4. सायुज्य: श्रीवैकुण्ठ में जीवात्मा परमात्मा से इतनी अन्तरंगता से जुड़ा होता है मानो दो नहीं एक ही हों, जैसे पानी और शक्कर|
5. विरोधी स्वरुप: (जीवात्मा को उपेय प्राप्ति में बाधक):
हमारा स्वातंत्रियम और अन्य-शेषत्वं|
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