सूत गोस्वामी कहते हैं की जब सुकृत इकठ्ठा होते हैं तो कभी-कभी चलते फिरते भी विवेक प्राप्त हो जाते हैं।
कर्नाटक में तुंगभद्रा नदी के निकट एक गाँव था। उस गाँव में आत्मदेव (आत्मा चासो देवः आत्मदेवः) नाम के एक ब्राह्मण थे और उनकी पत्नी का नाम था धुंधुली। आत्मा पर जब अज्ञान का धुंध होगा तो व्यक्ति कभी सुखी नहीं हो सकता। इसलिए मीरा कहती हैं:
घूँघट के पट खोल रे, तोहे पिया मिलेंगे।
आत्मदेव के दुःख का कारण था पुत्र का न होना। वास्तव में हम अपना दुःख खुद बटोरते हैं। एक बार वो कहीं से कथा कहकर लौट रहे थे की लोगों का ऐसा वार्तालाप सुना जिसने उनके दुःख को कुरेद दिया। लोग कह रहे थे, “आत्मदेव पंडित तो अच्छा है पर है तो निपुत्तर ही। निपुत्तर का चेहरा देखना भी पाप ही है”। हाताश और निराश आत्मदेव शरीर परित्याग करने की मंशा से जंगल चले गए जहाँ उनकी भेंट एक सन्यासी से हुयी। उन्होंने से सन्यासी से पुत्र की याचना की।
सन्यासी ने पूछा, “पुत्र क्यों चाहिए”।
“सुख के लिये”।
“संसार का इतिहास ऐसा नहीं है की किसी को पुत्र से सुख हुआ हो। उदाहरण के लिये महाराज सागर के ७००० पुत्र उन्हें सुख नहीं दे सके। भौतिक विषयों से सुख प्राप्त करने की चेष्टा चलनी से दूध पिने के समान है”।
काहू न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत कर्म भोग सबु भ्राता।।.
मनुष्य अपने अच्छे कर्मों के फलस्वरूप सुख एवं बुरे कर्मों के फलस्वरूप दुःख पता है। कोई किसी को सुख या दुःख नहीं देता। अगर आनंद चाहते हो तो चित को आनंदमय परमात्मा से जोड़ो। ‘पद, पैसा, प्रतिष्ठा और परिवार’ असत और निरानंद हैं और इनसे कभी आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती। इनसे सुख का अनुभव करना ऐसे ही हैं जैसे कुत्ता को हड्डी से और ऊंट को काँटा चबाने से आनंद मिलता है। वास्तव में है भूल, पर कहता है tasteful. कोई ऐसा सुख नहीं जिसके भीतर दुःख ढंका हुआ न हो।
व्यक्ति जन्म से ही ४ दुःख लेकर आता है- रोग, शोक, बुढ़ापा और मौत। पत्नी भी तो ये ४ दुःख लेकर आती है, इसलिए कुल जोड़कर दुःख हो गए ८। पुत्र हुआ तो कुल मिलाकर १२ दुःख हो गए। यदि पुत्रवधू आयी तो कुल मिलाकर हो गए १६। इसलिए अगर शाश्वत सुख चाहते हो तो आनंदस्वरूप परमात्मा से संबंध जोड़ो।
पतंजलि ने पाँच क्लेश बताये हैं:- अविद्या, अस्मिता (मैं), राग (अपने से), द्वेष (दूसरे से) और अग्निभेष (मरने का भय)। हरिः हरति पापानि। भगवान सभी पापों और पाप जनित दुखों को हर लेते हैं। सुख हमें बाहर से मिलता है जबकि आनंद अन्दर से।
मोहग्रस्त होने के कारण आत्मदेव को सन्यासी की बात समझ में नहीं आयी। जब वो पुत्र की माँग पे अड़े रहे तो सन्यासी ने आम का फल दिया। धुन्धुकी को यह सोचकर रातभर नींद नहीं आयी कि यदि फल खाने से शरीर भारी हो गया तो चलना-फिरना दुष्कर हो जायेगा और यदि जन्म से पहले अटक गया तो मर ही जाऊँगी। इस डर के मारे उसने फल गाय को खिला दिया। उसकी छोटी बहन जो गर्भवती थी और ६ पुत्र पहले से थे उसने उससे अपना अगले संतान को रख लेने का प्रस्ताव दिया। उसने वादे अनुरूप अपना बेटा चुप-चाप धुन्धुकी को दे दिया। उसका नाम हुआ धुंधकारी। उधर गौशाले में गैया ने भी बच्चे को जन्म दिया जिसका शरीर मानव का था पर कर्ण गाय का, इसलिए उसका नाम हुआ गोकर्ण।
आत्मदेव तो बड़े प्रसन्न थे पर बाप बनने के साथ संताप भी आया। धुंधकारी बड़ा उत्पाती हुआ। वह जुआ खेलने लगा, मद्यपान करने लगा। प्रतिदिन आत्मदेव के पास शिकायतें आनी लगी आत्मदेव को सन्यासी की सीख याद आने लगी। हालाँकि गोकर्ण बड़े संस्कार-संपन्न थे। (गोकर्णः पण्डितो ज्ञानी धुन्धुकारी महाखलः)। जब आत्मदेव ने धुंधकारी को समझाना चाहा तो उसने पिता पर हाथ चला दिया। पुत्र से पीटने के बाद आत्मदेव एकांत में, गोशाला में बैठकर रो रहे थे।
गोकर्ण की उनपर नजर पड़ी। गोकर्ण ने पिता को समझाया, “आपके दुःख का कारण पुत्र नहीं, पुत्र-मोह है। आपने पुत्र से जो नाता जोड़ लिया वही दुःख का कारण है। ममता, मेरापन, मैं पिता और मेरा पुत्र; यही दुःख का कारण है। ममता शरीर से सुरु होती है, फिर परिवार पर आती है। देह से सुरु होने वाली ममता पहले पत्नी में, फिर पुत्र में आती है। हमारा सबसे पहला संबंध तो परमात्मा से है। जब शरीर नहीं था, पत्नी नहीं थी, पुत्र नहीं आया था तब हमारा भगवान से संबंध था। उस भगवान से संबंध जोड़िए।”
ममता तु न गयी मेरो मन से
पाके केश जन्म के साथी, ज्योति गयी नयनन से।
टूटे बसन, बचन नहीं निकलत; शोभा गयी मुखन से।।
ममता तु न गयी मेरो मन से।
सुख-दुःख वास्तव में है नहीं पर ममता के कारण हमें सुख-दुःख अनुभव होता है। जैसे चिता तो रोज ही जलती है पर जबतक यह ज्ञान नहीं होता कि चिता में जलने वाला शरीर मेरे संबंधी का था, तब तक आंसू नहीं आते। यदि कोई दुश्मन मरा हो तो अति-सुख का अनुभव होता है। ममता के कारण ही धुंधकारी ने आत्मदेव को मारा था वरना सारा समाज तो उन्हें आदर देता था। बाप को बेटे से ममता है इसीलिए बेटा बाप की इज्जत नहीं करता। धुंधकारी ने आत्मदेव को नहीं बल्कि आत्मदेव ने धुंधकारी को पकड़ रखा था।
तब सन्यासी की बात समझ में नहीं आयी थी क्योंकि आत्मा पर मोह और ममता की बाधा थी। पुत्र से पीटने के बाद विवेक उत्पन्न हुआ और ममता हट गयी। जब मोह का पर्दा हट गया तो गोकर्ण की बात समझ में आ गयी।
जबतक ममता नहीं हटेगी, तबतक शास्त्र के उपदेस समझ में नहीं आयेंगे। अज्ञान से ममता उत्पन्न होती है और ममता से दुःख। विवेक का उदय होने पर ममता हट जाती है और भक्ति का उदय होता है। बिना ममता गए भक्ति नहीं आती। मनुष्य जब थकता है तो भगवान की ओर झुकता है। माया ईश्वर की शक्ति है जिसका काम ही है हमें ठोकर देते रहना। कभी किसी ठोकर से विवेक उत्पन्न हो गया तो ममता हट जाएगी और जीवन आनंदमय हो जायेगा।
आत्मदेव ने वन-प्रस्थान किया और भागवतम के दशम स्कंध का ध्यान करते हुए शरीर त्याग दिया। आत्मदेव में कर्मधारय समास है- “आत्मा चासो देवः आत्मदेवः”; अर्थात आत्मा देव है, पुत्र, पत्नी या रिश्तेदार नहीं। आत्मा केवल परमात्मा का है।
एक बार मैं गया के पास एक गाँव से श्राद्ध करा कर लौट रहा था। कुछ ही दूर गया था कि एक नौजवान पैरों पर गिरा गया और कहने लगा, “बाबा वापस चलिए। अभी आप जिस का श्राद्ध करा कर लौट रहे हैं, मैं उसका बेटा हूँ।” जब मैंने उसके बेटा होने पर भी सही समय पर उपस्थित न होने के कारण उसे डांट सुनाई तो कहने लगा, “बाबा! मैं अमेरिका मैं रहता हूँ। जब भी मैं कहता था कि भारत में ही रहकर नौकरी करूँगा तो डांटने लगते, “जब मैं सबको सुनाकर कहता हूँ कि मेरा बेटा अमेरिका में रहता है तो सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। जब अमेरिका में ही रहने की बात करता तो कहते कि अमेरिका में किसको सुनाऊंगा। अमेरिका जाकर तो अपने गरीब होने का एहसास होता है”। सुख और दुःख सापेक्ष है। कैसा सुख मिला कि बेटा से श्राद्ध भी न करा सके। ये आत्मा का सुख नहीं है। ये सुख तो अहंकार का है। केवल परमात्मा ही आत्मा को आनंद दे सकता है। सुख बाहर से मिलता है जबकि आनंद अन्दर से।
मोह निशा सब सोवनिहरा। देखत सपन अनेक प्रकारा।
यह जग जामिनी जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी।।
जानिअ तबहीं जीव जग जागा। जब सब विषय बिलास बिरागा।।
आत्मदेव के चले जाने के बाद केवल माँ-बेटे ही रह गए। धुंधकारी बड़ा हुआ और चरित्रहीन हो गया। माँ के गहने बेचने लगा और माँ मना करती तो उसे पीटने भी लगा। माँ दुःख के मारे कुएं में कूद कर मर गयी। मुर्खता, कुसंग और जवानी इन तीनों के जोड़ में धुंधकारी हत्या, डकैती और लूट कर धन इकट्ठा करने लगा और पाँच-पाँच वैश्यायों को घर लाकर बैठा दिया। एक दिन जब लूट में बड़ा हाथ लगा तो उन वैश्याओं ने धुंधकारी को हाथ-पैर रस्सी से बाँधकर और आग से मार-मार कर प्राण निकाल दिया और उसे जमीन में गाड़कर और धन आपस में बाँटकर भाग गयी। धुंधकारी बड़ी बेरहमी से मरा और मरने के बाद भयंकर ब्रह्मपिसाच बना। उसके आतंक से गाँव के गाँव वीरान हो गए।
कई दिन बीतने पर गोकर्ण अपनी जन्मभूमि घुमने आये। सायंकाल में सान्ध्योपासना कर ही रहे थे मेघ-गर्जना सुनाई पड़ी, पर आकाश में मेघ तो थे ही नहीं। मेघ की तरह गर्जना करने वाला , शेर कि दहाड़ने वाला और हाथी की तरह चिन्घारने वाला कौन है? समझ गए कि कोई अदृश्य आत्मा की पुकार है। गायत्री मंत्र पढ़कर जल छींटा तो धुंधकारी में बोलने कि शक्ति आ गयी। “मैं तुम्हारे कान देख पहचान गया। मैं तुम्हारा भाई धुंधकारी हूँ। मैंने गिन-गिनकर पाप किये जिसका परिणाम है की आज भूख लगती है लेकिन खा नहीं सकता, प्यास सताती है लेकिन पानी भी नहीं पी सकता, नींद आती है लेकिन सो नहीं सकता। बेचैन होकर घूमता रहता हूँ। भाई! हमारा उद्धार करो। गोकर्ण रात भर गायत्री मंत्र का जप करते रहे, वेद-वेदांत सुनाते रहे पर कोई असर नहीं हुआ। गया, बदरीनाथ और अनेक तीर्थों में जाकर पिंड दे आये पर कोई असर नहीं हुआ।
व्याकुल गोकर्ण ने सूर्य देव का उपस्थान किया। गोकर्ण ने कहा, “श्रीमद भागवत का सप्ताह करो गोकर्ण”। उन्होंने सारी विधि बतायी। अषाढ़ महीने शुक्ल-पक्ष नवमी से पूर्णिमा तक भागवत सप्ताह का आयोजन किया। संयोग से बगल में बाँस का टुकड़ा गिरा था और उसमें चींटी लगने से छेद भी था। प्रेत ने उसी में अपने को समाहित कर लिया।
शरीर तीन प्रकार के होते हैं। स्थूल शरीर २४ तत्त्वों से बना है जिसका विवेचन गीता के १५वें अध्याय में हुआ है। सूक्ष्म शरीर १७ तत्त्वों से बना होता है जो आत्मा के साथ होता है। तीसरा है कारण शरीर जो अति-सूक्ष्म और प्रलय काल में होता है। जैसे पेड़ स्थूल है, गुठली कारण और फल सूक्ष्म। जैसे गुठली से ही आम का पेड़ बनता है उसी तरह कारण शरीर से ही सृष्टी के बाद स्थूल शरीर बनता है। गुठली जड़ है जबकि पेड़ चेतन। प्रलय काल में आत्मा भी लगभग अचेतन अवस्था में होता है। भगवान दया से द्रवित होकर स्थूल शरीर देते हैं ताकि जीवात्मा मुक्ति के लिये साधना कर सके (सा वै मोक्ष्यार्थ चिंतकः)।
पहला दिन का पाठ हुआ तो एक गाँठ फटी। लोग समझ न पाए कि क्या आवाज हुयी। दूसरे दिन दूसरी गाँठ फटी और सातवें दिन होते-होते तो बाँस फट्टी के रूप में बदल गया। दिव्य रूप में कोई प्रकट हुआजो किसी के पहचान में नहीं आया। गोकर्ण जी ने सारी बात बतायी। “ ये मेरा भाई था। महा-दुष्कर्म करने वाला, पिशाच बना था। श्रीमद भागवत की कृपा से पिशाच की योनी से छूटकर स्वर्ग चला गया”।
लोगों ने कहा, “महाराज! भागवत तो हमने भी ७ दिन सुना फिर हमारा कुछ क्यों नहीं हुआ”? गोकर्ण जी कहा, “आप उस लगन और श्रद्धा से नहीं सुन पाए जो गोकर्ण के पास थी”। श्रावण महीने, शुक्ल-पक्ष नवमी से पूर्णिमा तक दूबारा सप्ताह हुआ गोकर्ण जी की कृपा से, ग्रामवासियों के आत्मा के कल्याण के लिये। श्रीमद भागवत की कथा निर्मोह होकर सुनने से ग्रामवासियों का भी कल्याण हुआ, सबकी मुक्ति हो गयी।
हम सभी अपने कानों से एक समान ही श्रवण करते हैं पर मन द्वारा मनन और भक्ति सबका अलग-अलग होता है। वक्ता तो सबको एक समान ही सुनाता है पर श्रोताओं के मन और भक्ति भाव एक समान नहीं होता; सबके जन्म, संस्कार, संगत और ग्राह्य बुद्धि भी भिन्न-भिन्न होते हैं। जैसे वर्षा तो एक-समान ही होती है पर किसी खेत में बढ़िया फसल होती है और किसी में खराब। इसलिए कथा के अंत में हर व्यक्ति अलग-अलग निष्कर्ष के साथ निकलता है।
धन्या भागवती वार्ता प्रेतपीड़ाविनाशिनी ।
सप्ताहोऽपि तथा धन्यः कृष्णलोकफलप्रदः ॥
सारांश:




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