तिरुपावै 16 वाँ पासूर

१ – ५ व्रत के बारे में चर्चा
५ – १५ महाजनों का संग । यह महाजन कैसे होंगे, इन के निकट किस तरह जाया जाए, इनसे हमें क्या कृपा प्राप्त होगी, यह सब क्रमशः दस पाशुरों में समझाया गया ।
१६ – २२ पाशुरों में गोपियों द्वारा श्री कृष्ण के अंतरंग पार्षदों को, जैसे कि उनके मुख्य द्वार के द्वारपाल, फिर उससे अंदर वाले द्वार के द्वारपाल, फिर नंद गोप, यशोदा, बलदेव, और नप्पिन्नइ और अंततः कृष्ण स्वयं, इन सब को जगाने का वर्णन है ।
श्री भगवान के प्रति शरणागति का मतलब यह नहीं है कि सभी जिम्मेदारियों को छोड़ दिया जाए । शरणागति हमें हमारी जिम्मेदारियों को निभाने के लिए सक्षम बनाती है । अक्सर लोग सोचते हैं, यदि मैं श्री भगवान से प्रार्थना करूं, तो मेरी परीक्षा पास हो जाएगी या मुझे वीजा मिल जाएगा, इत्यादि । भगवान हमारी तरफ से परीक्षा नहीं देंगे ना ही हमारे बदले वीजा ऑफिस जाएंगे । भक्त और भागवत जनों के संग से हम सशक्त होते हैं । उनके बगैर हम शायद भक्ति शरणागति को छोड़ दें और निराश हो जाएं । जब हम निराश होते हैं तब यह सोचते हैं, “जब हमने इतना कुछ किया तब भी श्री प्रभु ने हमारी सहायता क्यों नहीं की? मैं ही क्यों?” फिर वे लोग आध्यात्मिक जीवन से दूर हो जाते हैं । इससे वह विकल्पों को ढूंढने के लिए प्रेरित होते हैं । यह मौका देखकर लोग आते हैं और हमें नए उपास्य मिल जाते हैं (सांसारिक विषय आदि) । हमारी कमजोरी देखकर लोग हमारा फायदा उठा सकते हैं ।
शरणागति तभी संभव है जब हमारे पास सही श्री गुरु हों । क्योंकि वह शास्त्र को जानते हैं, उनका आचरण करते हैं, और उनसे हमें शिक्षा देते हैं । “आचिनोती… आचारे स्थापयति… स्वयं आचरेत् “
श्री गुरु के निकट जाने से पहले भागवत जनों का समुदाय हमें श्री गुरु के निकट जाने की सही विधि और भाव सिखाते हैं ।

१६वा पाशुरम

नायगनाय् निन्ऱ नन्दगोपनुडैय
कोयिल् काप्पाने कोडित्तोन्ऱुम् तोरण
वायिल् काप्पाने मणिक्कदवम् ताळ् तिऱवाय्
आयर् सिऱुमियरोमुक्कु अऱै पऱै
मायन् मणिवण्णन् नेन्नले वाय् नेर्न्दान्
तूयोमाय् वन्दोम् तुयिल् एळप् पाडुवान्
वायाल् मुन्नमुन्नम् माऱ्ऱादे अम्मा नी
नेय निलैक्कदवम् नीक्कु एलोर् एम्बावाय्

शब्दार्थ
नायगनाय् निन्ऱ – हमारे प्रभु या मालिक
नन्दगोपनुडैय – नंद गोप के
कोयिल् – निवास स्थान
काप्पाने – द्वारपाल
कोडित्तोन्ऱुम् – ऊंचे ध्वजाओं (से युक्त)
तोरण वायिल् – मुख्य द्वार के
काप्पाने – द्वारपाल
मणि – रत्न जड़ित
कदवम् – द्वार
ताळ् तिऱवाय् – ताला खोलिए
आयर् सिऱुमियरोमुक्कु – हम नन्हीं गोप कन्याएं
मायन् – आश्चर्यमय कर्मों वाले
मणिवण्णन् – नीलमणि सामान वर्ण वाले
नेन्नले – बीते कल ही
अऱै पऱै … वाय् नेर्न्दान् – आवाज करने वाले ढोल (परइ) को देने का वादा किया था
पाडुवान् – गाने के लिए
तूयोमाय् वन्दोम् – हम शुद्ध अवस्था में आए हैं
अम्मा – हे स्वामी!
मुन्नमुन्नम् – सबसे पहले
माऱ्ऱादे – नकारे ना
नेय निलैक्कदवम् – (कृष्ण से) महान प्रेम करने वाले यह द्वार
नी – आप स्वयं
नीक्कु – कृपया खोलें

अर्थ
इस पद में सभी गोपियों सहित गोदा श्री कृष्ण के निवास स्थान पर पहुंचकर द्वारपालों से द्वार खोलने की विनती करती हैं । गए दस पदों में श्री गोदा दस आळ्वारों को जगा चुकी हैं, अब इस पद में वह भगवद् रामानुज को जगा रही हैं । श्री रामानुज स्वामी जी महाराज उभय विभूति नायक हैं । उनकी अनुमति के बगैर कोई भी परम पद नहीं प्राप्त कर सकता ।

नायगनाय् निन्ऱ नन्दगोपनुडैय कोयिल् काप्पाने:

श्री नंद गोप के निवास स्थान के द्वारपाल! आप हमारे स्वामी जन हैं ।

श्री गोदा देवी द्वारपालों को स्वामी या नायक कहकर बुलाती हैं क्योंकि वह श्री कृष्ण तक पहुंचने का रास्ता देते हैं । यहां द्वारपाल आचार्य की स्थिति में है : केवल आचार्य के पुरष्कार से हमें श्री प्रभु के दिव्य चरणों की प्राप्ति हो सकती है, अतः उनको स्वामी कह कर संबोधित करना गलत नहीं है ।
यदि कोई हमें एक बेशकीमती रत्न उपहार में दें, हम हमेशा देने वाले व्यक्ति के प्रति ज्यादा प्रेम और सम्मान व्यक्त करते हैं और वह रत्न नजरअंदाज कर देते हैं । ठीक उसी तरह यहां श्री प्रभु अमूल्यों में अमूल्य रत्न हैं, लेकिन वह हमें श्री आचार्य द्वारा प्रदान किए जाते हैं और इसी कारण से श्री आचार्य हमारे समस्त सम्मान और आभार के पात्र हैं अतः हमारे स्वामी हैं । श्री भट्ट ने अपने शिष्य नंजीयर को कहा था, “उन्हें अपना रक्षक मानो जो श्री रामानुज स्वामी जी महाराज को अपना रक्षक मानते हैं ।” (एवं) “इस भावना से रहो कि कृष्ण आप के रक्षक हैं; क्योंकि आपको यह मैंने सिखाया है, अतः आप इस भाव से रहो कि मैं (आपका आचार्य) आपका रक्षक हूं ।”

कोडित्तोन्ऱुम् तोरण वायिल् काप्पाने :
चढ़ी हुई ध्वजाओं से सज्जित मुख्य द्वार के द्वारपाल
ध्वजा से ही श्री नंद गोप के निवास स्थान को दूसरों के निवास स्थानों से अलग बताया जा सकता है । श्री वैष्णव देवालयों में गरुड़ ध्वज स्तंभ और मुख्य अर्चा अवतार प्रभु के निकट गरुड़ सन्निधि होती है । इससे ही एक वैष्णव मंदिर को और मंदिरों से अलग समझा जा सकता है जो काफी मात्रा में अब पाए जाते हैं । श्री गरुड़ वेदों का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
द्वारपाल का काम तो बुरे जनों को रोकना है लेकिन वह तो गोपियों को रोक रहे हैं जो कण्णा से प्यार करती हैं और जिन से कण्णा प्यार करते हैं ।

मणिक्कदवम् :
कण्णा का घर काफी मात्रा में रत्नों से जड़ित है । यद्यपि हमें चाबी भी मिल जाए तो भी हम स्वयं द्वार नहीं खोल सकते । आचार्य इसे कृपा के द्वारा खोलते हैं ।

ताळ् तिऱवाय् :
ताला खोलिए
द्वारपाल अत्यंत सावधान है और कृष्ण बेहतरीन सुरक्षा में है क्योंकि असुर लोग पक्षी, जानवर, शकट यहां तक कि गोपी रूप धारण करके भी आ चुके हैं । पूतना गोपी के भेष में आई और श्री कृष्ण को मारने का प्रयास किया । लेकिन शुक्र है कि श्री कृष्ण ने खुद को बचाकर हम को ही बचा लिया । इतने सारे असुर हो गए कि मानो एक असुर सहस्त्रनाम ही तैयार हो जाए ।

आयर् सिऱुमियरोमुक्कु :
हम नन्हीं गोप कन्याएं
द्वारपाल कहते हैं कि हम आपका विश्वास नहीं करते केवल इसलिए क्योंकि आप नन्हीं हैं क्योंकि वत्सासुर भी नन्हे से बछड़े का रूप लेकर आया ताकि श्रीकृष्ण को चोट पहुंचा सके, अतः आप अपने आने का कारण बताएं ।

अऱै पऱै … वाय् नेर्न्दान् :
हमें परइ ढोल, जो आवाज (कैंकर्य) करता है, देने का वादा किया था

नेन्नले वाय् नेर्न्दान् :
बीते कल इसी समय हमें देने का वादा किया था ।

मायन् :
आश्चर्यमय कर्मों वाले
वे चाहे परम स्वामी हों, लेकिन वे अपने भक्तों द्वारा शासित हैं । हमारे संदर्भ में वह हमारे लिए आसानी से गम्य बनते हैं और हमारे छोटे-मोटे काम करना उन्हें बहुत प्रिय है; तो जब आपके स्वामी हमारे इतने आज्ञाकारी हैं, तो क्या आपको भी हमारी विनती के अनुसार ही नहीं करना चाहिए?

मणिवण्णन् :
नीलमणि के समान वर्ण वाले कृष्ण
नेन्नले :
बीते कल ही
आपको उन्हें इसके बारे में बताने की जरूरत ही नहीं है, उन्होंने हमसे बीते कल ही वादा किया था, कि हम उनके पास इस समय आ सकते हैं ।

आंतरिक अर्थ
स्वयं श्री प्रभु ने ही रामायण और गीता में यह वादा किया है कि वे स्वयं ही उपाय हैं । उन्होंने हमें आश्वासन दिलाया है कि इच्छा मात्र ही पात्रता है । अब हमें अपने वचन देकर क्या वह सो रहे हैं?

तूयोमाय् वन्दोम् :
हम शुद्ध अवस्था में आए हैं
यहां शुद्धता से अभिप्राय श्री प्रभु को उपाय और उपेय दोनों रूपों में मानना ही है, यानी कि कार्य और प्रयोजन दोनों । यदि हम सोचे कि हम हमारी शरणागति के द्वारा परम पुरुष को प्राप्त कर सकते हैं तो यह मिथ्या अभिमान ही है । और श्री भगवान को उनकी अकारण कृपा के लिए आज्ञा देना या उन पर जोर डालना अज्ञानता है
श्री गोदा देवी कहती हैं कि हम शुद्ध हैं, हमें हमारे लिए इस व्रत का कोई फल नहीं चाहिए । क्योंकि कृष्ण ने हमसे यहां आने के लिए कहा, अतः हम उन का आनंद लेने के लिए आए हैं ।
हम कार्य और प्रयोजन दोनों की शुद्धता में ही आए हैं । कार्य की शुद्धता यही है कि हम श्री प्रभु तक निज बल से नहीं वरन उनकी कृपा से ही पहुंचने का प्रयास करें । प्रयोजन की शुद्धता यही है कि श्री प्रभु के अलावा और किसी की भी कामना ना करें, और श्री प्रभु के दिव्य अनुभव को आत्मानंद ना समझें ।
तुयिल् एळप् पाडुवान् :
हम यहां उनके लिए गाने आए हैं (उनको जगाने के लिए) । श्री सीता मैया ने इस बात का आनंद लिया कि किस प्रकार श्री प्रभु सो रहे थे (जब काकासुर ने मैया को तकलीफ देने की कोशिश करें, इससे पहले कि उन्होंने श्री भगवान को उठाया) । यहां यह गोपियां श्री प्रभु के जागकर धीरे धीरे उठने की झांकी को देखने का आनंद उठाना चाहती हैं ।

वायाल् मुन्नमुन्नम् माऱ्ऱादे :
यद्यपि आपके भाव बहुत मधुर हों तथापि हम पर कटु वचनों की वर्षा न करें ।
अम्मा :
उनको अच्छा महसूस कराने के लिए; क्या वह जो अंदर हैं वह दयालु हैं, या हमारे सामने आप हैं जो दयालु हैं? आखिरकार द्वारपाल ने कहा, “ताला खोल दो, और दरवाजा खोलो!”

नी नेय निलैक्कदवम् नीक्कु :
आपने हमसे इतने सारे सवाल किए क्योंकि आपका विशेष ध्यान श्रीकृष्ण की सुरक्षा में है । इस द्वार में कृष्ण की सुरक्षा के लिए शायद आपसे भी ज्यादा ध्यान है (इसीलिए यह खुल नहीं रहा है और इतना भारी हो गया है) अतः कृपया इसे खोलने में हमारी मदद करें ।

स्वापदेश
इस तिरुप्पावइ के सोलहवें पाशुर में द्वारपाल जन अब आचार्य के पद पर हैं, और उनकी अनुमति व पुरष्कार की बहुत जरूरत है, उनसे ही गोपियां परम अमूल्य रत्न श्री कृष्ण को प्राप्त कर सकेंगी । गुरु शब्द का अर्थ होता है “अंधकार का या अज्ञान का निरोध करने वाले” और आचार्य शब्द का अर्थ होता है वह जो शास्त्र वचनों को समझते हैं, और उनका पालन करते हैं, और उन्हें दूसरों को अपने उदाहरण से समझाते हैं । द्वारों का खुलना हमारे ह्रदय के खुलने का प्रतीक है और हमारे मन के भगवान को प्राप्त करने का भी । यह ताला श्री प्रभु से स्वातंत्र्य की भावना है ।
श्री आचार्य मध्यस्थ हैं, श्री प्रभु के इस पृथ्वी पर प्रकट स्वरूप है, श्रद्धा में अडिग और ज्ञान से भरपूर हैं । वह हमारी वासनाएं, हमारी अपूर्णताएं, हमारी कमजोरियां, इन सब को हमसे व्यक्तिगत संबंध द्वारा जान जाते हैं । श्री आचार्य हमारे गुणों अवगुणों की परवाह नहीं करते । यदि हम उनके प्रति पूर्ण शरणागत हो जाएं, तो वे अपने बेशकीमती और अनर्गल प्रयासों से हमारे लिए मुक्ति अर्जित करेंगे, जिसमें यदि हम स्वयं अपने प्रयास से कर पाते, उसके मुकाबले उन्हें बेहद आसानी और निश्चितता होगी, और काफी कम जोखिम होगा ।

अनुवादक : Yash Bhardwaj ji

Author: ramanujramprapnna

studying Ramanuj school of Vishishtadvait vedant

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