श्री रामचरितमानस में राम और विष्णु तत्त्व

क्या श्री तुलसीदास जी महाराज राम और विष्णु में तथा सीता और लक्ष्मी में भेद मानते थे?

प्रायः यह प्रश्न लोग पूछते रहते हैं। कई लोग कुछ दोहे देते हैं जिनमे राम और विष्णु में भेद किया गया है, तो कुछ लोग ऐसे दोहे लाते हैं जो राम ही विष्णु हैं, ऐसा प्रतिपादित करता है।

श्री तुलसीदास जी विशिष्टाद्वैत मत की परम्परा से थे। विशिष्टाद्वैत में भगवान का स्वरूप विभू है, और स्वरूप निरूपक धर्म (गुण) है सत्यत्व, ज्ञानत्व, अमलत्व, अनंतत्व, आनंदत्व।

भगवान का दिव्य विग्रह शुद्ध सत्त्व से निर्मित होता है जो स्वयं-प्रकाश तत्त्व है किन्तु अचेतन। अर्थात, यह ज्ञानस्वरूप तो है किंतु ज्ञानी नहीं। चित है किन्तु अचेतन। जैसे मिश्र सत्त्व पंचभूत से निर्मित है, वैसे ही शुद्ध सत्त्व पंच-उपनिषद तत्त्वों से निर्मित हैं। इनका विस्तृत वर्णन पाँचरात्र में मिलता है।

भगवान के दिव्य विग्रह के निरूपक धर्म (गुण) हैं: सौंदर्य, सौकुमार्य, लावण्य आदि।

यहाँ, इसकी चर्चा इस कारण की जा रही है क्योंकि भगवान का रूप चाहे भिन्न हो, किन्तु स्वरूप तो एक ही है। एक व्यक्ति यदि अनेक शरीर धारण कर ले, तो शरीर का भेद होने से भी आत्मा का भेद नहीं होता। भगवान का स्वरूप विभू है, सर्वव्यापी हैं। वह अनेक रूपों में प्रकट होते हैं। चाहे राम रूप हो या विष्णु या नरसिंह, भगवद-स्वरूप तो एक ही है।

रामचरितमानस की मैं वैसी ही व्याख्या करूँगा जैसा आचार्यों से श्रवण किया है और जैसा पूर्वाचार्यों के ग्रंथों में पढ़ा है|

समस्त देवता भगवान से प्रार्थना करते हैं कि वो अवतार लें| कौन हैं वो भगवान? “#सिन्धुसुता_प्रियकन्ता”| समुद्र की पुत्री लक्ष्मी के प्रिय पति, अर्थात विष्णु|

जब प्रकट होते हैं, तब की स्तुति देखिये: “#भयऊ_प्रकट_श्रीकंता”|
श्री देवी कौन हैं, यह श्री सूक्त से स्पष्ट है|

महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि। तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्‌॥

तथा च, विष्णु-पुराण (1.18.7)

nityaiva esha jaganmata Vishnoh sri anpayani,
yatha sarvgato vishnuh tathaiveyam dvijottam

विष्णु-पुराण, (1.9.144)

राघवत्वे अभवत सीता रुक्मिणी कृष्ण जन्मनि;
अन्येषु चावातारेशु विष्णो: श्री अनपायनी


जब विष्णु राम होते हैं तो लक्ष्मी सीता, जब विष्णु कृष्ण होते हैं तो लक्ष्मी रुक्मिणी होती हैं। अन्य सभी अवतारों में भी श्री देवी विष्णु के नित्ययोग में रहती हैं।

श्री कृष्ण की ही भाँती, चतुर्भुज रूप में, शंख-चक्र-गदा-पद्म-आदि आयुध धारण किये अवतरित हुए हैं, “#निज_आयुध_भुज_चारी”|

भगवान भृगुजी के चरण चिन्ह से शोभित हैं| “#विप्र_चरण_देखत_मन_लोभा”| भृगु जी भगवान विष्णु के वक्षस्थल पे चरण-प्रहार किया था, वही चिन्ह भगवान राम के भी वक्षस्थल पर भी दिखाई देता है| तो दोनों में अभेद नहीं हुआ? उत्तरकाण्ड का मंगलाचरण: “#विप्रपादाब्जचिन्हं

नारद जी ने भगवान विष्णु को ही श्राप दिया है:

मोर श्राप करी अंगीकारा, सहत राम नाना दुःख भारा|”

नारदजी के श्राप के कारण ही भगवान राम रूप में आये हैं| इससे अधिक और किसी प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं|

नारद जी आगे भी पूछते हैं कि जब हम विवाह करना चाहते थे तो आपने क्यों नहीं करने दिया?:
जब विवाह चाहों हम किन्हां,
प्रभु केही कारण करौ न दीन्हा|

स्पष्ट है कि नारद जी की नजर में राम और विष्णु में भेद नहीं|
नारद स्वयं भी कहते हैं शिव-गणों से:
“#भुजबल_विश्व_जितब_तुम्ह_जहिया,
#विष्णु_मनुज_रूप धरिहहिं तहिया|

भगवान विष्णु स्वयं भी कहते हैं:
“#नारद_वचन_सत्य_सब_करिहौं”|

अहिल्या भगवान को किस रूप में देखती हैं?

जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।
सोई पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।

गंगा किनके पग से प्रकट हुयीं, यह तो त्रिविक्रम अवतार की लीला से स्पष्ट है|

अमरकोश के अनुसार इंदिरा, रमा, क्षीरोदतनया एक ही हैं: इन्दिरा लोकमाता मा, क्षीरोदतनया रमा|

इस कारण “#नमामि_इन्दिरापतिं, रमानिवासा, राम रमापति करधनु लेहूँ आदि” आदि से भगवान लक्ष्मीकांत होना सिद्ध होता है|

#प्रणमामि_निरंतर_श्रीरमणं;

#हरिषी_देहु_श्रीरंग

अपने परम-भक्त जटायु को वैकुण्ठ प्रदान किया: #रामकृपा_वैकुण्ठ_सिधारा

रावण के प्रति:

हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान।
जेहिं मारे सोई अवतरेउ कृपासिंधु भगवान।
जिस जगदीश्वर भगवान् ने हिरण्याक्ष सहित हिरण्यकशिपु तथा मधु-कैटभ जैसे शक्तिशाली और मायावी दैत्यों का संहार किया था, वे ही राम के रूप में धरती पर अवतरित हुए|

पार्वती जी के द्वारा शिवजी और कुम्भज ऋषि की शिक्षा को याद करना:

बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी।
सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥”

इन प्रमाणों का आलोकन करने के बाद तो रंचमात्र भी संशय नहीं होना चाहिए कि राम और विष्णु भिन्न-भिन्न हैं। जो राम हैं वही विष्णु, जो विष्णु हैं वही राम। विष्णु के सहस्र नामों में एक नाम राम भी है। भगवान की पहचान है, वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिन्ह, जहाँ लक्ष्मी का निवास होता है।

जीव अनेक एक श्रीकंता

ब्रह्म की पहचान है, श्री का पति। चाहे वो किसी भी रूप में हों, उनके वक्षस्थल पर श्री का निवास है। तुलसीदास भी राम को श्रीवत्स चिन्ह से विशिष्ट बताते हैं (विप्रपादाब्ज चिन्हम)। भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु के वक्षस्थल पर चरण से प्रहार किया था, जहाँ श्रीवत्स चिन्ह होता है। गोपियाँ भी भगवान कृष्ण के वक्षस्थल में स्थित लक्ष्मी की स्तुति की थी।

इस प्रकार तो यही सिद्ध होता है कि राम, कृष्ण, विष्णु, वामन आदि एक ही ईश्वर के भिन्न-भिन्न रूप हैं, जो श्री के पति हैं।

इसके अतिरिक्त अन्य प्रमाण भी मानस में मिलते हैं जिनसे आभास होता है कि विष्णु और राम भिन्न हैं।

जैसे: जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे।।
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा।।

तो क्या रामचरितमानस के दोहे परस्पर विरोधाभासी हैं? क्या हम इसका यही अर्थ समझें? इनका समानाधिकरण कैसे हो, विरोधाभास कैसे दूर हो?

साहित्य में प्रायः अनेक प्रकार की वाक्य संरचना होती है। लक्षणा, व्यंजना, अभिधेय आदि। एक विशिष्ट शैली है, प्रशंसावाद और नहीं-निन्दा न्याय। इस न्याय में प्रेम में भगवद-अनुभव के लिए हम प्रायः भेद करते हैं, एक को बड़ा और दूसरे को छोटा बताते हैं।

जैसे, जब राम की कथा चल रही हो तो कहते हैं कि राम से श्रेष्ठ कोई नहीं। कृष्ण आदि अवतार भी इसके जोड़ में नहीं। राम ने सारी अयोध्या को मोक्ष दे दिया जबकि द्वारका का क्या हश्र हुआ था?

वही व्याख्याकार जब कृष्ण की कथा कर रहा हो तो कहता है कि कृष्ण रूप सर्वश्रेष्ठ है। राम ने तो सिर्फ वानरराज, निषादराज, राक्षसराज आदि से मित्रता की। कृष्ण के मित्रों को देखिए, साधारण ग्वाले, जिनके मुँह का निवाला निकाल कर स्वयं पा जाते हैं।

वही व्याख्याकार, नरसिंह अवतार की लीला में नरसिंह को श्रेष्ठ कहता है क्योंकि उन्होंने प्रेम से प्रह्लाद को अपने जीभ से चाटा।

इत्यादि

यहाँ समझने की बात यह है कि व्याख्याकार का उद्देश्य भेद करना नहीं है। भेद सिर्फ लीला रस का अनुभव करने के लिए किया गया। इसे ही नहीं निन्दा न्याय कहते हैं।

पूर्वाचार्य भी जब सठकोप आळ्वार की वन्दना करते हैं तो कहते हैं कि वो हमारे कुल के नाथ हैं। उनसे श्रेष्ठ कोई नहीं। जब विष्णुचित्त आळ्वार की चर्चा होती है तो कहते हैं कि वो सभी आलवारों में श्रेष्ठ हैं क्योंकि उन्होंने भगवान का मंगलाशासन किया। परकाल सूरी और गोदा देवी की स्तुति में उनको सर्वश्रेष्ठ कहते हैं। कभी-कभी तो आचार्य लक्ष्मी को भगवान से श्रेष्ठ कह देते हैं।

अब इसका कोई यह अर्थ लगाए की व्याख्याकार भगवान के रूपों में भेद कर रहा है, आलवारों बड़ा छोटा बता रहा है तो यह तो उनके साथ अन्याय होगा। आशय का अर्थ है हृदय। वाक्यार्थ सिर्फ शब्दों का अनुवाद भर नहीं होना चाहिए अपितु लेखक के आशय/हृदय के प्रति ईमानदार होना चाहिए।

कभी कभी मैं स्वयं भी कहता हूँ कि मेरे रंगनाथ जी वेंकटेश भगवान से उत्तम हैं। वेंकट बाबू बहुत बड़े देवता हैं जबकि रंगनाथ जी के दर्शन सुलभ से हो जाते हैं। ध्यान रहे कि मुझे भी ज्ञात है कि दोनों एक ही हैं, उनमे कोई भेद नहीं है। भेद बस प्रेमवश किया गया है।

प्रशंसावाद और नहीं-निंदा-न्याय को समझना आवश्यक है तभी हम पूर्वाचार्यों के हृदय जो समझ पाएंगे।

उपरोक्त से, एक प्रश्न उठा l प्रश्न है कि यदि और राम और विष्णु में भेद नहीं करते तो स्कन्द पुराण के रामायण माहात्म्य के इस श्लोक का क्या जो ब्रह्मा-विष्णु-महेश को श्री राम का अंश बताता है?

विष्णु पुराण 1.9.55 में भी ऐसा ही श्लोक मिलता है:

शक्तयो यस्य देवस्य ब्रह्मविष्णुशिवादिकाः ।
भवन्त्यभूतपूर्वस्य तद्रिष्णोः परमं पदम् ।।

समाधान:
प्रथम तो अंश-अंशी भाव को समझना होगा| भगवान के अंश का क्या अर्थ हो सकता है?
1. भगवान की आत्मा का एक टुकड़ा?
2. भगवान की शक्ति या प्राकार का अंश?

1. ये तो संभव ही नहीं क्योंकि ज्ञानस्वरूप आत्मा ‘अविकार’ है| उसका कोई टुकड़ा संभव ही नहीं|

2. शक्ति और शक्तिमान एवं प्राकार और प्राकारी के मध्य भेद तो सिद्ध है| अस्तु| यदि विष्णु को राम की शक्ति प्राकार मानते हैं तो विष्णु को जीवात्मा मानना होगा| तत्त्व-त्रय के सिद्धांत में तीन तत्त्व हैं: ईश्वर, जीव, प्रकृति| ईश्वर की शक्ति या प्राकार ईश्वर से भिन्न है, इस प्रकार यह तो जीव तत्त्व या प्रकृति तत्त्व ही होगा|

भयंकर भेदवादी भी ऐसा नहीं ही मानेंगे|
यदि और कोई युक्ति हो तो उन विचारों का स्वागत है|

गोस्वामीजी कहते हैं:- जीव अनेक एक श्रीकंता
एकमात्र श्रीदेवी के पति ही ईश्वर हैं, बाकि सब जीव| वेदों में और पुराणों में श्रीदेवी तो लक्ष्मी ही हैं, और श्रीकांत भगवान विष्णु| यदि यह आग्रह हो कि श्री लक्ष्मी नहीं हैं, तो श्री सूक्त और विष्णु-पुराण का क्या अर्थ रह जायेगा?

अस्तु

अंश का क्या अर्थ कहा जाए? भगवान विष्णु के श्वेत-श्याम केशों से बलराम-कृष्ण के अवतार की बात भी पराशर महर्षि कहते हैं| यहाँ भी अगर प्राकार-प्राकारी या शरीर-आत्मा भाव लगायें तो कृष्ण को जीवात्मा मानना होगा|

समाधान बस एक ही है|
भगवान के अंश होने का अर्थ है भगवान का स्वयं अपने धर्मी ज्ञान के साथ अन्य रूप में प्रकट होना|

इस प्रकार ही विष्णुचित्त स्वामी ने विष्णु-पुराण उपरोक्त्त श्लोक का अर्थ किया है| भगवान विष्णु स्वयं विष्णु के रूप में प्रकट होते हैं और ब्रह्मा और शिव में उनके शक्ति के अंश का आवेश होता है|

शक्तयो: यस्य देवस्य ब्रह्मविष्णुशिवात्मिका
यहाँ आत्मिका का अर्थ है: भगवान स्वयं विष्णु हैं, भगवान की आत्मा या धर्मी ज्ञान स्वयं प्रकट है विष्णु के रूप में तथा शिव और ब्रह्मा के वह अन्तर्यामी हैं|

जीवात्मा के ईश्वर का अंश होने का अर्थ है उनके शरीर का अंश होना| यहाँ प्राकार-प्राकारी भाव है|

महाभारत शांति पर्व अ. 236
संध्यांसे समनुप्राप्ते त्रेताया: द्वापरस्य च| अहं दाशरथी रामो भविष्यामि जगत्पति:||

Harivansha, Vishnu Parva, Chapter 93

जन्म विष्णो: अप्रमेयस्य राक्षसेन्द्रवधेप्सया|
रामलक्ष्मणशत्रुघ्ना भरतश्चैव भारत||

VISHNU PURAN 4.4.89:

भगवानब्जनाभ: जगतः स्थित्यर्थमात्मामंशेन| रामलक्ष्मणभरतशत्रुघ्नरूपेण चतुर्धा पुत्रत्वमयासीत||

ISHWAR Samhita Chapter 20 (Pancharatra)

पुरा नारायणः श्रीमान लोकरक्षणहेतुना| अवतीर्य रघोवंशे रामो रक्षाकुलान्तकः||

रामायण युद्धकाण्ड:

सीता लक्ष्मीर्भवान् विष्णुर्देवः कृष्णः प्रजापतिः || ६-११७-२८
वधार्थं रावणस्येह प्रविष्टो मानुषीं तनुम् |

बालकाण्ड:
एतस्मिन्नन्तरे विष्णुरुपयातो महाद्युति:।

शङ्खचक्रगदापाणि: पीतवासा जगत्पति:।।1.15.16।।

त्वान्नियोक्ष्यामहे विष्णो लोकानां हितकाम्यया। 1

राज्ञो दशरथस्य त्वमयोध्याधिपते: प्रभो:।।1.15.18।

तस्य भार्यासु तिसृषु ह्रीश्रीकीर्त्युपमासु च।।

विष्णो पुत्रत्वमागच्छ कृत्वाऽऽत्मानं चतुर्विधम्।1.15.19।।

अध्यात्म रामायण सर्ग 2, सर्ग 4

श्री सीतारामचंद्र-परब्रह्मणे नमः

Author: ramanujramprapnna

studying Ramanuj school of Vishishtadvait vedant

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