मनु-सतरूपा की अनन्यता:

गति अनन्य तापस नृप नारी|”

मनु-सतरूपा अनन्य भक्त हैं| न अन्य इति अनन्य|
गीता में:

अनन्येनैव योगेन मां ध्यायंत उपासते
अनन्य परमैकान्ति भक्ति सिर्फ भगवान का ही होता है|

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देवातांतर निवृत्तिपूर्वकं भगवत-शेषत्व ज्ञानं वैष्णवं

भगवान शिव और ब्रह्मा के संग आते रहे| अनन्य भक्त शिव और ब्रह्मा से कुछ कैसे मांग सकते हैं?

मारिहैं तो रामजी, उबारिहैं तो रामजी|

बार बार तीनों देवता लोभाते रहे, वर माँग लो लेकिन राजा-रानी की अनन्यता देखिये| उन्हें ‘धी’ विशेषण द्वारा प्रशंसा किया है गोस्वामीजी ने| परमधीर कहा है|

विधि हरिहर तप देखि अपारा, मनु समीप आये बहु बारा!
मांगेहु बर बहु भाँति लुभाए, परमधीर नहिं चलहिं चलाये!


प्रभु सर्वज्ञ दास निज जानी| यहाँ ‘निज’ शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है, यह अन्य का निषेधक है| फिर भगवान स्वयं आते हैं, बिना शिव और ब्रह्मा को साथ लिए| तब दोनों ने आँखें खोली और वर माँगा|

दोनों द्वादश-अक्षर मन्त्र का ध्यान कर रहे थे| (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय)

द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥

विष्णु पुराण और भागवत के अनुसार इसी मन्त्र का दोनों जप कर रहे थे| इस मन्त्र के देवता विष्णु ही हैं| ‘मंत्राधिनं तु दैवतं”| जिस स्मरुप के मन्त्र की उपासना होगी, भगवान उसी रूप में दर्शन देंगे|

पूर्वपक्ष:
कुछ लोगों का मत है कि षडक्षर मन्त्र दो बार जोड़ने से द्वादश अक्षर का मन्त्र हो गया|

उत्तरपक्ष:
यदि ऐसी कल्पना की जाए तो जाप की संख्या के अनुसार और जापकों की संख्या के अनुसार मंत्राक्षरों की संख्या भी उतनी गुणित बढ़ती जाएगी, तो कोई भी मन्त्र अनंताक्षर ही कहला सकता है|

भगवान का संकल्प है: नारद वचन सत्य सब करिहौं|

और यह भी:
भुजबल विश्व जितब तुम्ह जहिया, विष्णु मनुज तनु धरिअहीं तहिया

आगे प्रसिद्द दोहे को देखते हैं, जिसका सन्दर्भ के विरुद्ध अर्थ प्रायः किया जाता है:

उपजहिं जासु अंश ते नाना, शम्भू विरंची विष्णु भगवाना|



पूर्वोक्त प्रमाणों का सामानाधिकरण करते हुए ही इस दोहे का अर्थ उचित है|

विष्णु भगवाना, जाहिं अंश ते नाना ब्रह्मा, शम्भू उपजहिं
अर्थ:- विष्णु भगवान, जिनके अंश से अनेक ब्रह्मा और शम्भू प्रकट होते हैं|



इस चौपाई के हेर-फेर से यह अर्थ अगर करें कि राम से अनेक ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रकट होते हैं; तो यह नितान्त अनुचित है क्योंकि इसके अनुकूल कोई प्रमाण नहीं मिलता| वेद-प्रतिपाद्य पुरुष नारायण/विष्णु ही हैं|

भगवान शब्द का यहाँ अर्थ विष्णु ही है| विष्णु एव भगवान| विष्णु पुराण में कहा है, “मैत्रेय भगवच्छ्ब्द: वासुदेवेन अन्यग:“| यहाँ भगवान शब्द का अर्थ वासुदेव है|

विश प्रवेशने धातुस्तत्र स्नुप्रत्ययादनु |
विष्णुर्य: सर्ववेदेषु परमात्मा सनातन: || (वराह पुराण) 72.5

वासुदेव का अर्थ विष्णु ही है|

नारायण-सूक्त में भी स्पष्ट है:
ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि ।
तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् ॥

नारायण, वासुदेव, विष्णु; तीनों एक ही हैं| श्री देवी, भू देवी, नीला देवी; तीनो इनकी पत्नियाँ हैं क्योंकि तीनों को श्री-सूक्त, भू-सूक्त, नीला सूक्त में विष्णु-पत्नी कहा गया है|

अगर राम और नारायण में भेद मानते हैं तो यह भी स्वीकार करना होगा की नारायण राम के अन्तर्यामी हैं; क्योंकि:

यच्च किञ्चित् जगत् सर्वं दृश्यते श्रूयतेऽपि वा ।
अन्तर्बहिश्च तत्सर्वं व्याप्य नारायणः स्थितः ॥ (नारायण सूक्त)
अर्थ: इस जगत में जो भी देखा जाता है, जो भी सुना जाता है, उसके अंदर और बाहर नारायण विद्यमान हैं।

तत्त्व त्रय में तीन ही तत्त्व हैं, यदि कोई ब्रह्म न होगा तो जीव ही होगा| गोस्वामी जी की वाणी है:

परवश जीव स्ववश भगवंता|
जीव अनेक एक श्रीकंता||

श्री के कान्त यानी विष्णु के अलावा सभी अन्य जीवात्मा हैं| तो क्या भेदवादी रामजी को जीवात्मा मानेंगे?

एको हा वे नारायणो आसीत (नारायण उपनिषद)

इस कारण, भगवान के विभिन्न स्वरूपों में भेद बुद्धि न रखें| भगवान सभी रूपों में पूर्ण हैं, उनके अनंत रूप हैं; सभी रूपों को नारायण कहते हैं|

इसी प्रकार

जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥

लक्ष्मी (इश्वरी), जिनके अंश से अनन्त लक्ष्मी और सरस्वती उत्पन्न होती हैं



शास्त्रों में राम, कृष्ण, वाराह, नरसिंह सबको नारायण कहा गया है:

ब्रह्मा राम से कहते हैं:-
भवान नारायणो देवः, श्रीमान चक्रायुध: प्रभु (रामायण)

ब्रह्मा कृष्ण से कहते हैं:-
नारायण: न हि त्वं, सर्व देहिनां आत्मा असी (श्रीमद भागवत पुराण)

तो फिर भेद कहाँ है?

कृष्ण ही राम हैं:

महाभारत शांति पर्व अ. 236
संध्यांसे समनुप्राप्ते त्रेताया: द्वापरस्य च| अहं दाशरथी रामो भविष्यामि जगत्पति:||

विष्णु ही राम हैं

Harivansha, Vishnu Parva, Chapter 93

जन्म विष्णो: अप्रमेयस्य राक्षसेन्द्रवधेप्सया|
रामलक्ष्मणशत्रुघ्ना भरतश्चैव भारत||

VISHNU PURAN 4.4.89:

भगवानब्जनाभ: जगतः स्थित्यर्थमात्मामंशेन| रामलक्ष्मणभरतशत्रुघ्नरूपेण चतुर्धा पुत्रत्वमयासीत||

ISHWAR Samhita Chapter 20 (Pancharatra)

पुरा नारायणः श्रीमान लोकरक्षणहेतुना| अवतीर्य रघोवंशे रामो रक्षाकुलान्तकः||

रामायण :


सीता लक्ष्मीर्भवान् विष्णुर्देवः कृष्णः प्रजापतिः || ६-११७-२८
वधार्थं रावणस्येह प्रविष्टो मानुषीं तनुम् |


तस्य भार्यासु तिसृषु ह्रीश्रीकीर्त्युपमासु च।।

विष्णो पुत्रत्वमागच्छ कृत्वाऽऽत्मानं चतुर्विधम्।1.15.19।।



उपरोक्त से, एक प्रश्न उठा l प्रश्न है कि यदि और राम और विष्णु में भेद नहीं करते तो स्कन्द पुराण के रामायण माहात्म्य के इस श्लोक का क्या जो ब्रह्मा-विष्णु-महेश को श्री राम का अंश बताता है?

विष्णु पुराण 1.9.55 में भी ऐसा ही श्लोक मिलता है:

शक्तयो यस्य देवस्य ब्रह्मविष्णुशिवादिकाः ।
भवन्त्यभूतपूर्वस्य तद्रिष्णोः परमं पदम् ।।

समाधान:
प्रथम तो अंश-अंशी भाव को समझना होगा| भगवान के अंश का क्या अर्थ हो सकता है?
1. भगवान की आत्मा का एक टुकड़ा?
2. भगवान की शक्ति या प्राकार का अंश?

1. ये तो संभव ही नहीं क्योंकि ज्ञानस्वरूप आत्मा ‘अविकार’ है| उसका कोई टुकड़ा संभव ही नहीं|

2. शक्ति और शक्तिमान एवं प्राकार और प्राकारी के मध्य भेद तो सिद्ध है| अस्तु| यदि विष्णु को राम की शक्ति प्राकार मानते हैं तो विष्णु को जीवात्मा मानना होगा| तत्त्व-त्रय के सिद्धांत में तीन तत्त्व हैं: ईश्वर, जीव, प्रकृति| ईश्वर की शक्ति या प्राकार ईश्वर से भिन्न है, इस प्रकार यह तो जीव तत्त्व या प्रकृति तत्त्व ही होगा|

भयंकर भेदवादी भी ऐसा नहीं ही मानेंगे|
यदि और कोई युक्ति हो तो उन विचारों का स्वागत है|

गोस्वामीजी कहते हैं:- जीव अनेक एक श्रीकंता
एकमात्र श्रीदेवी के पति ही ईश्वर हैं, बाकि सब जीव| वेदों में और पुराणों में श्रीदेवी तो लक्ष्मी ही हैं, और श्रीकांत भगवान विष्णु| यदि यह आग्रह हो कि श्री लक्ष्मी नहीं हैं, तो श्री सूक्त और विष्णु-पुराण का क्या अर्थ रह जायेगा?

अस्तु

अंश का क्या अर्थ कहा जाए? भगवान विष्णु के श्वेत-श्याम केशों से बलराम-कृष्ण के अवतार की बात भी पराशर महर्षि कहते हैं| यहाँ भी अगर प्राकार-प्राकारी या शरीर-आत्मा भाव लगायें तो कृष्ण को जीवात्मा मानना होगा|

समाधान बस एक ही है|
भगवान के अंश होने का अर्थ है भगवान का स्वयं अपने धर्मी ज्ञान के साथ अन्य रूप में प्रकट होना|

इस प्रकार ही विष्णुचित्त स्वामी ने विष्णु-पुराण उपरोक्त्त श्लोक का अर्थ किया है| भगवान विष्णु स्वयं विष्णु के रूप में प्रकट होते हैं और ब्रह्मा और शिव में उनके शक्ति के अंश का आवेश होता है|

शक्तयो: यस्य देवस्य ब्रह्मविष्णुशिवात्मिका
यहाँ आत्मिका का अर्थ है: भगवान स्वयं विष्णु हैं, भगवान की आत्मा या धर्मी ज्ञान स्वयं प्रकट है विष्णु के रूप में तथा शिव और ब्रह्मा के वह अन्तर्यामी हैं|

जीवात्मा के ईश्वर का अंश होने का अर्थ है उनके शरीर का अंश होना| यहाँ प्राकार-प्राकारी भाव है|

श्री सीतारामचंद्र-परब्रह्मणे नमः

Author: ramanujramprapnna

studying Ramanuj school of Vishishtadvait vedant

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