काल निरूपण

अब तक हमने पढ़ा है कि पदार्थ के दो विभाग हैं: चित और अचित। अचित के पुनः तीन विभाग हैं: मिश्र सत्त्व (प्रकृति), सत्त्व-शुन्य (काल) एवं शुद्ध-सत्त्व (अप्राकृत)। मिश्र सत्त्व में सत्त्व, रजस एवं तमस का मिश्रण होता है। प्रकृति की पूर्वस्था में तीनों गुण सम मात्रा में होते हैं। प्रकृति के बाद की सृष्टि विषम सृष्टि है। तीनों गुण असमान मात्रा में मिश्रित होते हैं।

काल सत्त्व-शून्य है, अर्थात काल में सत्त्व, रजस और तमस गुण नहीं होता। अतीत आदि व्यवहार का हेतु काल है। अतीत, वर्तमान, भविष्य आदि के व्यवहार का हेतु है। काल भगवान का लीला-उपकरण है। श्री वैकुण्ठ में भगवान का भोग-रस होता है, जबकि प्राकृत संसार में लीला-रस होता है। संसार में काल ही प्रभु है। सभी काल के अधीन हैं। प्रत्येक वस्तु में काल के साथ परिवर्तन होता है। प्रकृति तथा प्राकृत पदार्थों के परिणाम का हेतु काल है। जगत की सृष्टि, स्थिति एवं संहार में काल ही कारण है। ब्रह्मा से लेकर सभी जीव एक जीवन काल में बंधे हैं।
काल श्री वैकुण्ठ में भी होता है किन्तु वहाँ काल प्रभु नहीं होता। ‘न काल: तत्र वै प्रभु:”। वहाँ काल में कोई शक्ति नहीं है।

काल एक एवं अखण्ड है किन्तु उपाधि के कारण कला, काष्ठ, भूत, भविष्य आदि इसके विकृतियां हैं। काल विभू एवं नित्य है। सृष्टि काल के आगमन की प्रतीक्षा करके ही भगवान सृष्टि करते हैं एवं नियत काल बीत जाने पर प्रलय करते हैं।

काल सभी 11 इन्द्रियों के लिए प्रत्यक्ष है।पदार्थों के ग्रहण के काल में उसका भान होता है। कोई वस्तु इन्द्रिय के प्रत्यक्ष है अर्थात वो वर्तमान है।

विष्णु पुराण 1.3.8-14 के अनुसार

“पन्द्रह निमेषों की एक काष्ठा होती है। तीस काष्ठाओं की एक कला होती है। तीस कला का एक मुहूर्त होता है। तीस मुहूर्त का मनुष्यों की एक दिन-रात होती है। तीस दिन रात का एक मास होता है। एक मास में दो पक्ष होते हैं। छह मास का एक अयन होता है। दो अयन का एक वर्ष होता है। एक वर्ष में उत्तरायण और दक्षिणायान ये दो अयन होते हैं। दक्षिणायन में देवताओं की रात्रि होती है और उत्तरायण में देवताओं का दिन होता है। देवताओं के बारह हजार वर्ष का एक चतुर्युग (सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापर युग और कलियुग) होता है । उसमें भी सत्ययुग देवताओं के चार हजार वर्षों का, त्रेता युग देवताओं के तीन हजार वर्षों का, द्वापर युग देवताओं के दो हजार वर्षों का तथा कलियुग देवताओं के एक हजार वर्षों का होता है। ऐसा काल के जानकरों ने कहा है। इसीतरह देवताओं के चार सौ वर्ष की सत्ययुग की सन्ध्या तथा चार सौ वर्ष का सन्ध्यांश होता है। तीन सौ वर्ष की त्रेतायुग की सन्ध्या और तीन सौ वर्ष का सन्ध्यांश होता है। दौ सौ दिव्य वर्ष की द्वापर युग की सन्ध्या और दो सौ वर्ष का सन्ध्यांश एवं एक सौ वर्ष की कलियुग की सन्ध्या तथा एक सौ वर्ष का संन्ध्यांश होता है । हे मुनिसत्तम ! सन्ध्या एवं सन्ध्यांश के बीच का जो काल होता है उसे युग कहते हैं । युग चार है- कृतयुग, त्रेतायुग द्वापर युग तथा कलियुग ।”

काल भी भगवान का शरीर है, अपृथक-सिद्ध-विशेषण है।