नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥
निगमकल्पतरोर्गलितं फलं शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् ।
पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः ॥
शृण्वतां स्वकथां कृष्णः पुण्यश्रवणकीर्तनः। हृद्यन्तःस्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत्सताम् ॥
भाग 2: श्रीमद भागवतम महात्म्य भाग 2
सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्मंतारानी च, वंशानुचरितनचेति पुराणं पञ्चलक्षणं।
पुराणों के पाँच विषयों का वर्णन है- १) सृष्टि २) प्रलय ३) सूर्यवंश और चन्द्रवंश का विवरण ४) अलग-अलग काल के मनुओं का विवरण ५) विस्तृत कथा
श्रीमदभागवत पुराण और विष्णु पुराण में इन पाँचों विषयों की पूर्ण रूप से चर्चा है, इसलिए ये दोनों ही पूर्ण-पुराण कहे गए हैं।
ऋग्यजुःसामाथर्वाख्या वेदाश्चत्वार उद्धृताः। इतिहासपुराणं च पञ्चमो वेद उच्यते ॥10.4.20॥
श्रीमद भागवत पुराण सभी शास्त्रों का सार है। जब वेदों के संकलन और महाभारत, पुराणों की रचना के बाद भी उन्हें शांति न मिली तो उनके गुरु नारद मुनि ने उन्हें श्रीमद भागवत पुराण लिखने को प्रेरित किया। यह श्री वेदव्यासजी की आखिरी रचना है और इस कारण पूर्व के सारे रचनाओं का निचोड़ है।
वेदव्यास जी का नाम “कृष्ण द्वैपायन” है। कृष्ण अर्थात श्याम वर्ण के और द्वैपायन अर्थात छोटे कद के या द्वीप में निवास करने वाले। व्यासदेव स्वयं भगवान के शक्त्यावेश अवतार थे और आने वाले कलयुग का ध्यान कर उन्होंने वेदों को ४ भाग में विभक्त किया और शास्त्रों को लिखित रूप में संरक्षित किया।भगवान स्वयं शब्दात्मक स्वरुप में भागवत में विराजते हैं।
व्यासं वसिष्ठ नप्तारं शक्तेः पौत्रमकल्मषम् ।
पराशरात्मजं वन्दे शुकतातं तपोनिधिम् ॥ (व्यास जी वशिष्ठ के प्रपौत्र, शक्ति के पौत्र एवं पराशर केपुत्र हैं)
व्यासाय विष्णु रूपाय व्यासरूपाय विष्णवे ।
नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नमः ॥ (व्यासदेव स्वयं भगवान के अवतार हैं)
भगवतः इदं भागवतम।
इसके दो अर्थ निकलते हैं- भगवान के द्वारा कहा गया, भागवत और भगवान का जो है, भागवत। भगवत मूल शब्द में तद्धित प्रत्यय लगने से बना है भागवत। भागवत का अर्थ है- “भगवान का”। ‘का, के, की’ चिन्ह है संबंध का, जैसे माता का पुत्र, पिता की पुत्री; वैसे ही भगवान का भागवत। भगवान के होने का यह मतलब नहीं की हम बेटे के बाप नहीं रहेंगे बल्कि संसार के नातों के प्रति ममता (आसक्ति) का त्याग है। अ
संसार में हर व्यक्ति किसी का होकर जीता है जैसे नाना का नाती, पति का पत्नी। लेकिन इन सांसारिक आसक्तियों से हमें मिला क्या? अवसाद, ग्लानी, पीड़ा, दर्द और परेशानी। जड़ वस्तु से हमारा नाता ही हमें दुःख देता है। लेकिन क्या कोई ऐसा नाता है जो हमें आनंद की ओर ले जाये?
भगवान के होने का यह मतलब नहीं की हम बेटे के बाप नहीं रहेंगे बल्कि संसार के नातों के प्रति ममता (आसक्ति) का त्याग है। असली हम भगवान के हैं। क्या पिता का पुत्र हो गया तो पत्नी का पति वह नहीं है? मामू का भांजा नहीं है? नाना का नाती नहीं है? सबका रहेगा पर पिता का पुत्र, बस दिल से मान लिया तो पिता के सम्पति का वह अधिकारी हो गया। बस ह्रदय से मान लो और मान कर जान लो। इतना ही पर्याप्त है। यही मानाने वाले मुक्त हो गए, नहीं मानने वाले धोखा खा जाते हैं, यहीं रह जाते हैं। जब से मानव बुद्धिमान माने जाने लगा, तभी से किसी ‘का’ होकर जीना सिख गया। सबसे संबंध स्थापित किया पर भगवान का होना नहीं सिखा और इसलिए उसकी ग्लानी, पीड़ा, दर्द आजतक समाप्त नहीं हुआ। अगर संसार का नाता लेते हुए हम भगवान से संबंध जोड़ लें, फिर हमारी पीड़ा सहज ही दूर हो जाए। हम भगवान से किसी भी तरह का संबंध जोड़ लें जैसे पिता, मित्र, पति या दुश्मन भी, तो बड़ा पार हो जायेगा। हम संसार के संबंधों का आधार लेकर भगवान से संबंध जोड़ सकते हैं।
अंशी का स्वाभाव हमेशा अंश की ओर जाने का है। जैसे पत्थर या पत्ता हमेशा पृथ्वी की ओर, अग्नि हमेशा सूर्य की ओर और जल हमेशा समुद्र की ओर। जीव भी भगवान का शाश्वत अंश है (ईश्वर अंश जीव अविनाशी) और इसलिए जीव का सहज स्वाभाव है ‘भगवान का हो जाना’। जब तक जीव भगवान से संबंध नहीं जोड़ लेता तब तक दुनिया की फैक्ट्री में ऐसा कोई टैबलेट या इंजेक्शन नहीं है जो उसकी पीड़ा को दूर कर दे।
पीड़ा के चार प्रकार हैं: रोग, शोक, बुढ़ापा और मौत। चारों ही लाइलाज हैं और चरों कोई कोई नहीं चाहता पर चारों हीं मिलते हैं। इन चार पर विजय प्राप्त करने हेतु मनुष्य चार चीजें अर्जित करना चाहता है- ‘पद, पैसा प्रतिष्ठा और परिवार’; पर ऐसा आजतक न हुआ है न होगा। मनुष्य जो भी पाप करता है वो इन चार चीजों के लिये ही करता हैं। भगवान से संबंध स्थापित करके ही हम इन चार चीजों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।
भगवान यह नहीं कहते की उन्हें दान दो, खेत लिखकर दो; बल्कि मुझे अपना मानकर प्रेम करो। जैसे रोता हुआ बच्चा हुआ कोई कितना भी प्रयास क्यों न करे, चुप नहीं होता पर माँ की थपकी मात्र से चुप हो जाता है क्योंकि माँ से दूरी के एहसास ने ही तो उसे रुलाया था। हमारे दुःख का कारण भी भगवान से दूरी ही है। हम भगवान से दूरी और जड़ वस्तु से आसक्ति बढ़ाते हैं। जड़ वस्तु का स्वभाव ही है मिटना पर हम चाहते हैं की वो हमेशा हमारे पास रहे। मिटने वाली वस्तु यानी अचित से आसक्ति ही हमारे दुःख का कारण है। वस्तु या व्यक्ति से संबंध जितना ही घनिष्ठ हो, हमें उतना ही रुलाता है। यह शरीर जिसे हम अपना समझते हैं वो भी हमें एक दिन छोड़ना होगा। जिसे शरीर से आसक्ति नहीं होगा, वो शरीर छूटने का भी भय नहीं होगा।
सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे। तापत्रय विनाशाय, श्री कृष्णाय वयं नमः।।
भगवान का स्वरुप है- सत, चित और आनंद। सत शब्द अस धातु से बना है जिसका है, “वह जो है”। चित का अर्थ है जिसमें जागृति हो और आनंद का अर्थ है जो मुरझाये नहीं, रोये नहीं, मुस्कुराता रहे। यदि आनदंरूप भगवान से नाता जोड़ लें तो दुखों से विजय प्राप्त कर सदा के लिये आनंदमय हो जायेंगे।
सत्यम ज्ञानम् अनंतम ब्रह्म।
भक्ति देवी की व्यथा
श्रीमद भागवत पुराण का महात्म्य पद्म पुराण में आता है। जबतक हम किसी चीज का महत्व नहीं जानते तब तक उसे समझने में समय नहीं देते। एक बार की बात है, नारद ऋषि पुष्कर, काशी, कुरुक्षेत्र, गोदावरी आदि तीर्थों का भ्रमण करते-करते वृन्दावन पहुंचे। उन्होंने अद्भुत घटना देखा। एक 5 वर्ष की युवती पास में दो 85-90 वर्ष के मूर्छित पड़े वृद्धों को “हे पुत्र! हे पुत्र!” कहकर संबोधित कर रही थी। नारद जी जे देखकर युवती ने कहा, “महाराज! हमारे दुःख को दूर कीजिये”
“कौन है तु”।
“अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ । ज्ञानवैराग्यनामानौ कालयोगेन जर्जरौ” ॥
“मैं भक्ति हूँ। द्रविड़ देश में पैदा हुयी, महाराष्ट्र तक आयी थी, गुजरात की सीमा में प्रवेश करते मैं बुढ़िया हो गयी लेकिन जवान बेटों के सहयोग से मैं यमुना किनारे मथुरा-वृंदावन आयी। यहाँ आते ही नजारा बदल गया। मैं युवती से वृद्धा हो गयी और मेरे जवान बेटे मूर्छित (बेसुध) हो गए। इन्ही की दशा देखकर मैं रो रही हूँ”?
जब भक्ति वैकुण्ठ से चली तो भगवान ने उसकी दासी मुक्ति को साथ-साथ भेज दिया।
(मुक्तिं दासीं ददौ तुभ्यं ज्ञानवैराग्यकाविमौ ॥)
उन दोनों की मदद के लिये भगवान ने ज्ञान और वैराग्य को भेजा। द्वापर के शुरुआत में भक्ति वैकुण्ठ वापस चली गयी और कहा कि जब भी तुम मुझे बुलाओगी, मैं जरुर आउंगी। कलयुग आते आते ज्ञान-वैराग्य भी मूर्छित हो गए। अब भक्ति बैठे बैठे रो रही थी।
अर्थात: ज्ञान-वैराग्य युक्त भक्ति के लिए मुक्ति दासी की तरह है|
नारद जी ने ज्ञान को जगाने वाला और वैराग्य को प्रवृद्ध करने वाला वेद मंत्र सुनाने लगे लेकिन परिणाम बेअसर रहा। कभी-कभी आँख खोलकर करवट बदलने की चेष्टा की पर मूंह खोल न सके, कुछ बोल न सके। नारद जी ने प्रतिज्ञा की कि जबतक इनकी मूर्छा दूर न होगी, मैं तपस्या करूँगा, भगवान को प्रसन्न कर उन्हीं से उपाय पूछूँगा। नारद जी संत-महात्माओं से उपाय पूछते चले। बद्रिकाश्रम की ओर चले तो उन्हें ४ कुमार मिले (सनक, सनंदन, सनातन, सनत कुमार), जो देखने में ५-६ वर्ष के बालक लगते हैं पर वास्तव में हैं बूढ़ों के बूढ़े।
(कुमारान् ,वृद्धान् दशार्धवयसो विदितात्मतत्त्वान्)।
योगबल से उम्र का असर अपने शरीर पर नहीं होने दिया। दिगंबर महात्मा हैं। नारद जी के बैचैनी को उन्होंने समझ लिया। कुमारों ने कहा, “ज्ञान यज्ञ करो भागवत का, यही वास्तविक सत्कर्म है”।
इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् । भक्तिज्ञानविरागाणां स्थापनाय प्रकाशितम् ॥
ज्ञानयज्ञं करिष्यामि शुकशास्त्रकथोज्ज्वलम् । भक्तिज्ञानविरागाणां स्थापनार्थं प्रयत्नतः ॥
जब भगवान अपनी लीला खत्म कर अपने दिव्य जाने को तत्पर हुए तो उनके घनिष्ठ मित्र उद्धव ने उन्हें रोक लिया। उन्होंने कहा, “आप मुझे छोड़कर अकेले कैसे जा सकते हैं। हम आपके बिना कैसे रह पायेंगे। मुझे भी अपने साथ लेते जाईये”। रामावतार में भगवान अपने साथ पूरी अयोध्या को लेते गए थे। लव-कुश के राज्य करने के लिये कोई भी प्रजा नहीं बची थी। भगवान ने उद्धव से कहा, “बद्रिकाश्रम के गंधमातन पर्वत पर जाकर मेरे स्वरुप का ध्यान करो। जब भी तुम्हें मेरी दर्शन की लालसा हो, मुझे स्पर्श करना या प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहो; तो मैं अपने स्वरुप सहित भागवत पुराण में प्रवेश कर रहा हूँ”।
४ कुमारों ने संसार संसार में प्रवेश करने से मना कर दिया। हरिद्वार तक आये। नारद जी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को भी हरिद्वार ले आये और गंगा किनारे, आनंद घाट पर, सनकादिक कथा बाचने लगे। कार्तिक शुक्ल-पक्ष, अक्षय नवमी से पूर्णिमा तक सप्ताह का योगं हुआ। ७ दिन बाद ज्ञान और वैराग्य युवक होकर नाचने लगे। मूर्छा सदा के लिये मिट गयी। सनकादिक गाने लगे और नारद जी बीना बजने लगे। भक्ति भी आनंद विह्वल होकर नाचने लगी।
बिना ज्ञान और वैराग्य के भक्ति नहीं आती। भगवान से संबंध स्थापित करने के लिये ज्ञान की आवश्यकता है। ज्ञान के चार प्रकार हैं- सामान्य, विशेष, विशेषतर और विशेषतम। सामान्य ज्ञान (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) का ज्ञान पशु को भी है। इसके ज्ञान के लिये किसी विश्वविद्यालय जाने की जरुरत नहीं है। विशेषतर ज्ञान है कवि, आचार्य या राष्ट्रपति बन जाना। विशेषतम ज्ञान ये है कि हम भगवान के हैं, भगवान हमारे हैं और बाकी सारे सपने हैं। इस ज्ञान को ही विवेक कहते हैं। ज्ञान जब परिपक्व होता है तो विवेक कहलाता है। परिपक्व, जागृत ज्ञान विवेक कहलाता है और विवेक वो तेज तलवार है जो अज्ञान से होने वाले मोह और उससे पैदा होने वाले अहंकार को जड़ से काट देता है। विवेक बिना सत्संग के नहीं आता। जब कई जन्मों का पुण्य संचित होता है तो सत्संग मिलता है।
भाग्योदयेन बहुजन्मसमार्जितेन सत्सङ्गमं च लभते पुरुषो यदा वै।
अज्ञानहेतुकृतमोहमदान्धकारनाशं विधाय हि तदोदयते विवेकः ॥
बिना सत्संग के सुनी हुयी बातें जीवन में नहीं आयेंगी इसलिए भक्तों का संग करो और भौतिकवादियों का संग काम से काम करने का प्रयास करो।
बिनु सत्संग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।
होई विवेक मोह भ्रम भागा, तब रघुनाथ चरण अनुरागा।।
सत्संग——-(से)——विवेक———-(से)—————वैराग्य——–(से)———-भक्ति
जिस तरह से जानवरों को पालतू बनाने के लिये हम बल और हथियारों का इस्तेमाल करते हैं वैसे ही मनुष्य को सही दिशा में मोड़ने का काम करती है सत्संग। सत्संग करने से हमें विवेक की प्राप्ति होती है। विवेक की प्राप्ति के बाद मोह और भ्रम भाग जाते हैं। जब मोह और भ्रम भाग जाते हैं तब हम भगवान से सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं। विवेक का अर्थ है परिपक्व ज्ञान। जैसे फुलौना के फूट जाने पर बच्चा फूट-फूट कर रोता है पर बाप नहीं रोता क्योंकि बाप को ज्ञान है की बैलून का स्वभाव ही है फूटना। इस उदाहरण में फुलौना विषय है, बालक अज्ञानी और बाप विवेकी। हम भी इस संसार में रो रहे हैं क्योंकि हमें अपने स्वरुप का ज्ञान नहीं है। साधु नहीं रोते क्योंकि उन्हें अपने और इस संसार के स्वरुप का ज्ञान है।
उमा कहों कछु अनुभव अपना, सत हरि भजन जगत सब सपना।।
उमा राम स्वाभाव जेहि जाना, तेहि भजन तजि भाव न आना।।
अज्ञान का कारण है ६ गन्दगी- काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और मात्सर्य (इर्ष्या)। जब मन की गन्दगी मिट जायेगी तो हम बालक बन जायेंगे और जब बालक बन जायेंगे तो संसार की स्त्रियाँ माँ नजर आयेंगी। जैसे छोटा बालक संसार को देख रहा है पर संसार के पीछे नहीं भागता, उसकी आँखें रूप को देख रहीं हैं पर रूप के पीछे आँखें नहीं भागती। संसार में नाँव की भाती रहो। नाव पानी में रहे पर नाव में पानी न आ पाये। अगर पानी आ रहा है, तो ४ बर्तन हैं जिससे पानी उबीछते रहो: भगवान का (१) नाम (२) रूप (३) गुण और (४) लीला।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोहि कपट छल छिद्र न भावा।
वैराग्य के भी दो प्रकार हैं-कच्चा वैराग्य और पक्का वैराग्य। यदि भक्ति को चंगा बनाना है तो वैराग्य पक्का होना चाहिए। वह विवेक किस काम का जो पक्का वैराग्य न दे पाए। कभी-कभी लोग कच्चा वैराग्य को भी पक्का वैराग्य समझ लेते हैं। जैसे फल्गु नदी, उपर से देखो तो सुखा हुआ और खोद कर देखो पानी ही पानी। नकली वैराग्य लोगों को धोखा देने के लिये होता है। बाहर से ऐसे लोग साधु हैं, विरागी हैं पर भीतर से विरागी हैं। पद्म पुराण के इस कहानी से व्यास देव कहते हैं कि पक्का वैराग्य संसार की वास्तविकता को बतलाता है।
विवेक और वैराग्य साथ-साथ चलते हैं, अकेले नहीं। ज्ञान और वैराग्य भक्ति के पुत्र हैं। किताबी ज्ञान से नहीं बल्कि सत्संग, भक्ति और महापुरुषों के सानिध्य एवं सेवा से विवेक उत्पन्न होगा। ज्ञान और वैराग्य के सहयोग से जब भक्ति आपके जीवन में लहराएगी, तो आपकी दुर्दशा और दयनीय दशा सदा के लिये समाप्त हो जाएगी और खुशहाली आ जाएगी।
भागवत की कथा के प्रभाव से धीरे धीरे ज्ञान-वैराग्य की मूर्छा दूर हुई| ज्ञान-विशिष्ट-भक्ति उलास के मारे नृत्य करने लगी| अलौकिक भक्ति देख भगवान स्वयं अपने लोक से उतर आये।
अथ वैष्णवचित्तेषु दृष्ट्वा भक्तिमलौकिकीम् । निजलोकं परित्यज्य भगवान् भक्तवत्सलः ॥
वनमाली घनश्यामः पीतवासा मनोहरः । काञ्चीकलापरुचिरो लसन्मुकुटकुण्डलः ॥
त्रिभङ्गललितश्चारुकौस्तुभेन विराजितः । कोटिमन्मथलावण्यो हरिचन्दनचर्चितः
श्रीमद भागवत एक कड़वी मिश्री है। अगर कड़वी दवा सीधे दी जाये तो बच्चा लेने के लिये तैयार नहीं होता लेकिन वही कड़वी दवा अगर मिश्री के साथ मिला कर दी जाए तो बच्चा खा लेता है। श्रीमद भागवत में कथाएँ मिश्री हैं और सिद्धांत (शिक्षाएँ) कड़वी दवा। अगर हम दोनों का सेवन करें तो ‘दुखालयम अशाश्वतं’ से ‘नित्य आनंद’ की ओर निश्चित ही जायेंगे। एक प्रकार के मिट्टी में कोई विशेष फसल, किसी विशेष मौसम में बढ़िया पैदावार देती है। कलयुग में भागवत पुराण का भी वैसा ही महत्व है क्योंकि इसमें स्वयं भगवान श्री कृष्ण का वास है।
सप्ताहश्रवणाल्लोके प्राप्यते निकटे हरिः । अतो दोषनिवृत्त्यर्थमेतदेव हि साधनम् ॥
शृण्वतां सर्वभूतानां सप्ताहं नियतात्मनाम् । यथाविधि ततो देवं तुष्टुवुः पुरुषोत्तमम् ॥
अगर १०० साल आयु है तो १५ साल बाल्यावस्था में, १ साल बारात में और बच्चा हुआ तो बाकी जीवन रोटी और भात में। १०० में से ५० साल तो रात्रि में बेहिसाब बीत जाता है। जीवन की सच्चाई को कब समझ पाओगे? इसलिए भागवत पुराण है। इसमें भगवान स्वयं स्थित हैं, जगत के कल्याण के लिये।
श्रीमद्भागवताख्योऽयं प्रत्यक्षः कृष्ण एव हि । स्वीकृतोऽसि मया नाथ मुक्त्यर्थं भवसागरे ॥
भाग २: श्रीमद भागवतम महात्म्य भाग 2
Radhey Radhey ji, aati sundar ji. Please send me all your lectures. JAI SHREE MAN NARYAN JI.
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