मनु-सतरूपा की अनन्यता:

गति अनन्य तापस नृप नारी|”

मनु-सतरूपा अनन्य भक्त हैं| न अन्य इति अनन्य|
गीता में:

अनन्येनैव योगेन मां ध्यायंत उपासते
अनन्य परमैकान्ति भक्ति सिर्फ भगवान का ही होता है|

https://www.gitasupersite.iitk.ac.in/srimad?htrskd=1&httyn=1&htshg=1&scsh=1&choos=&&language=dv&field_chapter_value=12&field_nsutra_value=6

देवातांतर निवृत्तिपूर्वकं भगवत-शेषत्व ज्ञानं वैष्णवं

भगवान शिव और ब्रह्मा के संग आते रहे| अनन्य भक्त शिव और ब्रह्मा से कुछ कैसे मांग सकते हैं?

मारिहैं तो रामजी, उबारिहैं तो रामजी|

बार बार तीनों देवता लोभाते रहे, वर माँग लो लेकिन राजा-रानी की अनन्यता देखिये| उन्हें ‘धी’ विशेषण द्वारा प्रशंसा किया है गोस्वामीजी ने| परमधीर कहा है|

विधि हरिहर तप देखि अपारा, मनु समीप आये बहु बारा!
मांगेहु बर बहु भाँति लुभाए, परमधीर नहिं चलहिं चलाये!


प्रभु सर्वज्ञ दास निज जानी| यहाँ ‘निज’ शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है, यह अन्य का निषेधक है| फिर भगवान स्वयं आते हैं, बिना शिव और ब्रह्मा को साथ लिए| तब दोनों ने आँखें खोली और वर माँगा|

दोनों द्वादश-अक्षर मन्त्र का ध्यान कर रहे थे| (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय)

द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥

विष्णु पुराण और भागवत के अनुसार इसी मन्त्र का दोनों जप कर रहे थे| इस मन्त्र के देवता विष्णु ही हैं| ‘मंत्राधिनं तु दैवतं”| जिस स्मरुप के मन्त्र की उपासना होगी, भगवान उसी रूप में दर्शन देंगे|

पूर्वपक्ष:
कुछ लोगों का मत है कि षडक्षर मन्त्र दो बार जोड़ने से द्वादश अक्षर का मन्त्र हो गया|

उत्तरपक्ष:
यदि ऐसी कल्पना की जाए तो जाप की संख्या के अनुसार और जापकों की संख्या के अनुसार मंत्राक्षरों की संख्या भी उतनी गुणित बढ़ती जाएगी, तो कोई भी मन्त्र अनंताक्षर ही कहला सकता है|

भगवान का संकल्प है: नारद वचन सत्य सब करिहौं|

और यह भी:
भुजबल विश्व जितब तुम्ह जहिया, विष्णु मनुज तनु धरिअहीं तहिया

आगे प्रसिद्द दोहे को देखते हैं, जिसका सन्दर्भ के विरुद्ध अर्थ प्रायः किया जाता है:

उपजहिं जासु अंश ते नाना, शम्भू विरंची विष्णु भगवाना|



पूर्वोक्त प्रमाणों का सामानाधिकरण करते हुए ही इस दोहे का अर्थ उचित है|

विष्णु भगवाना, जाहिं अंश ते नाना ब्रह्मा, शम्भू उपजहिं
अर्थ:- विष्णु भगवान, जिनके अंश से अनेक ब्रह्मा और शम्भू प्रकट होते हैं|



इस चौपाई के हेर-फेर से यह अर्थ अगर करें कि राम से अनेक ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रकट होते हैं; तो यह नितान्त अनुचित है क्योंकि इसके अनुकूल कोई प्रमाण नहीं मिलता| वेद-प्रतिपाद्य पुरुष नारायण/विष्णु ही हैं|

भगवान शब्द का यहाँ अर्थ विष्णु ही है| विष्णु एव भगवान| विष्णु पुराण में कहा है, “मैत्रेय भगवच्छ्ब्द: वासुदेवेन अन्यग:“| यहाँ भगवान शब्द का अर्थ वासुदेव है|

विश प्रवेशने धातुस्तत्र स्नुप्रत्ययादनु |
विष्णुर्य: सर्ववेदेषु परमात्मा सनातन: || (वराह पुराण) 72.5

वासुदेव का अर्थ विष्णु ही है|

नारायण-सूक्त में भी स्पष्ट है:
ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि ।
तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् ॥

नारायण, वासुदेव, विष्णु; तीनों एक ही हैं| श्री देवी, भू देवी, नीला देवी; तीनो इनकी पत्नियाँ हैं क्योंकि तीनों को श्री-सूक्त, भू-सूक्त, नीला सूक्त में विष्णु-पत्नी कहा गया है|

अगर राम और नारायण में भेद मानते हैं तो यह भी स्वीकार करना होगा की नारायण राम के अन्तर्यामी हैं; क्योंकि:

यच्च किञ्चित् जगत् सर्वं दृश्यते श्रूयतेऽपि वा ।
अन्तर्बहिश्च तत्सर्वं व्याप्य नारायणः स्थितः ॥ (नारायण सूक्त)
अर्थ: इस जगत में जो भी देखा जाता है, जो भी सुना जाता है, उसके अंदर और बाहर नारायण विद्यमान हैं।

तत्त्व त्रय में तीन ही तत्त्व हैं, यदि कोई ब्रह्म न होगा तो जीव ही होगा| गोस्वामी जी की वाणी है:

परवश जीव स्ववश भगवंता|
जीव अनेक एक श्रीकंता||

श्री के कान्त यानी विष्णु के अलावा सभी अन्य जीवात्मा हैं| तो क्या भेदवादी रामजी को जीवात्मा मानेंगे?

एको हा वे नारायणो आसीत (नारायण उपनिषद)

इस कारण, भगवान के विभिन्न स्वरूपों में भेद बुद्धि न रखें| भगवान सभी रूपों में पूर्ण हैं, उनके अनंत रूप हैं; सभी रूपों को नारायण कहते हैं|

इसी प्रकार

जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥

लक्ष्मी (इश्वरी), जिनके अंश से अनन्त लक्ष्मी और सरस्वती उत्पन्न होती हैं



शास्त्रों में राम, कृष्ण, वाराह, नरसिंह सबको नारायण कहा गया है:

ब्रह्मा राम से कहते हैं:-
भवान नारायणो देवः, श्रीमान चक्रायुध: प्रभु (रामायण)

ब्रह्मा कृष्ण से कहते हैं:-
नारायण: न हि त्वं, सर्व देहिनां आत्मा असी (श्रीमद भागवत पुराण)

तो फिर भेद कहाँ है?

कृष्ण ही राम हैं:

महाभारत शांति पर्व अ. 236
संध्यांसे समनुप्राप्ते त्रेताया: द्वापरस्य च| अहं दाशरथी रामो भविष्यामि जगत्पति:||

विष्णु ही राम हैं

Harivansha, Vishnu Parva, Chapter 93

जन्म विष्णो: अप्रमेयस्य राक्षसेन्द्रवधेप्सया|
रामलक्ष्मणशत्रुघ्ना भरतश्चैव भारत||

VISHNU PURAN 4.4.89:

भगवानब्जनाभ: जगतः स्थित्यर्थमात्मामंशेन| रामलक्ष्मणभरतशत्रुघ्नरूपेण चतुर्धा पुत्रत्वमयासीत||

ISHWAR Samhita Chapter 20 (Pancharatra)

पुरा नारायणः श्रीमान लोकरक्षणहेतुना| अवतीर्य रघोवंशे रामो रक्षाकुलान्तकः||

रामायण :


सीता लक्ष्मीर्भवान् विष्णुर्देवः कृष्णः प्रजापतिः || ६-११७-२८
वधार्थं रावणस्येह प्रविष्टो मानुषीं तनुम् |


तस्य भार्यासु तिसृषु ह्रीश्रीकीर्त्युपमासु च।।

विष्णो पुत्रत्वमागच्छ कृत्वाऽऽत्मानं चतुर्विधम्।1.15.19।।



उपरोक्त से, एक प्रश्न उठा l प्रश्न है कि यदि और राम और विष्णु में भेद नहीं करते तो स्कन्द पुराण के रामायण माहात्म्य के इस श्लोक का क्या जो ब्रह्मा-विष्णु-महेश को श्री राम का अंश बताता है?

विष्णु पुराण 1.9.55 में भी ऐसा ही श्लोक मिलता है:

शक्तयो यस्य देवस्य ब्रह्मविष्णुशिवादिकाः ।
भवन्त्यभूतपूर्वस्य तद्रिष्णोः परमं पदम् ।।

समाधान:
प्रथम तो अंश-अंशी भाव को समझना होगा| भगवान के अंश का क्या अर्थ हो सकता है?
1. भगवान की आत्मा का एक टुकड़ा?
2. भगवान की शक्ति या प्राकार का अंश?

1. ये तो संभव ही नहीं क्योंकि ज्ञानस्वरूप आत्मा ‘अविकार’ है| उसका कोई टुकड़ा संभव ही नहीं|

2. शक्ति और शक्तिमान एवं प्राकार और प्राकारी के मध्य भेद तो सिद्ध है| अस्तु| यदि विष्णु को राम की शक्ति प्राकार मानते हैं तो विष्णु को जीवात्मा मानना होगा| तत्त्व-त्रय के सिद्धांत में तीन तत्त्व हैं: ईश्वर, जीव, प्रकृति| ईश्वर की शक्ति या प्राकार ईश्वर से भिन्न है, इस प्रकार यह तो जीव तत्त्व या प्रकृति तत्त्व ही होगा|

भयंकर भेदवादी भी ऐसा नहीं ही मानेंगे|
यदि और कोई युक्ति हो तो उन विचारों का स्वागत है|

गोस्वामीजी कहते हैं:- जीव अनेक एक श्रीकंता
एकमात्र श्रीदेवी के पति ही ईश्वर हैं, बाकि सब जीव| वेदों में और पुराणों में श्रीदेवी तो लक्ष्मी ही हैं, और श्रीकांत भगवान विष्णु| यदि यह आग्रह हो कि श्री लक्ष्मी नहीं हैं, तो श्री सूक्त और विष्णु-पुराण का क्या अर्थ रह जायेगा?

अस्तु

अंश का क्या अर्थ कहा जाए? भगवान विष्णु के श्वेत-श्याम केशों से बलराम-कृष्ण के अवतार की बात भी पराशर महर्षि कहते हैं| यहाँ भी अगर प्राकार-प्राकारी या शरीर-आत्मा भाव लगायें तो कृष्ण को जीवात्मा मानना होगा|

समाधान बस एक ही है|
भगवान के अंश होने का अर्थ है भगवान का स्वयं अपने धर्मी ज्ञान के साथ अन्य रूप में प्रकट होना|

इस प्रकार ही विष्णुचित्त स्वामी ने विष्णु-पुराण उपरोक्त्त श्लोक का अर्थ किया है| भगवान विष्णु स्वयं विष्णु के रूप में प्रकट होते हैं और ब्रह्मा और शिव में उनके शक्ति के अंश का आवेश होता है|

शक्तयो: यस्य देवस्य ब्रह्मविष्णुशिवात्मिका
यहाँ आत्मिका का अर्थ है: भगवान स्वयं विष्णु हैं, भगवान की आत्मा या धर्मी ज्ञान स्वयं प्रकट है विष्णु के रूप में तथा शिव और ब्रह्मा के वह अन्तर्यामी हैं|

जीवात्मा के ईश्वर का अंश होने का अर्थ है उनके शरीर का अंश होना| यहाँ प्राकार-प्राकारी भाव है|

श्री सीतारामचंद्र-परब्रह्मणे नमः

श्री रामचरितमानस में राम और विष्णु तत्त्व

क्या श्री तुलसीदास जी महाराज राम और विष्णु में तथा सीता और लक्ष्मी में भेद मानते थे?

प्रायः यह प्रश्न लोग पूछते रहते हैं। कई लोग कुछ दोहे देते हैं जिनमे राम और विष्णु में भेद किया गया है, तो कुछ लोग ऐसे दोहे लाते हैं जो राम ही विष्णु हैं, ऐसा प्रतिपादित करता है।

श्री तुलसीदास जी विशिष्टाद्वैत मत की परम्परा से थे। विशिष्टाद्वैत में भगवान का स्वरूप विभू है, और स्वरूप निरूपक धर्म (गुण) है सत्यत्व, ज्ञानत्व, अमलत्व, अनंतत्व, आनंदत्व।

भगवान का दिव्य विग्रह शुद्ध सत्त्व से निर्मित होता है जो स्वयं-प्रकाश तत्त्व है किन्तु अचेतन। अर्थात, यह ज्ञानस्वरूप तो है किंतु ज्ञानी नहीं। चित है किन्तु अचेतन। जैसे मिश्र सत्त्व पंचभूत से निर्मित है, वैसे ही शुद्ध सत्त्व पंच-उपनिषद तत्त्वों से निर्मित हैं। इनका विस्तृत वर्णन पाँचरात्र में मिलता है।

भगवान के दिव्य विग्रह के निरूपक धर्म (गुण) हैं: सौंदर्य, सौकुमार्य, लावण्य आदि।

यहाँ, इसकी चर्चा इस कारण की जा रही है क्योंकि भगवान का रूप चाहे भिन्न हो, किन्तु स्वरूप तो एक ही है। एक व्यक्ति यदि अनेक शरीर धारण कर ले, तो शरीर का भेद होने से भी आत्मा का भेद नहीं होता। भगवान का स्वरूप विभू है, सर्वव्यापी हैं। वह अनेक रूपों में प्रकट होते हैं। चाहे राम रूप हो या विष्णु या नरसिंह, भगवद-स्वरूप तो एक ही है।

रामचरितमानस की मैं वैसी ही व्याख्या करूँगा जैसा आचार्यों से श्रवण किया है और जैसा पूर्वाचार्यों के ग्रंथों में पढ़ा है|

समस्त देवता भगवान से प्रार्थना करते हैं कि वो अवतार लें| कौन हैं वो भगवान? “#सिन्धुसुता_प्रियकन्ता”| समुद्र की पुत्री लक्ष्मी के प्रिय पति, अर्थात विष्णु|

जब प्रकट होते हैं, तब की स्तुति देखिये: “#भयऊ_प्रकट_श्रीकंता”|
श्री देवी कौन हैं, यह श्री सूक्त से स्पष्ट है|

महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि। तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्‌॥

तथा च, विष्णु-पुराण (1.18.7)

nityaiva esha jaganmata Vishnoh sri anpayani,
yatha sarvgato vishnuh tathaiveyam dvijottam

विष्णु-पुराण, (1.9.144)

राघवत्वे अभवत सीता रुक्मिणी कृष्ण जन्मनि;
अन्येषु चावातारेशु विष्णो: श्री अनपायनी


जब विष्णु राम होते हैं तो लक्ष्मी सीता, जब विष्णु कृष्ण होते हैं तो लक्ष्मी रुक्मिणी होती हैं। अन्य सभी अवतारों में भी श्री देवी विष्णु के नित्ययोग में रहती हैं।

श्री कृष्ण की ही भाँती, चतुर्भुज रूप में, शंख-चक्र-गदा-पद्म-आदि आयुध धारण किये अवतरित हुए हैं, “#निज_आयुध_भुज_चारी”|

भगवान भृगुजी के चरण चिन्ह से शोभित हैं| “#विप्र_चरण_देखत_मन_लोभा”| भृगु जी भगवान विष्णु के वक्षस्थल पे चरण-प्रहार किया था, वही चिन्ह भगवान राम के भी वक्षस्थल पर भी दिखाई देता है| तो दोनों में अभेद नहीं हुआ? उत्तरकाण्ड का मंगलाचरण: “#विप्रपादाब्जचिन्हं

नारद जी ने भगवान विष्णु को ही श्राप दिया है:

मोर श्राप करी अंगीकारा, सहत राम नाना दुःख भारा|”

नारदजी के श्राप के कारण ही भगवान राम रूप में आये हैं| इससे अधिक और किसी प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं|

नारद जी आगे भी पूछते हैं कि जब हम विवाह करना चाहते थे तो आपने क्यों नहीं करने दिया?:
जब विवाह चाहों हम किन्हां,
प्रभु केही कारण करौ न दीन्हा|

स्पष्ट है कि नारद जी की नजर में राम और विष्णु में भेद नहीं|
नारद स्वयं भी कहते हैं शिव-गणों से:
“#भुजबल_विश्व_जितब_तुम्ह_जहिया,
#विष्णु_मनुज_रूप धरिहहिं तहिया|

भगवान विष्णु स्वयं भी कहते हैं:
“#नारद_वचन_सत्य_सब_करिहौं”|

अहिल्या भगवान को किस रूप में देखती हैं?

जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।
सोई पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।

गंगा किनके पग से प्रकट हुयीं, यह तो त्रिविक्रम अवतार की लीला से स्पष्ट है|

अमरकोश के अनुसार इंदिरा, रमा, क्षीरोदतनया एक ही हैं: इन्दिरा लोकमाता मा, क्षीरोदतनया रमा|

इस कारण “#नमामि_इन्दिरापतिं, रमानिवासा, राम रमापति करधनु लेहूँ आदि” आदि से भगवान लक्ष्मीकांत होना सिद्ध होता है|

#प्रणमामि_निरंतर_श्रीरमणं;

#हरिषी_देहु_श्रीरंग

अपने परम-भक्त जटायु को वैकुण्ठ प्रदान किया: #रामकृपा_वैकुण्ठ_सिधारा

रावण के प्रति:

हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान।
जेहिं मारे सोई अवतरेउ कृपासिंधु भगवान।
जिस जगदीश्वर भगवान् ने हिरण्याक्ष सहित हिरण्यकशिपु तथा मधु-कैटभ जैसे शक्तिशाली और मायावी दैत्यों का संहार किया था, वे ही राम के रूप में धरती पर अवतरित हुए|

पार्वती जी के द्वारा शिवजी और कुम्भज ऋषि की शिक्षा को याद करना:

बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी।
सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥”

इन प्रमाणों का आलोकन करने के बाद तो रंचमात्र भी संशय नहीं होना चाहिए कि राम और विष्णु भिन्न-भिन्न हैं। जो राम हैं वही विष्णु, जो विष्णु हैं वही राम। विष्णु के सहस्र नामों में एक नाम राम भी है। भगवान की पहचान है, वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिन्ह, जहाँ लक्ष्मी का निवास होता है।

जीव अनेक एक श्रीकंता

ब्रह्म की पहचान है, श्री का पति। चाहे वो किसी भी रूप में हों, उनके वक्षस्थल पर श्री का निवास है। तुलसीदास भी राम को श्रीवत्स चिन्ह से विशिष्ट बताते हैं (विप्रपादाब्ज चिन्हम)। भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु के वक्षस्थल पर चरण से प्रहार किया था, जहाँ श्रीवत्स चिन्ह होता है। गोपियाँ भी भगवान कृष्ण के वक्षस्थल में स्थित लक्ष्मी की स्तुति की थी।

इस प्रकार तो यही सिद्ध होता है कि राम, कृष्ण, विष्णु, वामन आदि एक ही ईश्वर के भिन्न-भिन्न रूप हैं, जो श्री के पति हैं।

इसके अतिरिक्त अन्य प्रमाण भी मानस में मिलते हैं जिनसे आभास होता है कि विष्णु और राम भिन्न हैं।

जैसे: जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे।।
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा।।

तो क्या रामचरितमानस के दोहे परस्पर विरोधाभासी हैं? क्या हम इसका यही अर्थ समझें? इनका समानाधिकरण कैसे हो, विरोधाभास कैसे दूर हो?

साहित्य में प्रायः अनेक प्रकार की वाक्य संरचना होती है। लक्षणा, व्यंजना, अभिधेय आदि। एक विशिष्ट शैली है, प्रशंसावाद और नहीं-निन्दा न्याय। इस न्याय में प्रेम में भगवद-अनुभव के लिए हम प्रायः भेद करते हैं, एक को बड़ा और दूसरे को छोटा बताते हैं।

जैसे, जब राम की कथा चल रही हो तो कहते हैं कि राम से श्रेष्ठ कोई नहीं। कृष्ण आदि अवतार भी इसके जोड़ में नहीं। राम ने सारी अयोध्या को मोक्ष दे दिया जबकि द्वारका का क्या हश्र हुआ था?

वही व्याख्याकार जब कृष्ण की कथा कर रहा हो तो कहता है कि कृष्ण रूप सर्वश्रेष्ठ है। राम ने तो सिर्फ वानरराज, निषादराज, राक्षसराज आदि से मित्रता की। कृष्ण के मित्रों को देखिए, साधारण ग्वाले, जिनके मुँह का निवाला निकाल कर स्वयं पा जाते हैं।

वही व्याख्याकार, नरसिंह अवतार की लीला में नरसिंह को श्रेष्ठ कहता है क्योंकि उन्होंने प्रेम से प्रह्लाद को अपने जीभ से चाटा।

इत्यादि

यहाँ समझने की बात यह है कि व्याख्याकार का उद्देश्य भेद करना नहीं है। भेद सिर्फ लीला रस का अनुभव करने के लिए किया गया। इसे ही नहीं निन्दा न्याय कहते हैं।

पूर्वाचार्य भी जब सठकोप आळ्वार की वन्दना करते हैं तो कहते हैं कि वो हमारे कुल के नाथ हैं। उनसे श्रेष्ठ कोई नहीं। जब विष्णुचित्त आळ्वार की चर्चा होती है तो कहते हैं कि वो सभी आलवारों में श्रेष्ठ हैं क्योंकि उन्होंने भगवान का मंगलाशासन किया। परकाल सूरी और गोदा देवी की स्तुति में उनको सर्वश्रेष्ठ कहते हैं। कभी-कभी तो आचार्य लक्ष्मी को भगवान से श्रेष्ठ कह देते हैं।

अब इसका कोई यह अर्थ लगाए की व्याख्याकार भगवान के रूपों में भेद कर रहा है, आलवारों बड़ा छोटा बता रहा है तो यह तो उनके साथ अन्याय होगा। आशय का अर्थ है हृदय। वाक्यार्थ सिर्फ शब्दों का अनुवाद भर नहीं होना चाहिए अपितु लेखक के आशय/हृदय के प्रति ईमानदार होना चाहिए।

कभी कभी मैं स्वयं भी कहता हूँ कि मेरे रंगनाथ जी वेंकटेश भगवान से उत्तम हैं। वेंकट बाबू बहुत बड़े देवता हैं जबकि रंगनाथ जी के दर्शन सुलभ से हो जाते हैं। ध्यान रहे कि मुझे भी ज्ञात है कि दोनों एक ही हैं, उनमे कोई भेद नहीं है। भेद बस प्रेमवश किया गया है।

प्रशंसावाद और नहीं-निंदा-न्याय को समझना आवश्यक है तभी हम पूर्वाचार्यों के हृदय जो समझ पाएंगे।

उपरोक्त से, एक प्रश्न उठा l प्रश्न है कि यदि और राम और विष्णु में भेद नहीं करते तो स्कन्द पुराण के रामायण माहात्म्य के इस श्लोक का क्या जो ब्रह्मा-विष्णु-महेश को श्री राम का अंश बताता है?

विष्णु पुराण 1.9.55 में भी ऐसा ही श्लोक मिलता है:

शक्तयो यस्य देवस्य ब्रह्मविष्णुशिवादिकाः ।
भवन्त्यभूतपूर्वस्य तद्रिष्णोः परमं पदम् ।।

समाधान:
प्रथम तो अंश-अंशी भाव को समझना होगा| भगवान के अंश का क्या अर्थ हो सकता है?
1. भगवान की आत्मा का एक टुकड़ा?
2. भगवान की शक्ति या प्राकार का अंश?

1. ये तो संभव ही नहीं क्योंकि ज्ञानस्वरूप आत्मा ‘अविकार’ है| उसका कोई टुकड़ा संभव ही नहीं|

2. शक्ति और शक्तिमान एवं प्राकार और प्राकारी के मध्य भेद तो सिद्ध है| अस्तु| यदि विष्णु को राम की शक्ति प्राकार मानते हैं तो विष्णु को जीवात्मा मानना होगा| तत्त्व-त्रय के सिद्धांत में तीन तत्त्व हैं: ईश्वर, जीव, प्रकृति| ईश्वर की शक्ति या प्राकार ईश्वर से भिन्न है, इस प्रकार यह तो जीव तत्त्व या प्रकृति तत्त्व ही होगा|

भयंकर भेदवादी भी ऐसा नहीं ही मानेंगे|
यदि और कोई युक्ति हो तो उन विचारों का स्वागत है|

गोस्वामीजी कहते हैं:- जीव अनेक एक श्रीकंता
एकमात्र श्रीदेवी के पति ही ईश्वर हैं, बाकि सब जीव| वेदों में और पुराणों में श्रीदेवी तो लक्ष्मी ही हैं, और श्रीकांत भगवान विष्णु| यदि यह आग्रह हो कि श्री लक्ष्मी नहीं हैं, तो श्री सूक्त और विष्णु-पुराण का क्या अर्थ रह जायेगा?

अस्तु

अंश का क्या अर्थ कहा जाए? भगवान विष्णु के श्वेत-श्याम केशों से बलराम-कृष्ण के अवतार की बात भी पराशर महर्षि कहते हैं| यहाँ भी अगर प्राकार-प्राकारी या शरीर-आत्मा भाव लगायें तो कृष्ण को जीवात्मा मानना होगा|

समाधान बस एक ही है|
भगवान के अंश होने का अर्थ है भगवान का स्वयं अपने धर्मी ज्ञान के साथ अन्य रूप में प्रकट होना|

इस प्रकार ही विष्णुचित्त स्वामी ने विष्णु-पुराण उपरोक्त्त श्लोक का अर्थ किया है| भगवान विष्णु स्वयं विष्णु के रूप में प्रकट होते हैं और ब्रह्मा और शिव में उनके शक्ति के अंश का आवेश होता है|

शक्तयो: यस्य देवस्य ब्रह्मविष्णुशिवात्मिका
यहाँ आत्मिका का अर्थ है: भगवान स्वयं विष्णु हैं, भगवान की आत्मा या धर्मी ज्ञान स्वयं प्रकट है विष्णु के रूप में तथा शिव और ब्रह्मा के वह अन्तर्यामी हैं|

जीवात्मा के ईश्वर का अंश होने का अर्थ है उनके शरीर का अंश होना| यहाँ प्राकार-प्राकारी भाव है|

महाभारत शांति पर्व अ. 236
संध्यांसे समनुप्राप्ते त्रेताया: द्वापरस्य च| अहं दाशरथी रामो भविष्यामि जगत्पति:||

Harivansha, Vishnu Parva, Chapter 93

जन्म विष्णो: अप्रमेयस्य राक्षसेन्द्रवधेप्सया|
रामलक्ष्मणशत्रुघ्ना भरतश्चैव भारत||

VISHNU PURAN 4.4.89:

भगवानब्जनाभ: जगतः स्थित्यर्थमात्मामंशेन| रामलक्ष्मणभरतशत्रुघ्नरूपेण चतुर्धा पुत्रत्वमयासीत||

ISHWAR Samhita Chapter 20 (Pancharatra)

पुरा नारायणः श्रीमान लोकरक्षणहेतुना| अवतीर्य रघोवंशे रामो रक्षाकुलान्तकः||

रामायण युद्धकाण्ड:

सीता लक्ष्मीर्भवान् विष्णुर्देवः कृष्णः प्रजापतिः || ६-११७-२८
वधार्थं रावणस्येह प्रविष्टो मानुषीं तनुम् |

बालकाण्ड:
एतस्मिन्नन्तरे विष्णुरुपयातो महाद्युति:।

शङ्खचक्रगदापाणि: पीतवासा जगत्पति:।।1.15.16।।

त्वान्नियोक्ष्यामहे विष्णो लोकानां हितकाम्यया। 1

राज्ञो दशरथस्य त्वमयोध्याधिपते: प्रभो:।।1.15.18।

तस्य भार्यासु तिसृषु ह्रीश्रीकीर्त्युपमासु च।।

विष्णो पुत्रत्वमागच्छ कृत्वाऽऽत्मानं चतुर्विधम्।1.15.19।।

अध्यात्म रामायण सर्ग 2, सर्ग 4

श्री सीतारामचंद्र-परब्रह्मणे नमः

तिरुपावै 20वाँ पासूर

जब गोपियों ने नीला देवी (नप्पिनै) के व्यवहार की आलोचना की जो उनके स्वरुप और स्वभाव से मेल नहीं खाता| नीला देवी शांत रहीं और प्रभु से बात करने के समुचित क्षण की प्रतीक्षा करती रहीं| शायद नप्पिनै क्रोधित हो गयी हैं, ऐसा सोचते हुए गोपियों ने प्रभु की स्तुति की| प्रभु भी चुप रहे| शायद कन्हैया भी क्रोधित हों क्योंकि हमने नप्पिनै की आलोचना की| भगवान के क्रोध को शान्त करने के लिए चलो नप्पिनै की प्रशंसा करते हैं|

इस पाशुर में देवी आन्डाळ् (गोदाम्बा) नप्पिन्नै अम्मा और भगवान् कृष्ण दोनों को जगा रही है ।

मुप्पत्तु मूवर् अमरर्क्कु मुन् सेन्ऱु
  कप्पम् तविर्क्कुम् कलिये तुयिल् एळाय्
सेप्पम् उडैयाय् तिऱल् उडैयाय् सेऱ्ऱार्क्कु
  वेप्पम् कोडुक्कुम् विमला तुयिल् एळाय्
सेप्पन्न मेन् मुलै सेव्वाय्च् चिऱु मरुन्गुल्
  नप्पिन्नै नन्गाय् तिरुवे तुयिल् एळाय्
उक्कमुम् तट्टु ओळियुम् तन्दु उन् मणाळनै
  इप्पोदे एम्मै नीराट्टु एलोर् एम्बावाय्

३३ कोटि देवताओं के कष्ट निवारण का सामर्थ्य रखने वाले हे कृष्ण , उठों !भक्तों की रक्षा करने वाले , शत्रुओं का संहार करने वाले उठो! मुख पर लालिमा लिये, स्वर्ण कान्ति लिये विकसित उरोजों वाली, पतली कमर वाली हे नप्पिन्नै पिराट्टी ! आप तो माता महालक्ष्मी सी लग रही हो, उठिये. आप हमें हमारे व्रत अनुष्ठान के लिये, ताड़पत्र से बने पंखे, दर्पण और आपके स्वामी  कण्णन् आदि प्रदान कर , हमें स्नान करवाइये ।

मुप्पत्तु मूवर्: जब 33 करोड़

अमरर्क्कु: देव

मुन् सेन्ऱु : जब आपकी शरण में आते हैं (संकट में हैं),

कप्पम् तविर्क्कुम् : तो आप उन्हें बचाते हैं।

कलिये : हे बहादुर कृष्ण

तुयिल् एळाय् : अपने शयन से उठो

यह एक तरह का व्यंग्यात्मक वचन है। हे कन्हैया! क्या आप केवल बहुमत की सुनते हैं? आप केवल उनके उद्धारकर्ता हैं जिनकी संख्या 33 करोड़ है? देवता का अर्थ है एक शक्ति, जो हमें दिखाई नहीं देती। वे ‘अमर्त्य’ हैं लेकिन हम ‘मर्त्य’ हैं। यदि आप रक्षक हैं, तो आपको पहले हमें बचाना चाहिए। हम तुम्हारे बिना मर रहे हैं।

ऐसा लगता है कि आप केवल स्वार्थी लोगों को बचाते हैं, उन लोगों को नहीं जो आपके दर्शन के अलावा कुछ नहीं चाहते। इंद्र के लिए नरकासुर के खिलाफ कृष्ण द्वारा युद्ध जीतने के बाद, वह जल्द ही भूल गया और कृष्ण के खिलाफ ‘पारिजात पुष्प’ के लिए युद्ध छेड़ दिया। ऐसा लगता है कि आप ऐसे स्वार्थी देवताओं की ही मदद करते हैं।

आजकल एक डिस्को सिद्धांत प्रचलित हुआ है कि सभी ईश्वर एक हैं| भगवान अनेक हैं| क्या यह संभव है? क्या अनेक हवाएं संभव हैं? क्या वायु बहुवचन हो सकता है? नहीं, इसी तरह ईश्वर भी बहुवचन नहीं हो सकता। ईश्वर की पहचान वह है जो सर्वव्यापी (विष्णु) है। जो प्रत्येक प्राणी के भीतर है और जिसके भीतर (नारायण) प्रत्येक प्राणी है। वेदों ने पुरुष को परिभाषित किया:

 सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्

और अंत में :

ह्रीश्चते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ

भू देवी और श्री देवी जिनकी पत्नियाँ हैं| जिनके वक्षस्थल में श्री देवी का निवास है, वही भगवान हैं|

सेप्पम् उडैयाय् : विश्वसनीय (भक्तों की रक्षा में);

तिऱल् उडैयाय् : शक्तिशाली (भक्तों के शत्रुओं को मारने के लिए);

सेऱ्ऱार्क्कु : दुष्टों के लिए
  वेप्पम् : भय

कोडुक्कुम् : देने में सक्षम

विमला : दोषरहित

तुयिल् एळाय् : शयन से उठो

समस्त हे गुणों से रहित जो हो, उसे विमला कहते हैं| इस संबोधन की विशेषता है कि भगवान दुष्टों के ह्रदय में कम्पन पैदा करते हैं लेकिन उनमें कोई भी हेय गुण नहीं आता|

क्योंकि वह एक को मारता है और दूसरे की रक्षा करता है, कुछ लोग भगवान को पक्षपाती मान सकते हैं, लेकिन चूंकि भगवान केवल किसी के पिछले कार्यों (कर्म) के कारण अनुग्रह या क्रोध करते हैं, वह जो करता है वह न्याय है, पक्षपात नहीं; तो भगवान हमेशा शुद्ध (दोषरहित) है

वेदान्त सूत्र भी कहता है : वैषम्यनैघृण्ये न सापेक्षत्वात् (ब्रह्म सूत्र 2.1.34)

ब्रह्म की परिभाषा है :

यस्मात् सर्वेश्वरात् निखिलहेयप्रत्यनीक स्वरूपात् सत्यसंकल्पात् ज्ञानानन्दाद्यनन्तकल्याणगुणात् सर्वज्ञात् सर्वशक्ते: परमकारुणिकात् परस्मात् पुंसः श्रृष्टिस्थितिप्रलयाः प्रवर्तते, तत् ब्रह्मेति सूत्रार्थः (श्रीभाष्य)।

ब्रह्म को परिभाषित करते हुए रामानुज स्वामीजी कहते हैं:

  • जो समस्त दोषों से रहित हैं। (अखिल हेय प्रत्यनिक)। निर्गुण निरंजन शब्दों  का अर्थ समस्त दूषणों और रज, तम  गुणों से रहित होना है।
  • जो अनन्त कल्याण गुणों से युक्त हैं जैसे सत्यकाम, सत्यसंकल्प, कारुण्य, ज्ञान, बल, आदि। (अनंत कल्याण गुणाकरम)
  • श्रृष्टिस्थितिसंघारत्वं: जो सृष्टि की उत्पत्ति, पोषण और संहार को पुर्णतः नियंत्रित करते हैं।
  • ज्ञानान्दैकस्वरुपं: संपूर्ण ज्ञान और अपरिमित आनंद का भण्डार हैं।
  • वह जो श्रीदेवीजी, भूदेवीजी और नीलादेवीजी के प्राण प्यारे नाथ हैं।

सेप्पन्न : स्वर्णमय पर्वत के समान

मेन् मुलै : कोमल स्तन

सेव्वाय्च् : गुलाबी मुख/ होंठ

चिऱु मरुन्गुल् : कोमल पतले कमर
  नप्पिन्नै नन्गाय् : हे आकर्षक मंत्रमुग्ध करने वाली नीला देवी

तिरुवे : जो श्री देवी/ लक्ष्मी माता के समान हैं

तुयिल् एळाय् : शयन से उठो

श्रृंगार :

हम कई श्रृंगार श्लोकों से आते हैं और असहज महसूस करते हैं। मां हर लिहाज से बेहद खूबसूरत हैं। प्रकटन का अर्थ है कि सभी भौतिक रूप अत्यंत सुंदर होने चाहिए। उन्होंने पिता को आकर्षित किया । यह पिता के लिए आनंदपूर्ण है, बच्चों के लिए नहीं। लेकिन, यह बच्चे के लिए जीवन देने वाली वस्तु है, इसलिए इसे आभारी होना चाहिए। क्या इसकी स्तुति करना, पूजा करना हमारा कर्तव्य नहीं है? जब भी बालक को भूख लगती है तो वह माँ के स्तन (उपजीवनम्) में चला जाता है। यह बच्चे के लिए जीवन रक्षक है। पिता के लिए, यह भोग (उपभोगम्) है।हम अगर असहज महसूस करते हैं तो इसका अर्थ है कि हमने स्वयं को पिता के स्थान पर रख लिया| हमें संतान की भावना से इसका अनुसंधान करना चाहिए|
जब मां भगवान के साथ होती है तो भगवान आनंदित होते हैं और जगत की श्रृष्टि करते हैं| अपने संतानों के अपराधों को क्षमा करने हेतु माता पहले भगवान को अपने सौन्दर्य और मीठे वचनों से आकर्षित करती हैं और उन्हें अपने शरण में लेने की प्रार्थना करती हैं|

हम अगर असहज महसूस करते हैं तो इसका अर्थ है कि हमने स्वयं को पिता के स्थान पर रख लिया| हमें संतान की भावना से इसका अनुसंधान करना चाहिए|
जब मां भगवान के साथ होती है तो उसमें आनंद आता है। इस प्रकार, उनमें कुछ अच्छे गुण उभर आते हैं

उक्कमुम् : हस्त-पंखा

तट्टु ओळियुम् : दर्पण

तन्दु उन् मणाळनै : और आपके प्यारे कान्त (श्रीकांत कृष्ण)
  इप्पोदे : जल्द से जल्द

एम्मै : हमलोग

नीराट्टु : स्नान करेंगे (कृष्णानुभव में)

एलोर् एम्बावाय् : व्रत पूरा करेंगे

स्वापदेश

  1. युगल को जगाने का यह आखिरी पासूर है|

17 वें पासूर का आरम्भ “अ” अक्षर से होता है : अम्बरमे तन्निरे सोरे अरम सैयुम

18वें पासूर का आरम्भ “उ” अक्षर से होता है : उन्दमद कलित्तन ओडाद तोल वलियन

20 वाँ पासूर “म” अक्षर से आरम्भ होता है: मुपत्तु मूवर

एक साथ ये अक्षर ओम् बनते हैं|  19 वाँ पासूर लुप्त-चतुर्थी है जिसका विस्तृत विवरण लोकाचार्य स्वामी मुमुक्षुपड़ी रहस्य ग्रंथ में करते हैं|

2. गोपियों द्वारा मांगे गए वस्तुओं का आतंरिक अर्थ नारायण महामंत्र है (ॐ नमो नारायणाय)

1. दर्पण : (अ, ओम ) :- दर्पण स्व-स्वरुप का दर्शन कराता है| शरीर के अन्दर विद्यमान आत्मा सिर्फ भगवान की संपत्ति है

2. हस्त-पंखा : ( नमः) :- यद्यपि हम ज्ञान-स्वरुप हैं और हमारे पास ज्ञान है, अभिमानवश हमारे अन्दर स्वतंत्र बुद्धि आता है| हमारे अन्दर कर्तृत्व अभिमान आता है और हम सोचते हैं कि ये कार्य मेरे द्वारा किया जा रहा है| पसीना हमारे कर्तृत्व का प्रतीक है और नमः का प्रतीक हस्त-पंखा है|

3. कन्हैया : नारायण

4. नोम्बू : आय :- कैंकर्य

विशेष अर्थ: आचार्य

मुप्पत्तु मूवर् : तीन प्रकार की इच्छा वाले : ऐश्वर्यार्थी, कैवल्यार्थी, कैंकर्यार्थी

अमरर्क्कु : जीवात्मा

मुन् सेन्ऱु : जो कृपा मात्र से प्रसन्न होकर, स्वयं आकर, हमारे स्वरुप की रक्षा करते हैं

ऐसे अनेक वैभव रामानुज स्वामीजी के हैं जो पासूर में अनुसंधान किये जा सकते हैं|


  कप्पम् तविर्क्कुम्: शिष्यों के भय को दूर करते हैं|

कलिये : हे शिष्यों

तुयिल् एळाय् : नींद से जागो, गोष्ठी में आओ

सेप्पन्न मेन् मुलै : कोमल स्तन भक्ति और प्रेम का प्रतीक हैं

सेव्वाय्च् : गुलाबी होंठ ज्ञान के प्रतीक हैं

चिऱु मरुन्गुल् : पतली कमर वैराग्य के प्रतीक हैं

इन सभी गुणों से युक्त आचार्य के कालक्षेप सुनने हेतु मण्डप में आओ|

दिव्य स्नान का अर्थ आचार्याभिमान है

तिरुपावै 16 वाँ पासूर

१ – ५ व्रत के बारे में चर्चा
५ – १५ महाजनों का संग । यह महाजन कैसे होंगे, इन के निकट किस तरह जाया जाए, इनसे हमें क्या कृपा प्राप्त होगी, यह सब क्रमशः दस पाशुरों में समझाया गया ।
१६ – २२ पाशुरों में गोपियों द्वारा श्री कृष्ण के अंतरंग पार्षदों को, जैसे कि उनके मुख्य द्वार के द्वारपाल, फिर उससे अंदर वाले द्वार के द्वारपाल, फिर नंद गोप, यशोदा, बलदेव, और नप्पिन्नइ और अंततः कृष्ण स्वयं, इन सब को जगाने का वर्णन है ।
श्री भगवान के प्रति शरणागति का मतलब यह नहीं है कि सभी जिम्मेदारियों को छोड़ दिया जाए । शरणागति हमें हमारी जिम्मेदारियों को निभाने के लिए सक्षम बनाती है । अक्सर लोग सोचते हैं, यदि मैं श्री भगवान से प्रार्थना करूं, तो मेरी परीक्षा पास हो जाएगी या मुझे वीजा मिल जाएगा, इत्यादि । भगवान हमारी तरफ से परीक्षा नहीं देंगे ना ही हमारे बदले वीजा ऑफिस जाएंगे । भक्त और भागवत जनों के संग से हम सशक्त होते हैं । उनके बगैर हम शायद भक्ति शरणागति को छोड़ दें और निराश हो जाएं । जब हम निराश होते हैं तब यह सोचते हैं, “जब हमने इतना कुछ किया तब भी श्री प्रभु ने हमारी सहायता क्यों नहीं की? मैं ही क्यों?” फिर वे लोग आध्यात्मिक जीवन से दूर हो जाते हैं । इससे वह विकल्पों को ढूंढने के लिए प्रेरित होते हैं । यह मौका देखकर लोग आते हैं और हमें नए उपास्य मिल जाते हैं (सांसारिक विषय आदि) । हमारी कमजोरी देखकर लोग हमारा फायदा उठा सकते हैं ।
शरणागति तभी संभव है जब हमारे पास सही श्री गुरु हों । क्योंकि वह शास्त्र को जानते हैं, उनका आचरण करते हैं, और उनसे हमें शिक्षा देते हैं । “आचिनोती… आचारे स्थापयति… स्वयं आचरेत् “
श्री गुरु के निकट जाने से पहले भागवत जनों का समुदाय हमें श्री गुरु के निकट जाने की सही विधि और भाव सिखाते हैं ।

१६वा पाशुरम

नायगनाय् निन्ऱ नन्दगोपनुडैय
कोयिल् काप्पाने कोडित्तोन्ऱुम् तोरण
वायिल् काप्पाने मणिक्कदवम् ताळ् तिऱवाय्
आयर् सिऱुमियरोमुक्कु अऱै पऱै
मायन् मणिवण्णन् नेन्नले वाय् नेर्न्दान्
तूयोमाय् वन्दोम् तुयिल् एळप् पाडुवान्
वायाल् मुन्नमुन्नम् माऱ्ऱादे अम्मा नी
नेय निलैक्कदवम् नीक्कु एलोर् एम्बावाय्

शब्दार्थ
नायगनाय् निन्ऱ – हमारे प्रभु या मालिक
नन्दगोपनुडैय – नंद गोप के
कोयिल् – निवास स्थान
काप्पाने – द्वारपाल
कोडित्तोन्ऱुम् – ऊंचे ध्वजाओं (से युक्त)
तोरण वायिल् – मुख्य द्वार के
काप्पाने – द्वारपाल
मणि – रत्न जड़ित
कदवम् – द्वार
ताळ् तिऱवाय् – ताला खोलिए
आयर् सिऱुमियरोमुक्कु – हम नन्हीं गोप कन्याएं
मायन् – आश्चर्यमय कर्मों वाले
मणिवण्णन् – नीलमणि सामान वर्ण वाले
नेन्नले – बीते कल ही
अऱै पऱै … वाय् नेर्न्दान् – आवाज करने वाले ढोल (परइ) को देने का वादा किया था
पाडुवान् – गाने के लिए
तूयोमाय् वन्दोम् – हम शुद्ध अवस्था में आए हैं
अम्मा – हे स्वामी!
मुन्नमुन्नम् – सबसे पहले
माऱ्ऱादे – नकारे ना
नेय निलैक्कदवम् – (कृष्ण से) महान प्रेम करने वाले यह द्वार
नी – आप स्वयं
नीक्कु – कृपया खोलें

अर्थ
इस पद में सभी गोपियों सहित गोदा श्री कृष्ण के निवास स्थान पर पहुंचकर द्वारपालों से द्वार खोलने की विनती करती हैं । गए दस पदों में श्री गोदा दस आळ्वारों को जगा चुकी हैं, अब इस पद में वह भगवद् रामानुज को जगा रही हैं । श्री रामानुज स्वामी जी महाराज उभय विभूति नायक हैं । उनकी अनुमति के बगैर कोई भी परम पद नहीं प्राप्त कर सकता ।

नायगनाय् निन्ऱ नन्दगोपनुडैय कोयिल् काप्पाने:

श्री नंद गोप के निवास स्थान के द्वारपाल! आप हमारे स्वामी जन हैं ।

श्री गोदा देवी द्वारपालों को स्वामी या नायक कहकर बुलाती हैं क्योंकि वह श्री कृष्ण तक पहुंचने का रास्ता देते हैं । यहां द्वारपाल आचार्य की स्थिति में है : केवल आचार्य के पुरष्कार से हमें श्री प्रभु के दिव्य चरणों की प्राप्ति हो सकती है, अतः उनको स्वामी कह कर संबोधित करना गलत नहीं है ।
यदि कोई हमें एक बेशकीमती रत्न उपहार में दें, हम हमेशा देने वाले व्यक्ति के प्रति ज्यादा प्रेम और सम्मान व्यक्त करते हैं और वह रत्न नजरअंदाज कर देते हैं । ठीक उसी तरह यहां श्री प्रभु अमूल्यों में अमूल्य रत्न हैं, लेकिन वह हमें श्री आचार्य द्वारा प्रदान किए जाते हैं और इसी कारण से श्री आचार्य हमारे समस्त सम्मान और आभार के पात्र हैं अतः हमारे स्वामी हैं । श्री भट्ट ने अपने शिष्य नंजीयर को कहा था, “उन्हें अपना रक्षक मानो जो श्री रामानुज स्वामी जी महाराज को अपना रक्षक मानते हैं ।” (एवं) “इस भावना से रहो कि कृष्ण आप के रक्षक हैं; क्योंकि आपको यह मैंने सिखाया है, अतः आप इस भाव से रहो कि मैं (आपका आचार्य) आपका रक्षक हूं ।”

कोडित्तोन्ऱुम् तोरण वायिल् काप्पाने :
चढ़ी हुई ध्वजाओं से सज्जित मुख्य द्वार के द्वारपाल
ध्वजा से ही श्री नंद गोप के निवास स्थान को दूसरों के निवास स्थानों से अलग बताया जा सकता है । श्री वैष्णव देवालयों में गरुड़ ध्वज स्तंभ और मुख्य अर्चा अवतार प्रभु के निकट गरुड़ सन्निधि होती है । इससे ही एक वैष्णव मंदिर को और मंदिरों से अलग समझा जा सकता है जो काफी मात्रा में अब पाए जाते हैं । श्री गरुड़ वेदों का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
द्वारपाल का काम तो बुरे जनों को रोकना है लेकिन वह तो गोपियों को रोक रहे हैं जो कण्णा से प्यार करती हैं और जिन से कण्णा प्यार करते हैं ।

मणिक्कदवम् :
कण्णा का घर काफी मात्रा में रत्नों से जड़ित है । यद्यपि हमें चाबी भी मिल जाए तो भी हम स्वयं द्वार नहीं खोल सकते । आचार्य इसे कृपा के द्वारा खोलते हैं ।

ताळ् तिऱवाय् :
ताला खोलिए
द्वारपाल अत्यंत सावधान है और कृष्ण बेहतरीन सुरक्षा में है क्योंकि असुर लोग पक्षी, जानवर, शकट यहां तक कि गोपी रूप धारण करके भी आ चुके हैं । पूतना गोपी के भेष में आई और श्री कृष्ण को मारने का प्रयास किया । लेकिन शुक्र है कि श्री कृष्ण ने खुद को बचाकर हम को ही बचा लिया । इतने सारे असुर हो गए कि मानो एक असुर सहस्त्रनाम ही तैयार हो जाए ।

आयर् सिऱुमियरोमुक्कु :
हम नन्हीं गोप कन्याएं
द्वारपाल कहते हैं कि हम आपका विश्वास नहीं करते केवल इसलिए क्योंकि आप नन्हीं हैं क्योंकि वत्सासुर भी नन्हे से बछड़े का रूप लेकर आया ताकि श्रीकृष्ण को चोट पहुंचा सके, अतः आप अपने आने का कारण बताएं ।

अऱै पऱै … वाय् नेर्न्दान् :
हमें परइ ढोल, जो आवाज (कैंकर्य) करता है, देने का वादा किया था

नेन्नले वाय् नेर्न्दान् :
बीते कल इसी समय हमें देने का वादा किया था ।

मायन् :
आश्चर्यमय कर्मों वाले
वे चाहे परम स्वामी हों, लेकिन वे अपने भक्तों द्वारा शासित हैं । हमारे संदर्भ में वह हमारे लिए आसानी से गम्य बनते हैं और हमारे छोटे-मोटे काम करना उन्हें बहुत प्रिय है; तो जब आपके स्वामी हमारे इतने आज्ञाकारी हैं, तो क्या आपको भी हमारी विनती के अनुसार ही नहीं करना चाहिए?

मणिवण्णन् :
नीलमणि के समान वर्ण वाले कृष्ण
नेन्नले :
बीते कल ही
आपको उन्हें इसके बारे में बताने की जरूरत ही नहीं है, उन्होंने हमसे बीते कल ही वादा किया था, कि हम उनके पास इस समय आ सकते हैं ।

आंतरिक अर्थ
स्वयं श्री प्रभु ने ही रामायण और गीता में यह वादा किया है कि वे स्वयं ही उपाय हैं । उन्होंने हमें आश्वासन दिलाया है कि इच्छा मात्र ही पात्रता है । अब हमें अपने वचन देकर क्या वह सो रहे हैं?

तूयोमाय् वन्दोम् :
हम शुद्ध अवस्था में आए हैं
यहां शुद्धता से अभिप्राय श्री प्रभु को उपाय और उपेय दोनों रूपों में मानना ही है, यानी कि कार्य और प्रयोजन दोनों । यदि हम सोचे कि हम हमारी शरणागति के द्वारा परम पुरुष को प्राप्त कर सकते हैं तो यह मिथ्या अभिमान ही है । और श्री भगवान को उनकी अकारण कृपा के लिए आज्ञा देना या उन पर जोर डालना अज्ञानता है
श्री गोदा देवी कहती हैं कि हम शुद्ध हैं, हमें हमारे लिए इस व्रत का कोई फल नहीं चाहिए । क्योंकि कृष्ण ने हमसे यहां आने के लिए कहा, अतः हम उन का आनंद लेने के लिए आए हैं ।
हम कार्य और प्रयोजन दोनों की शुद्धता में ही आए हैं । कार्य की शुद्धता यही है कि हम श्री प्रभु तक निज बल से नहीं वरन उनकी कृपा से ही पहुंचने का प्रयास करें । प्रयोजन की शुद्धता यही है कि श्री प्रभु के अलावा और किसी की भी कामना ना करें, और श्री प्रभु के दिव्य अनुभव को आत्मानंद ना समझें ।
तुयिल् एळप् पाडुवान् :
हम यहां उनके लिए गाने आए हैं (उनको जगाने के लिए) । श्री सीता मैया ने इस बात का आनंद लिया कि किस प्रकार श्री प्रभु सो रहे थे (जब काकासुर ने मैया को तकलीफ देने की कोशिश करें, इससे पहले कि उन्होंने श्री भगवान को उठाया) । यहां यह गोपियां श्री प्रभु के जागकर धीरे धीरे उठने की झांकी को देखने का आनंद उठाना चाहती हैं ।

वायाल् मुन्नमुन्नम् माऱ्ऱादे :
यद्यपि आपके भाव बहुत मधुर हों तथापि हम पर कटु वचनों की वर्षा न करें ।
अम्मा :
उनको अच्छा महसूस कराने के लिए; क्या वह जो अंदर हैं वह दयालु हैं, या हमारे सामने आप हैं जो दयालु हैं? आखिरकार द्वारपाल ने कहा, “ताला खोल दो, और दरवाजा खोलो!”

नी नेय निलैक्कदवम् नीक्कु :
आपने हमसे इतने सारे सवाल किए क्योंकि आपका विशेष ध्यान श्रीकृष्ण की सुरक्षा में है । इस द्वार में कृष्ण की सुरक्षा के लिए शायद आपसे भी ज्यादा ध्यान है (इसीलिए यह खुल नहीं रहा है और इतना भारी हो गया है) अतः कृपया इसे खोलने में हमारी मदद करें ।

स्वापदेश
इस तिरुप्पावइ के सोलहवें पाशुर में द्वारपाल जन अब आचार्य के पद पर हैं, और उनकी अनुमति व पुरष्कार की बहुत जरूरत है, उनसे ही गोपियां परम अमूल्य रत्न श्री कृष्ण को प्राप्त कर सकेंगी । गुरु शब्द का अर्थ होता है “अंधकार का या अज्ञान का निरोध करने वाले” और आचार्य शब्द का अर्थ होता है वह जो शास्त्र वचनों को समझते हैं, और उनका पालन करते हैं, और उन्हें दूसरों को अपने उदाहरण से समझाते हैं । द्वारों का खुलना हमारे ह्रदय के खुलने का प्रतीक है और हमारे मन के भगवान को प्राप्त करने का भी । यह ताला श्री प्रभु से स्वातंत्र्य की भावना है ।
श्री आचार्य मध्यस्थ हैं, श्री प्रभु के इस पृथ्वी पर प्रकट स्वरूप है, श्रद्धा में अडिग और ज्ञान से भरपूर हैं । वह हमारी वासनाएं, हमारी अपूर्णताएं, हमारी कमजोरियां, इन सब को हमसे व्यक्तिगत संबंध द्वारा जान जाते हैं । श्री आचार्य हमारे गुणों अवगुणों की परवाह नहीं करते । यदि हम उनके प्रति पूर्ण शरणागत हो जाएं, तो वे अपने बेशकीमती और अनर्गल प्रयासों से हमारे लिए मुक्ति अर्जित करेंगे, जिसमें यदि हम स्वयं अपने प्रयास से कर पाते, उसके मुकाबले उन्हें बेहद आसानी और निश्चितता होगी, और काफी कम जोखिम होगा ।

अनुवादक : Yash Bhardwaj ji

तिरुपावै 14 वाँ पासूर

गोदा नौंवीं सखी को जगाती हैं । यह गोपी अत्यंत चतुर है । इसने सभी सखियों से वादा किया था कि वह सबसे पहले उठकर सबको जगा देगी परन्तु आज वह स्वयं सो रही है और सभी सखियाँ उसके दरवाजे पर खड़े हैं, उसे जगाने हेतु ।

उन्गळ् पुळैक्कडैत् तोट्टत्तु वावियुळ्

  सेन्गळुनीर् वाय् नेगिळ्न्दु आम्बल् वाय् कूम्बिन काण्

सेन्गल् पोडिक्कूऱै वेण् पल् तवत्तवर्

  तन्गळ् तिरुक्कोयिल् सन्गिडुवान् पोदन्दार्

एन्गळै मुन्नम् एळुप्पुवान् वाय् पेसुम्

  नन्गाय् एळुन्दिराय् नाणादाय् नावुडैयाय्

सन्गोडु चक्करम् एन्दुम् तडक्कैयन्

  पन्गयक् कण्णानैप् पाडु एलोर् एम्बावाय्

ओह ! वह जो सभी प्रकार से पूर्ण है, वह जिसने प्रातः सभी को निद्रा से जगाने की जिम्मेदारी ली है, वह जो निसंकोच है, वह जो सुन्दर बातें बतियाती है।

अपने घर के पिछवाड़े के तालाब में प्रातः की सुचना देते नीलकमल मुरझा गये है, लाल कमल दल खिल रहे है, सन्यासी काषाय वस्त्र धारण किये, जिनके मुख की धवल दन्त पंक्ति दृष्टिगोचर हो रही है, मंदिर की तरफ प्रस्थान कर रहे है, मंदिर के किवाड़ खुलने के प्रतिक में शंखनाद कर रहे है।

उठो ! कमलनयन सा नेत्रों में मंद लालिमा लिये, अपने दोनों दिव्य हस्तों में दिव्य शंख  चक्र धारण किये भगवान् के गुणानुवाद करो ।

अर्थ

उन्गळ् पुळैक्कडैत् तोट्टत्तु वावियुळ् :उस तालाब में जो आपके घर के पीछे है

सेन्गळुनीर् वाय् नेगिळ्न्दु : लाल कमल के फूल खिल गए हैं

आम्बल् वाय् कूम्बिन काण् : नीलकमल के फूल बंद हो गए हैं; देखो!

प्रभात लक्षण : रक्त-पद्मानि विकसितानि कुमुद-मुखानी च संकुचितानि

1. साहित्य में स्त्री के नयनों नीले रंग से और पुरुष के नयनों को लाल रंग से तुलना किया गया है । नीले कमल के अस्त होने और लाल कमल के उदय होने से गोपियों का अर्थ कन्हैया ने पीछे से चुपके से आकर गोपी के नीले आँखों को बंद कर दिया और इस खुशी से भगवान के लाल नेत्र खुल कर बड़े हो गए ।

2. हमारा ह्रदय भी एक तालाब है जहाँ जीवात्मा और परमात्मा निवास करते हैं । उपनिषदों में इसे डहर आकाश कहते हैं । यह उल्टे कमल के फूल के आकार का है और इसमें 101 नाड़ियाँ हैं| मध्य नाड़ी को सुषुम्ना नाड़ी कहते हैं । जो जीवात्मा उस नाड़ी से जाता है वो वापस कर्म-बंधन में नहीं आता । वह अर्चिरादी मार्ग से भगवान के धाम चला जाता है ।

नीला कमल : हमारे पाप-पूण्य रूपी कर्म

रक्त-कमल : भगवत अहैतुकी कृपा, जीवात्मा में ज्ञान का उदय  

भगवान शरणागतों के सभी कर्म नष्ट कर देते हैं और अंत समय में उसका गाढ़ आलिंगन कर उसे सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कराते हैं जहाँ से अर्चिरादी मार्ग को अग्रसर होता है । अन्य 100 नाड़ी से जाने वाला मार्ग ‘धूमादी मार्ग’ कहलाता है ।

सेन्गल् पोडिक्कूऱै : जो काषाय वस्त्र पहनते हैं

वेण् पल् : जिनके दांत सफेद हैं

तवत्तवर् : तप करने वाले सन्यासी

तन्गळ् तिरुक्कोयिल् : मंदिर में  

सन्गिडुवान् : शंखनाद हेतु

पोदन्दार् : जा रहे हैं

सुबह होने का प्रमाण यह भी है कि सन्यासी अपने सन्ध्यावन्दन को पूर्ण कर भगवत-अराधना हेतु मंदिर जा रहे हैं ।   

अनंताचार्य स्वामी इस पासूर का अर्थ करते हैं, “ जीयर स्वामी भगवान के कैंकर्य हेतु तिरुवेंकट पहाड़ पर पधार रहे हैं”

प्राचीन काल में मंदिर किसी मठ से सम्बंधित होते थे और उनकी जिम्मेदारी जीयर सन्यासी के हाथों होती थी । आजकल तो हर चौक-चौराहे और रेलवे स्टेशन पर मंदिर हैं । धर्म की ऐसी अवनती हो चुकी है ।

एन्गळै मुन्नम् एळुप्पुवान् : सुबह सबको जगाओगी

वाय् पेसुम् : ऐसा वादा किया था

नन्गाय् : ओ हमारी स्वामिनी

तुम हमारी स्वामिनी कैसे हो सकती हो जब तुम्हारे वाणी और आचरण में तारतम्य नहीं है ।

एळुन्दिराय् : निद्रा त्यागो

नाणादाय् : अहंकार-रहित

तुम बेशर्म हो । पहले तो तुमने सबको जगाने का वादा किया, अब हमारे आने के बाद भी सोयी हो ।

नावुडैयाय् : वाचाल / वाक् शिखामणि

तुम बहस करने में निपुण हो । वाक्-युद्ध छोड़ो और बाहर आओ

सन्गोडु चक्करम् : शंख और चक्र

एन्दुम् : धारण करने वाले

तडक्कैयन् : अपने लम्बे हाथों में

पन्गयक् कण्णानैप् : कमलनयन प्यारे कन्हैया

पाडु : उनके गुण गायेंगे

एलोर् एम्बावाय् : व्रत हेतु बाहर आओ

श्री प्रतिवादी भयंकर स्वामी इस गोपी के तीन संबोंधनों की विस्तृत व्याख्या करते हैं । उत्तम पुरुष को नम्पी और उत्तम स्त्री को नन्गाई कहते हैं । नन्गाई कहने से तात्पर्य है कि गोपी को सभी विभागों का पूर्ण ज्ञान है (सकल पांडित्य) और अनुष्ठान-संपत है ।

नान का अर्थ है मैं| इस प्रकार यह अहंकार का प्रतीक है । ‘नानादाई’ कहने का अर्थ है अहंकार-रहित होना ।

नाक का अर्थ है (तमिल भाषा में) जीभ । जीभ वही सफल है जो भगवान का गुणगान करे । सा जिह्वा या हरिं स्तुति । नावुडैयाय् कहने का अर्थ है आचार्य जो अपनी वाणी से सारे जगत का मंगल करते हैं । हनुमान के वाक-कौशल की प्रशंसा सीता करती हैं ।

आगे श्री प्रतिवादी भयंकर स्वामी ‘प्रमाण-निर्धारण-रूप-शास्त्रार्थ’ की व्याख्या करते हैं । वेदांत में तीन प्रमाण मान्य हैं : प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द (शास्त्र) ।

प्रत्यक्ष प्रमाण: लाल कमल का खिलना और नील कमल का अस्त होना

अनुमान प्रमाण: कषाय वस्त्र वाले सन्यासी का शंखध्वनि हेतु मंदिर जाना

शब्द प्रमाण : सबको सुबह जगाओगी, ऐसा तुमने वादा किया था

तिरुपावै 13 वाँ पासूर

इस पासुर में एक ऐसी गोपी को जगाया जा रहा है जो अपने नैनों की सुंदरता के कारण विख्यात है। उपनिषद भाष्यकार उसे ‘पुष्प-सौकुमार्य-हरिनयन” गोपिका कहते हैं, जिन्हें अपने अतिसुन्दर आँखों पर सात्विक अभिमान है। ये सुन्दर आंखें भगवान को भी घायल कर देती हैं। भगवान से मिलन की यादों में ऐसी खोयी हैं कि सुबह उठ ही नहीं पायीं| सर्वगंध भगवान की खुशबु उनके महल में सर्वत्र थी। गोपी अपने मन में विचार करती है कि उसके नैनो से घायल भगवान स्वयं उसे खोजते उसके घर आएंगे।

वहीँ दूसरी ओर राम-पक्षपाती एवं कृष्ण-पक्षपाती गोष्ठियों में द्वंद्व हो जाता है| इसे नहीं-निंदा-न्याय ही समझना चाहिए। भगवान राम सौलभ्य-सौकुमार्य-माधुर्य-कारुण्य आदि गुणों की सीमा हैं। वह गुह को अपना ‘आत्मसखा’ कहकर गले लगाते हैं, सबरी के जूठे बैर खाते हैं और राक्षस विभीषण की शरणागति को स्वीकार करते हैं| वाल्मीकि उन्हें ‘अतीव-प्रियदर्शन’ ‘दृष्टिचित्तापहारिनम’ आदि विशेषणों से निवेदित करते हैं| दूसरी गोष्टी कहती है कि भगवान कृष्ण पूतना को भी माँ का दर्जा देते हैं, स्वयं अपने शरणागत के सारथी बनते हैं, उनके दूत बनकर जाते हैं, विदुर के घर साग खाते हैं|

समझदार और वृद्धा गोपियाँ बिच-बचाव करती हैं, “दोनों ही नारायण हैं”। राम को वाल्मीकि “भवान नारायणो देवः” कहते हैं तो कृष्ण को व्यास “नारायण: न हि त्वं!” ऐसा कहते हैं। सभी गोपियाँ मिलकर भगवान के दोनों ही स्वरूपों के लीलाओं का गान कर गोपिका को जगाती हैं। “जिन्होंने वकासुर का वध किया, दश सिरों वाले रावण का उद्धार किया।”

पुळ्ळिन् वाय् कीण्डानैप् पोल्ला अरक्कनै

  किळ्ळिक् कळैन्दानैक् कीर्त्तिमै पाडिप्पोय्

पिळ्ळैगळ् एल्लारुम् पावैक्कळम् पुक्कार्

  वेळ्ळि एळुन्दु वियाळम् उऱन्गिऱ्ऱु

पुळ्ळुम् सिलम्बिन काण् पोदरिक्कण्णिनाय्

  कुळ्ळक् कुळिरक् कुडैन्दु नीरडादे

पळ्ळिक् किडत्तियो? पावाय् नी नन्नाळाल्

  कळ्ळम् तविर्न्दु कलन्दु एलोर् एम्बावाय्

व्रत धारिणी सभी सखियाँ, व्रत के लिये निश्चित स्थान पर पहुँच गयी है।

सभी सखियाँ सारस के स्वरुप में आये बकासुर का वध करने वाले भगवान कृष्ण और सभी को कष्ट देने वाले रावण का नाश करने वाले भगवान् श्रीरामजी का गुणानुवाद कर रही है।

आकाश मंडल में शुक्र ग्रह उदित हुये है, और बृहस्पति अस्त हो गये है। पंछी सब विभिन्न दिशाओं में दाना चुगने निकल गये।

हे! बिल्ली और हरिणी जैसे आँखों वाली, प्राकृतिक स्त्रीत्व की धनी!  क्या आज के इस शुभ  दिवस पर भी, हमारे साथ शीतल जल में स्नान न कर, हमारे साथ भगवद गुणानुवाद न कर, अकेली  अपनी शैया पर भ्रम में भगवान् सुख भोगती रहोगी ?

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पुळ्ळिन् वाय् कीण्डानैप् : भगवान, जिन्होंने बकासुर का वध किया

यादवाभ्युदयम में श्री वेदान्ताचार्य स्वामी कहते हैं कि कन्हैया ने बकासुर के चोंच फाड़कर कर दो तरफ फेंक दिया और युवा गोपों ने उसके पंखों को नोंचकर तोरण बनाया ताकि फिर कभी यदि कोई भगवद अपचार को उद्यत हो तो उसे उसका परिणाम भी ज्ञात हो।

आतंरिक अर्थ

हम सब बगुले के समान कपटी हैं (बक-वृत्ति) । बगुला को बाहर से देखो तो साधू की तरह शान्त और ध्यानचित्त दिखता है लेकिन उसकी नजर अपने शिकार पर होती है। आचार्य इस बक-वृत्ति को श्री-सूक्ति का उपदेश कर नष्ट करते हैं, हमारे अन्दर सूक्ष्म नास्तिकता को दूर कर भगवद भक्त बनाते हैं।

बकासुर वो सभी लोग हैं जो बाह्य-रूप से वैष्णव दिखते हैं लेकिन उनसे मित्रता हमें आहिस्ता-अहिस्ता सद्मार्ग से दूर ले जाकर नास्तिक बना देती है ।

पोल्ला अरक्कनै : भगवान, जिन्होंने दुष्ट राक्षस (रावण) का वध किया

गोदा उस दुष्ट का नाम भी नहीं लेना चाहती जिन्होंने किशोरी जी को लाल जी से दूर किया । उसे दुष्ट राक्षस कहती हैं । विभीषण ‘साधू-राक्षस’ (नल्ला अरक्कन) है और रावण ‘दुष्ट-राक्षस’ ।

विभीषणः तु धर्मात्मा न तु राक्षस चेष्टितः | (रामायण)

आतंरिक अर्थ

रावण वो सभी लोग हैं जो दूसरों की सम्पत्ति चुराकर उसका भोग करना चाहते हैं, क्रोध, हवस और धन के मद में लोगों को त्रास देते हैं ।

हम भी भगवान की संपत्ति को भगवान से चुराकर उसे संसार में लगा रहे हैं । आत्मा भगवान की संपत्ति है और उसकी चोरी करने वाले हम सभी रावण ।

आचार्य हमारी इस रावण-वृत्ति को नष्ट कर भगवद-भागवत-कैंकर्य में लगाते हैं । रावण के दस मुख हमारी दस इन्द्रियाँ हैं ।

विभीषण सात्विक अभिमान हैं । आचार्य सात्विक अभिमान की रक्षा करते हैं और दुराभिमान को नष्ट करते हैं ।

अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥

  किळ्ळिक् कळैन्दानैक् : खेल-खेल में रावण का वध किया और विभीषण की रक्षा किया

प्रेमी जन अपने प्रेमास्पद की वीरता का गान कर गर्व अनुभव करते हैं

रावण प्रभु की वीरता का शिकार हुआ, सूर्पनखा प्रभु की सुन्दरता का और विभीषण प्रभु के दिव्य कल्याण गुणों का ।

 कीर्त्तिमै पाडिप्पोय् : उनकी कीर्ति का गान करेंगे

श्रीपरकाल आलवार के तिरुक्कोवलूर नामक दिव्य देश में जाते समय ‘समस्त प्रिय दिव्य देशों में (जाते समय) आपके दोनों चरणों का कीर्तन करके‘ इस उक्ति (स्वाभिमत दिव्यदेशे सर्वेष्वपि स्वचरणौ गीत्वा) के अनुसार और “पाथेयं पुण्डरीकाक्षनामसंकीर्तनामृतम्” के अनुसार भक्तों की शक्ति भगवान का नाम-संकीर्तन या द्वय-मन्त्रानुसन्धान ही होता है।

ब्राह्मो मुहूर्ते सम्प्राप्ते व्यक्तनीद्र: प्रसन्नधी: ।

प्रक्षाल्य पादावाचम्य हरिसंकीर्तनं चरेत् ।।

पिळ्ळैगळ् एल्लारुम् : छोटे उम्र की सभी लडकियाँ

पावैक्कळम् : व्रत के लिए पूर्व-निश्चित स्थान

पुक्कार् : पधार चुकी हैं

आतंरिक अर्थ

व्रत के लिए पूर्व-निश्चित स्थान का अर्थ है ‘कालक्षेप मण्डप’ जहां आचार्य श्री-सूक्तियों का उपदेश करते हैं और शिष्यगण अपने आचार्य का गुणानुवाद करते हैं ।

आगे गोदा प्रभात होने के लक्षण बताती हैं :

 वेळ्ळि : शुक्र ग्रह

एळुन्दु : उदय हो चूका है

 वियाळम् : वृहस्पति

उऱन्गिऱ्ऱु : अस्त हो चूका है

अन्दर सो रही गोपी प्रत्युत्तर देती हैं कि तुमलोग कन्हैया से मिलने को इतनी आतुर हो कि सभी तारें शुक्र और बृहस्पति प्रतीत हो रहे हैं । कोई और लक्षण हो तो बताओ ।

आतंरिक अर्थ

आचार्य के कालक्षेप से अज्ञान रूपी अन्धकार चला गया और ज्ञान रूपी प्रकाश का उदय हुआ ।

पुळ्ळुम् सिलम्बिन काण् : पक्षियाँ चहक रही हैं

पोदरिक्कण्णिनाय् : लाल कमल या हरिन के सामान आँखों वाली सखी

गोपी की आंखों की सुंदरता सम्मोहित करने वाली है। कन्हैया प्रथम प्रथम उसकी आंखों से ही सम्मोहित हुए थे। पुष्प सुकुमार  हरि नयन गोपी बिस्तर पर पड़े पड़े भगवान के दिव्य लीलाओं का गुना अनुवाद कर रही है वह पिछले रात सर्वगन्ध भगवान के साथ हुए मिलन के दिव्य गन्ध को अब तक अनुभव कर रही है

  कुळ्ळक् कुळिरक् कुडैन्दु नीरडादे : तुम शीत जल में स्नान किये बिना (कन्हैया के सानिध्य का आनंद ले रही हो)

 कृष्ण के विरह में हम सभी तप्त हैं, आओ इससे पहले कि सूर्योदय हो और जल भी तप्त हो जाए, हम ठण्ढे जल में स्नान करें।

आतंरिक अर्थ

काम और वासनाओं से तप्त जीवात्मा के लिए भागवतों का सहवास और आचार्य उपदेश ही शीतल जल में स्नान है । आचार्य और भागवतों का मंगलाशासन ही व्रत है।

पळ्ळिक् किडत्तियो? पावाय् नी नन्नाळाल्: तुम अब तक बिस्तर पर सो रही हो, यह कैसा आश्चर्य है

  कळ्ळम् तविर्न्दु कलन्दु : एकान्त में भगवद अनुभव का आनंद लेना छोड़ो

एलोर् एम्बावाय् : आओ हम अपना व्रत पूरा करें

तिरुपावै 12 वाँ पासूर

इस पाशुर में आण्डाल एक ऐसी सखी को जगा रही है, जिसका भाई कण्णन् (भगवान् कृष्ण) का ख़ास सखा है, जो वर्णाश्रम धर्म का पालन नहीं करता।

जब पूर्ण निष्ठा और श्रद्धा से भगवान का कैंकर्य करते है, तब वर्णाश्रम धर्म के पालन का महत्व नहीं रहता। पर जब हम कैंकर्य समाप्त कर लौकिक कार्य में लग जाते है, तब वर्णाश्रम धर्म का पालन महत्वपूर्ण हो जाता है।

पिछले पासूर में गोदा गोपी को उसके कुल को ध्यान रख संबोधन करती हैं (– ग्वालों के कुल में जन्मी सुनहरी लता, हेम लता!), इस पासूर में गोपी को उसके भाई के सम्बन्ध से पुकारती हैं (भगवत-कैंकर्य निष्ठ ग्वाले की बहन)| ग्वाला लक्ष्मण की तरह कन्हैया के कैंकर्य रूपी धन से युक्त है (लक्ष्मणो लक्ष्मी सम्पन्नः) । जिस दिवस गोदा गोपी के गृह उत्थापन हेतु पधारती हैं, उस दिवस उनका भाई कन्हैया के किसी विशेष कैंकर्य हेतु गया था। भगवत-भागवत-कैंकर्य विशेष धर्म है कि गायों को दुहना आदि वर्णाश्रम धर्म सामान्य धर्म हैं। प्रबल-निमित्त होने पर सामान्य धर्म को छोड़कर विशेष धर्म का पालन करना चाहिए| सामान्य परिस्थिति में उत्तम अधिकारी को भी नित्य-नैमित्यिक धर्म का परित्याग नहीं करना चाहिए। 

कनैत्तु इळन्गऱ्ऱु एरुमै कन्ऱुक्कु इरन्गि
  
निनैत्तु मुलै वळिये निन्ऱु पाल् सोर
ननैत्तु इल्लम् सेऱाक्कुम् नऱ्चेल्वन् तन्गाय्
  
पनित्तलै वीळ निन् वासल् कडै पऱ्ऱि
सिनत्तिनाल् तेन् इलन्गैक् कोमानैच् चेऱ्ऱ
  
मनत्तुक्कु इनियानैप् पाडवुम् नी वाय् तिऱवाय्
इनित्तान् एळुन्दिराय् ईदु एन्न पेर् उऱक्कम्
  
अनैत्तु इल्लत्तारुम् अऱिन्दु एलोर् एम्बावाय्

भैंसे जिनके छोटे छोटे बछड़े है, अपने बछड़ों के लिये, उनके बारे में सोंचते हुये अपने थनो में दूध अधिक मात्रा में छोड़ रही है, उनके थनो से बहते दूध से सारा घर आँगन में कीचड़ सा हो गया।

हे ! ऐसे घर में रहने वाली, भगवान् कृष्ण के कैंकर्य धन से धनि ग्वाल की बहन, हम तेरे घर के प्रवेश द्वार पर खड़ी है, ओस की बुँदे हमारे सर पर गिर रही है।

हम भगवान राम,  जिन्होंने  सुन्दर लंका के अधिपति रावण पर क्रोध कर उसे मार दिया, जिनका नाम आनन्ददायक है,उनका  गुण गा रहे हैं ।

हे! सखी ! कुछ बोल नहीं रही हो, कितनी लम्बी निद्रा है तुम्हारी, अब तो उठो,  तिरुवाय्प्पाडि  (गोकुल} के सभी वासी तुम्हारी निद्रा के बारे में जान गये है।

कनैत्तु : हताश और आशाहीन होकर जोर से आवाज कर रहे हैं;

चूँकि गोप कन्हैया की सेवा में गया है, गायों को दूहने वाला कोई नहीं है। गायों के थान कठोर हो रहें हैं और वो दूहे जाने हेतु जोर जोर से आवाज कर रही हैं।

आतंरिक अर्थ:

भक्तों के संसार में डूबकर दुख पाते देह भगवान व्यथित होते हैं, और गजेन्द्र की पुकार पर दौड़ पड़ते हैं| इस शब्द का अर्थ रामानुज स्वामीजी जैसे कृपा-मात्र-प्रसन्नाचार्य भी है जिन्होंने संसारियों के हित में गोपुरम पर चढ़कर सबको अष्टाक्षर का उपदेश किया।

इळन्गऱ्ऱु एरुमै : युवा बछड़ों के साथ भैंस;

कन्ऱुक्कु इरन्गि : बछड़ों के लिए दया महसूस करना;

गायें अपने बच्चों के लिए चिंतित हैं जो उनका दुग्धपान करने में असमर्थ हैं

आतंरिक अर्थ:

भगवान अनंत जन्मों से हमें प्राप्त करने के लिए स्वयं प्रयत्न कर रहे हैं किन्तु हम उनकी कृपा का अनुभव नहीं कर पा रहे हैं ।

निनैत्तु मुलै वळिये निन्ऱु पाल् सोर : (विचार में डूबे रहने के कारण) गाय के थन से दूध लगातार बहने लगता है;
ननैत्तु इल्लम् : पूरे स्थान को गीला करते हुए

सेऱाक्कुम् : धूल से मिलने के कारण कीचड़युक्त हो जाता है

जैसे श्री रामचंद्र हनुमान को लगे चोट को सहन नहीं कर पाते, कृष्ण द्रौपदी के दुखों को सहन नहीं कर पाते, वैकुंठनाथ भी सुक्ष्मावस्था में अचितवत पड़े जीवात्मा के दुखों को सहन नहीं कर पाते और उनके कल्याण हेतु श्रृष्टि करते हैं; जीवात्मा को पुर्वकर्मानुसार शरीर और ज्ञान प्रदान करते हैं ।

यहाँ गाय के चार थान का अर्थ श्री भाष्य, गीता भाष्य, भगवद विषय और रहस्य ग्रंथ हैं । आचार्य ही कृपा मात्र से प्रसन्न होने वाले गायें हैं और शिष्य बछड़े ।

नऱ्चेल्वन् : जिसे कृष्ण की सेवा का सबसे बड़ा धन प्राप्त है;

कैंकर्य ही जीवात्मा की सबसे बड़ी संपत्ति है । लक्ष्मणो लक्ष्मी सम्पन्नः, लक्ष्मणो लक्ष्मी वर्धनः (रामायण) ।

तै. उ. २.१

ॐ ब्रह्मविदाप्नोति परम्‌। तदेषाऽभ्युक्ता।सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्‌।सोऽश्नुते सर्वान्‌ कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितेति॥

तन्गाय् : ओह! उसकी बहन;

ऐसे परम-वैष्णव का देह-सम्बन्धी होना परम सौभाग्य है ।

शास्त्रों में अहंकार की निंदा की गयी है लेकिन – आचार्याभिमान मोक्षाधिकार होता है|

  पनित्तलै : सिर पर गिर रहे ओस की बूंदों के बीच;

वीळ निन् वासल् कडै पऱ्ऱि : हम आपके आंगन में खड़े हैं;


सिनत्तिनाल् : क्रोध के कारण मारा गया (सीता देवी के अपहरण के लिए);

तेन् इलन्गैक् कोमानैच् चेऱ्ऱ : लंका का धनी राजा रावण

रावण के दिए घावों से भगवान विचलित नहीं हुए लेकिन जब रावण ने भगवान के तिरुवडी अर्थात हनुमान जी पर प्रहार किया तो भगवान क्रोधित हुए और रावण पर बाणों की वर्षा कर कर दिया

भगवान भागवतों पर किये गए अपचारों को क्षमा नहीं करते ।

आतंरिक अर्थ:

आचार्य हमारे स्वातन्त्रियम को नष्ट कर शरणागत बनाते हैं ।


  मनत्तुक्कु इनियानैप् : श्री राम जो हमारे मन को प्रसन्न करते हैं;

हमारे मन को प्रसन्न करने वाले: इस शब्द का अर्थ केवल श्री रामचंद्र ही हो सकता हैराम का अर्थ ही है : रमयति इति रामः ।

पाडवुम् : (हम) गाने के बाद भी;

नी वाय् तिऱवाय् : तुम अपने मुखारविन्द नहीं खोलती, अवाक हो!

सखी , “तुम अन्दर क्यों नहीं आती, बाहर ओस में क्यों खड़ी हो?

गोदा, “सारा द्वार तो दूध बहने से कीचड़युक्त हो गया है, हम कैसे आयें?”

सखी , “तुम उस छलिये कन्हैया का नाम मत लो”

गोदा, “हम प्रभु श्री रामचन्द्र जी के गुण गा रही हैं जो सबके मन में रमण करने वाले हैं, शत्रुओं पर भी दया करने वाले हैं”


इनित्तान् : कम से कम अब

एळुन्दिराय् : उठ जाओ

ईदु एन्न पेर् उऱक्कम् : ऐसा भी क्या अच्छी निद्रा है
  
अनैत्तु इल्लत्तारुम् : आस पड़ोस के सभी लोग

अऱिन्दु : जान गए कि तुम सो रही हो

एलोर् एम्बावाय् : चलो अपना व्रत पूरा करें

ऐसे ज्ञानी भाई की बहन इतनी अज्ञानी कैसे हो सकती है । सात्विक जन ब्रह्म-मुहूर्त में उठते हैं, भगवान भक्तों की पुकार सुन उठते हैं और तुम चरमोपाय निष्ट भागवत गोष्टी को देख उठती हो|

अगर तुम भगवद-विषय में लीन हो तो ऐसे विषय का अकेले आनंद नहीं उठाना चाहिए|

तिरुपावै 11 वाँ पासूर

इस पाशुर में वर्णाश्रम धर्म का पालन बतलाया है।

कऱ्ऱुक् कऱवैक् कणन्गळ् पल कऱन्दु
  सेऱ्ऱार् तिऱल् अलियच् चेन्ऱु सेरुच् चेय्युम्
कुऱ्ऱम् ओन्ऱु इल्लाद कोवलर् तम् पोऱ्कोडिये
  पुऱ्ऱरवु अल्गुल् पुनमयिले पोदराय्
सुऱ्ऱत्तुत् तोळिमार् एल्लारुम् वन्दु निन्
  मुऱ्ऱम् पुगुन्दु मुगिल् वण्णन् पेर् पाड
सिऱ्ऱादे पेसादे सेल्वप् पेण्डाट्टि नी
  एऱ्ऱुक्कु उऱन्गुम् पोरुळ् एलोर् एम्बावाय्

हे! स्वर्णलता सी सखी, तुम जनम लेने वाली कुल के  ग्वालें   गायें दुहते हैं , शत्रुओं के गढ़ में जाकर उनका नाश करते हैं| तुम जिसकी कमर बिल में रह रहे सर्प के फन की तरह है और  अपने निवास में मोर की तरह है,अब तो बाहर  आओ|

हम सब तुम्हारी सखियाँ, जो तुम्हारी  रिश्तेदारों की तरह है , सभी तुम्हारे आँगन में खड़े, मन मोहन मेघश्याम वर्ण वाले भगवान् कृष्ण के दिव्य नामों का गुणगान कर  रहें हैं । तुम क्यों अब तक  बिना  हिले डुले, बिना कुछ बोले निद्रा ले रही हो?

हिन्दी छन्द अनुवाद

पिछले पासुर में गोदा एक आदर्श शरणागत को दर्शाती हैं| अब प्रश्न ये उठता है कि क्या भगवान को ही सिद्ध साधन मानने वाले, भगवान पर परम पुरुषार्थ का भार छोड़ निश्चिंत रहने वाले अपने कर्मों का भी त्याग कर देते हैं? इस पासुर में गोदा दर्शाती हैं कि परमैकान्ति भी अपने कर्मों का त्याग नहीं करते| भगवान अपने दासों को शास्त्र-विहित कर्मों में प्रेरित करते हैं|

कऱ्ऱुक् कऱवैक्– दुधारू गायें;

गोकुल का धन क्या है? गायें| गायें चिर-यौवन को प्राप्त, बड़े-बड़े थान वालीं होती थीं| हो भी क्यों न| आखिर उन गौवंशों को स्वयं कृष्ण का स्पर्श प्राप्त था| ६०००० साल के राजा दशरथ जब राम के दर्शन करते हैं तो स्वयं तो नवयुवक की भाँती पाते हैं| गायों की तो बात ही क्या कहें जिन्हें गोविंद पुचकारते हैं, अपने दिव्य हस्तों से स्पर्श करते हैं| गोकुल की गायें का भोजन भगवान की बाँसुरी के सुर हैं| ऐसे गायों के दूध के बारे में क्या चर्चा की जा सकती है?  

कणन्गळ् पल– असंख्य की संख्या में;

गोकुल में असंख्य गायों के झुण्ड हैं और हर झुण्ड में असंख्य गायें हैं|

आतंरिक अर्थ

नार का अर्थ है नरों के समूह| नर का अर्थ है जिसका कभी नाश न हो अर्थात जीवात्मा| जीवात्मा अनन्त हैं और उनके अन्दर अन्तर्यामी रूप में और बाहर बहिर्व्याप्ति में निवास करने वाले हैं नारायण| 

अणोरणीयान् महतो महीयान् आत्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम् (कठोपनिषद)

अणोरणीयान् महतो महीयान्
आत्मा गुहायां निहितोऽस्य जन्तोः ।
तमक्रतुं पश्यति वीतशोको
धातुः प्रसादान्महिमानमात्मनः ॥ – श्वेताश्वतरोपनिषत् ३-२०

कऱन्दु– दूहना;

गोकुल के गोप और गोपियाँ वर्णाश्रम धर्म में निपुण हैं| गायों को दुहना को दुष्कर कार्य नहीं| उनके थान दूध से लबालब होती हैं| एक गाय, थान छूते हीं, अनेक बाल्टियाँ भर सकती हैं| दूध बाल्टियों से भरकर नीचे गिरते हैं और सर्वत्र दूध की सुगन्ध फैल जाती है|

आतंरिक अर्थ

अनंत गायों के दूहने का अर्थ है अनन्त भगवान नारायण के अनन्त नाम, रूप, लीला आदि का स्मरण और चिंतन करना|

दूसरा आतंरिक अर्थ है आचार्य का अनन्त शिष्यों को ज्ञानोपदेश करना| जिस प्रकार आकाश के तारे अनन्त हैं, उसी प्रकार भगवद रामानुज स्वामीजी के सद्शिष्यों की गिनती भी अनंत है| शिष्यों के पाप भी अनन्त हैं लेकिन बलिष्ट गोपों की भाँती रामानुज सम्बन्ध भी पापों का उन्मूलन कर मोक्ष प्रदान करता है|

सेऱ्ऱार्  शत्रु;

तिऱल् अलियच्– बल को नष्ट कर देना;

चेन्ऱु सेरुच्– जो शत्रुओं के इलाके में जाते हैं;

चेय्युम्: जो युद्ध में विजयी होते हैं;

गोप अत्यंत बलवान हैं| गोपों के शत्रु कौन हैं? भगवान के शत्रु ही गोपों के शत्रु हैं| कंस ने अनेक दैत्यों को भेजा लेकिन स्वयं कभी गोकुल नहीं आया| इसका कारण शक्तिशाली गोपों का भय था|

आतंरिक अर्थ:

हमारे शत्रु : उपायांतर (कर्म, ज्ञान, भक्ति योग), उपेयांतर  (भगवान से तुच्छ वस्तुओं की माँग करना), अहंकार (स्वतंत्र बुद्धि, मोक्षोपाय हेतु प्रयत्न करना)

कुऱ्ऱम् ओन्ऱु इल्लाद बिल्कुल दोषरहित;

कोवलर् तम् पोऱ्कोडिये – ग्वालों के कुल में जन्मी सुनहरी लता, हेम लता!

 पुऱ्ऱरवु अल्गुल्  : तुम्हारे कटि सर्प के समान हैं

पुनमयिले – अपने घरेलू मैदान में मोर की तरह;

पोदराय्– कृपया बाहर आओ!

यहाँ सुनहरी लता कहकर समुध्य शोभा का वर्णन है और सर्प के समान कटि प्रदेश कहकर अवयव शोभा (अंग विशेष) की शोभा का वर्णन है| क्या एक स्त्री दूसरे स्त्री के सौन्दर्य पर मुग्ध हो सकती है?

द्रौपदी की शोभा देख स्त्रियाँ मुग्ध होकर सोचती थीं कि काश मैं पुरुष होती| भगवान श्री रामचंद्र के शोभा को देख दंडकारण्य के ऋषि सोचते थे कि काश मैं स्त्री होता|

आतंरिक अर्थ

श्री वैष्णव भी आचार्य के दिव्य मंगल विग्रह के सौन्दर्य का अनुसंधान करते हैं| गोष्ठिपूर्ण स्वामी अपने आचार्य अलवंदार के पीठ की शोभा से मुग्ध हो उसे कछुए कके पीठ के समान अपना रक्षक मानते थे| कलिवैरी दास स्वामीजी के शिष्य सिर्फ इसलिए जीवित रहना चाहते थे ताकि अपने अपने आचार्य के श्री मुखमंडल से टपक रहे पानी के बूंदों (कावेरी स्नान के पश्चात) का दर्शन कर सकें|

प्रतिवादी भयंकर स्वामी इस गोपी को उत्तम अधिकारी कहते हैं जो लता के समान अपने आचार्य पर आश्रित है| पारतंत्रियम ही इस लता का सुगंध है|

आचार्य भी मोर की भाँती हैं| जिस प्रकार जहरीले कीट मोर से दूर रहते हैं, उसी प्रकार विरोधी स्वरुप भी शिष्य से दूर रहते हैं| जिस प्रकार मोर प्रसन्न होकर अपने पंख फैलाकर नृत्य करती है, उसी प्रकार आचार्य भी सद्शिष्य को पाकर प्रसन्न होकर ज्ञान विकास करते हैं|  

सुऱ्ऱत्तुत् तोळिमार् एल्लारुम् – आपके सभी रिश्तेदार और दोस्त;

 वन्दु – इकट्ठे हुए हैं;

निन् मुऱ्ऱम् पुगुन्दु – आपके आंगन में;

मुगिल् वण्णन् पेर् पाड– काले बादलों की तरह रंग वाले उस सुंदर कृष्ण के दिव्य नामों को गाते हुए भी;

आत्म और देह बंधू महान व्यक्तियों के पास इकठ्ठे होते हैं| एम्बार और दासरथी स्वामी रामानुज स्वामी के देह सम्बन्धी थे और कुरेश स्वामी, किदाम्बी आच्चान आदि उनके आत्म-सम्बन्धी|

सिऱ्ऱादे पेसादे – स्थिर और शान्त (अचल और अवाक);

सेल्वप् पेण्डाट्टि नी– आप, जो हमारे लिए धन हैं;

एऱ्ऱुक्कु उऱन्गुम् पोरुळ् एलोर् एम्बावाय्– तुम अभी तक क्यों सो रहे हो?

स्थिर और शान्त तुम भगवद अनुभव में लीन हो| अपने पारतंत्रियम के ज्ञान के कारण तुम सोचती हो कि यह भगवान का कर्तव्य है कि तुम्हें आकर प्राप्त करें, तुम स्वयं से कोई प्रयत्न नहीं करना चाहती| परन्तु हम तुम्हारे सौन्दर्य को देखना चाहते हैं| जिस प्रकार तुम्हारा भ्राता अपने वर्णाश्रम धर्म में रत हैं, हमें भी कैंकर्य में विलम्ब नहीं करना चाहिए| उठो सखी, भागवतों की गोष्ठी में सम्मिलित हो

तिरुपावै 9वाँ पासूर

तूमणि माडत्तुच् चुऱ्ऱुम् विळक्केरिय
  दूपम् कमळत् तुयिल् अणै मेल् कण् वळरुम्
मामान् मगळे मणिक्कदवम् ताळ् तिऱवाय्
   मामीर् अवळै एळुप्पीरो? उन् मगळ्दान्
ऊमैयो अन्ऱिच् चेविडो अनन्दलो?
  एमप् पेरुन्दुयिल् मन्दिरप्पट्टाळो?
मामायन् मादवन् वैगुन्दन् एन्ऱु एन्ऱु
  नामम् पलवुम् नविन्ऱु एलोर् एम्बावाय्

तूमणि माडत्तुच् चुऱ्ऱुम् विळक्केरिय
दूपम् कमळत् तुयिल् अणै मेल् कण् वळरुम्
मामान् मगळे मणिक्कदवम् ताळ् तिऱवाय्
मामीर् अवळै एळुप्पीरो? उन् मगळ्दान्
ऊमैयो अन्ऱिच् चेविडो अनन्दलो?
एमप् पेरुन्दुयिल् मन्दिरप्पट्टाळो?
मामायन् मादवन् वैगुन्दन् एन्ऱु एन्ऱु
नामम् पलवुम् नविन्ऱु एलोर् एम्बावाय्

इस पाशुरम् में एक ऐसी गोपी को जगाया जा रहा है जो कि आत्म तत्त्व का पूर्ण ज्ञान रखने वाली तथा एक आदर्श शरणागत हैं। इन गोपिका को यह पूरी जानकारी है कि यह श्री कृष्ण का कर्त्तव्य है कि वे उन्हें लेने आएं और उनके साथ रहें, क्योंकि वह समझती हैं कि हमारा स्वभाव श्री कृष्ण के परतंत्र ही रहने का है और श्री कृष्ण का स्वभाव भी आकर हमें (भवसागर से) बचाने का है ।

अन्य गोपियों सहित किशोरी श्री गोदा महारानी अपने मामा अर्थात अपनी माता के भाई, की बेटी को जगाने आयी हैं । चूंकि वे करीबी संबंधी हैं अतः गोदा उनसे व्यंग्यपूर्ण ढंग से बात करती हैं । अपने सगे संबंधियों में सब व्यंग्य और हास्यपूर्वक बात करते हैं और कोई भी उससे दुखी नहीं होता वरन् सुखी ही होते हैं । वे वक्ता के भाव समझ लेते हैं ।
ऐसा प्रतीत होता है कि यह गोपी कण्णा को परम प्रिय थी क्यूंकि वे इस गोपी से नित्य मिलने आया करते थे । इनका पूरा घर भी परम सुंदर है, जिसमे मीठी खुशबू से भरे सुंदर कमरे हैं जिनमें रत्न जटित सुकोमल शैय्या है, और इनके घर के आंगन में सुंदर बगीचा भी है । और यह किशोरी गोपी श्री कृष्ण के साथ अपने अनुभव को याद करते हुए समाधिस्थ हैं । स्वामी श्री जनन्याचार्य के अनुसार पिछले पाशुर में गोपियों ने एक मुक्तात्मा गोपी को जगाया और अब एक नित्य जीव गोपी को जगा रहे हैं ।

तूमणि माडत्तुच्
।।
। । स्वभाव से शुद्ध और कीमती रत्नों से जगमगाता हुआ महल।

रत्न दो प्रकार के होते हैं । पहले प्रकार के रत्न नित्य शुद्ध व तीनों कालों में दोषों से सदैव अछूते रहते हैं । दूसरे प्रकार के रत्नों में शुरुआत में कुछ दोष रहते हैं किन्तु फिर तराश कर उन्हें भी शुद्व कर दिया जाता है । इसी प्रकार नित्यात्माएं तथा श्री गरुड़ जी, श्री विष्वक्सेन जी, श्री पांचजन्य जी आदि सदैव से मुक्त रहे हैं और मुक्तात्माएं कभी संसार में थी किन्तु अब श्री वैकुंठ में हैं ।


आंतरिक अर्थ


श्री प्रभु का निवास कहां है? हमारे हृदय में । हमारा निवास कहां है? श्री प्रभु के हृदय में । हमारा हृदय श्री प्रभु का निवास स्थान है और श्री प्रभु का हृदय हमारा निवास स्थान है । तथापि हमारा हृदय कर्म द्वारा दूषित है । हमारा शरीर भी पंच महाभूतों से बना है अतः यह भी दूषित है । अतः श्री प्रभु का घर दूषित है लेकिन हमारा घर (श्री प्रभु का हृदय) परम शुद्ध है । इसी प्रकार इस गोपी का घर मणियों से सज्जित है । महान भक्तों का निवास सदैव श्री प्रभु के हृदय में रहता ही है । हम सब भी रत्न ही हैं किन्तु दूसरे प्रकार के, यानी कि अभी दोषों से युक्त हैं । श्री प्रभु हमारे हृदय में रहकर हमें साफ करते हैं । जिस प्रकार रत्न प्रकाश में चमकते हैं, हम भी ज्ञान रूपी चमक से युक्त हैं । हमारा ज्ञान अल्प है वहीं श्री प्रभु का ज्ञान पूर्ण है ।


श्री प्रतिवादी भयंकर अण्णंगराचार्य स्वामीजी महाराज कहते हैं कि “मणि माडत्त” असल में जीवात्मा व ब्रह्म के बीच प्रकाशवान नवविध संबंध है हैं । “तूमणि माडत्त” उसे समझने के लिए हमारी बुद्धि अथवा धर्मभूत है

चुऱ्ऱुम् विळक्केरिय – सब जगह दिव्य दीपक जगमगा रहे हैं ।
चुऱ्ऱुम् – सब जगह
विळक्केरिय – दिव्य दीपक


मानो श्री कृष्ण का स्वागत करने के लिए, इस गोपी ने अपने पूरे महल में दीप जलाए हैं ताकि श्री कृष्ण उसका हाथ पकड़ कर यहां टहल सकें, या शायद केवल एक ही दीपक प्रज्वलित था, किंतु उस एक दीपक की ही अनगिनत परछाइयां महल में जड़े हुए रत्नों में खूबसूरती से जगमगा रहीं थीं ।
लेकिन दरवाजा खोलने के लिए प्रार्थना करने वाली गोपियों को अंदर विराजमान प्रकाश का भान कैसे हुआ? क्योंकि महल रत्न जड़ित है अतः कुछ हद तक पारदर्शी भी है, इसी से वे अंदर देख पाईं । आंडाल दुखी होकर कहती हैं कि इधर हम सबके हृदय अंधकार में डूब रहे हैं, उधर तुम प्रकाश से भरे हुए कमरे में किस तरह सो सकती हो?

आंतरिक अर्थ


यद्यपि रत्न हों, तथापि बगैर प्रकाश के कुछ नहीं देखा जा सकता । हम अकार वाच्य नारायण को शास्त्र वचन के बगैर नहीं समझ सकते । यह किशोरी कहीं दीयों के बीच में है, अर्थात शास्त्र प्रमाणों के बीच में है । जब दिए अच्छी तरह जलाए जाएंगे, हम ब्रह्म के बारे में सही जिज्ञासा कर पाएंगे (शास्त्रयोनित्वात्, १.१.३ ब्रह्म सूत्र) । वेद ज्ञान के मुख्य स्रोत है, और इतिहास व पुराण उनके साथ ही व्याख्यात्मक रूप में हैं ।


दूपम् कमळत् तुयिल् अणै मेल् कण् वळरुम्


दूपम् कमळ – धूप की सुंदर खुशबू जो फैली हुई है
तुयिल् अणै मेल् – एक नरम मुलायम बिस्तर के ऊपर (जो हर उस व्यक्ति को सुला देगा, जो उस पर लेटेगा)
कण् वळरुम् – तुम लेटी हुई सोई हो ।


जब इधर हम हमारे प्रिय कृष्ण के विरह में हैं, तब उधर तुम किस तरह धूप की सुंदर खुशबू का आनंद ले सकती हो? यह बिस्तर इतना मुलायम है की यदि कोई व्यक्ति न भी चाहे तो भी इस पर उसे नींद आ जाएगी । गोपियां सोचती हैं, “क्या यह बिस्तर इतना मुलायम है की श्री कृष्ण विरह के महान दुख को भी शांत कर देता है? यह किस तरह हो सकता है कि तुम सुख से बिस्तर पर सोते रहो, और हम ना तो अच्छी खुशबूदार धूप का आनंद ले सकें, और यदि तुम्हारे जैसा सोने के लिए बिस्तर मिले भी, तो वह प्रिय विरह के कांटो का ही बिस्तर हो? ऐसा लगता है श्री कृष्ण तुम्हारे साथ ही हैं, तब ही तुम द्वार नहीं खोल रही हो ।”


यहां पर धूप से अच्छे अभ्यास/कर्म का अभिप्राय है । इस प्रकाश से, जो कि शास्त्रों का ज्ञान रूप है, हमें अच्छा अभ्यास मिलता है । यह बिस्तर ज्ञान का स्वरूप है, और यह ज्ञान पंच आत्मक है, यानी अर्थ पंचक । यह कन्या पंच गुणात्मक बिस्तर पर है । ऐसे व्यक्ति अपने आप को प्रकट नहीं करते । हमें उनके पास जाना होता है । उनका अभ्यास देखकर उनसे ज्ञान प्राप्त करना होता है । अभ्यास/क्रिया से हम किसी व्यक्ति के ज्ञान का अंदाजा लगा सकते हैं ।

मामान् मगळे मणिक्कदवम् ताळ् तिऱवाय्


मामान् मगळे – हे मेरे मामा की पुत्री!
मणिक्कदवम् ताळ् तिऱवाय् – कृपया अपने कीमती रत्न जड़ित द्वार को खोलो ।


गोदा यहां व्यंग्यात्मक भाषा में कह रही हैं, “अहो! तुम नर्म बिस्तर पर हो, तुम्हारे कमरे में सुगंध और प्रकाश है, जरूर श्री कृष्ण तुम्हारे साथ होंगे । अतः जल्दी द्वार खोलो, हमें भी श्री कृष्ण का संग चाहिए ।

आंतरिक अर्थ


श्री प्रतिवादी भयंकर अण्णंगराचार्य स्वामी जी महाराज के अनुसार हमारे देह संबंधी दो प्रकार के होते हैं, अनुकूल और प्रतिकूल । हमें अनुकूल देह संबंधियों का संग पाने की कोशिश करनी चाहिए, जो भगवत भागवत और आचार्य कैंकर्य में हमारा सहयोग दें । वहीं दूसरी ओर हमें प्रतिकूल बंधु जनों के संग का त्याग करना चाहिए । नीति शास्त्र के अनुसार, एक भागवत परनिंदा के मामले में अप्रवीण होते हैं, अपने ऊपर हुए दोषारोपणों के लिए बहरे, और पर दोष दर्शन के लिए अंधे होते हैं ।


मामीर् अवळै एळुप्पीरो? – हे मामी जी! आप क्यों नहीं उसे जगा रही हैं?
उन् मगळ्दान् – क्या आपकी बेटी
ऊमैयो – मुर्ख है
अन्ऱिच् – या फिर
चेविडो – बहरी है
अनन्दलो – क्या थकी हुई है (लगता है पहले वह श्री कृष्ण के साथ खेल रही थी)
एमप् ()- क्या उसपर और कोई नजर रखे हुए है?
पेरुन्दुयिल् मन्दिरप्पट्टाळो? – क्या किसी मंत्र के वश में वह लंबे समय तक निद्रा को प्राप्त है?


अचानक उन गोपी की मां उन्हें जगाने आ गईं । अन्य गोपियां उनकी मां से व्यंग्य करने लगीं । “क्या श्री कृष्ण उनके साथ हैं और उन्हें दरवाजा खोलने नहीं दे रहे हैं?”

आंतरिक अर्थ


श्री प्रतिवादी भयंकर अण्णंगराचार्य स्वामी जी महाराज कहते हैं, “प्रपन्न जन अष्टाक्षर मंत्र के जादुई प्रभाव में आ जाते हैं (स्वरक्षणे स्व अन्वय निवृत्ति न्याय) ।

श्री वैष्णव जन सदैव द्वय मंत्र का अर्थानुसंधान करते रहते हैं व भाव समाधि में चले जाते हैं । वरवर मुनि स्वामी जी महाराज सदैव दबी आवाज में कुछ न कुछ कहते रहते और फिर अचानक भाव समाधि में चले जाते, मानो एक भ्रमर पुष्प का चुनाव करते वक्त आवाज करता है, लेकिन रसपान करते समय शांत हो जाता है । प्रपन्न जनों को यह पसंद नहीं आता कि हम उन्हें संसारी या शारीरिक संबंधों से संबोधित करें, वरन उन्हें अडियार (भागवत बंधु, रामानुज दास) संबोधन से बुलाए जाना परम प्रिय है । लापरवाही के अंधकार से बाहर आओ और मिलो उनसे जो है:

मामायन् – वे जिनके कार्यकलाप परम आश्चर्यजनक है और हमारी कल्पना से परे हैं ।

जहां एक तरफ भगवान अंतर्यामी है और श्री वैकुंठ में निवास करते हैं, वही भगवान हमारी तरह के श्री विग्रह धारण कर अवतार लेते हैं और हमारे लिए सुलभ हो जाते हैं । यदि गोपियां कहेंगी, “नाचो, फिर मैं तुम्हें माखन दूंगी” तो कृष्ण मक्खन के लिए नाचेंगे । अतः वे मामायन हैं । मामायन से इस तथ्य का बोध होता है कि कृष्ण गोपियों के स्तर पर उतर कर अपनी नटखट शरारतों व आश्चर्यजनक लीलाओं से सुलभ होते हैं । भौतिक संसार में हम यह देखते हैं कि एक व्यक्ति जो कि थोड़ा भी ऊंचे स्तर का हो, चाहे वह सामाजिक हो या कोई और, वह सुगम सुलभ नहीं होते । वहीं दूसरी ओर भगवान श्री कृष्ण जो हर किसी के परम स्वामी हैं, सबको सुलभ है । वे परम है, अतः स्वातंत्र्य और परत्व में निहित कल्याण गुण उनमें स्वभावतः हैं । यह सौलभ्य, गोपियों को अपने दिव्य कर्मों द्वारा आकर्षित करना, क्या यह इनके परत्व के संदर्भ में अजीब नहीं है?

मादवन् – लक्ष्मी नाथ इंदिरा लोकमाता मा (अमरकोश १.१.६३) और ()(अमरकोश २.५.५९८) । अतः माधव का अर्थ है लक्ष्मी के पति ।

क्योंकि वह हमारी मां के साथ हैं, अतः हम रक्षा के लिए निश्चिंत हैं । मां के साथ होने से उनमें सदैव करुणा भरपूर रहती है । इसीलिए मां उनके हृदय में निवास करती हैं । राम उन असुर का वध नहीं करते जब मां सीता उनके पक्ष में होती हैं । महान अपराध करने के बावजूद भी मां ने जयंत को अभय दान दिया । जब श्रीराम ने पृथ्वी को पापी असुरों से विहीन करने का प्रण लिया, तब मां अपने संकल्प से लंका गईं, लेकिन अभागे रावण ने उनके बात नहीं सुनी ।
भगवान का सौलभ्य उनका महालक्ष्मी पिराट्टी के साथ होने से उपजता है ।


वैगुन्दन् – वैकुंठ के स्वामी


वे परम शासक और परम शक्तिमान भगवान होते हुए भी करुणा के समुद्र है । वह असली भोक्ता हैं । वहीं इधर हम उनके द्वारा भोग्य हैं ।
अमूमन वह जो सुगम होते हैं, वह मूल्यवान नहीं होते, और जो मूल्यवान होते हैं वह सुगम नहीं होते । वहीं श्री प्रभु परम तो हैं ही, उनका सौलभ्य उनके परत्व में चमक का काम करता है और यह दोनों गुण उनके श्रियः पतित्व से हैं ।


एन्ऱु एन्ऱु नामम् पलवुम् नविन्ऱु एलोर् – इस प्रकार हमने भगवान के कई मंगलमय नामों का संकीर्तन किया है

(लेकिन आपकी बेटी अभी भी नहीं उठी हैं)
हमने भगवान के परत्व की और सौलभ्य की ही नहीं इनके कारण रूप उनके श्रियः पतित्व की भी बात की है । फिर भी आपकी बेटी उठ नहीं रही ।


एम्बावाय् – अपने मन से निश्चय करें और हमारे साथ आएं ।


स्वापदेश


आचार्य ही मामायन हैं, जो कई परम आश्चर्यजनक कृत्य करते हैं, (जैसे कि उपदेश द्वारा संसारियों को वैष्णव बना देना) । आचार्य माधव यानी महा तपस्वी भी हैं और वैकुंठ यानी वैकुंठ प्रदानत्व गुण से युक्त हैं । हमें सदैव अनुकूल देव संबंधियों के संग में रहना चाहिए और प्रतिकूल देह संबंधियों से उदासीन रहना चाहिए । प्रपन्न जन ही हमारे सच्चे संबंधी यानी आत्मबंधु हैं ।
तब क्या हो जब हम हमारे करीबी मित्र या रिश्तेदार को शरणागत होने के लिए समझा ना सकें? ऐसी स्थिति में हमारी तरफ से हमें उन्हें उदासीन प्रेम दिखाना चाहिए, और भक्तों के सत्संग का आनंद उठाना चाहिए । भक्त ही हमारे सच्चे संबंधी हैं, क्योंकि वह आत्मा के संबंध से हमारे अपने हैं अर्थात आत्मबंधु हैं । लेकिन यदि परम सौभाग्य से हमें कोई भागवत जन देह के संबंध में मिल जाए, तो हमें उस संबंध को बढ़ाना चाहिए । इसीलिए गोदा देवी इस नौवे पद में इस एक गोपी को नाम से ना बुलाकर वरन उसके साथ अपने देह के संबंध का संबोधन देकर ही बुलाती हैं और यह इंगित करती हैं की वे इस संबंध को बहुत अहमियत देती हैं ।


अड़ियेन यश भारद्वाज द्वारा भाषांतरित

अडीएन माधव श्रीनिवास रामानुज दास

नव-विधा सम्बन्धं : जीवात्मा के परमात्मा से नौ प्रकार के संबंध

तिरुपावै 10वाँ पासूर

10

संस्कृत अनुवाद

10

हिंदी छन्द अनुवाद

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नोऱ्ऱुच् चुवर्क्कम् पुगुगिन्ऱ अम्मनाय्
माऱ्ऱमुम् तारारो वासल् तिऱवादार्
नाऱ्ऱत् तुळाय् मुडि नारायणन् नम्माल्
पोऱ्ऱप् पऱै तरुम् पुण्णियनाल् पण्डु ओरु नाळ्
कूऱ्ऱत्तिन् वाय् वीळ्न्द कुम्बकरुणनुम्
तोऱ्ऱुम् उनक्के पेरुम् तुयिल् तान् तन्दानो?
आऱ्ऱ अनन्दल् उडैयाय् अरुम् कलमे
तेऱ्ऱमाय् वन्दु तिऱ एलोर् एम्बावाय्

हे सखी! तुमने तो स्वर्ग की अनुभूति प्राप्त करने के लिये तपस्या भी की है ।

द्वार खुला नहीं है, पर फिर भी जो अंदर है वह आवाज़ तो दे सकते है ।

क्या पहले के समय में कुम्भकरण ,जो भगवान् के हाथो यमपुरी पहुँच गया ,जिस भगवान् नारायण का हम सदा गुणगान करते है,जो सदा साथ रहकर हमें कैंकर्य प्रदान करते है , वह तुमसे हारकर अपनी निंदिया तुम्हे दे दी?

हे आराम से निद्रा लेने वाली अनमोलरत्न ,उठो निद्रा त्याग कर किवाड़ खोलो।

इस पासुर में गोदा ऐसी श्रेष्ठ गोपी के महल आती हैं जो कान्हा की अत्यंत प्रिया है| कान्हा अक्सर उसके संग रहते थे| वह नित्य प्रति कान्हा के अनुभव में लीन रहती थी| आचार्यों ने इस गोपी को सिद्ध-उपाय निष्ठ आदर्श शरणागत कहा है| भगवान पुरुषार्थ है और स्वयं उपाय भी| भगवान स्वयं अपने प्रयत्न से जीवात्मा को प्राप्त करते हैं क्योंकि जीवात्मा भगवान की संपत्ति है| जो सभी साधनों का अवलंबन छोड़ भगवान को ही सिद्ध-उपाय मानते हैं, वो आदर्श शरणागत हैं|

जितना प्रयत्न बाकि गोपियाँ भगवान तक पहुँचने के लिए करती हैं, उतना ही प्रयत्न भगवान इस श्रेष्ठ गोपी तक पहुँचने के लिए करते हैं| कर्म-ज्ञान-भक्ति को साधन मानने वाले कई जन्मों से प्रयत्नशील हैं जबकि भगवान को ही सिद्धोपाय मानने वाले निश्चिन्त होते हैं| यहाँ गोपी के शयन का अर्थ अपना भार गोविन्द पर निश्चिन्त रहना है|

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NŌTTRU- व्रत करते हुए

शरणागतों के लिए उपाय और उपेय; दोनों भगवान ही हैं| गोपियों का व्रत क्या है? भगवान के अनन्त कल्याण गुणों का अनुभव करना, उनका यशोगान करना, नाम-संकीर्तन करना|

ऐसा लगता है कि तुमने व्रत का फल प्राप्त कर लिया है| कान्हा तुम्हारे साथ हैं और इसी कारण तुम दरवाजा नहीं खोल रही|

SUVARKKAM PUHUKINDRA – स्वर्ग/ सुवर्ग का अनुभव करते हुए;

साधारण लोगों के लिए स्वर्ग इन्द्रलोक है और नरक यमलोक किन्तु रामायण में सीता कहती हैं

“ आपके साथ रहना ही मेरे लिए स्वर्ग और आपके बिना रहना नरक”

गोदा व्यंग करती हैं, “ तुम कान्हा के संग हो और कान्हा का अकेले अनुभव करना चाहती हो, इस कारण दरवाजा नहीं खोल रही| दरवाजा खोलो हे सखी! हम कान्हा को तुमसे नहीं छिनेंगे|

आतंरिक अर्थ:

अन्तिमोपाय निष्ठ श्री वैष्णवों के लिए सुवर्ग का अर्थ है श्री वैष्णव साधू गोष्ठी| व्रत है भागवतों का मंगलाशासन और तदीय आराधन|

AMMANĀY!:  ओ हमारी स्वामिनी!

गोदा अन्दर सो रही गोपी को ‘हमारी स्वामिनी’ कहकर तंज कसती हैं| हमारा स्वभाव तो श्री वैष्णवों के दास होने का है, कहीं भगवान ऐसा न समझें कि तुम अपने को स्वामिनी समझ द्वार पर आये वैष्णवों का अभिनन्दन-वन्दन न कर भागवत-अपचार कर रही हो| भागवत-कैंकर्य तो भगवत-कैंकर्य से भी श्रेष्ठ है|

अपने ऊपर हो रहे व्यंगों को सुन गोपिका चुप रहना ही उचित समझती हैं या द्वार पर आये श्री वैष्णवों को देख ख़ुशी के मारे कुछ बोल नहीं पा रही हैं| बाहर गोपिकाएँ समझती हैं कि अन्दर कान्हा हैं, इस कारण गोपिका दरवाजा नहीं खोल रही|

MĀTTRAMUM TĀRĀRŌ VĀCAL TIRAVĀDĀR:

तुम दरवाजा नहीं खोल रही, अब क्या कुछ बोलोगी भी नहीं?

हम तुम्हारे खामोशी को सहन कर पाने में असमर्थ हैं| दरवाजा बंद है तो कम से कम मुख तो खोल दो| अन्दर तुम अपने को कान्हा को समर्पित कर चुकी हो, वह तुम्हें दरवाजा नहीं खोलने दे रहे लेकिन कुछ तो बोलो कम से कम| चलो कान्हा तुम्हारे ही हैं, लेकिन तुम तो हमारी हो न| कान्हा के रूप से तुम्हारी आँखें नहीं हट रहीं लेकिन मुख तो खोल सकती हो न?

गोपी कहती है: “ तुम कहती हो कि कान्हा मेरे साथ हैं| इसका क्या प्रमाण है”?

NĀTTRA TUZHĀI MUḍI:

तुम दोनों छुपने का प्रयत्न कर सकती हो लेकिन तुलसी की सुगंध को नहीं छूपा सकती.

गोपी जबाब देती है, “ यदि मैं एक बार भी उनका आलिंगन कर लूँ तो शरीर कई दिनों तक सुगंधित रहता है| और वो अन्दर कैसे आ सकते हैं? दरवाजा तो बंद है”

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NĀRĀYAṇAN: नारायण (हर आत्मा जिनका घर है और जो हर आत्मा के घर हैं)

“वो नारायण हैं, सर्वत्र विद्यमान हैं| क्या उन्हें दरवाजे रोक सकते हैं? क्या वह तुम्हारे अन्तर्यामी नहीं हैं”? गोपी गीत में गोपिकाएँ कहती हैं

“आप केवल यशोदा के पुत्र नहीं, सभी के अंतरात्मा हैं”| ऐसी ज्ञानी थीं गोपिकाएँ|

NAMMĀL PŌTTA PAṛAI TARUM: हमलोग (साधारण गोप कन्यायें) जिनका गुणगान करती हैं और जो हमें परम पुरुषार्थ (परई) प्रदान करते हैं|

भगवान का ऐसा सौलभ्य है कि साधारण कुल में जन्में गोप कन्यायों के लिए भी अति-सुलभ हैं|

PAṇḍORU NĀḷKŪTTATTIN VĀY VĪZHNDA KUMBHA KARUṇANUM – एक बार की बात है, भगवान के हाथों वध होने वाला कुम्भकरण भी नींद में तुमसे हार जाए|

कुम्भकरण हमेशा सोता रहता था और इस कारण वह विभीषण की तरह भगवत-कैंकर्य न कर सका| वह कुम्भकरण भी तुमसे हार गया| कुम्भकरण तो 6 महीने में एक बार जागता था, तुम सृष्टि जब से हुयी है, तब से सो रही हो| हारने वाला व्यक्ति अपनी सम्पत्ति विजेता को सौंप देता है| ऐसा लगता है कि कुम्भकरण भी तुमसे हारकर अपनी नींद तुम्हें सौंप गया|

गोपिका सोचती है कि ये लोग मेरी तुलना ऐसे व्यक्ति से कर रहें जिसके कारण अम्माजी भगवान से दूर हुयीं| वह चुप ही रहती है|

आतंरिक अर्थ:

कुम्भकरण तमोगुण का प्रतीक है| वैष्णव सत्त्व-गुणी होते हैं| तमोगुण का अर्थ है आलस्य, इर्ष्या आदि जो हमें भगवत-भागवत-कैंकर्य से दूर कर देता है|

कुम्भकरण का एक अर्थ कुम्भ से उत्पन्न होने वाले ऋषि अगस्त्य भी हैं| जैसे अगस्त्य ऋषि ने बिन्ध्य के गर्व को चूर कर दिया वैसे ही आचार्य भी शिष्यों के अंदर आये अभिमान रूपी शत्रु को दूर करते हैं| जैसे अगस्त्य ऋषि समस्त सागर को पी गए वैसे ही आचार्य भी श्रोतिय ब्रह्मनिष्ठ होते हैं|

ĀTTRA ANANDAL UḍAIYĀY! – क्या हम तुम्हें जागकर बाहर आते हुए देख सकते हैं?

ARUNGALAMĒ!- दुर्लभ बेशकीमती रत्न;

श्री वैष्णव गोष्ठी में आत्म-गुण संपन्न वैष्णव ही रत्न होते हैं| ज्योंहीं उत्तम अधिकारी गोपी उठकर बाहर आती है, गोदा उसे दुर्लभ रत्न कहके महिमामण्डित करती हैं|

TĒTTRAMĀY VANDU TIṛA- अच्छे से तैयार होकर बाहर आओ.

ElOrEmpAvAi: आओ हम अपने व्रत को पूरा करें

स्वापदेश

मुमुक्षुओं के लिए, पूण्य और पाप दोनों ही जंजीर हैं | पूण्य का सुख भोगने हेतु और पाप का दुःख भोगने हेतु पुनः जन्म लेना होता है| अन्तिमोपाय निष्ठ वैष्णव मोक्ष का भार भगवान और आचार्य पर छोड़ निश्चिंत रहते हैं| उनके लिए कर्म भागवतों का कैंकर्य है, ज्ञान भागवत-परतंत्र के अपने आत्मस्वरूप का अनुभव करना है और भक्ति तदीय अराधन है| 

भगवान हमारे अपराधों का विचार कर हमें मोक्ष से वंचित कर सकते हैं लेकिन हमारी आचार्य-निष्ठा देख, अपने प्रिय भक्त का स्मरण कर आनंदित भगवान हमें तुरंत स्वीकार कर लेंगे| जैसे अपने बछड़े को देख गाय दूध देने लगती है और ग्वाले को दूध मिल जाता है|

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