श्री वैष्णव गुरु परम्परा

लक्ष्मीनाथसमारम्भां नाथयामुनमध्यमाम् ।

अस्मदाचार्यपर्यन्तां वन्दे गुरुपरम्पराम् ।।

श्री वैष्णव गुरु परम्परा में रंगनाथ भगवान से लेकर वरवर मुनि तक की आचार्य-माला है| सम्प्रदाय के प्रथम आचार्य हैं श्री रंगनाथ भगवान| इनसे प्रारम्भ होकर श्री नाथ मुनि, रामानुज स्वामी, लोकाचार्य स्वामी से होते हुए यह परम्परा वरवर मुनि स्वामी तक आती है। स्वयं रंगनाथ भगवान वरवर मुनि स्वामी के शिष्य होना स्वीकार किये और गुरु-दक्षिणा में तनियन निवेदित किये। इस प्रकार ये आचार्य माला पूर्ण हुई। रंगनाथ भगवान से वरवरमुनि तक के माला रूप गुरूपरम्परा में रामानुज स्वामी, मध्य में, मणि रत्न की भाँति हैं। उनकी महानता के कारण रंगनाथ भगवान ने इस अनादि सम्प्रदाय का नाम रामानुज सम्प्रदाय रखा।

त्रयोदशवाक्य श्रीगुरुपरम्परा

१. अस्मद्गुरुभ्यो नमः
२. अस्मत्परमगुरुभ्यो नमः
३. अस्मत्सर्वगुरुभ्यो नमः
४. श्रीमते रामानुजाय नमः
५. श्रीपरांकुशदासाय नमः
६. श्रीमद्यामुनमुनये नमः
७. श्रीराममिश्राय नमः
८. श्रीपुण्डरीकाक्षाय नमः
९. श्रीमन्नाथमुनये नमः
१०. श्रीमते शठकोपाय नमः
११. श्रीमते विष्वक्सेनाय नमः
१२. श्रियै नमः
१३. श्रीधराय नमः

मन्त्र गुरु परम्परा

अस्मद्देशिकमस्मदीयपरमाचार्यानशेषान् गुरून्

श्रीमल्लक्ष्मणयोगिपुङ्गवमहापूर्णौ मुनिं यामुनम्।

रामं पद्मविलोचनं मुनिवरं नाथं शठद्वेषिणं

सेनेशं श्रियमिन्दिरासहचरं नारायणं संश्रये ॥

हमारे आचार्य, परमाचार्य एवं सभी शेष आचार्य, श्री लक्ष्मण योगिवर, महापूर्ण स्वामी, यामुन मुनि, राम मिश्र स्वामी, पुण्डरीकाक्ष स्वामी, नाथ मुनिवर, शठकोप आलवार, सनेश विष्वक्सेन स्वामी, श्री देवी और इन्दिरा के सहचर नारायण की शरण लेता हूँ|

नित्यानुसन्धान

नमः श्रीशैलनाथाय कुन्तीनगरजन्मने । प्रसादलब्धपरमप्राप्यकैड्‌कर्यशालिने ।। (श्री शैलेश स्वामी)

श्रीशैलेशदयापात्रं धीभक्त्यादिगुणार्णवम् ।

यतीन्द्रप्रवणं वन्दे रम्यजामातरं मुनिम् ॥1॥ (वरवर मुनि स्वामी)

लक्ष्मीनाथसमारम्भां नाथयामुनमध्यमाम् ।

अस्मदाचार्यपर्यन्तां वन्दे गुरुपरम्पराम् ॥2॥

यो नित्यमच्युतपदाम्बुजयुग्मरुक्म व्यामोहतस्तदितराणि तृणाय मेने।

अस्मद्गुरोर्भगवतोऽस्य दयैकसिन्धोः रामानुजस्य चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥3॥ (रामानुज स्वामी’)

माता पिता युवतयस्तनया विभूतिः
सर्वं यदेव नियमेन मदन्वयानाम् ।
आद्यस्य नः कुलपतेर्बकुलाभिरामं
श्रीमत्तदङ्घ्रियुगलं प्रणमामि मूर्ध्ना ॥4॥ (शठकोप आल्वार)

भूतं सरश्च महदाह्वय भट्टनाथ
श्रीभक्तिसारकुलशेखरयोगिवाहान् ।
भक्ताङ्घ्रिरेणुपरकालयतीन्द्रमिश्रान्
श्रीमत्पराङ्कुशमुनिं प्रणतोऽस्मि नित्यम् ॥5॥

गुरुमुखमनधीत्य प्राह वेदानशेषान्
नरपतिपरिक्लृप्तं शुल्कमादातुकाम: ।
श्वशुरममरवन्द्यं रङ्गनाथस्य साक्षात्
द्विजकुलतिलकं तं विष्णुचित्तं नमामि ॥6॥ (विष्णुचित्त आल्वार)

सर्वदेशदिशाकालेष्वव्याहतपराक्रमः ।
रामानुजार्यदिव्याज्ञा वर्धतामभिवर्धताम् ॥

रामानुजार्यदिव्याज्ञा प्रतिवासरमुज्ज्वला ।
दिगन्तव्यापिनी भूयात्सा हि लोकहितैषिणी ॥

श्रीमन् श्रीरङ्गश्रियमनुपद्रवामनुदिनं संवर्धय ।

श्रीमन् श्रीरङ्गश्रियमनुपद्रवामनुदिनं संवर्धय ।

जयति यतिराज फणिराज अवतार मणे प्रबल पाषण्ड तमो हरण! भानो विजयी भव! विजयी भव! विजयी भव! 

1.श्री रंगनाथ भगवान (पेरिय पेरुमाल)

श्रीस्तनाभरणं तेजः श्रीरङ्गेशयमाश्रये । चिन्तामणिमिवोद्भान्तमुत्सङ्गेऽनन्तभोगिनः ॥

अर्थ:

अनंत सर्प के गोद में प्रकाशवान चिंतामणि, श्री जी के स्तन के आभूषण, रंगेश नाम के तेज का आश्रय लेता हूँ ।

2. श्री रंगनायकी (पेरिय पिराट्टि)

नमः श्रीरङ्गनायक्यै यद्भ्रूविभ्रमभेदतः । ईशेशितव्यवैषम्य निम्नोन्नतमिदं जगत् ॥

अर्थ:

श्री रंगनायकी को नमस्कार है, जिनके भौंहें के विभ्रम के भेद से (सृष्टि में) कोई नियंता तो कोई नियाम्य बनता है और इस कारण इस जगत में निम्न और उन्नत का भेद है।

टिप्पणी:
भगवान श्री जी की प्रसन्नता हेतु, उनके आग्रह के कारण ही सृष्टि करते हैं। श्री जी जब जीवों के पुण्य कर्मों को देखती हैं तो प्रसन्न होती हैं। (श्री स्तव में श्री कूरेश स्वामी कहते हैं “यस्या वीक्ष्य मुखं “) | जब पूर्व जन्मों के पापों को देखती हैं तो दुखी और निराश होती हैं और इस प्रकार उनके भौंहों में उतार-चढ़ाव होता हैं| उसे देखते हुए भगवान किसी को राजा तो किसी को दरिद्र आदि जन्म देते हैं।

3. श्री विष्वक्सेन भगवान (सेनइ मुदलियार)

श्रीरङ्गचन्द्रमसमिन्दिरया विहर्तुं विन्यस्य विश्वचिदचिन्नयनाधिकारम् ।
यो निर्वहत्यनिशमङ्गुलिमुद्रयैव सेनान्यमन्यविमुखास्तमशिश्रियाम ॥

अन्वयः –
यः श्रीरङ्गचन्द्रमसम् इन्दिरया विहर्तुं विन्यस्य, विश्व – चिद- अचिद्-नयन-अधिकारम्, अङ्गुलिमुद्रया एव अनिशम् निर्वहति, तम् सेनान्यम् अन्यविमुखा: अशिश्रियाम्

अर्थ:
जो श्री रंगचन्द्र को, इन्दिरा संग विहार करने के लिए छोड़कर, समस्त चिदाचित के संचालन के अधिकार को अङ्गुली मुद्रा मात्र से ही निरन्तर निर्वाह करते हैं, उन सेनापति (विश्वसेन भगवान) को, अन्य से विमुख हो, शरण लेते हैं।

4. श्री शठकोप आलवार (नम्माल्वार)

आचार्य परम्परा में चतुर्थ स्थान पर एवं संसार में प्रथमाचार्य, प्रपन्न कुल के नाथ, शठकोप सूरी (नम्मालवार) की स्तुति:

माता पिता युवतयस्तनया विभूतिः
सर्वं यदेव नियमेन मदन्वयानाम् ।
आद्यस्य नः कुलपतेर्बकुलाभिरामं
श्रीमत्तदङ्घ्रियुगलं प्रणमामि मूर्ध्ना ॥

अन्वयः –

मदन्वयानां नियमेन माता पिता युवतयः तनया: विभूति: सर्वं यद् एव आद्यस्य नः कुलपते: तद् बकुलाभिराम श्रीमद् अङ्घ्रियुगलं मूर्ध्ना प्रणमामि।

अर्थ:

जो ही निश्चय ही मेरे संबंधियों के माता, पिता, युवतियाँ, संतानें, सम्पत्ति एवं सबकुछ हैं, हमारे प्रथमाचार्य और कुलपति के उन बकुल पुष्पों से मनोरम चरण युगलों को शिर से प्रणाम करता हूँ|

5. नाथमुनि जी

श्री शठकोप आलवार के शिष्य नाथमुनि जी की स्तुति (आचार्य-परम्परा में पञ्चम स्थान पर विराजमान)

नमोऽचिन्त्याद्भुताक्लिष्टज्ञानवैराग्यराशये।
नाथाय मुनयेऽगाधभगवद्भक्तिसिन्धवे ॥

अन्वयः –

अचिन्त्य-अद्भुत-अक्लिष्ट-ज्ञानवैराग्यराशये अगाध-भगवद्-भक्ति-सिन्धवे नाथाय मुनये नमः ।

अर्थ:

श्री नाथमुनि को नमस्कार है, जो चिन्तनातीत, अद्भुत और क्लेशरहित ज्ञान और वैराग्य के समूह/भंडार हैं एवं भगवद्भक्ति के सागर हैं।

6. पुण्डरीकाक्ष स्वामी (उय्यकोंडार)

नमः पङ्कजनेत्राय नाथश्रीपादपङ्कजे ।
न्यस्तसर्वभरायास्मत्कुलनाथाय धीमते ॥

अन्वयः –

नाथश्रीपादपङ्कजे न्यस्तसर्वभराय अस्मत्- कुलनाथाय धीमते पङ्कजनेत्राय नमः।

अर्थ:

श्री नाथमुनि के चरण कमलों में समस्त भार का समर्पण करने वाले हमारे कुल के नाथ, बुद्धिशाली, पङ्कजनेत्र (पुण्डरीकाक्ष) स्वामी को नमस्कार हो।

7. राम मिश्र स्वामी (मनक्काल नम्बी) (Manakkal Nambi)

अयत्नतो यामुनमात्मदासमलर्कपत्रार्पणनिष्क्रयेण ।
यः क्रीतवानास्थितयौवराज्यं नमामि तं रामममेयसत्त्वम्

अन्वयः –

आस्थित यौवराज्यं यामुनम् अयत्नत: अलर्कपत्रार्पण- निष्क्रयेण क्रीतवान् तं रामम् अमेय-सत्त्वं नमामि ।

अर्थ:

जिन्होंने युवराज पद पर स्थित यामुन मुनि को, बिना यत्न के, अलर्क के पत्तों के मूल्य से खरीद लिया, बुद्धि से परे सत्त्व गुण वाले, उन राम मिश्र स्वामी को नमस्कार करता हूँ।

8. यामुनाचार्य स्वामी (आलवन्दार)

यत्पदाम्भोरुहध्यानविध्वस्ताशेषकल्मषः।
वस्तुतामुपयातोऽहं यामुनेयं नमामि तम् ॥

अन्वयः –

यत् पद्-अम्भोरुह-ध्यान -विध्वस्त -अशेष – कल्मष: अहं वस्तुताम् उपयात: तं यामुनेयं नमामि ।

अर्थ:

जिनके चरणकमलों के ध्यान से मेरे समस्त पाप/कलुष विध्वस्त हो गये, और मैं वस्तु बन गया (अर्थात्, आत्मस्वरूप को जान पाया), उन यामुन मुनि को नमस्कार करता हूँ।

9. महापूर्ण स्वामी / पराङ्कुश दास (पेरिय नम्बी)

(यामुनाचार्य के शिष्य एवं रामानुजाचार्य के गुरु):-

कमलापतिकल्याणगुणामृतनिषेवया ।
पूर्णकामाय सततं पूर्णाय महते नमः ॥

अन्वयः –

कमलापति – कल्याणगुण – अमृत-निषेवया सततं पूर्णकामाय महते पूर्णाय नमः ॥

अर्थ:

लक्ष्मीपति के कल्याण गुणों रूप अमृत के पान से (अनुभव से) निरन्तर पूर्णकाम (संतुष्ट, तृप्त) रहने वाले, महापूर्ण स्वामी को नमस्कार है।

10. श्री रामानुज स्वामी (एम्पेरुमानार)

यो नित्यमच्युतपदाम्बुजयुग्मरुक्म-व्यामोहतस्तदितराणि तृणाय मेने।
अस्मद्गुरोर्भगवतोऽस्य दयैकसिन्धोः रामानुजस्य चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥

अन्वय

यः नित्यम्- अच्युत – पदाम्बुज – युग्म-रुक्म- व्यामोहत : तद्‌ – इतराणि-तृणाय मेने, अस्य भगवत: दयैक सिन्धो: अस्मद्गुरो: रामानुजस्य चरणौ शरणं प्रपद्ये ।

अर्थ:

जो सदा अच्युत (भगवान) के चरणकमल रूपी स्वर्ण के व्यामोह से, इतर सभी को तृण के समान मानते हैं, ऐसे भगवान, दया के सिन्धु, हमारे गुरू, रामानुज स्वामी के चरणों को शरण मानता हूँ (उपाय के रूप में अध्यवसाय करता हूँ)।

11. श्री दाशरथि स्वामी (मुदलि आण्डान)

पादुके यतिराजस्य कथयन्ति यदाख्यया ।
तस्य दाशरथेः पादौ शिरसा धारयाम्यहम् ॥

अन्वय :

यद् आख्यया यतिराजस्य पादुके कथयन्ति तस्य दाशरथेः पादौ अहं शिरसा धारयामि

अर्थ:

जिनके नाम से यतिराज रामानुज स्वामी के पादुकाओं को कहते हैं, उन दाशरथि स्वामी के चरणों को मैं सर पर धारण करता हूँ।

रामानुज स्वामी से अपृथक होने के कारण दाशरथि स्वामी और कूरेश स्वामी का भी आचार्य-परम्परा में अनुसन्धान करते हैं। हालाँकि रामानुज स्वामी के बाद के आचार्य गोविन्द स्वामी हैं, जो पराशर भट्ट के गुरु थे।)

11. श्री कूरेशाचार्य स्वामी (श्री वत्सचिन्ह मिश्र) (कुरत्त आल्वान)

श्रीवत्सचिह्नमिश्रेभ्यो नम उक्तिमधीमहे ।
यदुक्तवस्त्रयीकण्ठे यान्ति मङ्गलसूत्रताम् ॥

अन्वयः

य: उक्तयः त्रयी- कण्ठे मङ्गलसूत्रताम् यान्ति, (तस्मै) श्रीवत्स चिह्न मिश्रेभ्यः नमः उक्तिम् अधीमहे

अर्थ:

जिनकी उक्तियाँ (श्री सूक्तियाँ) वेदों के कण्ठ में मङ्गलसूत्र बन गये, (उन), श्रीवत्सचिन्ह मिश्र को नमः कहता हूँ।

टिप्पणी:

जिस प्रकार मङ्गलसूत्र से स्त्री के सुहागन (भार्या) होने का ज्ञान होता है और इस भ्रम का निर्मूलन होता है उसका कोई पति नहीं है; उसी प्रकार कूरेश स्वामी के ग्रंथों से वेदों के परम-पुरुष कौन हैं, इसका ज्ञान होता है एवं नास्तिकता और बहु-ईश्वरवाद के भ्रम का निर्मूलन हो जाता है।

11. श्री गोविन्द स्वामी (एम्बार)

रामानुजपदच्छाया गोविन्दाह्वाऽनपायिनी ।
तदायत्तस्वरूपा सा जीयान्मद्विश्रमस्थली ॥

अन्वयः

रामानुज- पद-छाया अनपायिनी तदायत्तस्वरूपा मद्-विश्रमस्थली गोविन्द-आह्वा सा जीयात् ।

अर्थ:

रामानुज स्वामी से कभी अलग न होने वाली, उनके अधीन स्वरूप वाली, मेरी विश्राम-स्थली, गोविन्द नाम की उनकी चरणों की परछाईं जीये।

(गोविन्द जीयर स्वामी रामानुज स्वामी के चरणों की परछाईं की तरह थे। एम्पेरुमानार स्वामी रामानुजाचार्य जी का नाम है। इसके आरम्भ और अन्त के पद को जोड़ दें तो बनता है:- एम्बार। यह गोविन्द स्वामी का शुभ नाम है। तमिल में इस शब्द का अर्थ है, विश्रामस्थली। इस कारण पराशर भट्ट स्वामी गोविन्द स्वामी को ‘मेरी विश्राम-स्थली‘ से संबोधित कर रहे हैं।)

12. श्रीपराशर भट्टार्य

श्रीपराशरभट्टार्यः श्रीरंङ्गेशपुरोहितः ।
श्रीवत्सांकसुतः श्रीमान् श्रेयसे मेऽस्तु भूयसे ॥

अन्वय

श्रीरङ्गेश पुरोहितः श्रीवत्सांकसुतः श्रीमान् पराशरभट्टार्यः मे भूयसे श्रेयसे अस्तु ।

अर्थ:

श्री रंङ्गेश भगवान के पुरोहित, श्री वत्सांकमिश्र के पुत्र, श्रीमान पराशर भट्ट जी मुझपर खूब कल्याणकारी हो ।

(श्री वैष्णव परम्परा में श्री पराशर भट्ट जी का विशेष स्थान है। रामानुज स्वामी ने अपने अन्त समय में कहा था कि पराशर भट्ट में मेरी ही छवि देखना।)

13. श्री वेदान्ति स्वामी (नन्जीयर)

नमो वेदान्तवेद्याय जगन्मङ्गलहेतवे ।
यस्य वागमृतासारपूरितं भुवनत्रयम् ।।

अन्वय

यस्य वाग-अमृत-आसार-पूरितं भुवनत्रयम जगन्मङ्ग‌ल-हेतवे वेदान्तवेद्याय नमः

अर्थ:

जिनके वाणी रूपी अमृत के प्रवाह से तीनों लोक भरा-पुरा है, संसार के मङ्गल के प्राथमिक कारण, वेदान्ति स्वामी को नमन करता हूँ।

14. श्री कलिवैरी स्वामी (नम्पिल्लै)

वेदान्तवे‌द्यामृतवारिराशेर्वेदार्थसारामृतपूरमग्यम् ।
आदाय वर्षेन्तमहंप्रपद्ये कारुण्यपूर्ण कलिवैरिदासम् ।।

अन्वय

वेदान्तवेद्य-अमृत – वरिराशे: वेदार्थ सार – अमृत-पूरम् – अग्र्यम्
आदाय वर्षन्तं कारुण्यपूर्णं कलिवैरिदासम् अहं प्रपद्ये ।

अर्थ:

वेदान्ति स्वामी (नाम के) अमृतरूप सागर से वेदार्थ के सार रूप अमृत के श्रेष्ठ प्रवाह (धारा) को लेकर वर्षा करने वाले, करुणा से पूर्ण, कलिवैरिदास की मैं शरणागति करता हूँ

15. श्री कृष्णपाद स्वामी (वडक्क तिरुवीथि पिल्लई)

श्रीकृष्णपादपादाब्जे नमामि शिरसा सदा ।
यत्प्रसादप्रभावेन सर्वसि‌द्धिरभून्मम ।।

अन्वय

यत्प्रसाद-प्रभावेण सर्वसिद्धिः अभूत् मम श्री कृष्णपाद- पादाब्जे सदा शिरसा नमामि ।

अर्थ:

जिनके कृपा के प्रभाव से मेरी सभी सिद्धियों उत्पन्न हुयीं, उन श्री कृष्णपाद स्वामी के चरणों में सदा शिर से नमन करता हूँ।

16. श्री लोकाचार्य स्वामी

लोकाचार्याय गुरवे कृष्णपादस्य सूनवे ।
संसारभोगिसन्दष्टर्जीवजीवातवे नमः ।।

अन्वय

संसार – मोगि – सन्दष्ट – जीव-जीवातवे कृष्णपादस्य सूनवे लोकाचार्य गुरवे नमः

अर्थ:

संसार (रुप) सर्प से डंसे हुए जीवों के लिए जीवनौषध, कृष्णपाद स्वामी के पुत्र, लोकाचार्य गुरु को नमस्कार है।

17. श्री शैलेश स्वामी (तिरुवाइमोली पिल्लई)

नमः श्रीशैलनाथाय कुन्तीनगरजन्मने ।
प्रसादलब्धपरमप्राप्यकैड्‌कर्यशालिने ।।

अन्वय

प्रसादलब्ध परम- प्राप्य- कैङ्कर्यशालिने कुन्तीनगर-जन्मने श्री शैलनाथाय नमः ।

अर्थ:

अनुग्रह से प्राप्त परम पुरुषार्थ रुप कैंकर्य से युक्त, कुन्तीनगर में जन्मे, श्री शैलनाथ स्वामी को नमन है।

18. श्री वरवर मुनि स्वामी (मनवाल मामुनिगल)

श्रीशैलेशदयापात्रं धीभक्त्यादिगुणार्णवम् ।
यतीन्द्रप्रवणं वन्दे रम्यजामातरं मुनिम् ।।

अन्वय

श्रीशैलेश दयापात्रं धी-भक्ति-आदि-गुण- अर्णवं यतीन्द्रप्रवणं रम्यजामातरं मुनिं वन्दे ।

अर्थ:

श्री शैलनाथ के कृपापात्र, बुद्धि और भक्ति आदि गुणों के सागर, यतिराज में आसक्त, वरवर मुनि की वन्दना करता हूँ।

3 thoughts on “श्री वैष्णव गुरु परम्परा”

Leave a comment