श्रीमद भागवत पुराण ( 11.5)
कृतादिषु प्रजा राजन् कलाविच्छन्ति सम्भवम् ।
कलौ खलु भविष्यन्ति नारायणपरायणाः ॥ ३८॥
क्वचित्क्वचिन्महाराज द्रविडेषु च भूरिशः ।
ताम्रपर्णी नदी यत्र कृतमाला पयस्विनी ॥ ३९॥
कावेरी च महापुण्या प्रतीची च महानदी ।
ये पिबन्ति जलं तासां मनुजा मनुजेश्वर ।
प्रायो भक्ता भगवति वासुदेवेऽमलाशयाः ॥ ४०॥
भावार्थ: कलियुग में द्रविड़ देश में स्थित ताम्रपार्नी, वैगै, पयस्विनी (पालारु), कावेरी आदि प्रसिद्ध एवं पवित्र महानदियों के तट पर कई भगवद्भक्तों का अवतार होगा, जिनके द्वारा भक्ति का व्यापक प्रचार और प्रसार होगा|
कलियुग के ४० दिन बीतने पे सठकोप सूरी आलवार (नाम्माल्वार) का अवतरण हुआ| आलवार श्री विष्वक्सेन के अवतार थे| वो यह सोचते हुए विलाप करने लगे कि हाय! कितना अभागा हूँ मैं| ४० दिन पहले आता तो साक्षात् भगवान के दर्शन हो जाते| इस वेदना से उनके ह्रदय में तड़पन बढ़ गया, ह्रदय द्रवित हो गया और द्रविड़ में भक्ति उत्पन्न हुयी:
उत्पन्ना द्रविडे साहं वृद्धिं कर्णाटके गता । क्वचित्क्वचिन्महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता ॥
(श्रीमद भागवतम महात्म्य 1. 48)
द्रविड़ में १२ आलवारों का अवतार हुआ| आलवार का अर्थ है भगवत-प्रेम में निमग्न रहना| आलवारों के काव्य-रचनाओं (सूक्तियों) को दिव्य-प्रबंध कहते हैं| इन्हें द्रविड़ वेद या द्रविड़ोपनिषद भी कहा जाता है| कालांतर में भक्ति कि यह धारा नाथ मुनि, रामानुज और रामानंद जैसे महा-आचार्यों से सिंचित होकर जनसामान्य तक सर्व-सुलभ हुआ| विशिष्टाद्वैत का प्रमुख सिद्धांत है- भगवान का सर्ववस्तु स्वरूपी होना| “सियाराममय सब जग जानी”| कबीर भी कहते हैं:
भक्ति जन्मी द्रविड़ में, उत्तर लाये रामानंद|
गोदा का अविर्भाव एक छोटी शिशु के रूप में पूज्य विष्णुचित्त के नन्दवन में, एक तुलसी पौधे की छाया में हुआ| अषाढ़ मास के पूर्वफाल्गुनी नक्षत्र में अयोनिजा गोदा प्रकट हुयीं| यथावत् विष्णुचित्त बड़े सबेरे फूल चुनने अपने नन्दवन आए| चारों तरफ का वातावरण निस्तब्ध, सुन्दर एवं मनमोहक था| आलवार ने एक तुलसी पौधे की छाया में एक अद्भुत दृश्य देखा| उस स्थान पर पवित्र दीप्ति दिखाई दी, चारों तरफ प्रकाश फैल रहा था| निकट पहुँचाने पे उन्होंने वहाँ एक लावण्यमयी कन्या को देखा|
निस्संतान विष्णुचित्त उनकी अतुल सुन्दरता, दिव्य तेज और कान्ति देख वे आनंद विभोर हो गए|

विष्णुचित्त ने बड़े प्रेम से गोदा का पालन-पोषण किया| उन्होंने बचपन से ही गोदा को भगवान की दिव्य लीलाओं का रसास्वादन कराया गया था और इस प्रकार गोदा का मधुर बचपन भगवत-प्रेम में लीन रहा| श्री विष्णुचित्त हर रोज़ वटपत्रशायी भगवान के लिए सुघंदित पुष्पों की माला बनाते थे| गोदा भी अपने पिताजी के साथ रोज़ फुलवारी जातीं, पुष्प चुनतीं और फूलमालाएं गुथती| मालाएँ गूंथते विष्णुचित्त गोदा को भगवान के कल्याण-गुणों को और उनकी मधुर लीला का पान कराते| परमभक्त विष्णुचित्त के संरक्षण में भगवान के प्रति प्रेम और भक्ति तीव्र होती जाती थी|

गोदा भगवान को ही अपना पति मानने लगी| भगवान के योग्य और प्रिय बनना ही उनके जीवन का लक्ष्य हो गया| उन्हें बराबर यह चिंता होने लगी कि भगवान ने उसे दर्शन क्यों नहीं दिए|

एक दिन पिता की अनुपस्थिति में गोदा ने भगवान वटपत्रशायी के निमित्त टोकरी में रखी सुन्दर और मनमोहक मालाएँ निकालकर स्वयं पहन लिया| अपने कुंतल और गले में मालाओं को सजाकर उन्होंने खुद को आईने में देखा और सामने खड़ी होकर सोचने लगी – “अरे ! कितनी सुन्दर माला है | मै खुद इस माला के प्रति आकर्षित हो रही है | क्या यह माला पहनकर मै भगवान के साथ योग्य हूँ या अयोग्य हूँ”? अपनी सुन्दरता को निहारकर वह बहुत आह्लादित हुयीं और उन्हें दृढ विश्वास हो गया कि वह भगवान रंगनाथ के अनुकूल और पूर्ण रूप से प्रिय लगेंगी| तुरंत उन्होंने पुष्पमालाओं को उतारकर पूर्ववत् टोकरी में रख दिया| कई दिनों तक यह क्रम चलता रहा लेकिन पिता इससे अनभिज्ञ रहे|
श्री विष्णुचित्त पुष्पमालाओं को यथावत् ले जाकर मंदिर में भगवान को समर्पित करते थे| मालाओं की अनुपम सुन्दरता और सुगंध को पाकर अर्चकों ने समझा की यह आलवार की पवित्र भक्ति के कारण है|
रोज की तरह, जब एक दिन गोदा पुष्पमालाओं से सजकर, भगवान की प्रेम-धारा में बहते हुए, उसके रसोस्वादन में मग्न रही, तभी श्री विष्णुचित्त वहाँ पहुँच गए| पिता ने देखा – गोदा भगवान के भोग्य वस्तु को (असमर्पित माला) स्वयं पहनकर उसका रसास्वादन कर रही थी | यह देखकर
विष्णुचित्त बहुत व्याकुल और निराश हुए और तदन्तर उन्होंने यह माला भगवान को अर्पण नहीं किया| गोदा के इस व्यवहार से वह अत्यंत दुखी हुए| उन्होंने विचार किया कि न जाने कितने दिनों से यह कन्या इस तरह का कार्य कर रही होगी| इससे भी दुखी हुयी और उनके आँखों में आंसूओं की धारा बहने लगी| विष्णुचित्त ने उन्हें मीठे स्वर आश्वासन और उपदेश किया|
विष्णुचित्त ने दुबारा नन्दवन से फूल चुनकर पुनः मालाएँ गुंथीं और भगवान को समर्पित किया| रोज की तरह मालाओं में महक और सुन्दरता का अनुभव नहीं हुआ| उन्होंने सोचा कि कहीं गोदा के उक्त कार्य के कारण भगवान नाराज तो नहीं हो गए? मानसिक चिंता में लेटे-लेटे उनकी आँख लग गयी कि तभी उनकी आँखें चौंधिया गयीं| अद्भुत प्रकाश और अनुपम सुन्दरता का दृश्य है| इस प्रकार स्वप्न में भगवान के दिव्य दर्शन पाकर वह आनंद विभोर हो गए|भगवान ने उनसे पूछा कि उन्होंने आज सुगंधरहित पुष्पमालाएं अर्पित की| आलवार क्षमा याचना करने लगे तो भगवान ने कहा, “गोदा की घृत एवं भुक्त मालाएँ ही मुझे प्रिय हैं| मैं उन्हीं मालाओं की प्रतीक्षा में हूँ| अपनी घृत पुष्प-मालाएँ और वाचिक-मालाएँ समर्पित करने के लिए ही गोदा का अवतार हुआ है”| इतने में आलवार की नींद खुल गयी और वह चकित होकर चरों ओर देखने लगे| उनके मन में आनंद की लहरें उठनें लगीं|
इस आनंद प्रदायक स्वप्न पर विचार करते हुए उन्होंने गोदा को जगाकर उसे अपने स्वप्न से अवगत कराया| यथावत वे और नंदवन जाकर फूल चुनकर लाये और उनकी मालाएँ गूंथकर गोदा के सामने रखा और उन्हें कहा कि वो इन्हें धारण करके वापस कर दें| गोदा आनंद से पुलकित हो गयीं और उनके आँखों में प्रेमाश्रु की धारा बहने लगी| गोदा ने मालाएँ पहनीं और उन्हें उतारकर प्रेम व श्रद्धा सहित आलवार के हाथों में दे दिया| अब उन मालाओं की नयी सुन्दरता और सुगंध पाकर गोदा के प्रति आलवार की श्रद्धि की श्रीवृद्धि हुई| उन्होंने प्रेम से यह कहकर यह आशीर्वाद दिया, “तुम मेरी आण्डाल् हो”| आण्डाल् अर्थात उज्जीवित करने वाली|
आगे तो इसका क्रम बन गया| विष्णुचित्त मालाएँ गूंथकर गोदा के कुंतल और गले में सजाते और फिर उनके हाथों से मालायें लेकर भगवान वटपत्रशायी को समर्पित करते| उस वक्त से गोदा का नाम ‘शुडिक्कादुत्त नाच्चियर’ या ‘अमुक्तमाल्यादा’ हो गया|

उम्र के साथ-साथ आण्डाल् की भक्ति की भावना तीव्र प्रणय-भावना में बदल गयी| पिता ने उन्हें गोपियों द्वारा किया गया कात्यायनी व्रत करने का उपदेश किया| अब तो आण्डाल (गोदा) के लिए अपना स्थान श्रीविल्लिपुत्तूर ही व्रज भूमि हो गया, भगवान वटपत्रशायी श्री कृष्ण हो गए और उनकी सखियाँ गोपियाँ| श्री कृष्ण के विरह में द्वापर की गोपियाँ जिस प्रकार विरह का अनुभव करती थीं, उसी प्रकार का अनुभव गोदा भी करने लगीं| भाव-समाधि में उन्होंने तिरुप्पावै दिव्य-प्रबंध की रचना की| व्रत का उद्देश्य लोक कल्याण के अलावा यह उद्देश्य था श्री रंगनाथ उनके पति बनें|
गोदा जी की श्री रंगनाथ से विवाह की कथा ‘नाच्चियार थिरुमोरी’ में है जिसमें १४३ सूक्तियाँ हैं|
Jay shreeman narayana 🙇🙇❣
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