तिरुपावै 10वाँ पासूर

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श्रीरंगम् उ वे मीमांसा शिरोमणि भरतन् स्वामी द्वारा अनुगृहीत दशम गाथा का संस्कृत छन्दानुवाद:

१०.अनुष्ठाय व्रतं स्वर्गं विशन्त्यस्मत्सुरक्षिके ! ।
नोद्घाटयन्ति ये द्वारं ते ददत्युत्तरं न किम् ।।
सुगन्धितुलसीमूर्धाऽस्माभिर्नारायणस्तु यः ।
ईडितो दास्यते भेरीं पुण्यरूपेण तेन हि ।।
यमास्यं कुम्भकर्णो यः कदाचित्प्रापितः पुरा ।
निर्जितः सोऽपि तुभ्यं नु दीर्घनिद्रामदात् किमु ।।
महातन्द्रायुते ! हेऽम्ब ! गोपीजनशिरोमणे! ।
विवेकसहिताऽऽगत्य कवाटोद्घाटनं कुरु ।।

आज की गाथा में जिस गोपी का उत्थापन किया जाता है उसे ‘गोपियों में रत्न’/ ‘गोपीजनशिरोमणि’ और ‘स्वामिनी’ कहकर सम्बोधित किया गया है। आचार्यों ने इस गोपी को सिद्ध-उपाय निष्ठ आदर्श शरणागत कहा है| भगवान पुरुषार्थ है और स्वयं उपाय भी| भगवान स्वयं अपने प्रयत्न से जीवात्मा को प्राप्त करते हैं क्योंकि जीवात्मा भगवान की संपत्ति है| जो सभी साधनों का अवलंबन छोड़ भगवान को ही सिद्ध-उपाय मानते हैं, वो आदर्श शरणागत हैं|

जितना प्रयत्न बाकि गोपियाँ भगवान तक पहुँचने के लिए करती हैं, उतना ही प्रयत्न भगवान इस श्रेष्ठ गोपी तक पहुँचने के लिए करते हैं| कर्म-ज्ञान-भक्ति को साधन मानने वाले कई जन्मों से प्रयत्नशील हैं जबकि भगवान को ही सिद्धोपाय मानने वाले निश्चिन्त होते हैं| यहाँ गोपी के शयन का अर्थ अपना भार गोविन्द पर निश्चिन्त रहना है|

“हे सखी! क्या तुम्हें व्रत का फल रूप स्वर्ग मिल गया है?”

यहाँ स्वर्ग का अर्थ है कृष्णानुभव। रामायण में सीता माँ कहती हैं:
य: त्वया सह स स्वर्ग: निरयो य: त्वया बिना।

भगवान के संग रहना, उनका अनुभव करना ही स्वर्ग। उनका अनुभव न होना ही नरक है।

हमारे व्रत का फल क्या है? कृष्णानुभव। वो तुम्हें अभी ही प्राप्त हो गया। तभी तो तुम सो रही हो। कृष्ण तुम्हारे साथ ही, तुम्हारे घर में हैं।

“हे हमारी स्वामिनी! किवाड़ नहीं खोल सकती (कृष्ण के संग होने के कारण) तो कम से कम मुँह तो खोल सकती हो। हमारा प्रत्युत्तर तो दो।”

अन्दर से स्वामिनी गोपी प्रत्युत्तर देती है, “क्या प्रमाण है कि कृष्ण मेरे साथ हैं?”

गोदाम्बा प्रत्युत्तर देती हैं, “तुम्हारे घर से तुलसी की सुगन्ध आ रही है। तुम दोनों छुपने का प्रयत्न कर सकती हो लेकिन तुलसी की सुगंध को नहीं छूपा सकती।”

स्वामिनी गोपी: ““ यदि मैं एक बार भी उनका आलिंगन कर लूँ तो शरीर कई दिनों तक सुगंधित रहता है| और वो अन्दर कैसे आ सकते हैं? दरवाजा तो बंद है”।

गोदाम्बा: “वो नारायण हैं, सर्वत्र विद्यमान हैं| क्या उन्हें दरवाजे रोक सकते हैं?

गोपी गीत में गोपिकाएँ कहती हैं: ‘न खलु गोपिका नन्दनो भवान् अखिल देहिनाम् अन्तरात्मदृक।’

“हम जिनका गुणगान कर रही हैं, जो पुण्य रूप भगवान हमें ढोल (कैंकर्य) प्रदान करेंगे, एक बार की बात हैं, वो नारायण रामावतार में कुम्भकर्ण को काल के गाल में भेज दिया था। वो कुम्भकर्ण भी तुमसे निद्रा प्रतिस्पर्धा में हार गया और पुरस्कार में तुम्हें अपनी नींद भी दे दिया।”

“मुझे बाहर आने में थोड़ी देर क्या हुई, तुम इतने कड़े शब्दों का प्रयोग क्यों कर रही हो?”

“हे हमारी गोष्ठी की दुर्लभ बेशकीमती रत्न, क्या हम तुम्हें बाहर आते हुए देख सकते हैं? अच्छे से तैयार होकर बाहर आओ, हम अपना व्रत पूर्ण करेंगी।”

स्वामिनी गोपीजनशिरोमणि गोपी द्वार खोलकर बाहर आती हैं एवं गोष्ठी में शामिल हो जाती हैं।

*स्वापदेश*:
1. हम श्री वैष्णव भी वैसे ही हैं, जिनके सभी व्रत पूर्ण हो गए हैं। शठकोप आळ्वार कहते हैं कि हमें सभी व्रतों के फल मिल गया। महाभारत में कहते हैं कि जिन्हें कृष्ण का अनुभव मिल गया, उनके सारे व्रत पूर्ण हो गए। हम श्री वैष्णव भी कर्म योग, ज्ञान योग, भक्ति योग, प्रपत्ति योग आदि का उपाय रूप में त्याग कर चुके हैं। हम उपाय रूप में कोई व्रत या तपस नहीं करते।

2. भगवान का अनुभव ही हमारे लिए स्वर्ग है और उनका अनुभव न होना ही नरक।
3. भगवान ही पुण्य हैं। पुण्य का अर्थ है वो जो सुख प्रदान करे। मोक्ष प्रदान करने वाले पुण्य हमारे लिए भगवान ही हैं।
4. अन्तिमोपाय निष्ठ श्री वैष्णवों के लिए स्वर्ग का अर्थ है श्री वैष्णव साधू गोष्ठी| व्रत है भागवतों का मंगलाशासन और तदीय आराधन

संस्कृत अनुवाद

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हिंदी छन्द अनुवाद

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हे सखी! तुमने तो स्वर्ग की अनुभूति प्राप्त करने के लिये तपस्या भी की है ।

द्वार खुला नहीं है, पर फिर भी जो अंदर है वह आवाज़ तो दे सकते है ।

क्या पहले के समय में कुम्भकरण ,जो भगवान् के हाथो यमपुरी पहुँच गया ,जिस भगवान् नारायण का हम सदा गुणगान करते है,जो सदा साथ रहकर हमें कैंकर्य प्रदान करते है , वह तुमसे हारकर अपनी निंदिया तुम्हे दे दी?

हे आराम से निद्रा लेने वाली अनमोलरत्न ,उठो निद्रा त्याग कर किवाड़ खोलो।

इस पासुर में गोदा ऐसी श्रेष्ठ गोपी के महल आती हैं जो कान्हा की अत्यंत प्रिया है| कान्हा अक्सर उसके संग रहते थे| वह नित्य प्रति कान्हा के अनुभव में लीन रहती थी| आचार्यों ने इस गोपी को सिद्ध-उपाय निष्ठ आदर्श शरणागत कहा है| भगवान पुरुषार्थ है और स्वयं उपाय भी| भगवान स्वयं अपने प्रयत्न से जीवात्मा को प्राप्त करते हैं क्योंकि जीवात्मा भगवान की संपत्ति है| जो सभी साधनों का अवलंबन छोड़ भगवान को ही सिद्ध-उपाय मानते हैं, वो आदर्श शरणागत हैं|

जितना प्रयत्न बाकि गोपियाँ भगवान तक पहुँचने के लिए करती हैं, उतना ही प्रयत्न भगवान इस श्रेष्ठ गोपी तक पहुँचने के लिए करते हैं| कर्म-ज्ञान-भक्ति को साधन मानने वाले कई जन्मों से प्रयत्नशील हैं जबकि भगवान को ही सिद्धोपाय मानने वाले निश्चिन्त होते हैं| यहाँ गोपी के शयन का अर्थ अपना भार गोविन्द पर निश्चिन्त रहना है|

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नोऱ्ऱुच् – व्रत करते हुए

शरणागतों के लिए उपाय और उपेय; दोनों भगवान ही हैं| गोपियों का व्रत क्या है? भगवान के अनन्त कल्याण गुणों का अनुभव करना, उनका यशोगान करना, नाम-संकीर्तन करना|

ऐसा लगता है कि तुमने व्रत का फल प्राप्त कर लिया है| कान्हा तुम्हारे साथ हैं और इसी कारण तुम दरवाजा नहीं खोल रही|

चुवर्क्कम् पुगुगिन्ऱ – स्वर्ग/ सुवर्ग का अनुभव करते हुए;

साधारण लोगों के लिए स्वर्ग इन्द्रलोक है और नरक यमलोक किन्तु रामायण में सीता कहती हैं

“ आपके साथ रहना ही मेरे लिए स्वर्ग और आपके बिना रहना नरक”

गोदा व्यंग करती हैं, “ तुम कान्हा के संग हो और कान्हा का अकेले अनुभव करना चाहती हो, इस कारण दरवाजा नहीं खोल रही| दरवाजा खोलो हे सखी! हम कान्हा को तुमसे नहीं छिनेंगे|

आतंरिक अर्थ:

अन्तिमोपाय निष्ठ श्री वैष्णवों के लिए सुवर्ग का अर्थ है श्री वैष्णव साधू गोष्ठी| व्रत है भागवतों का मंगलाशासन और तदीय आराधन|

अम्मनाय्!:  ओ हमारी स्वामिनी!

गोदा अन्दर सो रही गोपी को ‘हमारी स्वामिनी’ कहकर तंज कसती हैं| हमारा स्वभाव तो श्री वैष्णवों के दास होने का है, कहीं भगवान ऐसा न समझें कि तुम अपने को स्वामिनी समझ द्वार पर आये वैष्णवों का अभिनन्दन-वन्दन न कर भागवत-अपचार कर रही हो| भागवत-कैंकर्य तो भगवत-कैंकर्य से भी श्रेष्ठ है|

अपने ऊपर हो रहे व्यंगों को सुन गोपिका चुप रहना ही उचित समझती हैं या द्वार पर आये श्री वैष्णवों को देख ख़ुशी के मारे कुछ बोल नहीं पा रही हैं| बाहर गोपिकाएँ समझती हैं कि अन्दर कान्हा हैं, इस कारण गोपिका दरवाजा नहीं खोल रही|

माऱ्ऱमुम् तारारो वासल् तिऱवादार् — तुम दरवाजा नहीं खोल रही, अब क्या कुछ बोलोगी भी नहीं?

हम तुम्हारे खामोशी को सहन कर पाने में असमर्थ हैं| दरवाजा बंद है तो कम से कम मुख तो खोल दो| अन्दर तुम अपने को कान्हा को समर्पित कर चुकी हो, वह तुम्हें दरवाजा नहीं खोलने दे रहे लेकिन कुछ तो बोलो कम से कम| चलो कान्हा तुम्हारे ही हैं, लेकिन तुम तो हमारी हो न| कान्हा के रूप से तुम्हारी आँखें नहीं हट रहीं लेकिन मुख तो खोल सकती हो न?

गोपी कहती है: “ तुम कहती हो कि कान्हा मेरे साथ हैं| इसका क्या प्रमाण है”?

नाऱ्ऱत् तुळाय् मुडि:

तुम दोनों छुपने का प्रयत्न कर सकती हो लेकिन तुलसी की सुगंध को नहीं छूपा सकती.

गोपी जबाब देती है, “ यदि मैं एक बार भी उनका आलिंगन कर लूँ तो शरीर कई दिनों तक सुगंधित रहता है| और वो अन्दर कैसे आ सकते हैं? दरवाजा तो बंद है”

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नारायणन्: नारायण (हर आत्मा जिनका घर है और जो हर आत्मा के घर हैं)

“वो नारायण हैं, सर्वत्र विद्यमान हैं| क्या उन्हें दरवाजे रोक सकते हैं? क्या वह तुम्हारे अन्तर्यामी नहीं हैं”? गोपी गीत में गोपिकाएँ कहती हैं

“आप केवल यशोदा के पुत्र नहीं, सभी के अंतरात्मा हैं”| ऐसी ज्ञानी थीं गोपिकाएँ|

नम्माल् पोऱ्ऱप् पऱै तरुम्:

हमलोग (साधारण गोप कन्यायें) जिनका गुणगान करती हैं और जो हमें परम पुरुषार्थ (परई) प्रदान करते हैं|

भगवान का ऐसा सौलभ्य है कि साधारण कुल में जन्में गोप कन्यायों के लिए भी अति-सुलभ हैं|

पण्डु ओरु नाळ् कूऱ्ऱत्तिन् वाय् वीळ्न्द कुम्बकरुणनुम्

एक बार की बात है, भगवान के हाथों वध होने वाला कुम्भकरण भी नींद में तुमसे हार जाए|

कुम्भकरण हमेशा सोता रहता था और इस कारण वह विभीषण की तरह भगवत-कैंकर्य न कर सका| वह कुम्भकरण भी तुमसे हार गया| कुम्भकरण तो 6 महीने में एक बार जागता था, तुम सृष्टि जब से हुयी है, तब से सो रही हो| हारने वाला व्यक्ति अपनी सम्पत्ति विजेता को सौंप देता है| ऐसा लगता है कि कुम्भकरण भी तुमसे हारकर अपनी नींद तुम्हें सौंप गया|

गोपिका सोचती है कि ये लोग मेरी तुलना ऐसे व्यक्ति से कर रहें जिसके कारण अम्माजी भगवान से दूर हुयीं| वह चुप ही रहती है|

आतंरिक अर्थ:

कुम्भकरण तमोगुण का प्रतीक है| वैष्णव सत्त्व-गुणी होते हैं| तमोगुण का अर्थ है आलस्य, इर्ष्या आदि जो हमें भगवत-भागवत-कैंकर्य से दूर कर देता है|

कुम्भकरण का एक अर्थ कुम्भ से उत्पन्न होने वाले ऋषि अगस्त्य भी हैं| जैसे अगस्त्य ऋषि ने बिन्ध्य के गर्व को चूर कर दिया वैसे ही आचार्य भी शिष्यों के अंदर आये अभिमान रूपी शत्रु को दूर करते हैं| जैसे अगस्त्य ऋषि समस्त सागर को पी गए वैसे ही आचार्य भी श्रोतिय ब्रह्मनिष्ठ होते हैं|

आऱ्ऱ अनन्दल् उडैयाय् – क्या हम तुम्हें जागकर बाहर आते हुए देख सकते हैं?

अरुम् कलमे!- दुर्लभ बेशकीमती रत्न;

श्री वैष्णव गोष्ठी में आत्म-गुण संपन्न वैष्णव ही रत्न होते हैं| ज्योंहीं उत्तम अधिकारी गोपी उठकर बाहर आती है, गोदा उसे दुर्लभ रत्न कहके महिमामण्डित करती हैं|

तेऱ्ऱमाय् वन्दु तिऱ – अच्छे से तैयार होकर बाहर आओ.

एलोर् एम्बावाय्

: आओ हम अपने व्रत को पूरा करें

स्वापदेश

मुमुक्षुओं के लिए, पूण्य और पाप दोनों ही जंजीर हैं | पूण्य का सुख भोगने हेतु और पाप का दुःख भोगने हेतु पुनः जन्म लेना होता है| अन्तिमोपाय निष्ठ वैष्णव मोक्ष का भार भगवान और आचार्य पर छोड़ निश्चिंत रहते हैं| उनके लिए कर्म भागवतों का कैंकर्य है, ज्ञान भागवत-परतंत्र के अपने आत्मस्वरूप का अनुभव करना है और भक्ति तदीय अराधन है| 

भगवान हमारे अपराधों का विचार कर हमें मोक्ष से वंचित कर सकते हैं लेकिन हमारी आचार्य-निष्ठा देख, अपने प्रिय भक्त का स्मरण कर आनंदित भगवान हमें तुरंत स्वीकार कर लेंगे| जैसे अपने बछड़े को देख गाय दूध देने लगती है और ग्वाले को दूध मिल जाता है|

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Author: ramanujramprapnna

studying Ramanuj school of Vishishtadvait vedant

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