तूमणि माडत्तुच् चुऱ्ऱुम् विळक्केरिय
दूपम् कमळत् तुयिल् अणै मेल् कण् वळरुम्
मामान् मगळे मणिक्कदवम् ताळ् तिऱवाय्
मामीर् अवळै एळुप्पीरो? उन् मगळ्दान्
ऊमैयो अन्ऱिच् चेविडो अनन्दलो?
एमप् पेरुन्दुयिल् मन्दिरप्पट्टाळो?
मामायन् मादवन् वैगुन्दन् एन्ऱु एन्ऱु
नामम् पलवुम् नविन्ऱु एलोर् एम्बावाय्
श्रीरंगम् उ वे मीमांसा शिरोमणि भरतन् स्वामी द्वारा नवम् गाथा का संस्कृत छन्दानुवाद।
९. रत्नैः स्वच्छैः कृते हर्म्ये दीपे ज्वलति सर्वतः ।
प्रसृते धूपगन्धे च शयाने! मृदुतल्पके ।।
मातुलस्य सुते ! शीघ्रं कवाटं मणिनिर्मितम् ।
निरर्गलीकुरुष्व त्वं तामुत्थापय मातुलि ! ।।
दुहिता तव मूका किम् एडा वा तन्द्रिता किमु ।
मन्त्रैर्वा दीर्घनिद्रायां बद्धा किं वा निरोधिता ।।
महामायेति वैकुण्ठेत्यम्बुजारमणेति च ।
एवं बहूनि नामानि संकीर्यैनां प्रबोधय ।।
आज जिस गोपी का उत्थापन हो रहा है वो गोदाम्बा की मामा की पुत्री है। यूँ तो हमारे लिए देह सम्बन्ध में आसक्ति रखना उचित नहीं है, वैष्णव आत्मबन्धुओं से ही सम्बन्ध रखना चाहिए। (यहाँ वशिष्ठ जी का पुत्र शक्ति की मृत्यु के बाद एवं भगवान व्यास का पुत्र शुकदेव जी के सन्यास के पश्चात देहसम्बन्ध के प्रति आसक्ति ध्यातव्य है। इस कारण हमारे आळ्वार ऋषियों से भी श्रेष्ठ हैं।) किन्तु यदि देहसम्बन्धी यदि आत्मबन्धु भी हों तो यह परम आश्चर्य की बात है। इससे उत्तम क्या हो सकता है।
उसका घर परिशुद्ध मणियों से निर्मित है। शठकोप आळ्वार भी एक स्थान पर कहते हैं “यहाँ सबके घर दोषरहित मोतियों से निर्मित हैं।”
आचार्यों के अनुसार यहाँ दोषरहित मुक्त जीव को कहा गया है (जो पहले दोषयुक्त थे, अब भगवद-कृपा से दोषरहित हो नित्य लोक में हैं।) परिशुद्ध नित्य जीवों को कहा गया है। वो अस्पृष्ट-संसार-गन्ध हैं।
स्वामी श्री जनन्याचार्य के अनुसार पिछले पाशुर में गोपियों ने एक मुक्तात्मा गोपी (कृष्णवाल्लभ्यशालिनी गोपी) को जगाया और अब एक नित्य जीव गोपी को जगा रहे हैं ।
मानो श्री कृष्ण का स्वागत करने के लिए, इस गोपी ने अपने पूरे महल में दीप जलाए हैं ताकि श्री कृष्ण उसका हाथ पकड़ कर यहां टहल सकें, या शायद केवल एक ही दीपक प्रज्वलित था, किंतु उस एक दीपक की ही अनगिनत परछाइयां महल में जड़े हुए रत्नों में खूबसूरती से जगमगा रहीं थीं ।
अन्दर धूप की सुन्दर खुशबू फैली है और गोपी सुन्दर मृदु और नरम विस्तर पर सोयी है।
“क्या यह बिस्तर इतना मुलायम है की श्री कृष्ण विरह के महान दुख को भी शांत कर दे?”
“परिशुद्ध रत्न से निर्मित घर में, जो दीयों के प्रकाश से जगमग है, सर्वत्र धूप की सुगन्ध है (अर्थात कृष्ण तुम्हारे घर आये होंगे, तुमने अकेले ही आनन्द ले लिया) उसमें मृदु विस्तर पर सो रही मामा की पुत्री! उठो, मणिमय द्वार को खोलो।”
यहाँ गोपियाँ कठोरता दिखाते हुए, “मेरी सखी” न कहके अपने मामा से उसके सम्बन्ध से “मामा की बेटी” कहकर बुलाती हैं।
लेकिन कृष्णानुभव में लीन मातुलपुत्री गोपी फिर भी न उठी तो गोपियों ने अब अपनी मामी को पुकारा! देहसम्बन्ध के कारण, कड़े शब्दों का भी प्रयोग करती हैं।
“हे मामी! आप क्यों इसे जगा रहीं हैं? क्या आपकी बेटी मूर्ख है? गूँगी है? बहरी है? अथवा थककर सोयी है (कृष्ण के साथ अकेले-अकेले क्रीडा करके), किसी के द्वारा मन्त्रशक्ति से परवश की हुई है?
हम कब से भगवान के अनेक नामों का कीर्तन कर रही हैं। “महामायापति! माधव (अम्बुजारमण)! वैकुण्ठ!”
अथवा तीन वर्गीकरण के नामों का कीर्तन कर रही हैं: मायि (सौलभ्य), माधव (लक्ष्मीपति), वैकुण्ठ (परत्व)। माधव नाम मध्य में लेने का अर्थ है कि सौलभ्य और परत्व, दोनों ही लक्ष्मीपतित्व के कारण ही है। यही भगवान का असाधारण गुण है।
अब गोपी जागती है। “तुमलोगों ने भगवान का सहस्रनाम ही नहीं, मेरा भी सहस्रनाम बोल लिया। गूँगी, बहरी, मूर्ख, आलसी, अभिमन्त्रित आदि।”
मातुलपुत्री गोपी उठकर परिशुद्ध रत्नमय किवाड़ खोलती हैं और गोदाम्बा की गोष्ठी में शामिल हो जाती हैं।
श्री प्रतिवादी भयंकर अण्णंगराचार्य स्वामीजी महाराज कहते हैं कि “मणि

तूमणि माडत्तुच् चुऱ्ऱुम् विळक्केरिय
दूपम् कमळत् तुयिल् अणै मेल् कण् वळरुम्
मामान् मगळे मणिक्कदवम् ताळ् तिऱवाय्
मामीर् अवळै एळुप्पीरो? उन् मगळ्दान्
ऊमैयो अन्ऱिच् चेविडो अनन्दलो?
एमप् पेरुन्दुयिल् मन्दिरप्पट्टाळो?
मामायन् मादवन् वैगुन्दन् एन्ऱु एन्ऱु
नामम् पलवुम् नविन्ऱु एलोर् एम्बावाय्
इस पाशुरम् में एक ऐसी गोपी को जगाया जा रहा है जो कि आत्म तत्त्व का पूर्ण ज्ञान रखने वाली तथा एक आदर्श शरणागत हैं। इन गोपिका को यह पूरी जानकारी है कि यह श्री कृष्ण का कर्त्तव्य है कि वे उन्हें लेने आएं और उनके साथ रहें, क्योंकि वह समझती हैं कि हमारा स्वभाव श्री कृष्ण के परतंत्र ही रहने का है और श्री कृष्ण का स्वभाव भी आकर हमें (भवसागर से) बचाने का है ।
अन्य गोपियों सहित किशोरी श्री गोदा महारानी अपने मामा अर्थात अपनी माता के भाई, की बेटी को जगाने आयी हैं । चूंकि वे करीबी संबंधी हैं अतः गोदा उनसे व्यंग्यपूर्ण ढंग से बात करती हैं । अपने सगे संबंधियों में सब व्यंग्य और हास्यपूर्वक बात करते हैं और कोई भी उससे दुखी नहीं होता वरन् सुखी ही होते हैं । वे वक्ता के भाव समझ लेते हैं ।
ऐसा प्रतीत होता है कि यह गोपी कण्णा को परम प्रिय थी क्यूंकि वे इस गोपी से नित्य मिलने आया करते थे । इनका पूरा घर भी परम सुंदर है, जिसमे मीठी खुशबू से भरे सुंदर कमरे हैं जिनमें रत्न जटित सुकोमल शैय्या है, और इनके घर के आंगन में सुंदर बगीचा भी है । और यह किशोरी गोपी श्री कृष्ण के साथ अपने अनुभव को याद करते हुए समाधिस्थ हैं । स्वामी श्री जनन्याचार्य के अनुसार पिछले पाशुर में गोपियों ने एक मुक्तात्मा गोपी को जगाया और अब एक नित्य जीव गोपी को जगा रहे हैं ।
तूमणि माडत्तुच्
।।
। । स्वभाव से शुद्ध और कीमती रत्नों से जगमगाता हुआ महल।
रत्न दो प्रकार के होते हैं । पहले प्रकार के रत्न नित्य शुद्ध व तीनों कालों में दोषों से सदैव अछूते रहते हैं । दूसरे प्रकार के रत्नों में शुरुआत में कुछ दोष रहते हैं किन्तु फिर तराश कर उन्हें भी शुद्व कर दिया जाता है । इसी प्रकार नित्यात्माएं तथा श्री गरुड़ जी, श्री विष्वक्सेन जी, श्री पांचजन्य जी आदि सदैव से मुक्त रहे हैं और मुक्तात्माएं कभी संसार में थी किन्तु अब श्री वैकुंठ में हैं ।
आंतरिक अर्थ
श्री प्रभु का निवास कहां है? हमारे हृदय में । हमारा निवास कहां है? श्री प्रभु के हृदय में । हमारा हृदय श्री प्रभु का निवास स्थान है और श्री प्रभु का हृदय हमारा निवास स्थान है । तथापि हमारा हृदय कर्म द्वारा दूषित है । हमारा शरीर भी पंच महाभूतों से बना है अतः यह भी दूषित है । अतः श्री प्रभु का घर दूषित है लेकिन हमारा घर (श्री प्रभु का हृदय) परम शुद्ध है । इसी प्रकार इस गोपी का घर मणियों से सज्जित है । महान भक्तों का निवास सदैव श्री प्रभु के हृदय में रहता ही है । हम सब भी रत्न ही हैं किन्तु दूसरे प्रकार के, यानी कि अभी दोषों से युक्त हैं । श्री प्रभु हमारे हृदय में रहकर हमें साफ करते हैं । जिस प्रकार रत्न प्रकाश में चमकते हैं, हम भी ज्ञान रूपी चमक से युक्त हैं । हमारा ज्ञान अल्प है वहीं श्री प्रभु का ज्ञान पूर्ण है ।
श्री प्रतिवादी भयंकर अण्णंगराचार्य स्वामीजी महाराज कहते हैं कि “मणि माडत्त” असल में जीवात्मा व ब्रह्म के बीच प्रकाशवान नवविध संबंध है हैं । “तूमणि माडत्त” उसे समझने के लिए हमारी बुद्धि अथवा धर्मभूत है ।
चुऱ्ऱुम् विळक्केरिय – सब जगह दिव्य दीपक जगमगा रहे हैं ।
चुऱ्ऱुम् – सब जगह
विळक्केरिय – दिव्य दीपक
मानो श्री कृष्ण का स्वागत करने के लिए, इस गोपी ने अपने पूरे महल में दीप जलाए हैं ताकि श्री कृष्ण उसका हाथ पकड़ कर यहां टहल सकें, या शायद केवल एक ही दीपक प्रज्वलित था, किंतु उस एक दीपक की ही अनगिनत परछाइयां महल में जड़े हुए रत्नों में खूबसूरती से जगमगा रहीं थीं ।
लेकिन दरवाजा खोलने के लिए प्रार्थना करने वाली गोपियों को अंदर विराजमान प्रकाश का भान कैसे हुआ? क्योंकि महल रत्न जड़ित है अतः कुछ हद तक पारदर्शी भी है, इसी से वे अंदर देख पाईं । आंडाल दुखी होकर कहती हैं कि इधर हम सबके हृदय अंधकार में डूब रहे हैं, उधर तुम प्रकाश से भरे हुए कमरे में किस तरह सो सकती हो?
आंतरिक अर्थ
यद्यपि रत्न हों, तथापि बगैर प्रकाश के कुछ नहीं देखा जा सकता । हम अकार वाच्य नारायण को शास्त्र वचन के बगैर नहीं समझ सकते । यह किशोरी कहीं दीयों के बीच में है, अर्थात शास्त्र प्रमाणों के बीच में है । जब दिए अच्छी तरह जलाए जाएंगे, हम ब्रह्म के बारे में सही जिज्ञासा कर पाएंगे (शास्त्रयोनित्वात्, १.१.३ ब्रह्म सूत्र) । वेद ज्ञान के मुख्य स्रोत है, और इतिहास व पुराण उनके साथ ही व्याख्यात्मक रूप में हैं ।
दूपम् कमळत् तुयिल् अणै मेल् कण् वळरुम्
दूपम् कमळ – धूप की सुंदर खुशबू जो फैली हुई है
तुयिल् अणै मेल् – एक नरम मुलायम बिस्तर के ऊपर (जो हर उस व्यक्ति को सुला देगा, जो उस पर लेटेगा)
कण् वळरुम् – तुम लेटी हुई सोई हो ।
जब इधर हम हमारे प्रिय कृष्ण के विरह में हैं, तब उधर तुम किस तरह धूप की सुंदर खुशबू का आनंद ले सकती हो? यह बिस्तर इतना मुलायम है की यदि कोई व्यक्ति न भी चाहे तो भी इस पर उसे नींद आ जाएगी । गोपियां सोचती हैं, “क्या यह बिस्तर इतना मुलायम है की श्री कृष्ण विरह के महान दुख को भी शांत कर देता है? यह किस तरह हो सकता है कि तुम सुख से बिस्तर पर सोते रहो, और हम ना तो अच्छी खुशबूदार धूप का आनंद ले सकें, और यदि तुम्हारे जैसा सोने के लिए बिस्तर मिले भी, तो वह प्रिय विरह के कांटो का ही बिस्तर हो? ऐसा लगता है श्री कृष्ण तुम्हारे साथ ही हैं, तब ही तुम द्वार नहीं खोल रही हो ।”
यहां पर धूप से अच्छे अभ्यास/कर्म का अभिप्राय है । इस प्रकाश से, जो कि शास्त्रों का ज्ञान रूप है, हमें अच्छा अभ्यास मिलता है । यह बिस्तर ज्ञान का स्वरूप है, और यह ज्ञान पंच आत्मक है, यानी अर्थ पंचक । यह कन्या पंच गुणात्मक बिस्तर पर है । ऐसे व्यक्ति अपने आप को प्रकट नहीं करते । हमें उनके पास जाना होता है । उनका अभ्यास देखकर उनसे ज्ञान प्राप्त करना होता है । अभ्यास/क्रिया से हम किसी व्यक्ति के ज्ञान का अंदाजा लगा सकते हैं ।
मामान् मगळे मणिक्कदवम् ताळ् तिऱवाय्
मामान् मगळे – हे मेरे मामा की पुत्री!
मणिक्कदवम् ताळ् तिऱवाय् – कृपया अपने कीमती रत्न जड़ित द्वार को खोलो ।
गोदा यहां व्यंग्यात्मक भाषा में कह रही हैं, “अहो! तुम नर्म बिस्तर पर हो, तुम्हारे कमरे में सुगंध और प्रकाश है, जरूर श्री कृष्ण तुम्हारे साथ होंगे । अतः जल्दी द्वार खोलो, हमें भी श्री कृष्ण का संग चाहिए ।
आंतरिक अर्थ
श्री प्रतिवादी भयंकर अण्णंगराचार्य स्वामी जी महाराज के अनुसार हमारे देह संबंधी दो प्रकार के होते हैं, अनुकूल और प्रतिकूल । हमें अनुकूल देह संबंधियों का संग पाने की कोशिश करनी चाहिए, जो भगवत भागवत और आचार्य कैंकर्य में हमारा सहयोग दें । वहीं दूसरी ओर हमें प्रतिकूल बंधु जनों के संग का त्याग करना चाहिए । नीति शास्त्र के अनुसार, एक भागवत परनिंदा के मामले में अप्रवीण होते हैं, अपने ऊपर हुए दोषारोपणों के लिए बहरे, और पर दोष दर्शन के लिए अंधे होते हैं ।
मामीर् अवळै एळुप्पीरो? – हे मामी जी! आप क्यों नहीं उसे जगा रही हैं?
उन् मगळ्दान् – क्या आपकी बेटी
ऊमैयो – मुर्ख है
अन्ऱिच् – या फिर
चेविडो – बहरी है
अनन्दलो – क्या थकी हुई है (लगता है पहले वह श्री कृष्ण के साथ खेल रही थी)
एमप् ()- क्या उसपर और कोई नजर रखे हुए है?
पेरुन्दुयिल् मन्दिरप्पट्टाळो? – क्या किसी मंत्र के वश में वह लंबे समय तक निद्रा को प्राप्त है?
अचानक उन गोपी की मां उन्हें जगाने आ गईं । अन्य गोपियां उनकी मां से व्यंग्य करने लगीं । “क्या श्री कृष्ण उनके साथ हैं और उन्हें दरवाजा खोलने नहीं दे रहे हैं?”
आंतरिक अर्थ
श्री प्रतिवादी भयंकर अण्णंगराचार्य स्वामी जी महाराज कहते हैं, “प्रपन्न जन अष्टाक्षर मंत्र के जादुई प्रभाव में आ जाते हैं (स्वरक्षणे स्व अन्वय निवृत्ति न्याय) ।
श्री वैष्णव जन सदैव द्वय मंत्र का अर्थानुसंधान करते रहते हैं व भाव समाधि में चले जाते हैं । वरवर मुनि स्वामी जी महाराज सदैव दबी आवाज में कुछ न कुछ कहते रहते और फिर अचानक भाव समाधि में चले जाते, मानो एक भ्रमर पुष्प का चुनाव करते वक्त आवाज करता है, लेकिन रसपान करते समय शांत हो जाता है । प्रपन्न जनों को यह पसंद नहीं आता कि हम उन्हें संसारी या शारीरिक संबंधों से संबोधित करें, वरन उन्हें अडियार (भागवत बंधु, रामानुज दास) संबोधन से बुलाए जाना परम प्रिय है । लापरवाही के अंधकार से बाहर आओ और मिलो उनसे जो है:
मामायन् – वे जिनके कार्यकलाप परम आश्चर्यजनक है और हमारी कल्पना से परे हैं ।
जहां एक तरफ भगवान अंतर्यामी है और श्री वैकुंठ में निवास करते हैं, वही भगवान हमारी तरह के श्री विग्रह धारण कर अवतार लेते हैं और हमारे लिए सुलभ हो जाते हैं । यदि गोपियां कहेंगी, “नाचो, फिर मैं तुम्हें माखन दूंगी” तो कृष्ण मक्खन के लिए नाचेंगे । अतः वे मामायन हैं । मामायन से इस तथ्य का बोध होता है कि कृष्ण गोपियों के स्तर पर उतर कर अपनी नटखट शरारतों व आश्चर्यजनक लीलाओं से सुलभ होते हैं । भौतिक संसार में हम यह देखते हैं कि एक व्यक्ति जो कि थोड़ा भी ऊंचे स्तर का हो, चाहे वह सामाजिक हो या कोई और, वह सुगम सुलभ नहीं होते । वहीं दूसरी ओर भगवान श्री कृष्ण जो हर किसी के परम स्वामी हैं, सबको सुलभ है । वे परम है, अतः स्वातंत्र्य और परत्व में निहित कल्याण गुण उनमें स्वभावतः हैं । यह सौलभ्य, गोपियों को अपने दिव्य कर्मों द्वारा आकर्षित करना, क्या यह इनके परत्व के संदर्भ में अजीब नहीं है?
मादवन् – लक्ष्मी नाथ इंदिरा लोकमाता मा (अमरकोश १.१.६३) और ()(अमरकोश २.५.५९८) । अतः माधव का अर्थ है लक्ष्मी के पति ।
क्योंकि वह हमारी मां के साथ हैं, अतः हम रक्षा के लिए निश्चिंत हैं । मां के साथ होने से उनमें सदैव करुणा भरपूर रहती है । इसीलिए मां उनके हृदय में निवास करती हैं । राम उन असुर का वध नहीं करते जब मां सीता उनके पक्ष में होती हैं । महान अपराध करने के बावजूद भी मां ने जयंत को अभय दान दिया । जब श्रीराम ने पृथ्वी को पापी असुरों से विहीन करने का प्रण लिया, तब मां अपने संकल्प से लंका गईं, लेकिन अभागे रावण ने उनके बात नहीं सुनी ।
भगवान का सौलभ्य उनका महालक्ष्मी पिराट्टी के साथ होने से उपजता है ।
वैगुन्दन् – वैकुंठ के स्वामी
वे परम शासक और परम शक्तिमान भगवान होते हुए भी करुणा के समुद्र है । वह असली भोक्ता हैं । वहीं इधर हम उनके द्वारा भोग्य हैं ।
अमूमन वह जो सुगम होते हैं, वह मूल्यवान नहीं होते, और जो मूल्यवान होते हैं वह सुगम नहीं होते । वहीं श्री प्रभु परम तो हैं ही, उनका सौलभ्य उनके परत्व में चमक का काम करता है और यह दोनों गुण उनके श्रियः पतित्व से हैं ।
एन्ऱु एन्ऱु नामम् पलवुम् नविन्ऱु एलोर् – इस प्रकार हमने भगवान के कई मंगलमय नामों का संकीर्तन किया है
(लेकिन आपकी बेटी अभी भी नहीं उठी हैं)
हमने भगवान के परत्व की और सौलभ्य की ही नहीं इनके कारण रूप उनके श्रियः पतित्व की भी बात की है । फिर भी आपकी बेटी उठ नहीं रही ।
एम्बावाय् – अपने मन से निश्चय करें और हमारे साथ आएं ।
स्वापदेश
आचार्य ही मामायन हैं, जो कई परम आश्चर्यजनक कृत्य करते हैं, (जैसे कि उपदेश द्वारा संसारियों को वैष्णव बना देना) । आचार्य माधव यानी महा तपस्वी भी हैं और वैकुंठ यानी वैकुंठ प्रदानत्व गुण से युक्त हैं । हमें सदैव अनुकूल देव संबंधियों के संग में रहना चाहिए और प्रतिकूल देह संबंधियों से उदासीन रहना चाहिए । प्रपन्न जन ही हमारे सच्चे संबंधी यानी आत्मबंधु हैं ।
तब क्या हो जब हम हमारे करीबी मित्र या रिश्तेदार को शरणागत होने के लिए समझा ना सकें? ऐसी स्थिति में हमारी तरफ से हमें उन्हें उदासीन प्रेम दिखाना चाहिए, और भक्तों के सत्संग का आनंद उठाना चाहिए । भक्त ही हमारे सच्चे संबंधी हैं, क्योंकि वह आत्मा के संबंध से हमारे अपने हैं अर्थात आत्मबंधु हैं । लेकिन यदि परम सौभाग्य से हमें कोई भागवत जन देह के संबंध में मिल जाए, तो हमें उस संबंध को बढ़ाना चाहिए । इसीलिए गोदा देवी इस नौवे पद में इस एक गोपी को नाम से ना बुलाकर वरन उसके साथ अपने देह के संबंध का संबोधन देकर ही बुलाती हैं और यह इंगित करती हैं की वे इस संबंध को बहुत अहमियत देती हैं ।
अड़ियेन यश भारद्वाज द्वारा भाषांतरित
अडीएन माधव श्रीनिवास रामानुज दास
नव-विधा सम्बन्धं : जीवात्मा के परमात्मा से नौ प्रकार के संबंध

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