तिरुपावै 11 वाँ पासूर

इस पाशुर में वर्णाश्रम धर्म का पालन बतलाया है।

कऱ्ऱुक् कऱवैक् कणन्गळ् पल कऱन्दु
  सेऱ्ऱार् तिऱल् अलियच् चेन्ऱु सेरुच् चेय्युम्
कुऱ्ऱम् ओन्ऱु इल्लाद कोवलर् तम् पोऱ्कोडिये
  पुऱ्ऱरवु अल्गुल् पुनमयिले पोदराय्
सुऱ्ऱत्तुत् तोळिमार् एल्लारुम् वन्दु निन्
  मुऱ्ऱम् पुगुन्दु मुगिल् वण्णन् पेर् पाड
सिऱ्ऱादे पेसादे सेल्वप् पेण्डाट्टि नी
  एऱ्ऱुक्कु उऱन्गुम् पोरुळ् एलोर् एम्बावाय्

हे! स्वर्णलता सी सखी, तुम जनम लेने वाली कुल के  ग्वालें   गायें दुहते हैं , शत्रुओं के गढ़ में जाकर उनका नाश करते हैं| तुम जिसकी कमर बिल में रह रहे सर्प के फन की तरह है और  अपने निवास में मोर की तरह है,अब तो बाहर  आओ|

हम सब तुम्हारी सखियाँ, जो तुम्हारी  रिश्तेदारों की तरह है , सभी तुम्हारे आँगन में खड़े, मन मोहन मेघश्याम वर्ण वाले भगवान् कृष्ण के दिव्य नामों का गुणगान कर  रहें हैं । तुम क्यों अब तक  बिना  हिले डुले, बिना कुछ बोले निद्रा ले रही हो?

उ वे मीमांसा शिरोमणि भरतन् स्वामी द्वारा अनुगृहीत एकादश गाथा का संस्कृत छन्दानुवाद

११.गणानां बालधेनूनां सुबहूनां दुहां यथा ।
शत्रूणां बलनाशः स्यात् तथा युद्धं वितन्वताम् ।।
निर्दोषगन्धगोपानां सौवर्णलतिके सखि ! । वल्मीकस्थितसर्पस्य भोगोपमनितम्बिनि ! ।।
श्रीमतित्वं समायाहि वन्यबर्हिर्णसन्निभे ! ।
सर्वाः सख्यः समागत्य प्रविश्य त्वद्गृहाङ्गणम् ।।
मेघश्यामस्य नामानि कीर्तयन्त्ययि ! सम्प्रति ।
कुतस्तथाऽपि निद्रासि वाचं च चलनं विना ।।

आज की गाथा में जिस सखी का उत्थापन हो रहा है, उसका नाम सौवर्णलतिका सखी या कनकलता बाला (स्वर्ण लता सी सखी) है। गोकुल की विशाल गौ-सम्पदा एवं गोपी के सौन्दर्य एवं लावण्य से उसका सम्बोधन उसे जगाया गया है।

पिछले पासुर में गोदा एक आदर्श शरणागत को दर्शाती हैं| अब प्रश्न ये उठता है कि क्या भगवान को ही सिद्ध साधन मानने वाले, भगवान पर परम पुरुषार्थ का भार छोड़ निश्चिंत रहने वाले अपने कर्मों का भी त्याग कर देते हैं? इस पासुर में गोदा दर्शाती हैं कि परमैकान्ति भी अपने कर्मों का त्याग नहीं करते| भगवान अपने दासों को शास्त्र-विहित कर्मों में प्रेरित करते हैं|

हे गोकुल के उस महान कुल में जन्म लेने वाली सौवर्णलतिका सखी! जहाँ असंख्य संख्या में दुधारू बाल धेनु के समूह हैं, जो अत्यधिक संख्या में दूध प्रदान करती हैं। ऐसे गायों को दूहने वाले गोपगण, जो शत्रुओं के घर में जाकर उनके बल का नाश करते हैं एवं युद्ध में विजयी होते हैं।

प्रतिवादि भयंकर स्वामी इस गोपी को उत्तम अधिकारी कहते हैं जो लता के समान अपने आचार्य पर आश्रित है| पारतंत्रियम ही इस लता का सुगंध है|

(यहाँ असंख्य संख्या से भगवान के अनन्त गुण समूहों का स्मरण होता है।

संख्याता नैव शक्यन्ते गुणा: दोषा: च शार्ङ्गिण:।
अनन्तश्च प्रथमो राशि अभावो इति पश्चिम:।

भगवान के गुणों के समूहों की गणना नहीं कर सकते क्योंकि वो अनन्त हैं। भगवान के दोषों की भी गणना नहीं कर सकते क्योंकि वो हैं ही नहीं।

उसी प्रकार यहाँ नारायण शब्दार्थ भी प्राप्त होता है। नर के समूह को नार कहते हैं। ऐसे अनेक समूह होने के कारण नार का बहुवचन है नारा:। नारों के अयन हैं नारायण।

जिस प्रकार आकाश के तारे अनन्त हैं, उसी प्रकार भगवद रामानुज स्वामीजी के सद्शिष्यों की गिनती भी अनंत है| शिष्यों के पाप भी अनन्त हैं लेकिन बलिष्ट गोपों की भाँती रामानुज सम्बन्ध भी पापों का उन्मूलन कर मोक्ष प्रदान करता है|
हमारे शत्रु : उपायांतर (कर्म, ज्ञान, भक्ति योग), उपेयांतर (भगवान से तुच्छ वस्तुओं की माँग करना), अहंकार (स्वतंत्र बुद्धि, मोक्षोपाय हेतु प्रयत्न करना)

हे सौवर्णलतिका सखी! जिसका कटि प्रदेश सुन्दर वाल्मिक में रहने वाले सर्प की भाँति है और जिसके केश मोर के समान हैं।

(यहाँ सुनहरी लता कहकर समुध्य शोभा का वर्णन है (सौन्दर्य) और सर्प के समान कटि प्रदेश कहकर अवयव शोभा अर्थात अंग विशेष की शोभा (लावण्य) का वर्णन है|
क्या एक स्त्री दूसरे स्त्री के सौन्दर्य पर मुग्ध हो सकती है?
द्रौपदी की शोभा देख स्त्रियाँ मुग्ध होकर सोचती थीं कि काश मैं पुरुष होती| भगवान श्री रामचंद्र के शोभा को देख दंडकारण्य के ऋषि सोचते थे कि काश मैं स्त्री होता!

श्री वैष्णव भी आचार्य के दिव्य मंगल विग्रह के सौन्दर्य का अनुसंधान करते हैं| गोष्ठिपूर्ण स्वामी अपने आचार्य अलवंदार के पीठ की शोभा से मुग्ध हो उसे कछुए कके पीठ के समान अपना रक्षक मानते थे|
आचार्य भी मोर की भाँती हैं| जिस प्रकार जहरीले कीट मोर से दूर रहते हैं, उसी प्रकार विरोधी स्वरुप भी शिष्य से दूर रहते हैं| जिस प्रकार मोर प्रसन्न होकर अपने पंख फैलाकर नृत्य करती है, उसी प्रकार आचार्य भी सद्शिष्य को पाकर प्रसन्न होकर ज्ञान विकास करते हैं|

तुम्हारे सभी देहसम्बन्धी एवं आत्मसम्बन्धी सखियाँ (गोविन्द जीयर और दासरथी स्वामी रामानुज स्वामी के देह सम्बन्धी थे और कुरेश स्वामी, किदाम्बी आच्चान आदि उनके आत्म-सम्बन्धी) तुम्हारे घर के बाहर इकट्ठे हुए हैं। काले बादल के समान गुण वाले कृष्ण के नामों का गुणगान कर रही हैं।

स्थिर और शान्त तुम भगवद अनुभव में लीन हो| अपने पारतंत्रियम के ज्ञान के कारण तुम सोचती हो कि यह भगवान का कर्तव्य है कि तुम्हें आकर प्राप्त करें, तुम स्वयं से कोई प्रयत्न नहीं करना चाहती| परन्तु हम तुम्हारे सौन्दर्य को देखना चाहते हैं| जिस प्रकार तुम्हारा भ्राता अपने वर्णाश्रम धर्म में रत हैं, हमें भी कैंकर्य में विलम्ब नहीं करना चाहिए| उठो सखी, भागवतों की गोष्ठी में सम्मिलित हो!

हिन्दी छन्द अनुवाद

पिछले पासुर में गोदा एक आदर्श शरणागत को दर्शाती हैं| अब प्रश्न ये उठता है कि क्या भगवान को ही सिद्ध साधन मानने वाले, भगवान पर परम पुरुषार्थ का भार छोड़ निश्चिंत रहने वाले अपने कर्मों का भी त्याग कर देते हैं? इस पासुर में गोदा दर्शाती हैं कि परमैकान्ति भी अपने कर्मों का त्याग नहीं करते| भगवान अपने दासों को शास्त्र-विहित कर्मों में प्रेरित करते हैं|

कऱ्ऱुक् कऱवैक्– दुधारू गायें;

गोकुल का धन क्या है? गायें| गायें चिर-यौवन को प्राप्त, बड़े-बड़े थान वालीं होती थीं| हो भी क्यों न| आखिर उन गौवंशों को स्वयं कृष्ण का स्पर्श प्राप्त था| ६०००० साल के राजा दशरथ जब राम के दर्शन करते हैं तो स्वयं तो नवयुवक की भाँती पाते हैं| गायों की तो बात ही क्या कहें जिन्हें गोविंद पुचकारते हैं, अपने दिव्य हस्तों से स्पर्श करते हैं| गोकुल की गायें का भोजन भगवान की बाँसुरी के सुर हैं| ऐसे गायों के दूध के बारे में क्या चर्चा की जा सकती है?  

कणन्गळ् पल– असंख्य की संख्या में;

गोकुल में असंख्य गायों के झुण्ड हैं और हर झुण्ड में असंख्य गायें हैं|

आतंरिक अर्थ

नार का अर्थ है नरों के समूह| नर का अर्थ है जिसका कभी नाश न हो अर्थात जीवात्मा| जीवात्मा अनन्त हैं और उनके अन्दर अन्तर्यामी रूप में और बाहर बहिर्व्याप्ति में निवास करने वाले हैं नारायण| 

अणोरणीयान् महतो महीयान् आत्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम् (कठोपनिषद)

अणोरणीयान् महतो महीयान्
आत्मा गुहायां निहितोऽस्य जन्तोः ।
तमक्रतुं पश्यति वीतशोको
धातुः प्रसादान्महिमानमात्मनः ॥ – श्वेताश्वतरोपनिषत् ३-२०

कऱन्दु– दूहना;

गोकुल के गोप और गोपियाँ वर्णाश्रम धर्म में निपुण हैं| गायों को दुहना को दुष्कर कार्य नहीं| उनके थान दूध से लबालब होती हैं| एक गाय, थान छूते हीं, अनेक बाल्टियाँ भर सकती हैं| दूध बाल्टियों से भरकर नीचे गिरते हैं और सर्वत्र दूध की सुगन्ध फैल जाती है|

आतंरिक अर्थ

अनंत गायों के दूहने का अर्थ है अनन्त भगवान नारायण के अनन्त नाम, रूप, लीला आदि का स्मरण और चिंतन करना|

दूसरा आतंरिक अर्थ है आचार्य का अनन्त शिष्यों को ज्ञानोपदेश करना| जिस प्रकार आकाश के तारे अनन्त हैं, उसी प्रकार भगवद रामानुज स्वामीजी के सद्शिष्यों की गिनती भी अनंत है| शिष्यों के पाप भी अनन्त हैं लेकिन बलिष्ट गोपों की भाँती रामानुज सम्बन्ध भी पापों का उन्मूलन कर मोक्ष प्रदान करता है|

सेऱ्ऱार्  शत्रु;

तिऱल् अलियच्– बल को नष्ट कर देना;

चेन्ऱु सेरुच्– जो शत्रुओं के इलाके में जाते हैं;

चेय्युम्: जो युद्ध में विजयी होते हैं;

गोप अत्यंत बलवान हैं| गोपों के शत्रु कौन हैं? भगवान के शत्रु ही गोपों के शत्रु हैं| कंस ने अनेक दैत्यों को भेजा लेकिन स्वयं कभी गोकुल नहीं आया| इसका कारण शक्तिशाली गोपों का भय था|

आतंरिक अर्थ:

हमारे शत्रु : उपायांतर (कर्म, ज्ञान, भक्ति योग), उपेयांतर  (भगवान से तुच्छ वस्तुओं की माँग करना), अहंकार (स्वतंत्र बुद्धि, मोक्षोपाय हेतु प्रयत्न करना)

कुऱ्ऱम् ओन्ऱु इल्लाद बिल्कुल दोषरहित;

कोवलर् तम् पोऱ्कोडिये – ग्वालों के कुल में जन्मी सुनहरी लता, हेम लता!

 पुऱ्ऱरवु अल्गुल्  : तुम्हारे कटि सर्प के समान हैं

पुनमयिले – अपने घरेलू मैदान में मोर की तरह;

पोदराय्– कृपया बाहर आओ!

यहाँ सुनहरी लता कहकर समुध्य शोभा का वर्णन है और सर्प के समान कटि प्रदेश कहकर अवयव शोभा (अंग विशेष) की शोभा का वर्णन है| क्या एक स्त्री दूसरे स्त्री के सौन्दर्य पर मुग्ध हो सकती है?

द्रौपदी की शोभा देख स्त्रियाँ मुग्ध होकर सोचती थीं कि काश मैं पुरुष होती| भगवान श्री रामचंद्र के शोभा को देख दंडकारण्य के ऋषि सोचते थे कि काश मैं स्त्री होता|

आतंरिक अर्थ

श्री वैष्णव भी आचार्य के दिव्य मंगल विग्रह के सौन्दर्य का अनुसंधान करते हैं| गोष्ठिपूर्ण स्वामी अपने आचार्य अलवंदार के पीठ की शोभा से मुग्ध हो उसे कछुए कके पीठ के समान अपना रक्षक मानते थे| कलिवैरी दास स्वामीजी के शिष्य सिर्फ इसलिए जीवित रहना चाहते थे ताकि अपने अपने आचार्य के श्री मुखमंडल से टपक रहे पानी के बूंदों (कावेरी स्नान के पश्चात) का दर्शन कर सकें|

प्रतिवादी भयंकर स्वामी इस गोपी को उत्तम अधिकारी कहते हैं जो लता के समान अपने आचार्य पर आश्रित है| पारतंत्रियम ही इस लता का सुगंध है|

आचार्य भी मोर की भाँती हैं| जिस प्रकार जहरीले कीट मोर से दूर रहते हैं, उसी प्रकार विरोधी स्वरुप भी शिष्य से दूर रहते हैं| जिस प्रकार मोर प्रसन्न होकर अपने पंख फैलाकर नृत्य करती है, उसी प्रकार आचार्य भी सद्शिष्य को पाकर प्रसन्न होकर ज्ञान विकास करते हैं|  

सुऱ्ऱत्तुत् तोळिमार् एल्लारुम् – आपके सभी रिश्तेदार और दोस्त;

 वन्दु – इकट्ठे हुए हैं;

निन् मुऱ्ऱम् पुगुन्दु – आपके आंगन में;

मुगिल् वण्णन् पेर् पाड– काले बादलों की तरह रंग वाले उस सुंदर कृष्ण के दिव्य नामों को गाते हुए भी;

आत्म और देह बंधू महान व्यक्तियों के पास इकठ्ठे होते हैं| एम्बार और दासरथी स्वामी रामानुज स्वामी के देह सम्बन्धी थे और कुरेश स्वामी, किदाम्बी आच्चान आदि उनके आत्म-सम्बन्धी|

सिऱ्ऱादे पेसादे – स्थिर और शान्त (अचल और अवाक);

सेल्वप् पेण्डाट्टि नी– आप, जो हमारे लिए धन हैं;

एऱ्ऱुक्कु उऱन्गुम् पोरुळ् एलोर् एम्बावाय्– तुम अभी तक क्यों सो रहे हो?

स्थिर और शान्त तुम भगवद अनुभव में लीन हो| अपने पारतंत्रियम के ज्ञान के कारण तुम सोचती हो कि यह भगवान का कर्तव्य है कि तुम्हें आकर प्राप्त करें, तुम स्वयं से कोई प्रयत्न नहीं करना चाहती| परन्तु हम तुम्हारे सौन्दर्य को देखना चाहते हैं| जिस प्रकार तुम्हारा भ्राता अपने वर्णाश्रम धर्म में रत हैं, हमें भी कैंकर्य में विलम्ब नहीं करना चाहिए| उठो सखी, भागवतों की गोष्ठी में सम्मिलित हो

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Author: ramanujramprapnna

studying Ramanuj school of Vishishtadvait vedant

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