क्या श्री वैष्णव राम निंदक हैं, क्या श्री वैष्णव राम मंत्र निंदक हैं?

श्रीमते रामानुजाय नमः।
श्रीमद्वरवरमुनये नमः।

प्रायः ये प्रश्न आ रहा है कि क्या श्री वैष्णव राम निंदक हैं, क्या श्री वैष्णव राम मंत्र निंदक हैं?

वस्तुतः इस प्रश्न का उत्तर देना भी, इस प्रश्न के विषय में चिंतन करना भी श्री वैष्णव संप्रदाय, जो की अनादि है, शाश्वत है, अनेक आचार्यों द्वारा सेवित है, इसकी निंदा है। यह इस आचार्य परंपरा का अपचार ही होगा। हमारे सम्प्रदाय का सबसे प्रमुख आर्ष ग्रन्थ वाल्मीकि रामायण ही है। वाल्मीकि रामायण पर सबसे प्राचीन टीका, भूषण व्याख्यान, श्री वैष्णव सम्प्रदाय का ही है। 900 वर्ष पूर्व व्याख्यान चक्रवर्ती कृष्णपाद स्वामी ने रामायण पर शरणागति शास्त्र लिखा था किंतु समय की मांग है कि इसके ऊपर कुछ प्रत्युत्तर दिया जाए।

श्री वैष्णव संप्रदाय वह संप्रदाय है जिसके आचार्यों ने मात्र श्री राम की पादुका के ऊपर सहस्त्र श्लोक लिखे हैं और पादुका सहस्रं के नाम से वह ग्रंथ विख्यात है जो पूरे भारतवर्ष में, पूरे सनातन धर्म में हर संप्रदाय के आचार्यों द्वारा पढ़ा जाता है, व उनके द्वारा सेवित है।

बात केवल पादुका सहस्रं की ही नहीं, श्री राम भक्ति श्री रामानुज संप्रदाय/श्री वैष्णव संप्रदाय में किस प्रकार की है यह ५०० वर्ष पूर्व प्रतिवादी भयंकर अण्णा, जो कि वरवरमुनि स्वामी जी के अष्टदिग्गज शिष्यों में एक हैं, वही अपने वेंकटेश स्तोत्र में कहते हैं-

सुमुखं सुहृदं सुलभं सुखदं
स्वनुजं च सुकायममोघशरम्।
अपहाय रघूद्वहमन्यमहं
न कथञ्चन कञ्चन जातु भजे॥८॥

वेंकटेश स्तोत्र भगवान वेंकटेश के प्रति है लेकिन अण्णा भगवान वेंकटेश में भी राम रूप देख रहे हैं और ऐसी वंदना करते हैं कि
अपहाय – उनको छोड़ कर के,
न कथञ्चन कञ्चन जातु भजे – मैं कभी भी, किसी भी तरह से किसी और की सेवा-वंदना नही करूंगा।

किसे छोड़कर, रघूद्वह – श्री रघुनाथ जी।

अर्थात्, मैं कभी भी श्री रामचंद्र को छोड़कर किसी और की सेवा-वंदना नहीं करूंगा। किसी अन्य के प्रति कैंकर्य नहीं करूंगा।

इस प्रकार की अनन्य राम भक्ति प्रतिपादित करने वाले आचार्यों को क्या कोई राम द्वेषी कह सकता है जो कहें की मैं राम को छोड़कर किसी और का भजन नहीं करूंगा, किसी और की सेवा नहीं करूंगा।

और श्री रामानुज संप्रदाय में ही, श्री कुलशेखर आळवार जैसे महान रामभक्त हुए। कुलशेखर आळवार की कीर्ति तो सभी जानते हैं, उनकी भगवान राम के प्रति भक्ति किस प्रकार की है यह बताने की आवश्यकता नहीं है।

बाद के काल में देखें तो भद्राचल रामदास स्वामी जी जैसे भक्त भी हुए हैं। भद्राचल रामदास स्वामी जी से बड़ा रामभक्त कौन हो सकता है? कोई है जो स्वयं को उनसे बड़ा रामभक्त कह सके, जिनके सामने स्वयं भगवान श्री रामचंद्र प्रकट भए। जिन्होंने इतना कैंकर्य किया की पूरा एक धाम ही बसा दिया, भद्राचलम् के नाम से जिसे दक्षिण अयोध्या के नाम से जाना जाता है। वैसे भद्राचल रामदास स्वामी जी श्री रामानुज परंपरा में ही हैं।

और तिरुमला अन्नमाचार्य स्वामी, उनके द्वारा भगवान राम की की गई वंदना सुनिए जिसकी थाह पाना मुश्किल है। ऐसे रामभक्त जिस संप्रदाय में हुए क्या वो संप्रदाय राम द्वेषि है? या क्या वो संप्रदाय राममंत्र द्वेषी है? यह विचार करने की आवश्यकता है।

श्री वैष्णव संप्रदाय में तीन चरम मंत्रों का भी विधान है जो की श्री कृष्ण चरममंत्र, श्री राम चरममंत्र और श्री वराह चरममंत्र हैं। इनमें से श्री कृष्ण चरममंत्र का महत्व सबसे अधिक है और आचार्यों ने इस पर उपाख्यान भी दिए हैं। कारण ये है की, उसमे विशेष रूप से मोक्ष के विषय में कहा गया है। इसका अर्थ यह नहीं है की श्री राम चरममंत्र और श्री वराह चरममंत्र उनसे कम हैं।

दूसरी बात वो सदैव कहते हैं कि हम गोस्वामी तुलसीदास जी के साहित्य नहीं पढ़ सकते क्योंकि तुलसीदास जी उनके हैं, हम भक्तमाल नही पढ़ सकते क्योंकि नाभादास जी उनके हैं। इस पर विचार करने की आवश्यकता हैं। क्या आप गोस्वामी तुलसीदास जी की परंपरा में हैं? क्या आप गोस्वामी नाभादास जी की परंपरा में हैं? क्योंकि वे दोनो किस रामानंद संप्रदाय में हुए, क्या आप उसी रामानंद संप्रदाय में हैं? ये विचार करने की आवश्यकता है।

भागवादचार्य अपनी जीवनी में लिखते हैं, “३०० वर्षों से जिस रामानुज संप्रदाय की हम गुलामी कर रहे थे, उस परंपरा को मैंने तोड़ दिया, क्योंकि मेरा दिल से ये मानना है की श्री रामानंदाचार्य श्री रामानुजाचार्य जी की परंपरा में शिष्य नहीं थे”।

जिन ३०० वर्षों की गुलामी की वे बात कर रहे हैं, उसी परंपरा में इनके पूर्वाचार्यों की आस्था थी। इनके पूर्वाचार्यों ने जिस गुरु परंपरा को पूजा, उसे ही बदलने की बात भागवदाचार्य ने की। उन ३०० वर्षों में ही गोस्वामी तुलसीदास जी होते हैं, उन ३०० वर्षों में ही श्री नाभादास जी होते हैं, उन ३०० वर्षों में श्री अग्रदास जी होते हैं। वो महापुरुष जिस परंपरा को मानते थे, उस परंपरा को यदि आप बदलते हैं, नई परंपरा का निर्माण करते हैं, तब आप कैसे कह सकते हैं की वो महापुरुष आपकी परंपरा के हैं।

आपकी परंपरा उनसे भिन्न है, आपने नए संप्रदाय की स्थापना की इसीलिए आपका अनेकों बार मंगलाशासन हो, आपके संप्रदाय के लिए। लेकिन आप ये किस प्रकार कह सकते हैं की आप उन तुलसीदास जी की परंपरा से हैं, आप उन नाभादास की परंपरा से हैं जब आपने उस परंपरा को ही बदल दिया।

नाभादास जी भक्तमाल में जिस परंपरा का वर्णन करते हैं बिल्कुल क्रम से उन्होंने श्री सठकोप आळवार, श्री नाथमुनी, श्री पुण्डरीकाक्षाचार्य, श्री राम मिश्र स्वामी, श्री यामुनाचार्य, श्री महापूर्ण स्वामी, श्री रामानुजाचार्य, और ऐसे परंपरा का वर्णन करते हुए वे स्वामी रामानंदाचार्य तक आते हैं। और फिर रामानंदाचार्य जी के शिष्यों की वंदना करते हैं। बिल्कुल क्रम में वंदना होने से क्या ये स्पष्ट नहीं है की रामानंदाचार्य किस परंपरा में थे।

इसपर एक और प्रलाप की रामानुजियों ने बदल दिया ग्रंथ। “श्री रामानुज पद्धति प्रताप”। किंतु भक्तमाल तो सभी संप्रदायों में है, वल्लभ संप्रदाय हो, निंबार्क संप्रदाय हो, गौड़ीय संप्रदाय के प्रियादास जी ने तो इसपर टीका भी लिखी है। क्या इन संप्रदायों में भी जाकर रामानुजियों ने बदल दिया?

इस पंक्ति को न भी माने तो क्रम में तो सठकोप आळवार से लेकर रामानुजाचार्य तक, उनके बाद देवाचार्य जी, श्री हर्यानन्द जी, श्री राघवानंद जी और फिर रामानंदाचार्य जी और उनके शिष्य आते हैं। प्रथम श्री वैष्णव संप्रदाय का ही वर्णन गोस्वामी नाभादास जी ने किया है।

यदि चतुःसंप्रदाय का उल्लेख गर्ग संहिता अथवा पद्म पुराण में भी देखें तो उनमें भी श्री रामानुजाचार्य का ही नाम आता है श्री वैष्णव संप्रदाय में। तो क्या इसपर चर्चा नहीं होनी चाहिए?

तो यदि यह बात कही जाती है की रामानुजी गोस्वामी तुलसीदास जी के ग्रंथों को पढ़ने के अधिकारी नहीं हैं तो वह तुलसीदास जी कौन थे? क्या आप जिस नव्य रामानंदी मत को मानते हैं, उस परंपरा से तो रामानंदाचार्य नहीं थे। उनके काल में तो रामानुज संप्रदाय के भाग के रूप में ही रामानंद संप्रदाय था। इसी कारण से रामाणुजी श्री वैष्णव पढ़ने के अधिकारी हैं किंतु नव्य परंपरा का पालन करने वाले अधिकारी नहीं हैं।

अब इस विषय पर पुनः आते कि क्या श्री वैष्णव राम निंदक हैं अथवा राम मंत्र निंदक हैं? जिस ग्रंथ पर ये आक्षेप उठाते हैं, श्री वचन भूषण, लोकाचार्य स्वामी द्वारा प्रणित, इस ग्रंथ की कितनी वंदना की है रामानंदी पूर्वाचार्यों ने, ये बात क्या इन निंदकों को पता है?

श्री रामहर्षण दास जी, जिन्हें कलियुग में श्री राम का प्रेमावतार कहा जाता है, ऐसे आचार्य ने श्री वचन भूषण की कैसी वंदना की है। वंदना ही नहीं अपितु इस ग्रंथ पर एक लघु लेख भी लिखा है, संस्कृत सूत्रों में। ब्रह्म सूत्र की भांति प्रपत्ति सूत्र लिखे हैं, जिसे प्रपत्ति दर्शन का नाम दिया है। उस ग्रंथ के आरंभ में ही उन्होंने लोकाचार्य स्वामी और श्री वचन भूषण ग्रंथ की अत्यंत वन्दना की है और प्रपत्ति के सिद्धांत का वहीं से वर्णन किया है। बिल्कुल अक्षरशः वर्णन किया है श्री वचन भूषण से स्वामी जी ने। तो क्या अब आप अपने आचार्यों की निंदा करेंगे जिन्होंने श्री वचन भूषण की वंदना की है।

उन्हीं लोकाचार्य स्वामी का ग्रंथ है, तत्त्वत्रय, जिसे रामानंदी गुरुकुलों में पढ़ाया जाता है और स्वामी त्रिभुवन दास जी ने इसके ऊपर टीका लिखी है जो कि चौखंभा से प्रकाशित है। आचार्य नित्य गोपाल दास जी और स्वामी राजेंद्र दास जी जैसे आचार्यों ने इस ग्रंथ की प्रस्तावना लिखी है।

तो एक तरफ तो आपके आचार्य उन आचार्य की वंदना करते हुए उनके द्वारा रचित ग्रंथों को पढ़कर ज्ञान लेते हैं, और दूसरी तरफ आप उन आचार्य की निंदा करेंगे और उन्हे अपशब्द कहेंगे, तो क्या आप अपने पूर्वाचार्यों की निंदा नहीं कर रहे जिन्होंने लोकाचार्य स्वामी की वंदना की।

आप तो स्वयं अपनी की परंपरा के निंदक साबित हुए, यदि आप लोकाचार्य स्वामी की निंदा करते हैं, यदि आप वरवरमुनि स्वामी की निंदा करते हैं क्योंकि जिस तत्वत्रय को रामानंद संप्रदाय में पढ़ाया जाता है वो लोकाचार्य स्वामी ने ही रचा है और उसपर विस्तृत टीका वरवरमुनि स्वामी ने लिखी है। और वरवरमुनी स्वामी की टीका सहित ही ये ग्रंथ पढ़ा जाता है जिसे त्रिभुवन दास जी ने भी लिखा है और अनेक रामानुजी श्री वैष्णवों ने भी उसपर अनेक टीकाऐं लिखी हैं।

अब, श्री वचन भूषण का वह सूत्र, यद्यपि उसे पढ़ने के अधिकारी सभी नहीं हैं, क्योंकि श्री वचन भूषण एक रहस्य ग्रंथ है, मुमुक्षुप्पडि एक रहस्य ग्रंथ है जो परंपरापूर्वक श्री वैष्णव हैं, जिन्होंने शंख-चक्र मुद्राएं धारण की हैं और जो श्री वैष्णव दास हुआ है वही एकमात्र इस ग्रंथ को पढ़ने का अधिकारी है। ऐसे ग्रंथ से यदि आप उद्धरण लेते हैं और वह भी आधा और अपने मन मुताबिक व्याख्या करके षड्यंत्र करने का प्रयास करते हैं तो क्या आप इस ग्रंथ को पढ़ने के अधिकारी हैं? इसको उद्धृत करने का भी अधिकार आपको नही है।

सर्वप्रथम यह समझने का प्रयास करें कि श्री वैष्णव सम्प्रदाय में भगवान ही उपाय है। श्री वैष्णव परमैकान्ति होते हैं जो भगवान के अतिरिक्त किसी भी अन्य साधन को स्वीकार नहीं करते। फिर मन्त्र जप या ध्यान से ऐहिक पुरुषार्थ प्राप्त करना तो दूर की बात है। भगवद-पारतंत्र्य स्वरूप का अनुसन्धान करते हुए भगवद कैंकर्य में ही जीवन का सार्थक्य है। कौन सा नाम कितना शक्तिशाली है, कौन सा मन्त्र कितना कारगर है, इससे हमारा कोई लेना-देना नहीं है। भगवद नाम मोक्ष देने में समर्थ अवश्य हैं, किन्तु उपाय रूप हम किसी साधन का अवलम्बन नहीं लेते।

मन्त्र-जप और नाम स्मरण आदि सब भगवद-मुखोल्लास और संसार मे जब तक रहें, तब तक समय का कालक्षेप करने मात्र हेतु ही है। ज्ञान अभ्युदय की दृष्टि से और अर्थ-सम्पूर्ति की दृष्टि से नारायण मन्त्र को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। इस क्रम में विष्णु और वासुदेव मन्त्र को भी नारायण मन्त्र से कमतर समझा गया है (अर्थ-प्रकाश के दृष्टिकोण से)। इसकी अधिक विवेचना रहस्यार्थ होने के कारण विस्तार नहीं कर सकता।

भगवान के मुख-विकास, उल्लास, प्रसन्नता को ही साधन और साध्य मानने वालों के लिए अन्य सभी फल क्षुद्र हैं। स्वयं भगवान की प्राप्ति रूपी फल के लिए भी यदि मन्त्र का अनुष्ठान हो तो वह भी क्षुद्र प्रक्रिया ही है।

श्री वचन भूषण ग्रंथ में नारायण मंत्र की महिमा बताई गई है। यदि आप देखें की जिस तंत्र से जगन्नाथ जी की पूजा होती है, उस तंत्र की ऐसी वंदना है कि गोपाल मंत्र के आगे सभी मंत्रों को छोटा कहा गया है। ठीक इसी प्रकार सभी अन्य संप्रदायों में भी उनका जो अपना मंत्र है उसके सिवा सभी मंत्रों को तुच्छ ही कहा जाता है। उन संप्रदाय के आचार्यों द्वारा यह कहा भी जाता है की उन्हे जो मंत्र उनके गुरु परंपरा से प्राप्त हुआ वही श्रेष्ठ है अन्य सभी मंत्र उनके लिए तुच्छ ही हैं। अन्य मंत्रों को जपने से रोका भी जाता है की अचार्यापचार होगा।

कम से कम श्री वैष्णव संप्रदाय में तो ऐसा नहीं है। आप सभी मंत्रों को जप सकते हैं यदि वो मंत्र आपको प्राप्त हो तो। लेकिन नारायण मंत्र को सबसे महान कहा गया है (प्रशंसावाद में या अर्थ की दृष्टि से)।

किस कारण से कहा गया यह भी देखने की आवश्यकता है। जिस सूत्र की चर्चा कर रहे हैं उसका बिल्कुल छोटा सा भाग निकाल कर रखा जा रहा है। यदि आप देखें तो वहां स्पष्ट लिखा है की भगवान का हर मंत्र मोक्ष देने में सक्षम है। मोक्ष देने की शक्ति भगवान के हर नाम, हर मंत्र में है, यह सूत्र में पहले ही कहा गया है।

भगवन्मन्त्रभूतत्वान्मोक्षफलप्रदत्वशक्तौ सत्यामप्येतेषां क्षुद्रफलप्रदत्वं प्रकृतिवश्यस्य चेतनस्य क्षुद्रफलरुच्याऽऽगतत्वादित्यर्थः ।

उसके बाद, फल प्रदान की जो शक्ति है; मोक्ष देने की शक्ति तो सभी मंत्रों में है (भगवन्मन्त्रभूतत्वान्मोक्षफलप्रदत्वशक्तौ) किंतु जो मंत्र क्षुद्र कार्यों के लिए प्रयुक्त होते हैं तो उन्हें क्षुद्रफलदायकं कहा गया है। और वहा भी स्पष्ट लिखा है क्षुद्रफलदायकं औपाधिक है (इदं च औपाधिकम्), वास्तविक नहीं है। औपधिक क्यों है? क्योंकि क्षुद्र फलों के लिए उनका प्रयोग हो रहा है (चेतानानां रुच्यागतत्वात्), इस कारण यह औपाधिक है। चेतानानां रुच्यागतत्वात् : क्योंकि लोग आदि हो गए हैं, उन्हें रूचि उत्पन्न हो गयी है इन मन्त्रों का अन्य प्रयोजनों हेतु प्रयोग करने के विषय में (मोक्ष के हेतु प्रयोग करना भी अन्य प्रयोजन ही है क्योंकि सिद्ध-साधन भगवान ही साधन हैं), इस कारण परमैकान्ति प्रपन्नों के लिए ये मन्त्र क्षुद्र-फलदायक हैं।

आज भी आप अयोध्या में जाएं तो कई संत मिलेंगे जो मारन चाटन आदि के लिए राम मंत्र के प्रयोग करते हैं। यह तो सर्व विदित है। यह कोई छुपाने की बात तो नहीं है। बांकि मंत्रों का भी प्रयोग करते हैं। तो क्षुद्र कार्यों के लिए यदि कोई मंत्र प्रयुक्त हो, तो उसे औपाधिक रूप से क्षुद्रफलदायकं कहा गया है। ऐसा ही कहा है वरवरमुनि स्वामीजी ने। दूसरी बात यदि नारायण मंत्र की प्रसंगात चर्चा हो रही है, तो नारायण मंत्र के आगे तो दूसरे मंत्रों को तुच्छ ही बताए जाएंगे न, यह तो सामान्य विवेक है। क्योंकि विषय ही नारायण मंत्र है। और तो और ये रहस्यार्थ है और रहस्यार्थ में नारायण मंत्र को ही उत्कृष्ट बताया जाएगा।

इससे कहां से श्री वैष्णव राम निंदक सिद्ध हो गए। वरवरमुनि स्वामी ने भी कहा की भगवान के सभी मंत्र मोक्ष देने में सक्षम हैं, लेकिन फलप्रदत्व के कारण, क्योंकि वह क्षुद्र फलों के लिए प्रयुक्त होते हैं, उन्हें औपाधिक रूप से क्षुद्रफलदायकं कहा गया है।

यदि मोक्ष के हेतु से उन मंत्रों का प्रयोग किया जाए तो वे मंत्र मोक्ष भी देंगे। मोक्ष के लिए प्रयोग करने वही मंत्र मोक्षफलदायकं हो जाएंगे। इसमें कौन से संशय की बात है, कौन से अपचार की बात है

इसीलिए जबरन श्री वैष्णव संप्रदाय को रामद्वेषी अथवा राममंत्रद्वेषी कहना बंद कर दीजिए। रहस्यार्थों को निकालकर और अर्थ का अनर्थ करके कीचड़ उछालना बंद कर दीजिए। यह कार्य बहुत निंदनीय है।

श्रीवचनभूषण शास्त्र स्वयं रंगनाथ भगवान द्वारा प्रमाणित है/ उस काल में जब कुछ लोगों ने द्वेष में भगवान से श्रीवचन भूषण की शिकायत की तो भगवान ने आज्ञा दिया की तुरन्त लोकाचार्य को लेकर आओ| लोकाचार्य स्वामी उस वक़्त अनुपस्थित थे, इस कारण उनके भ्राता, नायनार भगवान के सम्मुख गए| भगवान ग्रन्थ पढ़कर अत्यंत प्रसन्न हुए और सभी श्री वैष्णवों को यह ग्रन्थ अध्ययन करने की आज्ञा दी| नायनार ने इस ग्रन्थ की रक्षा हेतु ‘आचार्य-हृदयम’ नामक ग्रन्थ की रचना की|नायनार ने ग्रन्थ के विरुद्ध सभी आक्षेपों का समुचित उत्तर दिया और उनका संकलन “आचार्य हृदय” नामक ग्रन्थ में है। भगवान रंगनाथ द्वारा प्रामाणित ग्रन्थ की निन्दा करने वालों को क्या कह सकते हैं? भगवान रंगशायी उन्हें सुमति प्रदान करें

भगवान श्रीमन्नारायण से प्रार्थना है की वे आप को सद्बुद्धि प्रदान करें और आपको सत्संग में रहने की कृपा करें।

जय श्रीमन्नारायण।

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Author: ramanujramprapnna

studying Ramanuj school of Vishishtadvait vedant

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