रामानुज सम्प्रदाय पर लगे आक्षेपों के प्रत्युत्तर

आचार्य सियाराम दास नैयायिक जी से शास्त्र चर्चा हो रही थी| उन्होंने कहा दो बातें कहीं:

१. रामानुज सम्प्रदाय में राधा जी को सूर्पनखा का अवतार मानते हैं और प्रपन्नामृत में ऐसा लिखा है|

हमने उनसे प्रमाण माँगा कि हमारे किसी भी प्रामाणिक मठों से छपा प्रपन्नामृत में यह प्रसंग दिखा दें| उन्होंने खेमराज प्रकाशन का हवाला दिया| किन्तु खेमराज तो रामानुज सम्प्रदाय का मुखपत्र नहीं है न| वो कुछ भी लिखे, उसका रामानुज सम्प्रदाय से क्या लेना देना? हमारे मठों से प्रकाशित ग्रन्थों में दिखाईये| रंगनाथ प्रेस एवं काँची मठ से प्रकाशित होता रहा है| सो तो वो दे नहीं पाए किन्तु हमने उनको कुछ दिनों का समय दिया कि खोजिये और मिल जाये तो सूचित कीजिये|

किन्तु क्या ईर्ष्यावश बिना प्रमाण ही वो रामानुज सिद्धांत पर लान्छन लगाते रहे?

उन्होंने कहा कि प्रपन्नामृत रामानुज सम्प्रदाय में दक्षिण का प्रसिद्ध ग्रन्थ है| ये बात भी सरासर झूठ है| बिना जानकारी के आचार्य कुछ भी बोल लेते हैं| दक्षिण में तो इस ग्रन्थ की प्रामाणिकता ही नहीं है| हाल फिलहाल तमिल अनुवाद होने के कारण दक्षिण के श्री वैष्णवों में इसकी ख्याति हुयी है, वहाँ भी सूर्पनखा का प्रसंग नहीं छपा है| इसके लेखक के विषय में भी विशेष जानकारी नहीं है किन्तु यह ग्रन्थ अर्वाचीन है|

हमारे सम्प्रदाय में रंगनाथ भगवान से लेकर वरवरमुनि तक की आचार्य माला है| इन आचार्यों के विरुद्ध यदि कोई लिखता है तो वह स्वतः अप्रमाण हो जाता है| आपके अनुसार प्रपन्नामृत में अयोध्यावासियों को मोक्ष नहीं मिला, ऐसा लिखा है| किन्तु कुलशेखर आलवार और कूरेश स्वामी के सुन्दरबाहू स्तव में यह स्पष्टतया वर्णित है कि श्री राम ने समस्त अयोध्यावासियों को मोक्ष प्रदान किया| टीकाकार कृष्णपाद सूरी आदि ने और भी स्पष्ट कर दिया है|

अब यदि किसी व्यक्ति ने ओरान वल्ली आचार्य परम्परा के आचार्यों के मत के विरुद्ध कुछ लिखा भी है तो क्या वह स्वतः अप्रमाण नहीं हो जाता? आपके ही सम्प्रदाय में रामभद्राचार्य जी सम्पूर्ण उत्तरकाण्ड एवं बालकाण्ड को प्रक्षिप्त मानते हैं, भागवत आदि पुराणों को भी प्रक्षिप्त मानते हैं; गोपियों को कृष्ण की बहन बताते हैं| तो इसे रामानन्द सम्प्रदाय का मत मान लिया जाए? सम्प्रदाय के ही सन्त इससे सहमत नहीं हैं|

सो, प्रथम तो हमारे मठों से प्रकाशित प्रपन्नामृत में राधा जी के विषय में ऐसा कुछ लिखा ही नहीं है| लिखा हो, हमने चुनौती दी थी कि आप दिखा दीजिये| दूसरा यह कि हमारी समृद्ध परम्परा में टीकाकारों की परम्परा है| स्तोत्रों एवं सिद्धान्त ग्रथों से धनी है हमारा सम्प्रदाय और आचार्य-परम्परा के विरुद्ध यदि किसी प्रेस ने कुछ छाप दिया तो वह अप्रमाण है| वरवर मुनि स्वामी ने उपदेश रत्नमाला में ऐसे लोगों को मुर्ख कहा है

२. आचार्य जी ने कहा कि आपका सम्प्रदाय ‘श्री सम्प्रदाय’ नहीं, अपितु लक्ष्मी सम्प्रदाय है, क्योंकि पुरुष सूक्त में श्री और लक्ष्मी भिन्न हैं| (श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहोरात्रे पार्श्वे /ह्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्नौ)

हमने उनसे कुछ प्रश्न किये जिनके उत्तर की प्रतीक्षा में अबतक हूँ:

1. श्री सूक्त की देवी के लिए ‘विष्णु-पत्नी’ शब्द प्रयुक्त है| वो विष्णुपत्नी कौन हैं?

विष्णुपत्निम  क्षमां    देवीम  मधावीम  माधवप्रियाम  |

विष्णु  प्रियसखीम  देवीं  नमाम्यच्युत्वल्लाभाम      ||

महालक्ष्मी  च  विद्महे  विष्णुपत्नी  च  धीमहि  |

तन्नो  लक्ष्मी  प्रचोदयात ||

श्री सूक्त में स्पष्ट रूप से लक्ष्मी का वर्णन है

हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम। चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह।

उनका प्रश्न था कि वेदों में परस्पर विरोध है? इसका उत्तर यह है कि आप भी यह मानते हैं कि आपकी व्याख्या के अनुसार वेदों के मन्त्रों में परस्पर विरोध हो रहा है| किसी मन्त्र का अर्थ निर्णय करते काल यह ध्यान रखें की आपके अर्थ विन्यास का दुसरे मन्त्रों से अविरोध हो| वेद नित्य-निर्दोष, स्वतः प्रमाण एवं अपौरुषेय हैं|

यदि मान लो, श्री और लक्ष्मी भिन्न हो भी गयीं, तो फिर सीता श्री देवी किस प्रकार हुयीं? श्री सूक्त में तो सीता नहीं हैं? (हमारे मत में श्री/लक्ष्मी/सीता/रुक्मिणी में कोई भी भेद नहीं)

2. पुरुष सूक्त के देवता उभय नायिका विशिष्ट हैं (यदि आपने पत्न्यौ का द्विवचन ग्रहण किया है)| यदि पुरुष सूक्त के देवता राम हैं तो आप अपने निज ठाकुर को उभय महिषी के साथ प्रतिष्ठित करने की चुनौती स्वीकार करते हैं? श्री राम के एक ओर श्री देवी और दूसरी ओर लक्ष्मी देवी|

यदि आप ऐसा कहते हैं कि श्री देवी के विस्तार होने के कारण लक्ष्मी राम की पत्नी हुयीं, फिर तो विष्णुपत्नी = रामपत्नी का सूत्र हो जाने से राम और विष्णु में अभेद सिद्ध हो गया|

3. वाल्मीकि रामायण, सीतोपनिषद एवं विष्णु पुराण में सीता को लक्ष्मी कहा गया है| आपके मत में श्री देवी और लक्ष्मी देवी भिन्न हैं| फिर तो श्री देवी और सीता भी भिन्न ही हुयीं क्योंकि सीता को लक्ष्मी कहा गया है|

महालक्ष्मी र्देवेशस्य भिन्नाभिन्नरूपा।
चेतनाचेतनात्मिका ब्रह्मस्थावरात्मा॥
तद्गुणकर्मविभागभेदाच्छरीरूपा देवर्षिमनुष्यगन्धर्वरूपा असुरराक्षसभूतप्रेत।
पिशाचभूतादिभूतशरीरूपा भूतेन्द्रियमनः प्राणरूपैति च विज्ञायते॥ – (श्रीसीतोपनिषद् १०)

सीता लक्ष्मीर्भवान् विष्णुर्देवः कृष्णः प्रजापतिः।
वधार्थं रावणस्येह प्रविष्टो मानुषीं तनुम्। ❤

  • वाल्मिकी रामायण, युद्ध कांड 117.27

तिलकटीकाकारने भी लिखा है-

‘सीता लक्ष्मीः प्रसिद्धविष्णुपत्न्यभिन्नत्वात् । यो विष्णुः स भवान् देवः प्रकाशरूपः ।’

सीता लक्ष्मी हैं, विष्णुपत्नी। सीता और लक्ष्मी अभिन्न हैं।

https://www.valmiki.iitk.ac.in/content?field_kanda_tid=6&language=dv&field_sarga_value=120&field_sloka_value=28&sckt=1&scgr=1&scty=1&scaa=1&scmt=1&scnb=1&scss=1&etak=1&etgr=1&etnb=1&

देवौ धातृविधातारौ भृगोः ख्यातिरसूयत। श्रियं च देवदेवस्य #पत्नी_नारायणस्य या।।१५।।

भृगु के द्वारा ख्याति ने धाता और विधाता नामक दो देवताओं को और श्री को जन्म दिया, जो भगवान्नारायण कीपत्नी_ हुईं।

#श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश अध्याय 8
Śrī Viṣṇu Purāṇa First Portion Chapter 8

सीता साक्षान्महालक्ष्मी: सर्व कारणकारणम् – ( श्री पद्मपुराण ५/२२/५७/२)

तहँ बस नगर जनकपुर परम उजागर।

सीय #लच्छि जहँ प्रगटी सब सुख सागर।।

भयउ न होइहि है न #जनक सम नरवइ।
सीय सुता भइ जासु सकल मंगलमइ।।

श्रीजानकीमंगल पद 5-7

देवत्वे देव देहेयं मनुष्यत्वे च मानुषी|

विष्णो: देहानुरुपां वै करोत्येषात्मन: तनुम्||

राघवत्वेऽभवत्सीता  रुक्मिणी कृष्ण जन्मनी|

अन्येषु चावातारेशु विष्णो: श्री अनपायनी||

(श्रीविष्णुपुराणे महालक्ष्मी स्तोत्रं )

तो फिर आप क्या अपने को ‘श्री सम्प्रदाय’ कहना छोड़कर ‘सीता सम्प्रदाय’ कहेंगे? चुनौती स्वीकार कीजिये| विष्णु पुराण के मत से ‘विष्णु की श्री’ हमेशा उनकी अनपायनी हैं, जब वो राघव हुए तो ये सीता एवं जब वो रुक्मिणी|

श्री विष्णु सहस्रनाम में भगवान के कुछ प्रसिद्ध नाम जो श्री सम्बन्ध को प्रकाशित करते हैं:

श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः । श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमान्-लोकत्रयाश्रयः।।

  • लक्ष्मी को देने वाले
  • लक्ष्मी के पति
  • जिनके वक्ष स्थल में लक्ष्मी वास करती है
  • लक्ष्मी के धन अथवा लक्ष्मी ही है जिनका धन
  • लक्ष्मी को पालन करने वाले
  • लक्ष्मी को धारण करने वाले
  • लक्ष्मी की बृद्धि करने वाले
  • श्री से नित्ययोग वाले

फिर विष्णुपत्नी, लक्ष्मी, श्री, सीता और रुक्मिणी में क्या भेद रहा? शस्त्र-प्रमाण बड़ा है या व्यक्ति का अहंकार?

(बृहदब्रह्मसंहिता‌ पृ० ८४)
तंत्रायोध्या पूरी रम्या यंत्र नारायणो हरि़
रामरूपेण रमते सीता परया सह।।
आदि भूता महालक्ष्मी: सीता तू विभवे मता।

राधा को भी महालक्ष्मी ही कहा गया है:

सा तु साक्षान् महा-लक्ष्मीः कृष्णो नारायणः प्रभुः

न तयोर् विद्यते भेदः स्व्-अल्पो ऽपि मुनि-सत्तम

She (Radha)is directly Goddess Mahā-Lakṣmī and Lord Kṛṣṇa is Lord Nārāyaṇa. O best of sages, there is not the slightest difference between Them.

– Sanat kumara Samihita verse 74.

हमारे यहाँ एक परम्परा है कि जिस आचार्य के ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं, उन आचार्य का तनिया पढ़ उनकी शरणागति करते हैं| तत्त्व त्रय, श्री वचन भूषण, यतीन्द्र मत दीपिका आदि ग्रन्थ रामानन्द सम्प्रदाय में भी पढ़े जाते हैं| रामानुज स्वामी का वेदार्थ संग्रह भी पढ़ा जाता है| क्या आप नित्य ग्रन्थ पाठ में ग्रन्थकर्ता आचार्य का तनिया पढ़, नमः उक्ति से उनकी शरणागति नहीं करते?

यदि करते हैं तो उन आचार्यों के विषय में अपशब्दों का प्रयोग कैसे कर लेते हैं? लोकाचार्य स्वामी और वरवर मुनि स्वामी के विषय में न सिर्फ आप संदर्भरहित व्याख्या कर उनका अपमान करते हैं बल्कि उनके प्रति अपशब्दों का प्रयोग भी करते हैं| शतं वद एकं मा लिख| बोलना एक बात है और ग्रन्थ में लिख देना दूसरी बात| आपके प्रामाणिक मठों से प्रकाशित ग्रन्थों में उनके प्रति अमर्यादित शब्दों का प्रयोग है|

ग्रन्थ अध्ययन के काल में उन आचार्य की शरणागति और फिर उनके प्रति अपशब्द| यह कैसा शिष्यत्व है? यह कैसी कृतघ्नता है?

प्रसंगात उनके अन्य प्रलापों का भी संक्षेप में उत्तर देते चलते हैं:

3. रामानुजी शिव-निन्दक हैं| वो शिव-मंदिर नहीं जाते| रामानुजी हरि और हर में भेद करने के कारण त्याज्य हैं

आपके मत में यदि हरि और हर में भेद करना निन्दनीय है तो क्या हरि और हरि में भेद करना प्रशंसनीय है? आपने कहा कि रामानुजी हरिहर में भेद करते हैं| हम ये स्वीकार करते हैं| भक्त और भगवान में भेद स्वतः सिद्ध है| किन्तु भगवान और भगवान में भेद करना कितना बड़ा पाप है? श्री और लक्ष्मी में भेद करना कितना बड़ा पाप है?

वैष्णवों के तीन वर्गीकरण हैं। सत्कार योग्य, सहवास योग्य, सदानुभाव्य योग्य| सहवास योग्य तो केवल ऐकान्तिक वैष्णव ही हैं जो भगवान का स्व-भोग्यत्व रहित कैंकर्य करते हैं, जो भगवान के अनन्यार्घ शेष हैं।

कई लोग समझते हैं कि वैष्णव शिव द्वेषी हैं। ऐसा नहीं है। शिव तो परम योगी, परम वैष्णव हैं। देवतान्तर सभी वैष्णव हैं। किन्तु अन्य प्रकार के वैष्णव ‘सत्कार योग्य‘ होते हैं। भेंट होने पर हम उनका अपमान नहीं अपितु सत्कार करते हैं। किन्तु देवतान्तर भगवान के ऐकान्तिक भक्त नहीं हैं। सत्त्व गुण का प्राधान्य होने पर वह भगवान की उपासना करते हैं। राजो गुण एवं तमो गुण के प्रभाव में वो भगवान से द्वेष कर उनसे युद्ध भी करते हैं। राम और कृष्ण, दोनों की कथा में शिव ने युद्ध किया है। इन्द्र ने तो अनेक बार युद्ध किया है।

दूसरी बात यह कि शिव आगम के अनुसार बने मंदिरों में विष्णु जिस प्रकार से चित्रित होते हैं, वो देखकर वैष्णव क्या सहज महसूस करेंगे? भगवान के अवतारों की शिव या शक्ति द्वारा निर्मम हत्या किए जाने के चित्र या शिल्प क्या वैष्णव देख पायेंगे?

तो वैष्णव शिव मन्दिर क्यों नहीं जाते, ऐसा प्रश्न भी नहीं होना चाहिए। देवतान्तर अवश्य ही सत्कार योग्य वैष्मव हैं किन्तु अनन्यार्घ शेषत्व और अनन्य भोग्यत्व का अभाव होने के कारण वो हमारे लिए सहवास योग्य नहीं हैं।

4. रामानुजी श्री देवी को जीव मानकर उनका भगवदापचार करते हैं

श्री देवी को नारायण की अनपायनी कहा गया है शास्त्रों में। श्रीवैष्णवमताब्ज भाष्कर में भी भगवान रामानन्दाचार्य जी ने अनपायनी ही कहा है। मानस में गोस्वामीजी श्री देवी को नारायण से “भिन्नाभिन्न” कहते हैं। अर्थात अनपायनी।

अनपाय का अर्थ है अपाय से रहित। अपृथक। कभी पृथक नहीं रहने वाली को अनपायनी कहते हैं। श्री देवी भगवान की हर अवस्था में उनसे अपृथक हैं। इसका विस्तृत विवरण पराशर महर्षि विष्णु पुराण में करते हैं:

देवत्वे देवदेहेयं मानुषत्वे च मानुषी।

विष्णोर्देहानुरुपां वै करोत्येषाऽऽत्मनस्तनुम्॥

तद्वक्षस्थलनित्यवासरसिकाम्

वाल्मीकि महर्षि भी अनपायनी का उदाहरण देते हैं:

अनन्या हि मया सीता भास्करेण प्रभा यथा॥ (६/१२१/१९)

भाष्कर और उसकी प्रभा अपृथक है। दोनों प्राकार-प्राकारी सम्बन्ध है। जैसे पुष्प से उसका सुगन्ध। आत्मा और उसका शरीर। अपृथक और अनपाय सम्बन्ध के कारण प्राकार-प्राकारी भाव में अभिन्न कहते हैं। “अहं ब्रह्मास्मि” जैसे मन्त्रों का भी अनपाय और प्राकार-प्राकारी के सम्बन्ध में ही अर्थ है। प्राकार अपने प्राकारी का शेषभूत होता है। इस कारण इस मन्त्र का अर्थ हुआ कि मैं भगवान का शेष हूँ।

श्री देवी चुकि भगवान के हर रूप में उनसे अपृथक हैं, इस कारण भगवान के अंतर्यामी स्वरूप में भी उनसे अपृथक हैं। भगवान अपने स्वरूप से ही सर्वव्यापी हैं। अर्थात भगवान की आत्मा सर्वत्र व्याप्त है। जबकि श्री देवी अपने धर्मभूत ज्ञान से भगवान के साथ सर्वत्र व्याप्त हैं। इस प्रकार वो अन्य जीवात्माओं की भाँति नहीं हैं।

श्री देवी “देवदेवदिव्यमहिषी” हैं। सभी जीवों की शेषी हैं। इस कारण भी वो अन्य जीवों की भाँति नहीं है।

वेद में तीन ही तत्त्व कहे गए हैं: भोक्ता, भोग्य, प्रेरिता। जीवात्मा, प्रकृति और ईश्वर। ईश्वर तो सिर्फ एक ही हो सकता है। ईश्वर से भिन्न या तो जीव होगा या अचेतन। इस कारण श्री देवी भगवान से भिन्न होने के कारण जीवात्मा ही हैं। किन्तु वो अन्य सभी जीवात्माओं के वर्ग में नहीं आ सकतीं। वो भगवान की प्राणप्रिया महिषी होने के कारण सभी जीवात्माओं की प्राप्त-शेषि हैं।

जब तक प्रभा और प्रभावान के प्राकार-प्राकारी भाव को नहीं समझेंगे, तब तक इस श्लोक में अंतर्निहित शेष-शेषि भाव एवं पारतंत्र्य समझ नहीं आयेंगे। परतन्त्र होने के कारण ही हम अनन्य गति हैं। इसी कारण भगवान हमारे अनन्य आश्रय हैं।

माता श्री देवी यही शिक्षा प्रदान करती हैं। अपने विश्व रूप में अनुभव किये जाने पर भी, अपूर्ववत् होती और भगवान को विस्मित कर देती हैं। ऐसा है श्रीजी का कैंकर्य। इसी कारण गोस्वामीजी भी पारतंत्र्य पर प्रकाश डालते हुए लिखते है:

परवश जीव स्ववश भगवन्ता। जीव अनेक एक श्रीकंता।।

‘एक’ शब्द का प्रयोग अवधारणार्थ में होता है। एकमात्र ही। अर्थात स्ववश भगवान होते हैं, परवश जीव। भगवान ‘एकमात्र’ श्री के पति ही हैं। तो क्या यह स्पष्ट नहीं है कि श्री देवी भी श्रीकान्त के परतन्त्र हैं एवं ईश्वर एकमात्र श्रीकान्त हैं। श्री देवी तो श्रीकान्त नहीं हो सकतीं।

भगवान की प्राणप्रिय वल्लभा होने के कारण हम दोनों के शेष हैं। श्री वैष्णव सदैव युगल की सेवा करते हैं। दोनों ही हमारे प्राप्त-शेषी हैं।

किन्तु एक भक्त को सर्वाधिक कष्ट कब होगा? जब उसे कहा जाय कि आप भगवान हो। श्री देवी अन्य जीवात्मा की भाँति नहीं हैं, अपितु सभी जीवात्माओं की शेषी हैं। किंतु वेदान्त के सिद्धान्त में वो ईश्वर से भिन्न ही हैं। प्रकार-प्रकारी भाव में अभिन्न भी हैं। भगवान के भक्तों में सर्वोपरि हैं। भगवान के सभी रूपों में भगवान से अपृथक हैं।

मानस की पंक्ति है:

गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।

लक्ष्मी और भगवान में भिन्नाभिन्न सम्बन्ध है। लोग अभिन्न शब्द को अपना लेते हैं और भिन्न शब्द को छोड़ देते हैं।

भगवान का भगवान से भिन्नाभिन्न या भेदाभेद सम्बन्ध नहीं होता। गोस्वामीजी दो उदाहरण देकर समझाते हैं। वाणी और उसका अर्थ। अर्थ वाणी के परतन्त्र होता है| जल एवं बीचि में कार्य कारण सम्बन्ध है। भगवान का भगवान से भिन्नाभिन्न सम्बन्ध नहीं होता किसी भी सिद्धान्त में। जीव का ही होता है। कार्य-कारण भाव में एवं प्रकार-प्रकारी भाव में।

गोस्वामीजी ने दो उदाहरण देकर स्पष्ट कर दिया कि भिन्न और अभिन्न दोनों कैसे।

श्री वैष्मव सम्प्रदाय परम रसिक सम्प्रदाय है। दाम्पत्य रस से के लिए दोनों में भेद होना आवश्यक है। यदि श्री लक्ष्मीजी और भगवान में अद्वैत हो, तो फिर प्रेम रस कहाँ रहा? यदि श्रीजी और विष्णु की आत्मा एक ही है और शरीर मात्र विष्णु या राधा का है; फिर तो माधुर्य रस ही लुप्त हो जाएगा।

इस कारण भी श्री जी को भगवान विष्णु से भिन्न मनना ही सरस है। जो ईश्वर से भिन्न है, वो या तो जड़ होगा या जीव।

श्री सम्प्रदाय और माध्व सम्प्रदाय में ऐसा ही मत है। दोनों ही सम्प्रदाय में वो नित्य जीव हैं, भगवान की महिषी होने के कारण ईश्वरी हैं। इसलिए हम लक्ष्मी नारायण की सेवा करते हैं, केवल लक्ष्मी या केवल नारायण की नहीं।

यदि दोनों में अद्वैत मान लिया, फिर तो सिर्फ लक्ष्मी या सिर्फ कृष्ण की भी अकेले सेवा कर सकते हैं। कह देंगे कि दोनों एक ही हैं ना। एक ही व्यक्ति की दो मूर्ति रखें या एक, क्या फर्क पड़ता है।

इस कारण युगल कैंकर्य करने वाले श्री वैष्मव दोनों को भिन्न मानते हैं।

दोनों का प्रेम लीला मात्र नहीं है अपितु स्वाभाविक है। स्वाभाविक तभी होगा जब दोनों भिन्न होंगे।

5 रामानुजी राम द्रोही हैं, राम मूर्ति के समक्ष दण्डवत भी नहीं होते

इस आक्षेप का उत्तर देने की आवश्यकता ही नहीं| जिस सम्प्रदाय में कुलशेखर आलवार, भद्राचल रामदास, पराशर भट्टर जैसे महान राम भक्त हुए हों; जिनका मूल ग्रन्थ ही वाल्मीकि रामायण हो, जिस सम्प्रदाय में भगवान की पादुका पर ही सहस्र श्लोक में वन्दना हो, उसे अपनी राम-भक्ति सत्यापित कराने की आवश्यकता ही नहीं| हमारे १०८ दिव्यदेशों में भी अनेक दिव्यदेश श्री राम के हैं|

श्रीमते रामानुजाय नमः

May be an image of temple

Unknown's avatar

Author: ramanujramprapnna

studying Ramanuj school of Vishishtadvait vedant

3 thoughts on “रामानुज सम्प्रदाय पर लगे आक्षेपों के प्रत्युत्तर”

    1. Thanks for the feedback and suggestions, we will come with the english translation of the post as well.

      Also we are in process to release english translation of the mamunigal introduction to Tattva traya

      Like

Leave a comment