भगवद स्वरुप एवं रूप (भाग 1)

स्वरुप का अर्थ ‘स्वात्मके पदार्थे’ से वाचस्पत्यम में सूचित होता है| अमरकोश में स्वरुप और स्वाभाव समानार्थक शब्द हैं| इस प्रकार जब हम आत्म-स्वरुप की बात करते हैं तो उसका अर्थ है : स्वयं आत्मा| रूप का अर्थ है ‘नेत्रेन्द्रियविषय:’ अर्थात नेत्र इन्द्रिय के विषय हो जाना| जब आत्म-स्वरुप शरीर धारण कर एक आकर को पाकर हमारे आँखों का विषय बन जाता है तो उसे ‘रूप’ कहते हैं| आत्मा स्वरुप से अणु है अर्थात अत्यंत सूक्ष्म| वह हमारे नयनों का विषय नहीं है| किन्तु जब आत्मा शरीर धारण करता है तब रूपवान हो जाता है| ब्रह्म सूत्र के आखिरी अध्याय में चर्चा है कि मुक्त आत्मा चाहे तो बिना शरीर के रह सकता है या चाहे तो एक से अधिक शरीर में रह सकता है। मुक्त जीवात्मा अनेक शरीर अपने रुचि या स्वतन्त्र बुद्धि से नहीं अपितु भगवान के संकल्प के अनुसार ही धारण करता है।

निवासशय्यासनपादुकांशुकोपधानवर्षातपवारणादिभिः ॥

शरीरभेदैस्तव शेषतां गतैर्यथोचितं शेष इतीरिते जनैः ॥ ४० ॥

दासः सखा वाहनमासनं ध्वजो यस्ते वितानं व्यजनं त्रयीमयः ॥

उपस्थितं तेन पुरो गरुत्मता त्वदङ्ङ्घिसम्मर्द किणाङ्कशोभिना ॥ ४१ ॥

इन श्लोकों में उपवर्णित है कि किस प्रकार अनन्त शेष एवं गरुड़ अनेक शरीर धारण कर भगवान का कैंकर्य करते हैं| बद्ध जीवात्मा भी अपने योगबल से अनेक शरीर धारण करता है| कर्दम और देवहूति की कथा प्रसिद्ध है| कर्दम ने अनेक शरीर धारण कर अपनी पत्नी के संग विहार किया था| अब कोई व्यक्ति ने यह प्रश्न किया कि अनेक शरीर के संग विहार करने से क्या देवहूति की पतिव्रता नष्ट नहीं हुयी? उत्तर है कि नहीं| अनेक शरीरों में भी आत्मा एक ही विराजमान थी| इस प्रकार शरीर का भेद होते हुए भी आत्मा का अभेद रहा|

भगवान स्वरुप से विभू हैं अर्थात भगवान की आत्मा/भगवान स्वयं सर्वत्र विद्यमान हैं| सर्वत्र विद्यमान भगवान (दिव्यात्म-स्वरुप) नित्य मुक्तों के भी इन्द्रियों के विषय नहीं हैं तो बद्ध जीवों की बात ही क्या करें| भगवान भी शरीर धारण कर हमारे इन्द्रियों के विषय बन जाते हैं| रासक्रीडा आदि प्रसंग में प्रसिद्ध है कि भगवान ने अनेक शरीर धारण कर अनेक गोपियों संग विहार किया|

Q. भगवान के अनेक शरीर धारण करने और जीवात्मा के अनेक शरीर धारण करने में क्या अंतर है?

उत्तर: भगवान स्वरुप से सर्वत्र विद्यमान हैं जबकि जीवात्मा अणु होने के कारण देश-परिच्छेद से रहित नहीं है| आत्मा स्वयं किसी एक ही स्थान पर उपस्थित हो सकता है| अनेक शरीरों में स्वयं विराजमान नहीं होता। अपने (धर्मभूत) ज्ञान के विस्तार से उन शरीरों का नियमन करता है, उन शरीरों से सुख-दुख का अनुभव करता है। उदाहरण के लिए आदि शेष का रामानुज अवतार से समझें। अणु आत्मा तो एक समय में एक ही स्थान पर हो सकता है। अपने धर्मभूत ज्ञान से ही आदि शेष अनन्त जी अनेक शरीर धारण करते हैं। धर्मभूत ज्ञान के द्वारा ही संसार में रामानुज नाम के शरीर में अवतरित हुए।

भगवान सर्वत्र विद्यमान हैं और अनेक शरीरों में स्वयं स्वरुप से (आत्मा से) विद्यमान हैं| यदि कहें कि एक विशेष रूप ही भगवान का एकमात्र रूप है और वही उनका स्वरुप भी है तो भगवान का अनंतत्व बाधित होगा| भगवान अनन्त शरीरों में अनन्त रूपों से युक्त होकर विद्यमान हैं| भगवान अपने शरीर के स्वामी हैं, उसके भी अन्तर्यामी हैं। भगवान से उनका शरीर अपृथक है| अब समझने की बात यह है कि भगवान का रूप चाहे द्विभुजी हो या चतुर्भुज, अष्टभुज आदि; फर्क बस रूप में आया है। स्वरूप वही है। शरीर में भेद होने पर भी भगवद्-स्वरूप में भेद नहीं आता। इस कारण भगवान के रूपों में कौन बड़ा और कौन छोटा, इस विवाद से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है।

श्रीरंगम और अयोध्या दिव्यदेश में भगवान बहुत ही सरस रूप से यह समझा रहे हैं| मंदिरों में मूल या अचल मूर्ति के नाम से एक मूर्ति और उत्सव या भोगमूर्ति के नाम से दूसरी एक मूर्ति विराजमान हैं। उनमें श्रीरंगक्षेत्र एवं अयोध्या में विराजमान मूलमूर्ति द्विभुज हैं और उत्सव मूर्ति, चतुर्भुज हैं। भक्तों के अनुभव में दोनों एक ही प्रकार से आनंददायक होते हैं; न तु न्यूनाधिक भाव से । अतः भुजसंख्या का निर्णय करना विशेषतः आवश्यक नहीं है।

Q. भगवान के शरीर और जीवात्मा के शरीर में क्या भेद है?

बद्ध जीवात्मा का शरीर प्राकृत है, पञ्च-भूतों से निर्मित है (भू, जल, अग्नि, वायु, आकाश)| जीवात्म-शरीर प्रकृति के मिश्र-सत्त्व गुण का होता है|अर्थात, रज और तमस से मिश्रित होने के कारण यह शरीर आत्म-स्वरुप का तिरोधान करती है एवं ज्ञान को संकुचित करती है|

भगवान का शरीर पंचोपनिषद तत्त्व से निर्मित होता है जो गुण से शुद्ध-सत्त्वमय होता है अर्थात रजस और तमस से रहित (निज इच्छा निर्मित तनु, माया गुण गोपार)| पंचोपनिषद तत्त्व का विस्तृत विवेचन पांचरात्र शास्त्र में वर्णित है| भगवान अपने शरीर के स्वामी हैं, उसके भी अन्तर्यामी हैं। भगवान से उनका शरीर अपृथक है| यह शुद्ध सत्त्व गुण के पंचोपनिषद तत्त्व से निर्मित होते हैं| अब समझने की बात यह है कि भगवान का रूप चाहे द्विभुजी हो या चतुर्भुज, अष्टभुज आदि; फर्क बस रूप में आया है। स्वरूप वही है। शरीर में भेद होने पर भी भगवद्-स्वरूप में भेद नहीं आता।

भगवान नरसिंह का रूप अभूतपूर्व था| भगवान का नर और सिंह का मिश्रित रूप धारण करना उनकी अघटित-घटना-सामर्थ्य का सूचक है| प्रहलाद जानते थे नरसिंह के शरीर में स्वयं भगवान ही प्रकट हुए हैं| यदि शरीर के भेद से आत्मा भिन्न हो जाती तो प्रहलाद कभी भी भगवान नरसिंह को विष्णु नहीं मानते| भू देवी भी जानती थीं वराह उनके प्रिय विष्णु/नारायण ही आये हैं। आचार्य पराशर भट्टर से एक शिष्य ने पूछा कि श्रीवैकुण्ठ में भगवान चतुर्भुज हैं या द्विभुज? श्री भटार्य ने उत्तर दिया “अगर परमपद नाथ द्विभुज हों तो उनको मूल श्रीरंगनाथ मानेंगे; और चतुर्भुज हों तो उत्सव मूर्ति मानेंगे । अतः यह चर्चा व्यर्थ है”

भगवान का शरीर ज्ञानमय है

भगवान के शरीर को असाधारण दिव्य-मंगल-विग्रह कहते हैं| भगवान का शरीर ज्ञानमय, आनंदमय होता है| ज्ञानमय का अर्थ है स्वयं-प्रकाश होना|

चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी।। 

पदार्थ के दो प्रकार होते हैं: जड़ एवं अजड़ | स्वयं प्रकाशम् अजड़म् | अजड़ पदार्थ ज्ञानस्वरूप होता है| अजड़ पदार्थ के भी दो विभाग हैं: प्रत्यक एवं पराक| प्रत्यक का अर्थ है “स्वस्मै भासमानं”| पराक का अर्थ है: “परस्मा एव भासमानं”| पंचोपनिषद शुद्धसत्त्वमय तत्त्व पराक की श्रेणी में आते हैं, अर्थात ज्ञानमय किन्तु अचेतन| आत्मा प्रत्यक है: ज्ञानमय एवं चेतन|

इस विषय में एवं आत्मा एवं शरीर के स्वरुप-निरूपक-धर्म के विषय में विस्तार से भाग २ में चर्चा करेंगे|

श्रीमते रामानुजाय नमः

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Author: ramanujramprapnna

studying Ramanuj school of Vishishtadvait vedant

One thought on “भगवद स्वरुप एवं रूप (भाग 1)”

  1. Adiyen Ramanuj Dasan!!

    Your posts about Sri Vaishnavism are so knowledgeable. You explain every concept by your such devotion that anyone.

    I was going through all of your posts but did not find it’s 2nd part. Can you please post it’s 2nd part if you didn’t and if you did, can you share the link pleasee??

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