ज्ञान सारम् (संक्षिप्त सार)

कार्तिके भरणि जातं यतीन्द्राश्रयम् आश्रये।
ज्ञानप्रमेयसारभिवक्तारं वरदं मुनिम् ।।

आचार्य अरुलाल पेरुमाल एम्पेरुमानार (दयापाल वरदराज रामानुज मुनि) ने 40 श्लोकों में साम्प्रदायिक ज्ञान का सार लिख दिया। प्रपत्ति के स्वरूप से आरम्भ कर, भगवान के दिव्य कल्याण गुण, भगवान के अनन्य भक्ति का महत्व एवं उनके अनन्य भक्तों के एक ही कुल का होना, भगवान द्वारा शरणागतों के पूर्वाघों का नाश, आचार्याभिमान एवं भागवत-शेषत्व आदि अनेक विषयों को समझाया। आचार्य पूर्व में यज्ञमूर्ति नाम से सन्यासी थे एवं रामानुज स्वामी से शास्त्रार्थ में पराजित होकर श्री वैष्णव धर्म में समाश्रित हुए।

१. आर्त-प्रपन्न के लक्षण

आर्तानाम आशुफलदा सकृदेवकृता ह्यसौ।
दृप्तानाम अपि जन्तूनां देहान्तरनिवारिणी।। (पाँचरात्र)

जैसे पक्व फल स्वयं ही गिर जाता है, वैसे ही वैराग्य एवं प्रेम से परिपूर्ण आर्त प्रपन्न स्वयं ही भगवान के चरणारविन्दों में गिर जाते हैं। ऐसी आर्त प्रपत्ति तुरन्त ही मोक्ष प्रदान करती है। दृप्त प्रपन्न को देह समाप्ति के पश्चात मोक्ष प्राप्ति होती है।

वैराग्य का अर्थ है: परमात्मनि रक्त:, अपरमात्मनि विरक्त:। शठकोप आळ्वार कहते हैं, ‘ हे शब्दादि विषय! तुम अबतक सिंहासन लगाकर बैठे थे। अब नहीं रह सकते। अब नए राजा आये हैं। तुम राज्य से निष्काषित होते हो”। भगवान से प्रेम एवं प्राप्ति विरोधी संसार से वैराग्य। अहंकार युक्त भगवान जब हृदय में प्रवेश करते हैं तो अपने से इतर वस्तुओं को निकाल फेंकते हैं।

“आर्त प्रपत्ति मोक्ष प्रदान करती है”; ऐसा उपचार से कहा गया। वस्तुतः मोक्ष-प्रदान भगवान का निरंकुश स्वातंत्र्य ही है। शरणागति योग्यता मात्र है। स्वतंत्र भगवान ने भरत की शरणागति स्वीकार नहीं की। (विललाप सभा मध्ये)। उनकी इच्छा थी कि भगवान तुरंत अयोध्या लौट आएं। वो तो पूर्ण नहीं हुआ। परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भरत की आकांक्षा भगवान के संकल्प के विपरीत था।

न्यास इति ब्रह्म, ब्रह्म इति पर:

२. परभक्ति के लक्षण:

प्रपन्नः चातको यद्वत् प्रपत्तव्यः कपोतवत् ।
रक्ष रक्षकयोरेतत् लक्ष्यं लक्षणम् एतयो:।।

पर भक्ति की दशा में भगवान से संश्लेष सुखद होता एवं भगवान से विश्लेष अत्यन्त दुखद। प्रपन्नों के लिए भक्ति उपाय रूप में नहीं अपितु कैंकर्य-रुचि के लिए वाँछित होता है। जैसे भोग-रुचि के लिए भूख आवश्यक है, उसी प्रकार कैंकर्य-रुचि के लिए भक्ति आवश्यक है। भक्ति अर्थात प्रेम। प्रपन्नों की भक्ति दोषरहित होती है। भक्ति में दोष क्या है? प्राप्यान्तर एवं उपायान्तर। भक्ति के द्वारा भगवान से इतर वस्तु प्राप्त करने की इच्छा करना एवं भक्ति को उपाय बुद्धि से अनुष्ठान करना।

चातक केवल मेघ का जल ही पीता है। मेघ के जल की आशा में प्रतीक्षा करते रहता है। यदि चातक पर-भक्ति युक्त प्रपन्न हैं तो मेघ भगवान नारायण हैं। मेघ से हुई वर्षा भगवान की कृपा है। चातक के समान परभक्ति युक्त शरणागत केवल भगवान की कृपा पर ही आश्रित होते हैं। भगवान ही उनके भोग्य हैं।
श्री रामायण में सीता कहती हैं:

य स्त्वया सह स स्वर्गो निरयो यस्त्वया विना। (श्री रामायण 2.30.18)

प्रपत्तव्य (शरण्य) भगवान कपोत की भाँति हैं। श्री रामायण में कपोत उपाख्यान प्राप्त होता है। कपोत दम्पति ने अपने शरणागत की रक्षा हेतु अपने प्राण त्याग दिए थे। भगवान भी अपने भक्तों की रक्षा हेतु अनेक यत्न करते हैं। अपने प्रयत्नों से उस जीव के हृदय में अद्वेष, उसके पश्चात आभिमुख्य उत्पन्न कर, सात्विक सहवास प्रदान कर आचार्य के चरणों में शरणागति करवाकर उसे मोक्ष प्रदान करते हैं।

3. परम भक्ति के लक्षण:

न च सीता त्वया हीना न चाहमपि राघव।
मुहूर्तमपि जीवावो जलान्मत्स्याविनोद्धृतौ।। श्री रामायण 2.53.31।।

परमभक्ति की दशा में भगवान के संश्लेष में जीवन होता है, तथा, भगवान के विश्लेष में मृत्यु। इस संसार में परम भक्ति की अवस्था अत्यन्त दुर्लभ है। श्री शठकोप आळ्वार 10.9 दशक में परज्ञान (भगवद साक्षात्कार) की अवस्था होते हैं, 10.10 दशक में उनके परम भक्ति की दशा के दर्शन होते हैं।

जिस प्रकार मत्स्य के लिए जल ही जीवन है एवं जल से विश्लेष मृत्यु, उसी प्रकार, अम्बुजानायक चक्रधारी गजेंद्रशोकविनाशक भगवान परम भक्तों के जीवन हैं। भगवान का अनुभव होने पर वो जीवन धारण करते हैं, अनुभव न होने पर जीवन नहीं रख पाते। उदाहरण: लक्ष्मण जी, शठकोप आळ्वार आदि।

4. कैंकर्य ही प्रयोजन है।

ये ब्रह्मण भगवद्दास्यभोगैक निरता सदा ।
ते प्रियातिथतय: प्रोक्ता : श्रीवैकुण्ठनिवासिनाम् ।।

(पाँचरात्र)

जिनका कैंकर्य ही एकमात्र प्रयोजन है, भगवान से व्यतिरिक्त अन्य विषयों में जिनका कोई संग नहीं है, वैसे जीव वैकुण्ठ निवासी नित्य सुरियों के लिए भी प्राप्य होते हैं। अर्चि मार्ग से प्रयाण करने वाले जीव नित्यसूरियों से भी महान होते हैं एवं नित्य सूरी भी उनसे मिलने को आतुर रहते हैं।

माधव भगवान के कैंकर्य के अतिरिक्त अन्य विषयों का चिन्तन भी नहीं करना है। श्री कुरेश स्वामी कहते हैं कि विषयान्तर सुख मेरे लिए समुद्र के जल की भाँति है (उषजलजोष), श्री हस्ताद्रिनाथ के दास्य का महारस उनके लिए निर्मल जल है।

प्रपन्नों के लिए पुरुषार्थ एकमात्र भगवद कैंकर्य ही है। निर्विघ्न कैंकर्य के लिए ही हम मोक्ष चाहते हैं। जीवात्मा का स्वरूप हो सर्वदेश, सर्वकाल, सर्वावस्था एवं सर्वविध कैंकर्य की प्रार्थना करना है।

5. भगवान ही उपाय हैं।

किं तस्य दानैः किं तीर्थैः कि तपोभि किं अध्वरै: ।
योनित्यं ध्यायते देवं नारायणम् अनन्यधीः ।।
(इतिहास समुच्चय)

तीर्थ स्नान, दान, तपस्या आदि से हमारा कोई प्रयोजन नहीं है। अर्थात उपाय रूप में प्रयोजन नहीं है। ये सभी भगवद-मुखोल्लास समझकर करना चाहिए। किसी अन्य प्रयोजन से नहीं।

जबतक हार्द भगवान से जीवात्मा विवाद समाप्त नहीं होता, तब तक गंगा-स्नान व्यर्थ है। अर्थात, भगवद-शेषत्व बुद्धि के बिना तीर्थ स्नान, दान, तप आदि व्यर्थ हैं। ये सब तभी सफल हैं, जब मन निर्मल हो। पार्थसारथी भगवान का कटाक्ष मिल जाने पर हमारा इनसे कोई प्रयोजन नहीं।

तावत् गच्छेतु तीर्थानि सरितश्च तरानि च।
यावन्न भूच्छ भूपाल विष्णुभक्ति परं मनः।।

भगवान के दासों की सम्पत्ति कैंकर्य है। वही एकमात्र प्रयोजन है। तीर्थ, गंगा यमुना आदि भगवद-सम्बन्धी होने के कारण हमारे लिए अनुभाव्य हैं, प्रयोजन के रूप में नहीं।

6. लौकिक ऐश्वर्य भी भगवान के भक्तों के हृदय में चञ्चल्य नहीं लाता है।

ब्रह्माण्डं मण्डलीमात्रं किं लोभाय मनस्विनः । 
शफरीस्फुरितेनाब्धिः क्षुब्धो न खलु जायते ॥ (वैराग्य शतक)

कमलापति के भक्त ब्रह्माण्ड के अधिपति के पद को भी तृणवत् मानते हैं। जिस प्रकार मछली के छलाँग लगाने से सागर में चंचलता नहीं आता, वैसे ही श्री वैष्णवों के हृदय में लौकिक विषयों से क्षोभ नहीं होता।

गिरयो वर्षधाराभिर्हन्यमाना न विव्यथु: ।
अभिभूयमाना व्यसनैर्यथाधोक्षजचेतस: ॥
(भागवत पुराण 10.20.15)

7. परमपद के आकांक्षी के लिए स्वर्ग का पद भी नरक के समान है।

तद्पदं प्राप्तुकामये विष्णोः तेषां महात्मनां ।
भोगाः पुरन्दरादिना ते सर्वे निरयोपमा ।।
(ब्रह्माण्ड पुराण)

शंख-चक्र रूपी आभूषणों को धारण करने वाले भगवान के दास बन चुके लोग किन्हीं अन्य विषयों के दास बनेंगे क्या? स्वर्ग का सुखानुभव भी दुख से मिश्रित होता है। (क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोके विशन्ति)। सामने यदि तलवार लटका हो तो सुस्वादु भोजन का आनन्द आता है क्या?अपुनरावृत्ति लक्षणं मोक्ष:। मोक्ष प्राप्ति के बाद संसार में पुनः आगमन नहीं होता।

सुखानुभव तुलनात्मक होता है। भूखे को अन्न मिल जाये तो वही स्वर्गानुभव है। दूसरे के तुलना में स्वयं को बड़ा देखने पर सुख मिलता है तो उसी क्षण अपने से बड़े को देखकर दुख हो जाता है।

सर्वेश्वर के दासों को क्षुद्र विषयों के सुख की इच्छा क्यों होगी? उन्हें इन्द्र के पद की भी इच्छा क्यों होगी?

तवामृतस्यन्दिनि पादपङ्कजे निवेशितात्मा कथमन्यदिच्छति ।
स्थितेऽरविन्दे मकरन्दनिर्भरे मधुव्रतो नेक्षुरसं वीक्षते ॥

8. अनन्य प्रयोजन भक्तों के कैंकर्य को भगवान किस प्रकार स्वीकार करते हैं?

या क्रिया: सम्प्रयुक्तास्यु: एकान्तगतबुद्धिभि:।
ता सर्वा: शिरसा देव: प्रतिगृह्णाति वै स्वयम्।।
(महाभारत, मोक्ष पर्व, 353-44)

समस्त लोको को अपने उदर में रखने वाले, मेघवर्ण भगवान के तुलसी से सुशोभित चरणारविन्दों को छोड़ अन्य किसी विषय में आदर न रखने वाले भक्त अनन्य भक्त कहलाते हैं। उनके लिए साधन और पुरुषार्थ दोनों भगवान ही हैं।
इनके द्वारा समर्पित वस्तु को भगवान शिरस से स्वीकार करते हैं।

यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः।
मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः ॥
(कठोपनिषद)

श्री वैष्णव मंदिरों में अनन्य प्रयोजन भक्तों द्वारा समर्पित वस्तु को अर्चक भगवान के शिर पर धारण कराते हैं, जबकि, प्रयोजनान्तर भक्तों द्वारा समर्पित वस्तु को भगवान के चरणों में अर्पित करते हैं।

9. भगवान वैकुण्ठ से भी अधिक आनन्द कहाँ अनुभव करते हैं?

य: अनन्यमनस: शुद्धा: तद्दास्यैक मनोरथाः ।
तेषां मे हृदयं विष्णोः वैकुण्ठात् परमं पदम् ।।

सुगन्धयुक्त पुष्प में निवास करने वाली लक्ष्मी जी के पति, जीवात्म-प्राप्ति के उद्देश्य से अनेक प्रयत्न/कृषि करते हैं। भगवान की कृषि जब किसी एक जीवात्मा पर सफल होती है तो जीव अनन्य भक्त बन जाता है। अनन्य भक्त वो हैं जो भगवान के अतिरिक्त अन्य विषयों को नहीं चाहते (वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः)। शठकोप आळ्वार के अन्न, पान, घी, ताम्बूल आदि भगवान ही थे। श्री विशिष्ट होकर अपनी निर्दोष (निर्हेतुक) कृपा से जीवात्म-रक्षण में तत्पर भगवान की कृपा जब किसी एक जीवात्मा पर सफल होती है, तब वो आनन्द से उनके हृदय में शयन करते हैं। रक्षण का अर्थ है: इष्ट प्रदान एवं अनिष्ट निवारण। अनन्य भक्तों के लिए इष्ट है स्वार्थ-रहित कैंकर्य एवं अनिष्ट है संसार-सम्बन्ध।

श्रीरंगम में तोंडर-अडि-पोडि (भक्तांघृरेणु) आळ्वार को भगवान सुख से शयन कर रहे हैं, तो आळ्वार ने उन्हें जगाने हेतु सुप्रभात गाया।

शुद्धसत्त्व स्वयं-प्रकाश परमपद में रहने पर भी, भगवान अनन्य भक्तों के हृदय में विशेष आनन्द का अनुभव करते हैं। उनके हृदय को परमपद से भी अधिक आदर देते हैं। ऐसे अनन्य भक्तों का हृदयाकाश वैकुण्ठ से भी परम पद है।

10. भगवान का कण्टाग्र के समान घर

पिछले श्लोक में आचार्य ने बताया कि अनन्य भक्तों का हृदय भगवान के वैकुण्ठ से परम पद है। अब बता रहे हैं कि प्रयोजनान्तर भक्तों का हृदय भगवान के लिए काँटों के समान है। (सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो।) ।

भगवत् चरणद्वंद्वे भक्तिर् येषां न विद्यते।
तेषां हृदिस्थित: देव: कण्टाग्रिव स्थित:।।
(ब्रह्माण्ड पुराण)

अन्य प्रयोजन हेतु भगवान की उपासना करने वाले प्रयोजनान्तर है। उनके उपासन-सौकर्य हेतु भगवान उनके हृदय में भी विग्रह से व्याप्त होते हैं। आत्म-स्वरूप से तो भगवान सर्वत्र व्याप्त हैं किन्तु उपासकों/योगियों के हृदय में भगवान अपने दिव्य मङ्गल विग्रह सहित व्याप्त होते हैं।

किन्तु जिनका मन भगवान के चरणारविन्दों में लग्न नहीं है और केवल विषयान्तर अनुभव हेतु उपासना करते हैं, ऐसे भक्तों का हृदय भगवान के लिए काँटों के अग्र भाग के समान है। भगवान अत्यन्त पीड़ा से वहाँ निवास करते हैं। (ये पीड़ा कर्मजन्य या भौतिक नहीं, अपितु कारुण्य जन्य है। भक्तों की दुर्दशा देख भगवान को अत्यन्त पीड़ा होती है। कर्दम प्रजापति ने कठोर तप किया किन्तु उन्होंने भगवान से केवल गृहस्थ जीवन मांगा। तब भगवान का हृदय द्रवित हो गया एवं आंसुओं की धार बह उठी। अनेक भक्त अनेक क्षुद्र सिद्धियों हेतु भगवान की भक्ति करते हैं।)

11. भक्तों द्वारा अर्पित किए गए अणु भी भगवान के लिए स्वर्णमय मेरु पर्वत होते हैं।

भक्तैः अण्वप्युपानितं प्रेम्ना भूयेर्मेव भवेत्।
भूर्येप्यभवतोपहृतम् न में तोषाय कल्पते ।।
(पौष्कर संहिता)

तोण्डमान चक्रवर्ती अनेक सुगन्धित पुष्पों से भगवान की सेवा करते थे। एक दरिद्र भक्त कुरुम्ब दत्त नम्बि कुम्हार जाती के थे। मिट्टी के माला को प्रेम भाव से भगवान को अर्पित करते थे। एक बार राजा ने भगवान से पूछा कि आपका परम प्रिय भक्त कौन है? राजा समझते थे कि भगवान उनका ही नाम लेंगे। अपने शंख-चक्र चक्रवर्ती के राज्य को ही दे चुके थे भगवान। किन्तु भगवान श्रीनिवास ने कहा कि मेरा सबसे प्रिय भक्त कुरुम्ब दत्त नम्बि है। भगवान वेंकटेश्वर ने उस भक्त का सारा वृत्तांत सुनाकर राजा को यह गुप्त रहस्य समझाया।

तमिल में भगवान का एक नाम है ‘तिरुमाल’। तिरु अर्थात श्री। माल का अर्थ है: बड़ा (सर्वेश्वर), श्यामल और व्यामुग्ध। भक्तों के भाव मात्र से मुग्ध भगवान ‘व्यामुग्ध’ कहलाते हैं। ‘माले मणिवन्ना‘ ऐसा गोदाम्बा जी भी कहती हैं।

12. प्रयोजनान्तर भक्त सुन्दर निधि भी अर्पित करें, तो भगवान उसे स्वीकार नहीं करते।

पृथ्वीं रत्नसम्पूर्णां य: कृष्णाय प्रयच्छते।
तस्यापि अन्यमनस्कस्य सुलभः न जनार्दनः।।

पंक में विकसित अरविंद में निवास करने वाली श्री देवी के पति के कैंकर्य की नित्य प्रार्थना करना ही अनन्य प्रयोजन है। इससे इतर कुछ भी माँगना प्रयोजनान्तर है।

ऐसे प्रयोजनान्तर भक्त यदि रत्न से सम्पूर्ण पृथ्वी के समान वैभव में अर्पित करें तो भी भगवान को संतोष नहीं होता।

अनन्य भक्त सदैव प्रसन्न रहते हैं। प्रयोजनान्तर अत्यन्त दुखी रहते हैं। अन्य विषयों में आशा रखने के कारण हमेशा दुखी रहते हैं।

आशाया ये दासास्ते दासाः सर्वलोकस्य ।
आशा येषां दासी तेषां दासायते लोकः ॥

13. लौकिक सहवास से अनन्य प्रयोजनत्व की हानि

आविद्य: प्राकृत: प्रोक्त: वैद्यो वैष्णव उच्यते।
अविद्येन न केनापि वैद्य: किञ्चित समाचरेत।।

अनादिकाल से जीवात्मा सिर्फ भगवान का ही दास है। जो यह जान जाते हैं, वो शुद्ध-मनस (शुद्ध मन वाले) हो जाते हैं। ऐसे भक्तों को कभी भी लौकिकों का सहवास नहीं करना चाहिए।

लौकिक वो हैं जो अनेक शास्त्र पढ़ने के बाद भी देह में अभिमान रखते हैं। जो शेषत्व स्वरूप नहीं जानते। ऐसे लोगों का सहवास कदापि नहीं करना चाहिए। जो बाहरी भेष मात्र से वैष्णव है, उनका सत्कार तो करना चाहिए किन्तु उनका सहवास नहीं करना चाहिए। अर्थात अगर मिल जाएं तो आदर करना चाहिए किन्तु प्रयत्न करके उनके साथ समय व्यतीत नहीं करना चाहिए।

बहुत भाग्यशाली ही होते हैं जिनके सभी परिजन वैष्णव एवं अनन्य-प्रयोजन होते हैं। हमें अवैष्णव या अन्य प्रयोजन परिजनों को पूर्ण रूप से त्यागना नहीं है अपितु उनके प्रति अभिमान को त्यागना है। अर्थात मन से छोड़ना किन्तु शास्त्रानुसार कर्तव्य को निभाना।

जाके प्रिय न राम-बदैही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी॥

14. इंदिरापति के शरणागतों में वर्ण का भेद नहीं करना चाहिए।

देहात्मज्ञानकार्येण वर्णभेदेन किं फलम्।
गति: सर्वात्मनां श्रीमन्नारायणपदद्वयम्।।
(परमैकान्ति धर्म)

वर्णानुष्ठान को उपाय बुद्धि से करने वाले प्रायः भक्तों में वर्ण का भेद करते हैं। किन्तु सभी के शरण तो भगवान के चरण ही हैं।

जिस प्रकार भगवान के अर्चा विग्रह के उपादान का चिन्तन करना भगवदापराध है, उसी प्रकार भगवान के भक्तों में वर्ण का भेद देखना भगवतापराध है। शरणागति के पश्चात हम सभी का एक ही स्वरूप है: रामानुज दास। सभी हमारे बन्धु हैं।

15. कमलापति के भक्तों का कुल, गोत्र आदि भगवान के चरणारविन्द ही हैं।

नद्या: नष्यन्ति नामानि प्रविष्टाया महार्णवम्।
सर्वात्मना प्रपन्नस्य विष्णुमेकान्तिन: तदा।।
(परमैकान्ति धर्म)

प्रपन्नों का कुल, गोत्र आदि नहीं देखना चाहिए। क्या देखें? उनका भगवद्-सम्बन्ध।

नदियों के नाम, रूप आदि तभी तक होते हैं जब तक वो सागर में प्रवेश करते हैं। इसी प्रकार भगवान से सम्बन्ध हो जाने पर प्रपन्नों के नाम, गोत्र, कुल आदि नष्ट हो जाते हैं।

एकान्ति व्यापदेष्टव्यो नैव ग्राम कुलादिभि: |
विष्णुना व्यापदेष्टव्य: तस्य सर्वं स एव हि ||

परमैकान्ति को जातिसूचक या कुल, क्षेत्र आदि के नामों से नहीं पुकारना चाहिए। उन्हें हमसे उनके विष्णु-सम्बन्ध से पुकारना चाहिए क्योंकि उनके सर्वस्व भगवान विष्णु ही हैं।

(हमें वैष्णवों का वर्ण आदि नहीं देखना चाहिए किन्तु भगवान के पारतंत्र्य स्वरूप को समझने वाले अनन्य भक्त कभी वर्णाश्रम मर्यादा का त्याग नहीं करते। क्यों? भगवान की प्रसन्नता हेतु। भगवान के सन्तोष हेतु एवं लोकरक्षा हेतु हमें शास्त्र वाक्यों का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए)।

16. जीव का स्वरूप भगवान का अनन्यार्ह शेषत्व है।

नहं विप्रो न च नरपति नापि वैश्यो न शूद्रो
नैवा वर्णी न च गृहपति नो वनस्थो यतिर्वा।
किन्तु श्रीमत्भुवनभवनस्थित्यपायैक हेतो:
लक्ष्मी-भर्तृः नरहरितनो: दासदासस्यदासः।।

देहात्म-भ्रम के कारण देव, मनुष्य आदि योनि में देव, मनुष्य शरीर वाला जीवात्मा स्वयं को देव, मनुष्य आदि समझता है। (देवोहं मनुष्योहम्)। किन्तु जीवात्मा देहादिविलक्षण है। हमेशा स्वयं (मैं) की प्रतीति शरीर (मेरा) से भिन्न ही होती है।

प्रणव हमें यह ज्ञान देता है कि जीवात्मा सिर्फ भगवान का ही दास है। शेषत्वे सति ज्ञातृत्वं जीवात्मलक्षणम्। जीवात्मा का स्वरूप ही है शेषत्व विशिष्ट ज्ञातृत्व। शेषत्व के बिना जीवात्मा का स्वरूप नाश है। जैसे प्रकाश के बिना मणि का एवं सुगन्ध के बिना पुष्प का कोई मोल नहीं है, उसी प्रकार शेषत्व का बिना जीवात्मा का कोई मोल नहीं है।

17. प्रपन्न सुख-दुख से विचलित नहीं होते

आगच्छतु सुरेन्द्रत्वं नित्यत्वं वाद्यवामृति:।
तोषं वाऽत्र विषादं वा नैव गच्छन्ति पण्डिता:।।

सुख-दुख कर्मानुसार मिलेंगे ही, उस विषय में क्या सोच करना? कोई महल में रहे या वनों में, कर्मों के अनुसार, बिना प्रयत्न के सुख मिलता है। उसी प्रकार, कितना भी बचना चाहें, कर्मों के अनुसार दुख मिलता ही है। तो इस विषय में क्या सोच करना?

स्व-स्वरूप का ज्ञान होने से; चाहे इन्द्र का पद मिले या न मिले, मृत्यु से निवृत्ति मिले या आज ही आ जाये, इनसे कोई सुख या दुख नहीं होता।

आत्मा भगवान का परतन्त्र है। वो जहाँ भी, जिस भी अवस्था में रहेंगे, वैसे ही रहना है।

18. जिनकी भक्ति दोषरहित है, किन्तु सहवास अभक्तों का है; भगवान उनके लिए दुर्लभ होंगे।

भक्तोऽपि वासुदेवस्य शार्ङ्गिनः परमात्मन:।
लोकेषणादि निर्मुक्तो मुक्तो भवति नान्यथा।।

भगवद-सम्बन्ध रहित मनुष्यों का सम्बन्ध सभी प्रकार से त्याग देना चाहिए। (किसी से द्वेष न रखें। सम्बन्धी आ जाएं तो सत्कार ही करना चाहिए। उनके साथ सहवास नहीं करना चाहिए।)

परकाल आळ्वार कहते हैं:
जो मनुष्य भक्ति से रहित है, वो मेरे लिए मनुष्य ही नहीं है।

भूत आळ्वार कहते हैं:
जो भगवान के नामों को भूल जाये, मैं उसे मनुष्य नहीं मानता।

सभी प्रकार से, मन से भी सम्बन्ध त्याग देना चाहिए। तभी भगवान सुलभ होंगे।

यदि दुष्ट-सहवास-निवृत्ति नहीं हुई तो भगवद-प्राप्ति दुर्लभ होगी।

19. स्व-स्वरुप का ज्ञान होने से लौकिक विषयों से सुख या दुःख नहीं होता

आगच्छतु सुरेन्द्रत्वं नित्यत्वं वाद्यवामृति:|
तोषं वा विषादं वा नैव गच्छन्ति पण्डिता: ||

इन्द्र का लोक मिले या न मिले, मृत्यु से निवृत्ति मिले या अभी आ जाये; स्व-स्वरुप का ज्ञान होने से, इनसे कोई सुख या दुःख नहीं होता| आत्मा भगवान का परतन्त्र है| वह जहाँ भी रखेंगे, वैसे रहना है| सुख और दुःख तो कर्मानुसार मिलेंगे ही| उनसे अत्यधिक प्रसन्न या विचलित नहीं होना है|

20.प्रार्थना करने पर भगवान अन्य प्रयोजन क्यों नहीं देते?

याचितोऽपि सदा भक्तैः
नाहितं कारयेत् हरिः।
बालमग्नं पतन्तं तु
माता किं न निवारेयत्।।

भगवान वही देते हैं जो भक्तों के हितकर होता है। भक्तों द्वारा अपने हित के अतिरिक्त, अहितकर माँगने पर भी भगवान उसे प्रदान नहीं करते।
बच्चा आग में जाने की बहुत जिद करे तो भी माता उसे छोड़ती नहीं, अपितु रोके रहती है।

21. भगवान अपने भक्तों को दुःख क्यों देते हैं?

हर्रिदुखानि भक्तेभ्यः हितबुद्‌धया करोतिवै।
शस्त्राक्षरादि कर्माणि स्वपुत्राय यथापिता।।

भगवान कभी कभी अपने भक्तों को, उनके हित के लिये, दुख देते हैं। यह भी भगवान का स्नेह कार्य है। इस प्रकार भगवान जीवों के मोक्ष मोक्ष-विरोधी कर्मों को नष्ट करते हैं।
पुत्र को शल्य-चिकित्सा (surgery operations) करवाने वाले पिता की भाँति। यद्यपि पुत्र को अल्प काल के लिए दुख तो होता है किन्तु अपने पुत्र को निरोग करने हेतु, पिता द्वारा पुत्र का शल्य-चिकित्सा करवाना आवश्यक है। तभी पुत्र बाद में स्वस्थ जीवन जी सकता है। ये अल्पकालिक दुख दीर्घकालिक सुखदायक है।

यदि दुख न मिले तो हम संसार को ही सुखद मान लेंगे एवं मुक्त होने की इच्छा ही नहीं रखेंगे। ये दुख न आये तो संसार से वैराग्य ही उत्पन्न नहीं होगा। इस कारण भी भगवान प्रपन्नों को दुख देते हैं।

22.अनन्यार्ह शेषत्व का ज्ञान होने पर पुनर्जन्म नहीं होता।

स्वत्वं आत्मनि सञ्जातं स्वामित्वं ब्रह्मणि स्थितम्।
उभयोरेष सम्बन्धो नेतरो अभिमतो मम।।

मैं स्वं हूँ, भगवान स्वामी हैं। मैं माल हूँ, मधुरापति भगवान मालिक हैं। इस विषय में दृढ़ ज्ञान हो जाने वालों का पुनर्जन्म लेकर दुखानुभव नहीं होता। दृढ़ ज्ञान का अर्थ है अध्यवसायात्मक ज्ञान, सन्देहरहित ज्ञान।

जिन्हें अपने अनन्यार्ह शेषत्व का ज्ञान होता है, वो अपने रक्षण का भार भगवान पर सौंप देते हैं। मैं माल हूँ और मालिक ईश्वर अपने प्रयत्न मुझे प्राप्त करेंगे। मालिक का कार्य है अपने माल को प्राप्त करना।

23.अपने प्राचीन कर्मों को देख प्रपन्नों को भयभीत नहीं होना चाहिए।

माभीर्मन्दमनो विचिन्त्य बहुधा यामीश्चिरं यातनाः
नामी नः प्रभवन्ति पापरिपवः स्वामी ननु श्रीधरः।
आलस्यं व्यपनीय भक्तिसुलभं ध्यायस्व नारायणं
लोकस्य व्यसनापनोदनकरो दासस्य किं न क्षमः ॥ (मुकुन्द-माला-स्तोत्र . 11) ॥

मेघश्याम भगवान के चरणों में गिरकर, उन्हें उपाय मानने के बाद दुख और भय का कोई अवकाश नहीं है। पूर्वाघ (प्रपत्ति से पूर्व किये गए पाप) पापरिपु हमें तंग करने में समर्थ नहीं हैं, जिनके स्वामी श्रीधर हैं।

तिरुमालई दिव्य प्रबन्ध में भी आळ्वार कहते हैं कि पहले मैं यम देव से डरता था, मेरे इन्द्रिय स्वछन्द होकर ताण्डव करते थे। अब जब मुझे नारायण मन्त्रार्थ मिला है, मैं समस्त पाप समूहों से मुक्त हो गया हूँ एवं यम और उसके अनुचरों के सर पर चढ़ कर नृत्य कर रहा हूँ। (कलि तन्नै कडक्क पाइंद, यमन तमर तलैगल मिडे)

शरणागतों को यदि ऐसा सन्देह हो कि मैं इतना पापी हूँ, मुझे मोक्ष किस प्रकार प्राप्त होगा? तब उन्हें भगवान के वचन ‘मा शुचः, अभयं ददामि, अहं स्मरामि मद्भक्तं‘ वचनों का स्मरण करना चाहिए। यदि अपने मोक्षप्राप्ति के विषय में सन्देह हो, तो इसका अर्थ भगवान की शक्ति पर संशय करना है।

शरणागति के पश्चात सञ्चित एवं अनभ्युपगत प्रारब्ध नष्ट हो जाते हैं। केवल अभ्युपगत प्रारब्ध इस देहावसान तक भोगकर आत्मा, भगवान की अकारण कृपा से, ब्रह्म नाड़ी से निकलकर, अर्चिरादि मार्ग द्वारा प्रस्थान करता है।

यहाँ ध्यातव्य है कि भगवान पूर्वाघों को नष्ट करते हैं। प्रपत्ति के पश्चात किये गए पापों का फल भोगना ही पड़ता है, एवं प्रपन्न को दुबारा देह धारण भी करना पड़ सकता है। “मा शुचः” पूर्वाघों के लिए है, उत्तराघ के लिए नहीं।

चित्र: भगवान रंगनाथ के हस्त “मा शुचः” की मुद्रा में

24.प्रामादिक उत्तराघों के लिए चिन्तित नहीं होना चाहिए

अविज्ञाता हि भक्तनाम् आगसु कमलेक्षणः।
सदा जगत समस्तं च पश्यनपि हृदिस्थित:।।

पूर्व श्लोक में आया कि प्रपत्ति के पश्चात पूर्वाघों का नाश हो जाता है किन्तु उत्तराघों से बचना चाहिए। उत्तराघ भी दो प्रकार के हैं: प्रामादिक (अनजाने में, अबुद्धिपूर्वक) एवं बुद्धिपूर्वक। पूर्वाघों के नाश होने पर भी, उनके वासना एवं रुचि तो बची रहती है न! उन वासना एवं रुचि के वशीभूत होकर जीव अनेक प्रामादिक पाप करता है। भगवान की कृपा एवं जीवात्मा के विवेक से धीरे धीरे वासना एवं रुचि भी नष्ट हो जाते हैं ।

ऐसे प्रामादिक उत्तराघों के लिए चिन्तित न हों। भगवान इनके लिए जानते हुए भी अनजान बन जाते हैं। इसलिए, भगवान का एक नाम है ‘अविज्ञाता’। सर्वज्ञ होते हुए भी भगवान प्रपन्नों के प्रामादिक पापों के प्रति अविज्ञाता होते हैं।

किन्तु बुद्धिपूर्वक किये गए पाप अनुभव के द्वारा अथवा प्रायश्चित के द्वारा नष्ट होते हैं। पूर्व में किये गए शरणागति का स्मरण एवं अपने द्वारा पापों के लिए पछतावा/अनुताप ही प्रपन्नों के लिए प्रायश्चित हैं। अलग से चान्द्रायण आदि अनुष्ठान स्वरूप-विरुद्ध हैं।

25.पूर्वाघों को भोग्य के रूप में स्वीकार करते हैं भगवान

प्रपन्नां माधवः सर्वान् दोषेण परिगृह्यते।
अद्यजातं यथा वत्सं दोषेण सह वत्सला।।

कोई यह सोच सकता है कि मैं इतना पापी हूँ, मैं भगवान की शरणागति कर सकता हूँ क्या? क्या भगवान मुझे स्वीकार करेंगे?

भगवान का एक गुण है वात्सल्य। वात्सल्यं दोषभोग्यत्वम्। प्रपन्नों के दोषों को भोग के रूप में स्वीकार करने का गुण है वात्सल्य। वात्सं लाति वत्सला। तस्या: भावं वात्सल्यम्। वत्स के दोषों को जिस प्रकार माता गौ अपने जीव से चाटकर साफ करती है, उसी प्रकार भगवान भी अपने शरणागतों के दोषों को भोग्य मानकर, विशेष प्रेम से नष्ट कर देते हैं।

भगवान सुग्रीव से कहते हैं कि विभीषण तो क्या, स्वयं रावण भी आकर शरणागति करे तो मैं उसे स्वीकार करूँगा। स्वयं माता सीता भी रावण को यही समझाती हैं। रावण से भी अधिक पापी काकासुर जयन्त की शरणागति भगवान ने स्वीकार की ही थी।

आनयेन हरिश्रेष्ठ दत्तमस्याभयं मया ।
विभीषणो वा सुग्रीवो यदि वा रावण: स्वयम् ।।

26.आचार्य के अनुग्रह से की गयी प्रपत्ति से मोक्ष-प्राप्ति अवश्य होगी।

आचार्यस्य प्रसादेन मम सर्वं अभिप्सितं।
प्राप्नुयाम इति विश्वासो यस्यास्ति स सुखी भवेत् ।।

पद्मापति के चरणारविन्द सहायान्तर निरपेक्ष हैं। दोषरहित आचार्य के सम्बन्ध से जो उनके चरणों को उपाय मानते हैं, वो तेजोरुप होकर, नित्य विभूति प्राप्त कर, कैंकर्य के अनुरूप शरीरों को धारण करते हैं। आचार्य अनुग्रह से की गयी प्रपत्ति से मोक्ष-प्राप्ति अवश्य होगी, इस विश्वास के साथ भयरहित रहना चाहिए।

27. आचार्य के मोक्ष-प्रदत्व पर विश्वास न रखने वाले विवेकहीन और श्रद्धारहित संशयात्मा मनुष्यका पतन हो जाता है।

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।। (गीता 4.40)।।

पूर्व श्लोक में बताया कि आचार्य के अनुग्रह से भगवान के चरणों को उपाय मानने वालों को नित्य कैंकर्य अवश्य मिलेगा। निरन्तर इस विश्वास के साथ जीना चाहिए। अब यह बता रहे हैं कि जिसे इस विषय में संशय है, उसका नाश हो जाता है। न उसे संसार में सुख प्राप्त होगा, न उसे जन्म-मरण से मुक्ति मिलेगी।

28. शरणागति कभी भी उपायान्तर-प्रवृत्ति सहन नहीं करती।

प्रपत्रे कवचिद्यप्येवं परापेक्षा न विद्यते ।
साहि सवत्र सर्वेषां सर्वकाम फलप्रदा ।।
सकृदुच्चारिता येन तस्य संसारतारिणी ।
राक्षसानां अविसम्भ्रात् आञ्जनेयस्य बंधने।
यथा विगलिता सद्य: अमोघोSअस्त्रबन्धनम् ।।
तथा पुंसां अविसंभ्रात प्रपत्ति: प्रच्युता भवेत् ।
तस्मात् विस्रम्भयुक्तानां मुक्तिं दास्यति सा चिरात् ।।

(सनत कुमार संहिता)

जब मेघनाद ने हनुमान जी को ब्रह्मास्त्र से बाँध दिया था, तब राक्षसगण लता रस्सी आदि से उनको बाँधने लगे। अपने ऊपर क्षुद्र बन्धनों को देख ब्रह्मास्त्र लुप्त हो गयी।

उसी प्रकार, शरणागति के पश्चात यदि प्रपन्न अन्य उपायानुष्ठान करते हैं, तो प्रपत्ति निष्फल हो जाती है। इस कारण प्रपन्नों को कर्म, ज्ञान, भक्ति आदि उपायों में एवं देवतान्तर सम्बन्ध में प्रयोजन नहीं रखना चाहिए।

30. आचार्य ही हमारे सर्वस्व हैं। जो ऐसा नहीं मानते, उनका सहवास त्याग देना चाहिए

ऐहिकम् आमुष्णिकं सर्वं गुरु: अष्टाक्षरप्रदः ।
इत्येवं ये नमन्यन्ते त्यक्त्वास्ते मनीषिणः ।।

आचार्य ही हमारे लिए गौ (धन) हैं, घर हैं एवं हमारे बन्धुवर्ग हैं। मुनियों द्वारा वाँछित परमपद एवं परमपद तक ले जाने वाला मार्ग (अर्चिरादि मार्ग) एवं परमपद प्राप्त करने के उपाय; ये सब हमारे लिए आचार्य ही हैं।

जो ऐसा मानते हैं, वही श्री वैष्णव हैं। जो ऐसा नहीं मानते, उनका संग बिना विलम्ब के त्याग देना चाहिए।

चित्र: बद्ध चेतनों की दुःखमय अवस्था देख, करुणावश, स्वयं आचार्य एवं स्वयं ही शिष्य के रूप में अवतार लेने वाले नर-नारायण बद्रीनारायण भगवान

31.हमें शरणागति प्रदान करने वाले आचार्य के चरणारविन्द ही उपाय हैं। चारों वेद, दोषरहित मनुस्मृति, रामायण, भारत एवं समस्त शास्त्रों का सार यही है।

गुरुरेव परं ब्रह्म गुरुरेव परा गतिः ।
गुरुरेव परं विद्या गुरुरेव परं धनम् ॥
गुरुरेव परः कामः गुरुरेव परायणः ।
यस्मात्तदुपदेष्टासौ तस्मादगुरुतरो गुरुः ॥

(सात्त्वत तन्त्र)

गुरु ही परम ब्रह्म है, गुरु ही परागति है, गुरु ही परम विद्या है और गुरु को ही परम धन कहा गया है।।
गुरु ही सर्वोत्तम अभिलषित वस्तु है, गुरु ही परम आश्रय स्थल है तथा परम ज्ञान का उपदेष्टा होने के कारण ही गुरु महान् (गुरुतर) होता है ॥

32.जो गुरु को हाड़-माँस का साधारण मनुष्य मानते हैं, वो नरक को प्राप्त होते हैं।

विष्णो: अर्चावतारेषु लोहभावं करोति य:।
यो गुरौ मानुषं भावं उभौ तौ नरकपातिनौ।।
(ब्रह्माण्ड पुराण)

भगवान विष्णु के अर्चावतार में लौह, काष्ठ, शिला आदि का भाव करने वाले एवं गुरु में मनुष्य का भाव रखने वाले;
दोनों ही नरक में पतित होते हैं। बहु काल नरक में बिताने के बाद बहुत काल तक संसार में पड़े रहते हैं।

उनके द्वारा गुरुमुख से अर्जित ज्ञान हाथी के स्नान के बराबर है (कुञ्जरशौचवत्)। जिस प्रकार हाथी स्नान के तुरन्त बाद अपने शरीर पर धूल छिड़क लेता है, उसी प्रकार ऐसे शिष्यों का अज्ञान भी दूर नहीं होता।

साक्षात् भगवान आचार्य के अवतार में शिष्यों के कल्याण हेतु अवतरित होते हैं। (साक्षात् नारायणो देव: कृत्वा मर्त्यमयो तनु:)।

Note:
आचार्य स्वयं के लिए निश्चय ही मनुष्य बुद्धि रखेंगे। अन्यों की तरह वो भी एक बद्ध जीवात्मा ही हैं। किन्तु शिष्यों को उनमें भगवान का भाव ही रखना चाहिए। शिष्यों के लिए उनका शरीर पांच-भौतिक नहीं अपितु शुद्ध-सत्त्व दिव्य मङ्गल विग्रह हैं। उनके रूप का निरन्तर ध्यान करना चाहिए।

33.जो आचार्य को छोड़कर स्वयं से परमात्मा को पाना चाहता है, वो मूर्ख है।

चक्षुर्गम्य गुरुं त्यक्त्वा शास्त्रगम्यं तु यो स्मरेत।
करस्यं उदकं त्यक्त्वा घनस्थम् अभिवाँच्छति ।।

जो अपने पात्र के जल को फेंककर बादल से टपकने वाले जल की राह देखता है, वो मूर्ख है। उसी प्रकार जो भगवान के सबसे सुलभ रूप आचार्य को छोड़कर दूर स्थित भगवान को पाना चाहता है, वो भी मूर्ख ही है।

भगवान आचार्य के रूप में हमारे समीप हैं, हमारे सन्निकट हैं; किन्तु लोग यह सोचते हैं कि आचार्य भी हमारी तरह ही हैं, भगवान नहीं हैं।

34. सुलभ आचार्य को छोड़कर दुर्लभ भगवान की उपासना करने वाले मुर्ख हैं

सुलभं स्वगुरूं त्यक्त्वा दुर्लभं यो उपासते।
लब्धं त्यक्त्वा धनं मूढ़: गुप्तम् अन्विष्यति क्षितौ ।।

सुलभ धन को छोड़कर जो भूमि में गड़े धन के लिए प्रयत्न करें, वो तो मूर्ख ही है। उसी प्रकार, आचार्य रूपी परमात्मा को छोड़कर, अन्य परमात्मा (शास्त्र-गम्य भगवान विष्णु) को पूजता है, वो निन्दनीय है।

कहते का अर्थ यह है कि आचार्य की आज्ञा से, आचार्य की प्रसन्नता के लिए ही भगवान की पूजा करनी चाहिए।

35.आचार्य की निन्दा करने वालों पर भगवान अनुग्रह नहीं करते।

नारायणोऽपि विकृतिं याति गुरो: प्रच्युत्स्य दुर्बुद्धे:।
कमलं जलादपेतं शोषयति रवि: न तोषयति

यदि शिष्य कमल का पुष्प तो भगवान सूर्य के समान हैं। सूर्य की किरणों से ही कमल पुष्प विकसित एवं प्रफुल्लित होता है। किन्तु यदि कमल का जल से सम्पर्क न हो तो रवि की किरणें कमल को खिलाएंगी नहीं अपितु सुखा ही डालेंगी। आचार्य सरोवर के जल की भाँति हैं। जबतक कमल सरोवर के जल के सम्पर्क में होता है, तबतक वो सूर्य से विकसित होता है। जब वो सरोवर के जल के सम्पर्क में नहीं होता, तब सूर्य की किरणें उसे नष्ट कर देती हैं।

उसी प्रकार शिष्य जबतक आचार्य की शरण में होता है, तबतक भगवान की कृपा से उसका स्वरूप विकसित होता है। आचार्य की निन्दा करने वालों को भगवान का ताप नष्ट कर देता है।

चित्र: रामानुज दिवाकर एवं विकसित अरविन्द समान अष्टदिग्गज शिष्य

36.हमारे सभी दिव्य देश आचार्य के चरणारविन्द ही हैं।

येनैव गुरुणा यस्य न्यासविद्या प्रदीयते।
तस्य वैकुण्ठदुग्धाब्धिद्वारका: सर्व एव सः।।

शिष्य के शिर पर अपने चरणारविन्द रखकर, अविद्या रूप अहँकार को दूर भगाने वाले आचार्य ही हमारे लिए मेघ, उपवन, सरोवर युक्त सभी दिव्यदेश (तिरुपदि) हैं। पर, व्यूह, विभव, अर्चा, अन्तर्यामी रूप भगवान के सभी 5 रूप हमारे लिए आचार्य ही हैं।

चित्र: अपने श्रीमालिका में अपने नित्याराधान भगवान को झूला झुलाते वर्तमान श्री कोइल अण्णन स्वामी (वरदनारायणाचार्य स्वामी)। स्वामी अष्टदिग्गज शिष्यों में से एक हैं एवं इसी परम्परा में वृन्दावन गोवर्धन पीठ रंगजी मन्दिर उत्तर भारत में विद्यमान है।

37. जो आचार्य को ही अपना सर्वस्व मानते हैं, उनके हृदय में ही भगवान का वास होता है।

शरीरं वसुविज्ञानं वासः कर्मगुणानसून।
गुर्वर्थं धारायेत् यस्तु स शिष्य इत्यभिधीयते ।। (जायाख्य संहिता, पाँचरात्र)

जो आचार्य के हेतु ही (आचार्य के ही कार्य की सिद्धि के लिए) शरीर, धन, ज्ञान, वस्त्र, कर्म, गुण एवं प्राणों को धारण करता है, वह ही शिष्य कहलाते हैं।

अपने आचार्य के विग्रह के घाव को अपने ऊपर ले लेने वाले यामुनाचार्य के शिष्य (मारनेरी नम्बि), या अपने गुरु नम्पिळ्ळै के मुखमण्डल की शोभा निहारने हेतु ही शरीर धारण करने वाले उनके शिष्य; आचार्य के लिए ही शरीर धारण करने के उत्तम उदाहरण हैं।

धनुर्धर दास के जीवन वृत्तांत में देखते हैं कि धन भी आचार्य का ही है, अपने हेतु नहीं।

कुरेश स्वामी अपने आचार्य की रक्षा हेतु अपने आचार्य के काषाय वस्त्र को धारण किये एवं उडयवर को अपने श्वेत वस्त्र दे दिए।

अपने समस्त गुण आचार्य के लिए धारण करने के उत्तम उदाहरण गोविन्द जीयर (एम्बार) स्वामी हैं। जब लोग उन्हें ज्ञानी, विरक्त, भक्त आदि कहते तो वो प्रसन्न होकर, “हाँ सत्य है”; ऐसा कहते। रामानुज स्वामी ने पूछ लिया कि क्या तुम्हें अहँकार है? तो उन्होंने कहा मुझे इन वचनों में अपने आचार्य की प्रशंसा दिखती है।

38.आचार्य साक्षात् भगवान के ही अवतार हैं।

(जायाख्य संहिता, शाण्डिल्य उवाच)

साक्षात् नारायणो देवः कृत्वा मर्त्यमयो तनुम् ।
मग्नाम् उद्धरते लोकान् कारुण्यात् शास्त्रपाणिनाम्।।
तस्मात् भक्ति: गुरौ कार्या संसारभयभीरूनाम् ।।

कमलापति भगवान ही अपने अनुग्रह से आचार्य बनकर आते हैं एवं अपने उपदेश, अनुष्ठान आदियों से मनुष्यों को सुधारने हेतु विभिन्न लीलाएँ करते हैं।

आचार्य को उपाय-उपेय मानने वाले ही श्रेय को पायेंगे, यही हमारे स्वरूप के अनुकूल है। संसार के भय से व्याकुल जनों का एकमात्र सहारा आचार्य की भक्ति ही है।

39. वैष्णवों की निन्दा यदि लौकिक करें तो वह प्रशंसा है। वैष्णवों की प्रशंसा यदि लौकिक करें, तो उनके लिए वह निन्दा है।

न्यासविद्यैक निष्ठानां वैष्णवानां महात्मनाम्।
प्राकृताभिस्तुतिर्निन्दा निन्दास्तुतिरिति स्मृता।।

भागवान के भक्तों के भक्त दुनिया के तिलक की भाँति हैं। लौकिक जनों से उनकी तुलना ही नहीं हो सकती। अन्न, पान, स्त्री आदि के पीछे व्याकुल लौकिक यदि भक्तों को इन कार्यों में उदासीन देखते हैं तो उनकी निन्दा करते हैं। ये निन्दा वास्तव में भागवतों के लिए प्रशंसा ही है । यदि वो प्रशंसा करें तो समझना चाहिए कि हममें कुछ तो गड़बड़ है।

गीता में:-
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।2.69।।

सम्पूर्ण प्राणियों की जो रात (परमात्मासे विमुखता) है, उसमें संयमी मनुष्य जागता है, और जिसमें सब प्राणी जागते हैं (भोग और संग्रहमें लगे रहते हैं), वह तत्त्वको जाननेवाले मुनिकी दृष्टिमें रात है।

40.इस आखिर श्लोक में 3 मुख्य बातें बताते हैं:

  1. लक्ष्मीपति भगवान के भक्तों के भक्त अर्थात आचार्याभिमान निष्ठ भक्तों द्वारा विनोद में कुछ बोला जाए, तो वह वेद वाक्य होता है।

वेदशास्त्रराथारुढा: ज्ञानखड्गधरा: द्विजा:।
क्रीडार्थमपि यदब्रुयु: स धर्म: परमोमत: ।।

  1. आचार्याभिमान निष्ठ भक्तों का चरित्र/आचरण ही मनु धर्मशास्त्र का मूल है।

वासुदेवं प्रापन्नानां यान्येव चरितानि वै।
तान्येव धर्मशास्त्राणि इत्येवं वेदविदोविदुः ।।

  1. अन्तिमोपाय निष्ठ प्रपन्नों का कटाक्ष ही हमारे पापसमूहों रूप झाड़ियों को भष्म करने वाला अग्नि है।

न शुद्ध्यति तथा जन्तु: तीर्थवारिशतैरपि ।
लीलयैव यथा भूप! वैष्णवानां हि वीक्षणैः।।

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Author: ramanujramprapnna

studying Ramanuj school of Vishishtadvait vedant

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