तत्त्व त्रय: सूत्र 3

3. चित् का अर्थ है आत्मा

श्री लोकाचार्य स्वामी सर्वप्रथम चित् तत्त्व की व्याख्या करते हैं। अचित् हेय तत्त्व है एवं ईश्वर उपादेय तत्त्व है। यह जानने वाला चित् तत्त्व है। इस कारण चित् तत्त्व का अध्ययन सर्वप्रथम आवश्यक है।
कुछ आचार्य अचित् की व्याख्या सर्वप्रथम करते हैं। हेय अचित् तत्त्व से आत्मा को विलक्षण बताने हेतु सर्वप्रथम हेय/निकृष्ट अचित् तत्त्व को जानना आवश्यक है।

दोनों ही क्रम शास्त्र-सिद्ध हैं।
शास्त्रों में “‘भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा ।” प्रमाण से सर्वप्रथम चित् की व्याख्या करना वेदान्त-सिद्ध है। (भोक्ता: चित् , भोग्य: उचित्, प्रेरिता: ईश्वर)।

यामुनाचार्य स्वामी कहते हैं, “चिदचिदीश्वरतत्स्वभाव” । भाष्यकार भी लिखते हैं “अशेषचिदचिद्वस्तुशेषिणे”।
द्वन्द्व समास में जो शब्द प्रथम आता होता है वो अधिक प्रधान होता है (अभ्यर्हितं पूर्वम्)। किन्तु ये तर्क यहाँ उचित नहीं क्योंकि सर्वाधिक प्रधान ईश्वर तत्त्व तो आखिर में आया है। यहाँ अल्पाक्षर होने के कारण चित् प्रथम आया है (अल्पाक्षरं पूर्वम्)।
इस कारण प्रथम अचित तत्त्व का प्रथम विवरण भी पूर्वाचार्यों के विरुद्ध नहीं है।

चित् शब्द की प्रसिद्धि तो सिर्फ ‘ज्ञान’ मात्र के लिए है। ज्ञानाश्रय (ज्ञाता) के लिए नहीं। (“प्रेक्षोपलब्धिश्चित्संवित्प्रतिपज्ज्ञप्तिचेतना”) । इस कारण आचार्य लिखते हैं कि चित् का अर्थ है आत्मा। आत्मा शब्द तो शास्त्र में ज्ञानाश्रय के लिए अनेक बार प्रयुक्त होने के कारण प्रसिद्ध है।

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Author: ramanujramprapnna

studying Ramanuj school of Vishishtadvait vedant

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