तत्त्व त्रय: सूत्र 4

4. मूल:
आत्मा का स्वरूप ‘शेन्न शेन्न परम्परमाई’ (गत्वागत्वोत्तरोत्तरम्) प्रबन्ध के अनुसार देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि एवं प्राण से विलक्षण; अजड़, आनन्दरूप, नित्य, अणु, अव्यक्त, अचिन्त्य, निरवयव, निर्विकार, ज्ञानाश्रय एवं ईश्वर का नियाम्य, धार्य तथा शेष है।

विवरण:

उद्देश्य, लक्षण, परीक्षा के क्रम से सर्वप्रथम उद्देश्य (नाम-संकीर्तन) बताया। अब आगे प्रत्येक के लक्षण एवं उन लक्षणों की परीक्षा की जाएगी। आत्म-स्वरूप बताने के लिए आचार्य वेदान्त को उद्धृत न करके तत्त्वदर्शी आळ्वार के प्रबंधों को उद्धृत क्यों करते हैं? यामुनाचार्य स्वामी कहते हैं “भवन्ति लीलाविधयश्च वैदिकास्त्वदीयगम्भीरमनोऽनुसारिणः”।

स्वरूप का अर्थ है ‘स्वं रूपम्’ (कर्मधारय समास)। जो स्वं है, वही रूप है। किसी वस्तु का स्वरूप का अर्थ है वो वस्तु स्वयम् ही। किसी वस्तु के स्वरूप को जानने हेतु हम उसके लक्षण कहते हैं। लक्षण का अर्थ है किसी वस्तु का असाधारण धर्म/गुण।

शेन्न शेन्न परम्परमाई। स्थूल-अरुन्धती न्याय के अनुसार सर्वप्रथम आत्मा को देह, मन आदि से भिन्न बताकर क्रमशः उसके शेषत्व आदि प्रधान गुणों पर आते हैं। शास्त्र भी पहले आत्मा को अन्नमय, प्राणमय, मनोमय आदि बताते हुए विज्ञानमय बताता है। किसी सूक्ष्म तत्व को समझाने के लिए पहले स्थूल दृष्टांत देकर, फिर उस तत्व तक ले जाना. उदाहरण के लिए, विवाह के बाद वर-वधू को अरुंधती तारा दिखाया जाता है. अरुंधती तारा दूर होने की वजह से बहुत सूक्ष्म होता है और जल्दी दिखाई नहीं देता. पहले सप्तर्षि को दिखाया जाता है, जो बहुत जल्दी दिखाई पड़ता है. फिर उंगली से बताया जाता है कि उसी के पास अरुंधती है. इसी तरह, किसी सूक्ष्म तत्व को समझाने के लिए पहले स्थूल दृष्टांत देकर, फिर उस तत्व तक ले जाया जाता है.

प्रश्न: यहाँ मूल में ‘बुद्धि’ शब्द का अर्थ क्या है? क्या यह महद आदि विकारों से अनुगृहीत अंतःकरण है या धर्मभूत ज्ञान?

उत्तर: यहाँ बुद्धि का अर्थ ज्ञान ही है। तत्त्व-शेखर ग्रन्थ में आचार्य बुद्धि का अर्थ धर्मभूत ज्ञान ही करते हैं। यामुनाचार्य स्वामी भी सिद्धि-त्रय ग्रन्थ में लिखते हैं: “देहेन्द्रियमनः प्राणधीभ्योऽन्य

Unknown's avatar

Author: ramanujramprapnna

studying Ramanuj school of Vishishtadvait vedant

One thought on “तत्त्व त्रय: सूत्र 4”

Leave a comment