तत्त्व त्रय: सूत्र 6

6. देह आदि में “यह मेरा देह है”, इस प्रकार आत्मा (मैं) से अलग प्रतीति होती है। आत्मा की प्रतीति सदैव “मैं, मैं”, इस रूप में होती है। देह आदि की प्रतीति “यह मेरा/मेरी” के रूप में होती है। देहादि की उपलब्धि कभी होती है, कभी नहीं, किन्तु आत्मा की उपलब्धि सदैव होती है। देहादि अनेक हैं (अववयों के संघात), किन्तु आत्मा एक ही है। अतएव आत्मा को देहादि से भिन्न ही स्वीकार करना चाहिए।

व्याख्या: इस सूत्र में अनेक तर्कों से आचार्य आत्मा को देह, इन्द्रिय, मन, प्राण आदि से भिन्न/विलक्षम सिद्ध करते हैं।

  1. देह आदि का सम्बोधन हमेशा “मेरा देह, मेरा मन, मेरी इन्द्रिय” आदि के रूप में होती है। कोई जड़बुद्धि भी “मैं शरीर” नहीं बोलता। किन्तु आत्मा की उपलब्धि हमेशा “मैं, मैं” के रूप में होती है। जो भी “मेरा” है, वो मैं का होता है। इस प्रकार “मैं ” वाच्य आत्मा “मेरा” वाच्य देह से आदि से भिन्न है।
  2. जाग्रत दशा में देह आदि की उपलब्धि होती है किन्तु सुषुप्ति (गहरी निद्रा) में तो देह आदि का भान नहीं होता। मैं मोटा हूँ, पतला हूँ, कुशाग्र बुद्धि वाला हूँ, विद्वान हूँ, धनिक हूँ; कुछ भी भान नहीं होता। किन्तु सुषुप्ति दशा में भी “मैं, मैं” का भान होता ही है। सुषुप्ति से पहले मैं इन सारी वस्तुओं को जानता था, एवं सुषुप्ति के बाद भी जानता हूँ। अतः मैं इन सभी से भिन्न हूँ।

अथवा बेहोशी की हालत में भी देह आदि का भान नहीं होता किन्तु “मैं” का भान तो होता ही है। याददास्त चले जाने पर भी हम सभी वस्तुओं को भूल जाते हैं किन्तु “मैं, मैं” का बोध तो होता ही है। अतः आत्मा इन सभी से भिन्न है।

अथवा जन्म-मरण से देह, इन्द्रिय आदि तो बदलते रहते हैं। तो पूर्व जन्मों का फल भोगने वाला वह जीवात्मा कौन है? देह तो बदल गया। क्या नहीं बदला? आत्मा। अतः, मैं का अर्थ आत्मा है और वह देह आदि से भिन्न है।

इसी प्रकार इन्द्रियों की उपलब्धि कभी होती है तो कभी अंधे, बहरे होने के कारण नहीं होती। मन की उपलब्धि भी मूढ़ हो जाने पर नहीं होती। मूर्छित व्यक्ति के प्राणवायु नहीं चलते। दिल के धड़कन से ही जीवन का पता चलता है। अर्थात मूर्छा काल में प्राण वायु नहीं उपलब्ध होता।

ज्ञान की उपलब्धि भी सदैव नहीं होती। जिस काल में जिस इन्द्रिय से ज्ञान प्रसार होता है, उसी काल में ज्ञान प्राप्त होता है। जैसे नेत्र इन्द्रिय से ज्ञान बाहर जाकर वस्तुओं से संयोग करता है एवं वापस आने के बाद उन वस्तुओं का ज्ञान हमें होता है। इसे नेत्र ज्ञान या दृष्टि ज्ञान कहते हैं। उसी प्रकार कर्ण-ज्ञान, नासिका ज्ञान आदि। जिस काल में इन्द्रियाँ बन्द होती हैं, या उनसे ज्ञान प्रसार नहीं होता; उस काल में ज्ञान नहीं उत्पन्न होता।

ये देह, इन्द्रिय, मन, प्राण, बुद्धि आदि किसी काल में उपलब्ध होते हैं, किसी काल में नहीं होते। आत्मा की उपलब्धि सदैव होती है। पूर्व में मैं नेत्र वाला था, अब अन्धा हूँ। पूर्व में बेहोश होने से मैं निष्प्राण था, अब होश में आने से मेरे प्राण चलने लगे हैं; पूर्व में मुझे इसका ज्ञान था, अब भूल गया हूँ।
इस कारण आत्मा देह, इन्द्रिय, मन, प्राण, बुद्धि आदि से विलक्षण है।

  1. देह आदि अनेक हैं अर्थात अनेक अववयों के संघात हैं किंतु आत्मा एक ही है। देह अनेक अंगों का संघात है। इन्द्रियाँ 11 हैं, प्राण भी पाँच हैं, मन भी मन, बुद्धि, अहँकार तथा चित्त रूप से चार प्रकार हैं। ज्ञान भी चक्षु ज्ञान, कर्ण-ज्ञान आदि से अनेक प्रकार हैं, अथवा घट ज्ञान, पट ज्ञान से अनेक प्रकार हैं।

अनेक अववयों के संघात होने के कारण किस प्रकार ये आत्मा से भिन्न है, यह हम पूर्व सूत्र में ही देख चुके हैं।

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Author: ramanujramprapnna

studying Ramanuj school of Vishishtadvait vedant

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