तत्त्व त्रय: सूत्र 5

5.आत्मस्वरूप देह आदि से किस प्रकार विलक्षण है?

व्याख्या: तत्त्व शेखर में आचार्य स्वयं ही विस्तृत चर्चा करते हैं। देह अनेक अवयवों (अंगों) के संघात के रूप में उपलब्ध है। यदि प्रत्येक अववयों को ही आत्मा मान लें, तो उनमें आपस में विवाद होना चाहिए, जबकि ऐसा नहीं है। उस अवयव के विच्छेद हो जाने पर उसके द्वारा अनुभव किये गए विषयों की स्मृति भी नष्ट हो जानी चाहिए।

देह यद्यपि अनेक अङ्गों का संघ है किन्तु उनके प्रति आत्मा की ममत्व बुद्धि होती है। जैसे: मेरा हाथ, मेरा पैर, मेरी आँख आदि। इस कारण भी देह को आत्मा से भिन्न समझना चाहिए। उसी प्रकार “मैं बृद्ध हूँ, बालक हूँ” आदि कहने का अर्थ है, “मैं बृद्ध/बालक शरीर वाला हूँ”।

यदि कोई कहे कि हम ऐसा भी कहते हैं, “मेरी आत्मा”। क्या ऐसा कहने से मैं आत्मा से भिन्न नहीं हूँ?
नहीं। यहाँ गौण अर्थ ग्रहण करना चाहिए। मुख्यार्थ नहीं। भगवान शब्द मुख्यार्थ में सिर्फ भगवान ही हैं। किन्तु गौण अर्थ में लक्षणा से अनेक महान जीवों को भी भगवान कहते हैं। “तुम सिंह हो, तुम गौ हो”; ऐसा कहने का अर्थ है उसमें सिंह/गौ के समान कुछ गुण है।

यदि प्रश्न करे कि “मेरा शरीर” कहना भी गौण प्रयोग ही है, तो यह उचित नहीं हैं । गौण प्रयोग तब होता है जब मुख्यार्थ बाधित हो। “मेरी आत्मा” कहने में मुख्यार्थ बाधित है क्योंकि आत्मा से भिन्न कोई अन्य पदार्थ उपलब्ध नहीं है जो आत्मा को अपना कहे। “मेरा शरीर” कहने में मुख्यार्थ बाधित नहीं है।

अर्थापत्ति प्रमाण से भी शरीर एवं आत्मा भिन्न है क्योंकि यदि शरीर ही आत्मा होता तो मृत्यु के पश्चात भी शरीर ज्ञानवान होता। किन्तु मरने के बाद उसकी मैं मैं इस रूप में प्रतीति नहीं होती। इस कारण आत्मा देह से भिन्न है।

श्रुति प्रमाण से भी आत्मा देह से भिन्न है:
ऐषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्य: (मुण्डक 3.1.1)

अब ऊपर लिखित विषयों पर विस्तृत चर्चा होगी

5 (ii) चार्वाक के इन्द्रिय-आत्मवाद का खण्डन

आत्मा एक ही है जबकि इन्द्रिय अनेक हैं। एक आत्मा को सभी इन्द्रियों का ज्ञान होता है। हम कहते हैं कि कल मैंने जिसे देखा था, आज उसका स्पर्श कर रहा हूँ। ऐसा कहने से भी यह सिद्ध है भिन्न भिन्न इन्द्रियों में अलग अलग आत्मा/चेतना नहीं है।

यदि इन्द्रिय ही आत्मा होती तो आँखों के नष्ट हो जाने पर पूर्व में अनुभव किये गए विषयों का स्मरण भी नष्ट हो जाता। बहरा होने पर पूर्व में सुने गए शब्द की स्मृति भी नष्ट हो गयी होती। किन्तु हम देखते हैं कि अंधों को रूप याद रहते हैं एवं बहरों को भी शब्द स्मरण रहते हैं।

अंतःकरण भी आत्मा नहीं है क्योंकि करण और कर्ता एक नहीं हो सकते। अंतःकरण स्मरण की क्रिया में करण/साधन है। कर्ता आत्मा है।

मन भी आत्मा नहीं है क्योंकि मन भी मन, बुद्धि, अहंकार एवं चित्त का संघात है। यदि मन आत्मा होता तो मूढ़ व्यक्ति क्या आत्मारहित है?

5 (iii) ज्ञानात्मवाद का खण्डन

(यहाँ ज्ञान का अर्थ है धर्मभूत ज्ञान)

ज्ञान भी आत्मा से भिन्न है क्योंकि ज्ञान का संकुचन एवं विस्तार होता है। “मेरा ज्ञान उत्पन्न हो गया”; “मेरा ज्ञान नष्ट हो गया”; ऐसा अनुभव होने ज्ञान क्षणिक ही है। किन्तु आत्मा तो नित्य है। इस कारण ज्ञान आत्मा से भिन्न है। ज्ञान आत्मा का धर्म (गुण) है, इस कारण इसे धर्मभूत ज्ञान कहते हैं (भूत अर्थात जीव)।

प्रत्यभिज्ञा का अर्थ है “सो अयं देवदत्त:”। ये वही देवदत्त है, जिसे पूर्वकाल में देखा था। प्रत्यभिज्ञा ज्ञान से भी सिद्ध होता है कि ज्ञान आत्मा से भिन्न है एवं आत्मा का धर्म है।

Unknown's avatar

Author: ramanujramprapnna

studying Ramanuj school of Vishishtadvait vedant

One thought on “तत्त्व त्रय: सूत्र 5”

Leave a comment