शरणागति के सन्दर्भ भगवान के 8 कल्याण गुण हैं। वात्सल्य, स्वामित्व, सौलभ्य एवं सौशील्य आश्रयण सौकर्यापादक गुण हैं। अर्थात भक्तों के भगवान के चरणारविन्दों में आश्रयण को सुकर (easy) बनाते हैं। ज्ञान, शक्ति, प्राप्ति एवं पूर्ति आश्रित कार्यापादक गुण हैं। अर्थात, आश्रित भक्तों के रक्षण कार्य को सफल बनाते हैं।
ये सभी गुणों का अनुभव हम अर्चा रूप में कर सकते हैं।
1. भगवान के नयन कटाक्ष उनके वात्सल्य गुण को सूचित करता है
वत्सं लालयति इति वत्सला। बछड़े को प्यार करने वाली गौ को वत्सला कहते हैं। नवजात बछड़े की गंदगी को अपने जीभ से साफ करने वाली गौ के भाव को वात्सल्य कहते हैं। इसी प्रकार भगवान भी शरणागत जीवात्मा के पापों को, भगवद प्राप्ति विरोधी कर्मों को आदर सहित नष्ट करते हैं। वात्सल्यं दोष भोग्यत्वम्। आश्रितों के दोषों को भोग के रूप में स्वीकार करने के गुण को वात्सल्य कहते हैं। विभीषण शरणागति के सन्दर्भ में भगवान कहते हैं, “दोषो यद्यपि तस्य स्यात् सतामेतदगर्हितम् ॥” विभीषण ही क्या, स्वयं रावण भी आश्रयण के लिए आये तो भी उसकी शरणागति स्वीकार करूँगा। हनुमान जी ने तर्क दिया था कि विभीषण विभीषण यदि दोषयुक्त है, तो भी उसकी शरणागति स्वीकार करेंगे।
“चक्षुषा तव सौम्येन पूतास्मि रघुनन्दन”
अपने कटाक्ष के द्वारा जीवों के पापों को नष्ट कर उसके सत्त्व गुण की वृद्धि करने हेतु ही भगवान श्रीरंगम, वेंकटाद्रि आदि स्थानों पर अर्चा रूप में प्रकट हुए हैं। अर्चा रूप का प्रयोजन एकमात्र जीवात्म-लाभ है। अर्चा रूप में भगवान का विग्रह “भगवद-स्वरूप-तिरोधान-करीं” प्राकृत तत्त्व नहीं अपितु अप्राकृत तत्त्व है।
भगवान रंगनाथ के सुन्दर नेत्रों के कटाक्ष से ही धनुर्धर दास का आत्मोद्धार हुआ था।
2. अर्चा रूप में भगवान का किरीट उनके स्वामित्व को दर्शाता है।
यदि अपने पापों पर दृष्टि जाए और लगे कि मेरे जैसे पापी की शरणागति भगवान स्वीकार नहीं करेंगे तो भगवान के वात्सल्य गुण का स्मरण करना चाहिए। भगवान के नयन कटाक्ष से हमारे सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। यदि ऐसा लगे कि भगवान तो अखिलाण्ड कोटि ब्रह्माण्ड नायक हैं, मेरी शरणागति क्यों स्वीकार करेंगे तो भगवान के मंदहास को स्मरण कर उनके स्वामित्व गुण का स्मरण करना चाहिए।
स्व-व्यतिरिक्त वस्तुओं में स्वकीय का अभिमान स्वामित्व है।
चाहे हमें इसका अनुभव हो या न हो, भगवान आस्तिकों, नास्तिकों सभी की रक्षा कर रहे हैं। यदि नास्तिकों/अभक्तों पर कृपा न होती तो कल का नास्तिक/अभक्त आज आस्तिक भक्त कैसे बनता? भगवान हमारे मालिक हैं एवं हम उनके माल हैं। मालिक सदैव अपने स्वार्थवश ही माल की रक्षा करता है। जीवात्म-लाभ भगवान का ही है क्योंकि जीवात्मा उनकी सम्पत्ति है।
उभय विभूति के मालिक के रूप में भगवान का किरीट उनके स्वामित्व को दर्शाता है।
3. भगवान का सौशील्य उनके मंदहास से सूचित होता है।
महत व्यक्ति का नीच (मंद) व्यक्तियों के संग बिना किसी संकोच के घुल-मिल जाना सौशील्य गुण है। ऐसा करना भगवान का कोई नाटक नहीं है क्योंकि भगवान आर्जव गुण (मन, कर्म, वाणी में एकरूप होना) सम्पन्न होते हैं।
यदि ऐसा संकोच हो कि इतने महान भगवान क्या मेरे जैसे नीच के साथ घुल-मिल पाएंगे? हम उनके पास तो नहीं पहुंच सकते किन्तु सुशील भगवान अपने प्रयत्नों से हमारे पास आकर हमसे घुल-मिल जाते हैं। कृष्णावतार में गोपों-गोपियों संग, रामावतार में गुह, सबरी, सुग्रीव, विभीषण से घुल-मिल जाना भगवान का सौशील्य है।
अर्चा रूप में भगवान भिन्न-भिन्न वाहनों में गली-गली घूमकर, सभी को अपना कटाक्ष प्रदान करते हैं, बिना किसी रंग, वर्ण के भेद के। यह उनका सौशील्य है।
4. भगवान के श्री चरण भगवान का सौलभ्य दर्शाते हैं।
सुलभ होने का भाव है सौलभ्य। सबों के नयनों का विषय बन जाना सौलभ्य है। पद्म पीठ पर विराजमान भगवान के चरण बताते हैं कि आश्रयण सभी के लिए सुलभ है। भगवान के श्री पाद भक्तों के लिए रक्षकत्व (उपायत्व) एवं भोग्यत्व (उपेयत्व) दोनों ही हैं।

5. शङ्ख ज्ञान का प्रतीक है
भगवान के आश्रित कार्यापादक गुणों में दो प्रमुख है: ज्ञान और शक्ति। जो आश्रित के कार्य का अर्थात उन्हें इष्ट प्रदान एवं अनिष्ट निवारण के कार्य का अपादान करने वाले गुण है आश्रित कार्यापादक गुण।
यो वेत्ति युगपतसर्वं प्रत्यक्षेण सदा स्वतः ।
तम्प्रणम्य हरिं शास्त्रन्यायतत्त्वं प्रचक्ष्महे ।। (नाथ मुनि विरचित न्याय रहस्य से)
भगवान स्व-व्यतिरिक्त पदार्थों का प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों जानते हैं। भगवान को आश्रितों के इष्ट एवं अनिष्ट का ज्ञान है एवं तदनुसार ही रक्षण करते हैं।
विभीषण ने सुग्रीव के माध्यम से भगवान की शरणागति की। किन्तु सुग्रीव ने आकर उल्टा ही संदेश सुनाया। पुरुषकार विपरीत होने के बाद भी ज्ञान गुण से विशिष्ट भगवान विभीषण के आकिंचन्य एवं अनन्य गतित्व को जानते थे एवं उनकी शरणागति स्वीकार की। अतः आश्रितों के कार्यों को सफल बनाने हेतु ज्ञान गुण आवश्यक है।

6. चक्र भगवान की शक्ति का प्रतीक है
शक्ति का अर्थ है अघटित घटना सामर्थ्य। असम्भव को सम्भव बना देना शक्ति है। वासना, रुचि, प्रकृति-सम्बन्ध के चक्र में पड़े हेय बद्ध चेतनों को नित्य सूरियों की गोष्ठी में बैठा देने वाला असम्भव सा कार्य भगवान का शक्ति गुण का कार्य है।
भगवान के सभी आयुधों में चक्रराज प्रथम हैं। जयन्त के वध हेतु भगवान ने एक तृण को भेजा था, उसमें उसी क्षण चक्र का आवेश हो गया था।
इस प्रकार हमने देखा की भगवान के सभी 6 शरण्य गुणों का अनुभव हम अर्चा मूर्ति में ही कर सकते हैं। नयन कटाक्ष से वात्सल्य, किरीट से स्वामित्व, मंदहास से सौशील्य एवं श्री पादों से सौलभ्य। चक्र से शक्ति एवं शङ्ख से ज्ञान।
भगवान रंगनाथ (नम्पेरुमाल) के प्रयोग चक्र का भक्त विशेष आनन्द से अनुसन्धान करते हैं।
भगवान की हस्त मुद्रा ‘मा शुचः’ पद का सूचक है।
परेषां शङ्खचक्रादि स्वेषां हस्तमुद्रया
भगवान का शङ्ख एवं चक्र दुष्टों के हृदय में भय उत्पन्न करते हैं किन्तु स्वकीय जनों के लिए भगवान के आयुध तो आभूषण हैं। भगवान अपने भक्तों की रक्षा हस्त मुद्रा से करते हैं। हस्त मुद्रा का अर्थ है “मा शुचः”।

अखिल हेय प्रत्यनीक
भक्तांघृरेणु आळ्वार कहते हैं, “अरंगत्त अमलन मुगन्दु”। रंगनाथ दोषरहित (मलरहित) हैं। ब्रह्म की तो परिभाषा ही है समस्त दोषों का अभाव एवं समस्त कल्याण गुणों के आश्रय। पर, व्यूह, विभव, अन्तर्यामी आदि रूपों में रहने पर भी भगवान में एक दोष तो था ही – सौलभ्य का अभाव। अन्तर्यामी केवल योगियों के लिए गम्य हैं। व्यूह रूप केवल दवताओं के लिए सुलभ हैं। विभव रूप में भी भगवान मात्र कुछ काल के लिए ही सुलभ हुए थे। नरसिंह रूप में तो सिर्फ 1 मुहूर्त के लिए ही प्रकट हुए थे।
सही मायने में तो भगवान अर्चा अवतार ग्रहण करने के बाद ही दोषरहित हुए। अनवरत नयनों के विषय बन जाने को ही सौलभ्य कहते हैं। अर्चा अवतार में भगवान सबके लिए सुलभ हैं। सौलभ्य की सीमाभूमि हैं अर्चा अवतार। भगवान रंगनाथ इस सृष्टि के प्रथम अर्चा अवतार हैं। इस कारण आळ्वार कहते हैं, “”अरंगत्त अमलन मुगन्दु”।
पेरुमाल कोइल काञ्चीपुरम मन्दिर में 24 सीढियाँ हैं। ये 24 अचित् तत्त्वों के प्रतीक हैं (मूल प्रकृति, महत, अहंकार, मन, पंचभूत, पंच-तन्मात्र, पंच ज्ञानेन्द्रिय, एवं पंच कर्मेन्द्रिय)। अचित तत्त्व “भगवत्-स्वरूप-तिरोधान-करीं, विपरीत-ज्ञान-जननीं” है। इन अचित तत्त्वों को पार कर 25वां तत्त्व चित् जीवात्मा है। उसके सामने खड़े भगवान वरदराज 26 वां तत्त्व ईश्वर हैं। पुनः 5 सीढियाँ मिलती हैं। ये अर्थ-पंचक ज्ञान के प्रतीक हैं: स्व-स्वरूप, पर-स्वरूप, उपाय-स्वरूप, उपेय-स्वरूप एवं विरोधी स्वरूप। बिना अर्थ-पंचक ज्ञान के भगवान की प्राप्ति नहीं होती।






