श्री वैष्णव लक्षणम्

श्री वचनभूषण की शिक्षाओं को संक्षिप्त रूप में मुमुक्षुपड़ी में श्री वरवरमुनि स्वामी १० वैष्णव लक्षणों में बताते हैं| बाह्य-लक्षण का वर्णन तो सर्वत्र है (द्वादश उर्ध्व-पुण्ड्र, गले में तुलसी एवं कमलाक्ष माला आदि, बाहुओं में तप्त शंख-चक्र का लांछन आदि), यहाँ आचार्य आन्तरिक लक्षणों की चर्चा करते हैं| क्रमशः इनका अध्ययन करेंगे:

1. बाह्यविषयसङ्गानां कार्त्स्येन सवासनत्याग

भगवान, आचार्य एवं भागवतों के अतिरिक्त सभी आसक्तियों का सम्पूर्ण रूप से वासना के सहित त्याग कर देना| शरीर से सम्बन्धित सभी संगों (आसक्तियों) का वासना सहित त्याग इस कारण आवश्यक है ताकि वो पुनः वापस न आयें| पुनः हमारे स्मृति में भी न आयें|

बाह्यविषयसङ्गानां : वो सभी संग जो आत्मा के लिए (आत्मोज्जीवन में) कदापि भी सहयोगी नहीं हैं, बल्कि विरोधी ही हैं| यदि कोई दाशरथि स्वामी की भाँती शरीर-सम्बन्धी से आसक्ति है, तो उसका त्याग आवश्यक नहीं है क्योंकि वो अत्मोज्जीवन में सहायक ही हैं| अन्य सम्बन्ध कर्मजनित शरीर-सम्बन्ध सोपाधिक हैं| भगवान ही एकमात्र निरुपाधिक बंधू हैं| (शरीर-सम्बन्धियों के प्रति आसक्ति-रहित होकर दायित्यों का निर्वाह करना है)|

कार्त्स्येन : सभी प्रकार के आसक्तियों को, चाहे वो देह हो या देह-सम्बन्धी हों या सांसारिक वस्तुएं| कोई आसक्ति ऐसी नहीं है जिन्हें हम रख सकते हैं|

सवासनत्याग : कर्मों में अबुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति का हेतु वासना है| अनजाने में ही हमें पाप-पुण्य कर्मों में वासना प्रवृत्त कर देती है| जैसे बैठे-बैठे बिना कुछ सोचे शरीर खुजलाना, पत्थर फेंकना आदि अनेक अनजाने में ही कार्य हमसे हो जाते हैं| कर्म यदि प्रायश्चित्त से या फल देने के बाद नष्ट भी हो जायें, तो भी उनकी वासना तो बनी ही रहती है| वो हमें अनेक कर्मों में प्रवृत्त करती है एवं उन कर्मों को करने से वासना पुनः शक्तिशाली होती जाती है| अतः स्वामी कहते हैं कि वासना के सहित इन सभी आसक्तियों का त्याग आवश्यक है, अन्यथा वो पुनः वापस आ जायेंगे|

इतिहासपुराणों में अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं, जैसे विभीषण ने अपनी सारी संपत्ति, निवास, परिवारजनों को त्याग श्री राम का शरण लिया था| श्री रामानुज स्वामी लिखते हैं:

पितरं मातरं दारान् पुत्रान् बन्धून् सखीन् गुरून् ।

रत्नानि धनधान्यानि क्षेत्राणि च गृहाणि च ॥

सर्वधर्माश्च संत्यज्य सर्वकामांश्च साक्षरान् ।

लोकविक्रान्तचरणौ शरणं तेऽव्रजं विभो! ॥

मैं अपने पिता, माता, बन्धु, मित्र, गुरु (लौकिक शिक्षाओं को प्रदान करने वाले), रत्न, धन, भूमि, गृह, धर्म (उपाय रूप में) आदि का पूर्ण रूप से (वासना सहित) त्याग कर, आपकी शरण लेता हूँ|

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२. भगवदेव शरणत्वेन स्वीकरणम्

एकमात्र भगवान को ही शरण के रूप में स्वीकार करना| सर्वेश्वर भगवान ही एकमात्र निरुपाधिक रक्षक हैं| भगवान के अतिरिक्त जो भी अन्य रक्षक के रूप में प्रतीत होते हैं, वो सोपाधिक हैं| विभीषण, प्रह्लाद, भरत, जयन्त आदि की रक्षा क्रमशः उनके भ्राता, पिता, माता, बन्धुवर्ग आदियों ने नहीं की अपितु भगवान ने ही किया| इस कारण भगवान एकमात्र निरुपाधिक रक्षक हैं| भगवान अनन्त काल से, अनन्त जन्मों में हमारी रक्षा कर रहें हैं एवं उन्हीं के प्रयत्नों के कारण जीवात्मा क्रमशः अद्वेष, आविमुख्य, साधू-समागम, जायमान कटाक्ष आदि प्रदान कर मुमुक्षु बनाते हैं एवं आचार्य के चरणकमलों में शरणागति करवाकर मोक्ष प्रदान करते हैं| इस कारण ही भगवान जीवात्मा के अन्तर्यामी हैं एवं उसके नियन्ता है|

इस कारण मोक्ष प्राप्ति के लिए एकमात्र भगवान ही उपाय है| भगवान से व्यतिरिक्त अन्य सभी उपाय सोपाधिक हैं| हमारा कर्मानुष्ठान, ज्ञानानुष्ठान, भक्ति, प्रपत्ति आदि उपाय नहीं हो सकते| भगवान की अहैतुकी कृपा ही एकमात्र रक्षक है| अपने आत्मोद्धार के लिए भगवान पर ही निर्भर रहना श्री वैष्णवों का लक्षण है|

संसार्णवमग्नानां विषयाक्रांतचेतसाम् |

विष्णुपोतं बिना नान्यत् किञ्चिदस्ति परायणम् || (विष्णु धर्म 1.59)

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3. प्राप्यमवश्यम्भावीति दृढ़ अध्यवसाय:

वैष्णव अधिकारी के लिए प्रथम गुण है भगवान के रक्षकत्व में दृढ़ विश्वास। भगवान की हस्त मुद्रा स्वयं कहती है : मा शुचः। अर्थात शोक मत करो।

प्राप्य नित्य कैंकर्य भगवान की कृपा से अवश्य ही प्राप्त होगा, इस विषय में अचल विश्वास होना चाहिए। आचार्य कहते हैं कि मुझे मोक्ष मिलेगा या नहीं, ऐसी शंका कभी भी नहीं करनी चाहिए। ऐसी शंका का अर्थ है भगवान के रक्षकत्व पर शंका करना। भगवान की ज्ञान एवं शक्ति पर शंका करना।

हमें नित्य वैकुण्ठ प्राप्त नहीं होगा, ऐसी शंका तीन कारणों से हो सकती है:

1. उपाय को लघु समझना। मोक्ष तो अत्यन्त दुर्लभ है। क्या भगवान को उपाय मान, उनके रक्षकत्व मात्र पर निर्भर होने से मोक्ष मिल जाएगा? बड़े बड़े योगियों को इतनी तपस्या के बाद नहीं मिला, तो मुझे इतनी सरलता से कैसे मिल जाएगा?

ये तो ऐसा ही है जैसे एक नीम्बू देकर पूरा राज्य माँग लेना।

ऐसी शंका नहीं होनी चाहिए क्योंकि हम भगवान के माल हैं एवं मालिक स्वयं अपने प्रयत्नों से माल को प्राप्त करते हैं। बड़े बड़े योगियों को मोक्ष प्राप्त न हो सका क्योंकि वो अपनी शक्ति के बल पर मोक्ष प्राप्त करना चाहते थे, भगवान को उपाय नहीं माने थे।

2. उद्देश्य दुर्लभम् : हमारा प्राप्य कोई साधारण वस्तु नहीं है। सबसे दुर्लभ, सबसे श्रेष्ठ वस्तु है। वो मुझे कैसे प्राप्त होगा?

3. स्वकृत दोषभूयत्वम् : मैं वैकुण्ठ तभी पहुँच सकता हूँ जब मैं परिशुद्ध होऊंगा। किन्तु मैं तो अत्यन्त पापी हूँ। अनन्त दोषों का आलय हूँ। मुझे तो भगवान बिल्कुल नहीं अपनाएंगे।

ऐसा बिल्कुल भी नहीं सोचना चाहिए। आचार्य कहते हैं कि भगवान के वात्सल्य गुण का स्मरण करना चाहिए। वत्स यानी बछड़ा। वत्सला का अर्थ है जिस प्रकार माता गौ अपने बछड़े के गन्दगी को अत्यन्त प्रेम से अपने जीभ से साफ करती है। उसी भाव को वात्सल्य कहते हैं। भगवान की शरणागति करते ही सभी पूर्वाघ अग्नि में पड़े रुई की भाँति नष्ट हो जाते हैं।

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4. प्राप्य त्वरा

पूर्व में कहा गया कि यह दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि भगवान अवश्य हमारी रक्षा करेंगे एवं मोक्ष-प्राप्ति के विषय में कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिए।

किन्तु नित्य कैंकर्य प्राप्ति के विषय में त्वरा अवश्य होनी चाहिए। इस महाविश्वास के साथ तीव्र इच्छा होनी भी आवश्यक है। प्राप्य त्वरा के अभाव में सभी अनुष्ठानों को हल्के में ले लेंगे, प्रमाद करेंगे। “कब मैं श्री वैकुण्ठ जाऊंगा? कब मैं नित्य लोक जाकर श्री, भू, नीला वशिष्ट भगवान के दर्शन करूँगा? कब मैं भगवान की निर्विघ्न कैंकर्य कर पाउँगा? आखिर कब तक इस संसार में रहना पड़ेगा?” प्रत्येक श्री वैष्णव को ऐसी प्राप्य त्वरा अनिवार्य रूप से होनी चाहिए।

श्री वैष्णव सम्प्रदाय में प्रातःकाल तीन विषयों का अवश्य ध्यान करने की शिष्ट परम्परा है। कोविल, तिरुमलै, अर्चिरादि गमनम् अक्रूर यानै पोल। अर्थात; श्रीरंगम् महामन्दिर, वेंकटाद्रि एवं अक्रूर यात्रा की तरह अर्चिरादि मार्ग जाने की त्वरा। (जीवात्मा शरीर त्याग कर, ब्रह्म नाड़ी से प्रयाण कर, जिस मार्ग से श्री वैकुण्ठ जाता है, उसे अर्चिरादि मार्ग कहते हैं।)

अक्रूर सोचते हैं कि अबतक मैं इस कंस जैसे दुष्टों को प्रतिदिन देख रहा था। कल प्रातः मुझे भगवान विष्णु के मुख के दर्शन होंगे।

चिन्तयामास चाक्रूरो नास्ति धन्यतरो मया ।

योऽहमंशावतीर्णास्य मुखं द्रक्ष्यामि चक्रिणः ।। ५-१७-२ ।।

अद्य मे सफलं जन्म सुप्रभाता च मे निशा ।

यदुन्नदाब्जपत्राक्षं विष्णोद्र क्ष्याम्यहं मुखम् ।। ५-१७-३ ।।

अद्य मे सफले नेत्रे अद्य मे सफला गिरः ।

यन्मे परस्परालापो दृष्ट्वां विष्णुं भविष्यति ।। ५-१७-४ ।।

पापं हरति यत् पुंसां स्मृतं सङ्कल्पनामयम् ।

तत् पुण्डरीकनयनं विष्णोद्र क्ष्याम्यहं मुखम् ।। ५-१७-५ ।।

निर्जग्मुश्व यतो वेदा वेदाङ्गन्यखिलानि च ।

द्रक्ष्यामि तत्प्रं धाम धाम्रां भगवतो मुखम् ।। ५-१७-६ ।।

यज्ञेषु यज्ञपुरुषः पुरुषैः पुरुषोत्तमः ।

इच्यते योऽखिलाधारस्तं द्रक्ष्यामि जगत्पातिम ।। ५-१७-७ ।।

इष्ट्वा यमिन्द्रो यज्ञानां शतेनामरराजताम् ।

अवाप तमन्नादिमहं द्रक्ष्यामि केशवम् ।। ५-१७-८ ।।

न ब्रह्मा नेन्द्र-रुद्रा-श्वि-वस्वा-दित्य-मरुदूगणाः ।

यस्य स्वरूपं जानन्ति स्प्रक्ष्यत्यङ्ग स मे हरिः ।। ५-१७-९ ।।

सर्व्वात्मा सर्व्ववित् सर्व्वः सर्व्वभूतेष्ववस्थितः ।

यो वितत्यात्ययो व्यापी स वक्ष्यति मया सह ।। ५-१७-१० ।।

मत्स्य-कूर्म-वराहाश्व-सिंहरूपादिभिः स्थितिम् ।

चकार जगतो योऽजः सोऽद्य मामालपिष्यति ।। ५-१७-११ ।।

साम्प्रतञ्च जगत्स्वामी कार्य्यमात्मह्टदि स्थितम् ।

कर्त्तु मनुष्यतां प्राप्तः स्वेच्छादेहधृगव्ययः ।। ५-१७-१२ ।।

योऽनन्तः पृथिवीं धत्ते शेखरस्थितिसंस्थिताम् ।

सोऽवतीर्णो जगत्यर्थे मामक्रूरेति वक्ष्यति ।। ५-१७-१३ ।।

पितृ-पुत्र-सुह्टदू-भ्रातृ-मातृ-बन्धुमयीमिमाम् ।

यन्मायां नालमुत्तर्त्तु जगत् नमो नमः ।। ५-१७-१४ ।।

तरत्यविद्यां विततां ह्टदि यस्मिन् निवेशिते ।

योगी मायाममेयाय तस्मै विद्यात्मने नमः ।। ५-१७-१५ ।।

यज्विभिर्यज्ञपुरुषो वासुदेवश्व सात्वतैः ।

वेदान्तवेदिभिर्विष्णुः प्रोच्यते यो नतोऽस्मि तम् ।। ५-१७-१६ ।।

यथा तत्र जगद्धाम्रि धातर्य्योतत् प्रतिष्ठितम् ।

सदसत् तेन सत्येन मय्यसौ यातु सौम्यताम् ।। ५-१७-१७ ।।

स्मृते सकलकल्याण-भाजनं यत्र जायते ।

पुरुषस्तमजं नित्यं व्रजामि शरणं हरिम् ।। ५-१७-१८ ।।

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5. यावज्जीवं दिव्यदेशेषु प्रावण्येन गुणानुभव कैङ्कर्यैः कालयापनम्

भगवान के मोक्ष-प्रदत्व में दृढ़ विश्वास एवं प्राप्य त्वरा होने के बाद भी मोक्ष तो देह-समाप्ति के बाद ही मिलेगा न! तबतक दिव्य देशों में अत्यन्त प्रेम से गुणानुभव कैङ्कर्य करते हुए समय व्यतीत करना चाहिए। वो सभी स्थान जो आचार्यों एवं आलवारों से सम्बन्धित है, हमारे लिए दिव्य देश हैं। हमें अपने साथ वैकुण्ठ ले जाने के लिए सौहार्द विशिष्ट भगवान श्रीरंगम् में सो रहे हैं। तिरुमला में उन भगवान का वात्सल्य प्रदर्शित होता है तो पुरुषोत्तम क्षेत्र में वो पतित-पावन हैं। हमें अपना कालक्षेप वहीं निवास करके एवं मानसिक, कायिक, वाचिक; सर्वविध कैंकर्य करते हुए व्यतीत करना चाहिए।

चित्र: दिव्यदेश वृन्दावन में गोदा-रंगमन्नार भगवान का सर्वदेश, सर्वकाल, सर्वावस्था, सर्वविध कैंकर्य में हमारे आचार्य श्री गोवर्धन रंगाचार्य स्वामी।

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6. वर्तमानानां श्रीवैष्णवानां महत्वम् अभिज्ञाय तेषु प्रेमविशिष्टता

वैसे अनेक श्री वैष्णव हमारे आस पास होते हैं जो ऊपर उद्धृत सभी पाँच गुणों से विशिष्ट हैं, हमें उनके वैभव को जानकर उनके प्रति विशेष प्रेम रखना चाहिए। प्रायः हम श्री वैष्णवों के गुणों को नहीं देखते, उनके दोष ही देखते हैं एवं उनकी निन्दा करते हैं। उनके गुणों को देख भी उनका सम्मान नहीं करते अपितु ईर्ष्या ही करते हैं।

वैष्णवों में तीन वर्गीकरण हैं: सत्कार योग्य, सहवास योग्य एवं सदानुभाव्य योग्य। केवल-नाम-रूप धारी बाह्य-दृष्टि से वैष्णव सत्कार योग्य हैं। हमें प्रयत्न करके उनसे मिलना नहीं है, न उनके साथ समय व्यतीत करना है। किन्तु जब वो हमें मिलें तब उनका सत्कार करना है। सहवास योग्य वो है जो ज्ञान एवं अनुष्ठान में उत्तम हैं। सदैव उनके साथ रहें। सदानुभाव्य योग्य हमारे आचार्य एवं आळ्वार हैं।

यहाँ ध्यातव्य है कि कोई भी निन्दा-योग्य वैष्णव नहीं हैं। किसी वैष्णव के ज्ञान के स्तर का निरूपण करना भागवत-अपराध है। प्रायः हम अन्य वैष्णवों के ज्ञान एवं अनुष्ठान में कमी देखकर उनकी निन्दा में व्यस्त रहते हैं। ये तो सत्कार-योग्य वैष्णवों के लिए भी उचित नहीं है। यदि उन वैष्णवों में कोई कमी दिखे तो व्यक्तिगत रूप से उनसे मिलकर अपनी बात रख सकते हैं। समूह में बैठकर उनके ज्ञान का निरूपण करना एवं उपहास करना भयङ्कर भागवतापचार है। या तो आचार्य, जो शिष्य की आत्म-रक्षा के उत्तरदायी हैं, वो उनकी रक्षा करेंगे; या फिर भगवान अपनी कृपा से उन्हें धीरे धीरे शुध्द बनायेंगे। कई लोग तो आचार्य में भी कमी निकालकर निन्दा करते हैं। आचार्य का शरीर शिष्य के ज्ञान का विषय है। आचार्य का ज्ञान शिष्य के ज्ञान का विषय नहीं है। आचार्य के ज्ञान का निरूपण उनके आचार्य करेंगे या अन्य समर्थ व्यक्ति। शिष्य केवल आचार्य के शरीर की रक्षा करे। हाँ, यदि आचार्य में भयङ्कर कमियाँ हों, जो कि श्री वचन भूषण में वर्णित है, तब शिष्य अवश्य आचार्य को एकान्त में बता सकता है या आचार्य से दूर जाकर किसी अन्य ज्ञानानुष्ठान युक्त वैष्णव की सेवा कर सकता है। किन्तु निन्दा तो उस हाल में भी नहीं करना।

तो क्या हम अवैष्णवों की निन्दा कर सकते हैं? हमें अवैष्णवों के प्रति या नाम-रूप न धारण करने वाले वैष्णवों के प्रति उदासीन होना चाहिए। यदि हम किसी के प्रति उदासीन हैं तो उसकी निन्दा कैसे कर सकते हैं? क्या हम उनके सिद्धान्त की निन्दा कर सकते हैं? उसकी भी आवश्यकता नहीं। जब हम अपने सिद्धान्त की स्थापना करते हैं तो विरोधी मत अपने आप ही खण्डित हो जाते हैं। इसलिए हमें अपना समय अपने मत को समझने एवं अपने ज्ञान-अनुष्ठान को समृद्ध बनाने में व्यतीत करना चाहिए।

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7. श्रीमन्त्रद्वयमन्त्रपरायणत्वम्

सदैव श्री मन्त्र एवं द्वय मन्त्र का स्मरण करते रहना चाहिए। कभी भी अन्य मन्त्रों से दूर ही रहना चाहिए। अन्य मन्त्र के उपासकों का सहवास भी नहीं करना चाहिए।

श्री मन्त्र हमें यह बताता है कि त्याज्य क्या है एवं उपादेय क्या है। द्वय मन्त्र साक्षात अनुष्ठान रूप है (कैंकर्य प्रार्थना)। इस कारण सदैव रहस्य मन्त्रों का अनुसन्धान करते रहना चाहिए।

श्री वरवरमुनि स्वामी प्रातःकाल तीनों रहस्य मन्त्रों के अर्थों का अनुसन्धान करते थे।

ध्यात्वा रहस्यतृतीयं तत्वयाथात्म्यदर्पणम् ।

परव्यूहादिकान् पत्युः प्रकारान् प्रणिधाय च ॥ पूर्व दिनचर्या. १५ ॥

मुमुक्षुपड़ी में भी आचार्य कहते हैं कि श्री मूल मन्त्र प्रपन्न जीवात्मा के लिए मङ्गलसूत्र की भाँति है। तीन धागे एवं 8 गाँठ वाले इस मांगल्य सूत्र को प्रत्येक प्रपन्न जीवात्मा को सदैव धारण करना चाहिए। अर्थात मन्त्रार्थ का सदैव मनन एवं तदनुसार अनुष्ठान करना चाहिए।

113. ettizhaiyAy mUnRu saradAyiruppathoru mangaLaSUthram pOlE thirumanthram.

अष्टतन्तुत्रिगुणम्मंगलसूत्रमिव श्री मन्त्र:

हमारे बुजुर्ग भी जब हमें आशीर्वाद देते थे तो कहते थे मूल मन्त्र में जन्म लो, चरम मन्त्र में बड़े हो एवं द्वय में निष्ठावान रहकर जीयो।

यूँ तो मन्त्र तो शब्द-शक्ति एवं अर्थ-शक्ति दोनों ही विद्यमान होता है, किन्तु प्रपन्नों को शब्द-शक्ति से कोई प्रयोजन नहीं होता। अर्थ-शक्ति ही हमारे लिए महत्वपूर्ण है। इस कारण सम्प्रदाय में जप, होम आदि का अधिक महत्व न होकर अर्थानुसंधान का ही अधिक महत्व है।

मंत्ररत्नानुसंधान संतत स्फुरिताधरम् ।

तदर्थतत्त्वनिध्यान सन्नद्धपुलकोद्भवम् ।।

मन्त्र-रत्न के अनुसंधान से आचार्य वरवर मुनि के होंठ निरन्तर हिलते रहते थे, फिर वो शान्त होकर भँवरे की भाँति उसके अर्थानुभव रूप रस में लीन हो जाते थे। मन्त्र के जप या उच्चारण का महत्व इतना ही है कि वो अर्थानुसंधान में मदद करें। कुछ लोग जो माला लेकर द्वय मन्त्र का नियत संख्या में जप और कीर्तन का आदेश देते हैं, वो शिष्ट-सम्मत नहीं है।

मुमुक्षुपड़ी में आचार्य कहते हैं हमारे पूर्वाचार्यों ने मूल मन्त्र के अतिरिक्त कुछ पढ़ा ही नहीं है। किन्तु रामानुज स्वामी तो निरन्तर तिरुपावै का अनुसन्धान करते थे। कहने का अर्थ है सर्वत्र मूल मन्त्र के अर्थों का अनुसन्धान किया। यहाँ आशय मूल मन्त्र के अक्षरों में नहीं है। द्वय एवं चरम श्लोक भी मूल मन्त्र के अर्थों का विवरण हैं। सभी ग्रन्थों में आचार्यों को मंत गोपी शरणागति में द्वय मन्त्र के दर्शन हुए तो तिरुपल्लान्डु में प्रणवार्थ। रंग विमान भी प्रणवाकार कहा जाता है अर्थात प्रणवार्थ प्रकाशक।

8. आचार्यप्रेमबाहुल्यम्

आचार्य के प्रति अतिशय प्रेम होना ही श्री वैष्णव लक्षण है। आचार्य वो हैं जो

1. हमें पञ्च-संस्कार प्रदान करते हैं।

2. हमें रहस्य-त्रय का ज्ञान देते हैं।

3. हमें दिव्य प्रबन्ध सिखाते हैं।

4. हमें चरम श्लोकार्थ का ज्ञान देते हैं।

5. हमें श्री रामायण का रहस्यार्थ सिखाते हैं

आदि।

मन्त्रे तद्देवतायाञ्च तथा मन्त्रप्रदे गुरौ|

त्रिषु भक्ति: सदा कार्या सो हि प्रथम साधनम् ||

9. आचार्यविषये भगवद्विषये च कृतज्ञत्वम्

ऊपर लिखित जितने भी गुण हैं, वो सभी शिष्य में आचार्य-कृपा से ही विकसित होते हैं। इस कारण सदैव आचार्य के प्रति एवं आचार्य प्रदान करने वाले भगवान के प्रति कृतज्ञता होनी चाहिए।

श्वेताश्वर उपनिषद कहता है कि यदि कोई व्यक्ति भगवान से प्रेम करता है, तो उससे कहीं अधिक प्रेम उसे आचार्य से करना चाहिए।

हम सभी जंग लगे लोहे की भाँति थे। आचार्य कृपा से हम सोने की भाँति बन गए। ऐसे सांसारिक जीव का उद्धार कर उसे नित्य सूरियों की गोष्ठी में बैठा देना एक असाधारण कार्य है।

यदि कोई व्यक्ति यह अनुभव करे की उसके प्रति आचार्य ने क्या उपकार किया है, तो वह कभी भी आचार्य से दूर जा ही नहीं सकता, सदैव उनके समीप रहकर उनकी सेवा करेगा।

10. ज्ञानविरक्तिशान्तिमता परमसात्विकेन सह वासः

हमें हमेशा ज्ञान, वैराग्य एवं शान्ति से विशिष्ट वैष्णवों के सहवास में रहना चाहिए। शान्त का अर्थ है जो शम, दम गुण से युक्त हों। बाह्य एवं आभ्यान्तर इन्द्रियों पर नियन्त्रण हो।

ऐसे वैष्णव हमें कभी आचार्य के उपदेशों को भूलने नहीं देंगे। जब कभी भी हम सन्देह में पड़कर चिन्तित होंगे, अवसादग्रस्त होंगे; तब वो हमें आचार्य की शिक्षाओं का स्मरण दिलाएंगे। ऐसे व्यक्ति में रजोगुण एवं तमोगुण नगण्य होता है, वो परम सात्विक होते हैं, अहंकार रहित होते हैं और अपना स्वयं का मत नहीं देते।

ऊपर बताये गए 10 गुणों से युक्त चेतन ही श्री वैष्णव कहलाने योग्य है।

चित्र: तिरुपावै ग्रन्थ की मुख्य शिक्षा: भागवतों का सहवास

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Author: ramanujramprapnna

studying Ramanuj school of Vishishtadvait vedant

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