शरणागति का स्वरूप:
1. भगवद-रक्षकत्व-अनुमति-रूपम् : चूंकि हम चेतन हैं, भगवान को रक्षक के रूप में स्वीकार करना हमारा चैतन्य कार्य है। भगवान हमारे ज्ञान का सम्मान करते हैं एवं हमारी अनुमति के बिना हमारी रक्षा नहीं करेंगे।
2. सकृत-अनुष्ठान-रूपम्: शरणागति एक ही बार करनी होती है। पुनः शरणागति करने का अर्थ है भगवान के रक्षकत्व पर अविश्वास एवं इस कारण शरणागति खण्डित हो जाती है।
3. व्यभिचार-विधुर-रूपम्: शरणागति कभी भी व्यभिचार सहन नहीं करती। शरणागति के पश्चात अन्य उपायों के अवलम्बन से शरणागति खण्डित हो जाती है। शरणागति का अभिन्न अंग है: आकिंचन्यम् एवं अनन्य-गतित्वम्।
4. विलम्ब-रहितम्: अन्य उपाय कई जन्मों तक अनुष्ठान करने होते हैं। थोड़ी भी चूक हो तो पुनर्जन्म लेकर पुनः साधना करनी होती है। किन्तु शरणागति के पश्चात मोक्ष निश्चित है। देहावसाने मुक्ति स्यात्।
5. सर्वाधिकार-रूपम्: शरणागति के अधिकारी सभी चेतन हैं। इसमें जन्म, कुल, जाती आदि का बन्धन नहीं हैं। भक्ति योग केवल द्विज ही अनुष्ठान कर सकते हैं। कर्म योग का अनुष्ठान भी वही कर सकते हैं जिन्हें कर्मकाण्ड का अधिकार हो। किन्तु शरणागति सभी के लिए है।
6. नियम-शून्य-रूपम्: शरणागति में कोई भी देश-नियम या काल-नियम नहीं है। कहीं भी और कभी भी शरणागति कर सकते हैं। द्रौपदी ने रजस्वला काल में शरणागति की थी।
7. अन्तिम-स्मृति-राहित्यम् : अन्य सभी उपायों में अन्तिम स्मृति अनिवार्य है किन्तु शरणागति में अन्तिम स्मृति अनिवार्य नहीं है। जीव के मोक्ष प्राप्त करने में लाभ भगवान का है एवं जीव के संसार बन्धन में रहने से हानि भगवान की है। अतः, जीव के अन्तिम स्मृति की जिम्मेदारी भी भगवान की ही है। यदि जीव का अन्तिम-स्मरण नहीं हो पाया, तो भगवान स्वयं उस जीव का स्मरण कर उसे मोक्ष प्रदान कर देते हैं। ‘अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमं गतिम्’।
8. सुशकम् : शरणागति अत्यन्त सरल है। हमें केवल भगवान को रक्षक के रूप में स्वीकार करना है।
9. दृढ़-अध्यवसाय-रूपम्: भगवान के रक्षकत्व में दृढ़ अचल विश्वास होनी चाहिए। भगवान के वचन “मा शुचः” का स्मरण कर शोकरहित होना चाहिए। हमें चिन्ता करने की क्या आवश्यकता है, जब हमारे रक्षक भगवान हैं?
शरणागति किस प्रकार अन्य उपायों से श्रेष्ठ है:
1. सिद्धता : भगवान सिद्ध उपाय हैं, स्वयं ही अपने अहैतुकी कृपा से जीवात्मा को प्राप्त करते हैं।
2. परम चेतनत्व: कर्म, ज्ञान, भक्ति, प्रपत्ति आदि अचेतन हैं। किसी चेतन के द्वारा उपयोग किये जाने पर ही उनका अस्तित्व है। किंतु भगवान तो परम चेतन हैं।
3. सर्वशक्तिमत्वं : अन्य उपाय अशक्त हैं, ज्ञानरहित हैं। किन्तु भगवान ज्ञान, शक्ति से विशिष्ट हैं। भगवान की शक्ति कर्तुम्-अकर्तुम्-अन्यथाकर्तुं समर्थ है। भगवान की शक्ति अघटित-घटना-सामर्थ्य है। अन्य उपाय भगवान की शक्ति पर आश्रित हैं। जीवों के उपाय अनुष्ठान से प्रसन्न भगवान ही फल प्रदान करते हैं, कर्म/ज्ञान/भक्ति/प्रपत्ति स्वयं नहीं। मीमांसकों के अनुसार कर्म से उत्पन्न ‘अपूर्व’ ही फल प्रदान करता है। किन्तु भाष्यकार इसका खण्डन करते हैं।
4. विघ्नरहितत्वं : शरणागति विघ्नरहित है। सभी प्रकार के भयों से रहित है। अन्य उपायों में निश्चित नियम से अनुष्ठान करने होते हैं। अनुष्ठान में कमी होने पर विपरीत फल देते हैं। शरणागति अपाय (discontinuity) से रहित है।
अन्य उपायों में अन्तिम स्मृति अनिवार्य है किन्तु शरणागति में अन्तिम स्मृति की अनिवार्यता नहीं है।
5. प्राप्तत्वम् : शरणागति जीवात्मा के पारतंत्र्य स्वरूप के अनुरूप है जबकि अन्य उपायानुष्ठान जीवात्म-स्वरूप के प्रतिकूल हैं एवं अहंकार-गर्भ से अनुष्ठानित हैं।
6. सहायन्तर निरपेक्षत्वम् : कर्म, ज्ञान, भक्ति, साध्य प्रपत्ति में सहायन्तर की अपेक्षा है। जीवात्मा के अनुष्ठान के बिना वो फल प्रदान नहीं करते। देवतान्तर की सहायता की भी अपेक्षा होती है। शरणागति में सहायन्तर की अपेक्षा नहीं होती।


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