हमारे पूर्वाचार्यों के अनुसार, एक क्रिया-विधि है, जिसके द्वारा श्रीवैष्णव बना जाता है। इस विधि को “संप्रदाय में दीक्षा” कहा जाता है। इसे ‘गुरूमुख’ होना भी कहते हैं। इसका अर्थ है गुरु, अग्नि एवं भगवान के समक्ष भगवान की शरणागति करना। पद्म पुराण में वैष्णव कि पहचान निम्न रूप में दी गयी है:
ये कण्ठ लग्न तुलसी नलिनाक्ष माला
ये बाहुमूल परिचिन्हत शंख चक्रा ।
ये वा ललाट पटले लसदुर्ध्वपुण्ड्रा
ते वैष्णवा भुवनमाशु पवित्र यन्ति ॥
कंठ में तुलसी या कमलाक्ष कि माला, बाहू पे शंख और चक्र एवं ललाट पे उर्ध्व- पुण्ड्र।
“तापः पुण्ड्रः तथा नामः मंत्रो यागश्च पंचमः”। (पद्म पुराण)
पञ्च संस्कार विधि को जीवात्मा के लिए सच्चा जन्म भी कहा जाता है, क्यूंकि इसी समय, जीवात्मा अपने सच्चे स्वरुप के विषय में ज्ञान प्राप्त करता है और भगवान के प्रति संपूर्ण समर्पण करता है। ‘सम्यक करोति इति संस्कारः। संस्कार एक शुद्ध या निर्मल करने की विधी है। यह एक विधी है जहाँ किसी का रुप परिवर्तन एक अशिक्षित दशा/अवस्था से शिक्षित दशा में होता है। इसमें जाति, समाज, देश, लिंग, आर्थिक स्थिति, कुटुम्ब आदि पर आधारित कोई भेद नहीं है जो भी इस मोक्ष के मार्ग पर आने की इच्छा करता है, वह पञ्च-संस्कार के योग्य है। हर जीवात्मा का अंतिम लक्ष्य लीला-बिभूति (संसार मंडल) को छोड़कर नित्य-बिभूति (वैकुण्ठ) जाना और श्रीमन नारायण की नित्य सेवा में संलग्न होना है। पञ्च-संस्कार इस यात्रा का शुरुआत मात्र है।
‘आहार, निद्रा, भय, मैथुन के लिए हमें शिक्षा लेने की जरुरत नहीं पड़ती लेकिन आध्यात्मिक जीवन के लिए हमें आचार्य की जरुरत है।
शास्त्रज्ञानं बहुक्लेशं बुद्धेश्चलनकारणम् ।
उपदेशाद्धरि बुद्धवा विरमेत् सर्वकर्मसु ॥
सीमित बुद्धि एवं मन कि चंचलता के कारण शास्त्रों का अध्ययन, उसका अभिप्राय समझाना एवं अनुसरण दुष्कर है। इसलिए हमें शास्त्रों के गूढ़ अर्थ को समझने के लिये सदाचार्य के पास जाने की जरुरत है।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः || (भ. गीता ४.३४)
“तापः पुण्ड्रः तथा नामः मंत्रो यागश्च पंचमः (पद्म पुराण)
१) तापः (तप्त-शंखचक्रम्) आचार्य होम-अग्नि (वैष्णवाग्नि) प्रज्वलित कर भगवान् का आवाहन करते हैं। पहले दाएँ बाहु पर चक्र फिर बाएँ बहु पर शंख का लाँछन होता है। यह हमारे शरीर को शुद्ध करके भगवान् के आगवन के लायक बनाता है। यह पूर्णतः शास्त्र-सम्मत है। वेदों में और महाभारत के विष्णु पर्व में इसका वर्णन मिलता है। पद्म, वराह, गरुड़ आदि पुराणों में भी। रामानुज एवं माध्व सम्प्रदाय में ताप संस्कार का प्रचलन है। अन्य सम्प्रदाय जैसे रामानन्दी, गौड़ीय, निम्बार्क आदि में भी पूर्व में ताप संस्कार होता था, उनके ग्रन्थों में वर्णित भी है, किन्तु अब ये परम्परा उनके सम्प्रदाय में लुप्तप्राय है।
प्राचीन काल में बिना शङ्ख-चक्र लाँछन के सेवा-पूजन में अधिकार नहीं होता था। स्त्रियों को बिना शङ्ख-चक्र लाँछन के भगवान के लिए प्रसाद पकाने का अधिकार नहीं होता। शास्त्रों में प्रमाण है कि अचक्रांकित व्यक्तियों के साथ समय नहीं व्यतीत करना चाहिए, न उनके हाथ का पकाया खाना चाहिए।
भगवान के दाहिने हस्त में चक्र एवं बाएं हस्त में शङ्ख विराजमान होते हैं
निम्नलिखित श्लोकों का हमें स्मरण करना चाहिए एवं चक्र और शंख से यह प्रार्थना करना चाहिए की वो हमारे रास्ते के सारे रुकावटों को ध्वस्त कर दें।
२) पुण्ड्रः ताप से शुद्ध शरीर पर हम भगवान् के चरणों को धारण करते हैं। श्री वैष्णव हमेशा उर्ध्व पुण्ड्र ही धारण करते हैं, त्रिपुण्ड्र नहीं। उर्ध्व पुण्ड्र की सफेद रेखाएँ भगवान् के चरण चिह्न एवं लाल रेखा माता श्री देवी के चरण चिह्न का प्रतिनिधित्व करते हैं। थेन्कली वैष्णव उर्ध्व पुण्ड्र के नीचे आसन भी देते हैं हालाँकि वडकल वैष्णव ऐसा नहीं करते। दूसरी व्याख्या यह भी है कि दो उजली रेखायें क्रमशः जीवात्मा और परमात्मा को दर्शाती हैं और मध्यम लाल रेखा जीवात्मा एवं ब्रह्म के बीच स्थित आचार्य को। उर्ध्व पुण्ड्र हमें यह भी सन्देश देता है की जीवात्मा को परमात्मा की शरणागति से पहले महालक्ष्मी माता की शरणागति करनी चाहिए।
उभय बीच शोभति कैसे, जीव ब्रह्म बीच माया जैसे । (मानस)। यहाँ माया शब्द से अर्थ भगवान की कृपा शक्ति से है। सीता जी प्रथम आचार्य हैं एवं भगवान की कृपा के मूर्त स्वरूप हैं।
श्री वैष्णव शरीर के बारह स्थानों पर उर्ध्व पुण्ड्र धारण करते हैं। १२ उर्ध्व पुण्ड्र भगवान् के १२ व्यूह विस्तार का प्रतिनिधित्व करते हैं।
१) मस्तक ॐ केशवाय नमः २) पेट के मध्य में ॐ नारायणाय नमः ३) छाती में ॐ माधवाय नमः ४) गले में ॐ गोविन्दाय नमः ५) पेट की दाहिनी ओर ॐ विष्णवे नमः ६) दाहिना बाहु ॐ मधुसूदनाय नमः ७) गले की दाहिनी ओर ॐ त्रिविक्रमाय नमः ८) पेट के बाएं- ॐ वामनाय नमः ९) बायाँ बाहु ॐ श्रीधराय नमः १०) गला के बाएँ- ॐ हृषीकेषाय नमः ११) पेट के पीछे ॐ पद्मनाभाय नमः १२) गले के पीछे ॐ दामोदराय नमः
श्री वैष्णव उर्ध्व पुण्ड्र में मुख की शोभा ही दिव्य होती है
३) नामः (दास्य नाम) आचार्य स्वामी द्वारा दिए गए नाम को धारण करना। दास्य नाम हमें जीवात्मा के सच्चे स्वरुप का ज्ञान देता है एवं हमें निरंतर याद दिलाता है की हम भगवान के दास हैं। यह हमें अहंकार रहित हो विनम्र होने की शिक्षा देता है। आलवार कहते हैं की जो माँ अपने संतान को भगवान का नाम देती हैं वो कभी नरक नहीं जातीं। हमें दास्य-नाम से छेड़छाड़ कर कोई शौर्टकट नाम नहीं रखना चाहिए।
प्रायः भगवान के नाम के बाद रामानुज दास जोड़ते हैं, जैसे: माधव श्रीनिवास रामानुज दास।
4) मन्त्र (मंत्र-त्रय, रहस्य-त्रय) आचार्य रहस्य मंत्र का उपदेश करते हैं। श्री वैष्णव सम्प्रदाय में तीन मन्त्र दिए जाते हैं: मूल मन्त्र, द्वय मन्त्र एवं चरम श्लोक। चरम श्लोक भी तीन हैं: कृष्ण चरम श्लोक, राम चरम श्लोक एवं वराह चरम श्लोक।
५) यागः (देव-पूजा) भगवत-अराधना सीखना। अपने सम्प्रदाय की सेवा प्रणाली के अनुसार भगवान के अर्चा स्वरूप की या उनके चित्रपट की नित्य सेवा करना।
स्वरूप से प्रत्येक जीवात्मा भगवान का दास है। एक दास का कर्तव्य है कि सदैव मालिक के मुखोल्लास हेतु कैंकर्य करे। कैंकर्य अर्थात सेवा।
भगवान तो सर्वत्र हैं, तो फिर मूर्ति की, या चित्रपट की सेवा क्यों करना? ऐसा इस कारण क्योंकि शास्त्र की प्राण-प्रतिष्ठा की विधि से किसी भी शिला, काष्ठ आदि में भगवान का आवाहन किया जाता है। किन्तु भगवान तो सर्वत्र हैं, उनका आवाहन करने की क्या आवश्यकता? भगवान सर्वत्र हैं किन्तु मूर्ति के अन्दर भगवान का संकल्प-विशेष है। वहाँ भगवान इस संकल्प के साथ विराजमान हैं कि मैं भक्तों की सेवा को स्वीकार करूँगा। वो जो भी मांगेंगे, मैं प्रदान करूँगा।
दूसरी बात यह भी है कि भगवान स्वरूप से तो सर्वत्र व्याप्त हैं किन्तु रूप से सर्वत्र व्याप्त नहीं हैं। रूप से व्याप्त होने का अर्थ है शरीर के साथ अवस्थित होना। प्राण-प्रतिष्ठा के पश्चात भगवान उस शिला, काष्ठ आदि को अपना असाधारण शरीर मान लेते हैं। वैसे ही जैसे भगवान राम और कृष्ण के रूप में एक शरीर धरकर रूप के साथ प्रकट हुए थे। अब उसे पत्थर या लकड़ी समझना माता के योनि परीक्षण के समान ही पाप है। किन्तु, इस रूप में भगवान भक्तों के परतन्त्र होते हैं।
भगवान तो अवाप्त-समस्त-काम हैं। वो भक्तों से सेवा क्यों माँगते हैं? सेवा पाकर प्रसन्न क्यों होते हैं?
भगवान आत्माराम अवश्य हैं, किन्तु जीवों के स्वरूप-रक्षा हेतु ही भगवान उनके कैंकर्य को स्वीकार करते हैं। यद्यपि वैकुण्ठ के अधिपति भगवान को हमारे द्वारा अर्पित धूप, पुष्प, प्रसाद आदि की आवश्यकता नहीं है, किन्तु यदि वो ऐसा न करें तो जीवों का दासत्व स्वरूप ही नष्ट हो जाएगा। जब एक बीमार बच्चा कई दिनों के बाद माता से खाना माँगता है तो माता कितना प्रसन्न होती है। वैसे ही माया से भ्रमित जीव जब आचार्य कृपा से सुधरकर, भगवान से कैंकर्य माँगता है तो भगवान अति-प्रसन्न होते हैं।