श्री रंगनाथ भगवान

श्रीमते रामानुजाय नमः।

श्रीमद् वरवरमुनये नमः।

श्री वैष्णव सम्प्रदाय के प्रथम आचार्य रंगनाथ भगवान हैं। श्री रंगनाथ भगवान इस जगत के प्रथम अर्चा मूर्ति हैं। यूँ तो नारायण ऋषि ने नर ऋषि को बद्रिकाश्रम में मूल मन्त्र प्रदान किया, क्षीरसागर में विष्णु भगवान ने लक्ष्मी माता को द्वय मन्त्र प्रदान किया एवं अर्जुन को भगवान कृष्ण ने चरम श्लोक प्रदान किया; किन्तु ये परम्परा आगे बढ़ी नहीं। जब रंगनाथ भगवान ने रंगनायकी माता को मूल मन्त्र, द्वय मन्त्र एवं चरम श्लोक प्रदान किया तब ये परम्परा सम्प्रदाय के रूप में आगे बढ़ी। रंगनायकी माता ने अपने सेनापति विश्वकसेन जी को और विश्वकसेन जी ने आल्वारों को समाश्रित किया और इस प्रकार ये परम उदार सम्प्रदाय भूलोक में आया। अब हम अपने सम्प्रदाय के प्रथम आचार्य श्री रंगनाथ भगवान के बारे में जानते हैं।

भगवान श्रीमन्नारायण श्री देवी की प्रसन्नता हेतु एवं करण-कलेवर से रहित जीवों की स्थिति देख दया से द्रवित होकर, क्रीडावश ही सृष्टि प्रारम्भ करते हैं एवं अनेक अण्डों का निर्माण करते हैं| मूल प्रकृति के अन्तर्यामी भगवान प्रत्येक अण्ड में व्यूह वासुदेव बनकर व्यूह लोक में आते हैं एवं क्षीरसागर में शयन करते हैं| भू लोक के 7 द्वीपों में एक द्वीप है श्वेतद्वीप, जहाँ देवतागण आकर भगवान के दर्शन करते हैं| यहाँ से भगवान के नाभि से कमल का फूल उत्पन्न हुआ एवं उसका नाल सत्यलोक तक गया, तथा वहाँ जाकर पुष्प विकसित हुआ| उस कमल के पुष्प पर ब्रह्मा जी का आविर्भाव हुआ| ब्रह्मा अपने जन्म का रहस्य जानने हेतु कमल के नाल में जाकर मूल तक पहुँचने का प्रयत्न करते रहे किन्तु पार न पा सके| फिर ब्रह्मा ने तप किया एवं भगवान ने प्रसन्न होकर ने उन्हें हंसावातार लेकर वेदों का ज्ञान प्रदान किया| भगवान मानसिक आराधना से ही भगवान का सेवा-पूजा करते रहे, तभी उन्हें क्षीरसागर में रंग-विमान के दर्शन हुए|

ब्रह्मा ने दृष्टि प्रसारित किया तो उन्हें शयन मुद्रा में रंगनाथ भगवान के दर्शन हुए|

सृष्टि के प्रथम अर्चा अवतार रंगनाथ भगवान ही हैं| ब्रह्मा ने उन्हें पाने के लिए तप किया एवं प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें वह अर्चा मूर्ति प्रदान किया| क्षीराब्धि से गरुड़ जी रंगनाथ भगवान को रंग विमान सहित उठाकर सत्य लोक ले आये|

ब्रह्मा जी विधिवत श्री आराधन करने लगे एवं सत्यलोक में ही एक विशाल उत्सव का आयोजन किया, जिसे ब्रह्मोत्सव कहा गया| ब्रह्मोत्सव में ब्रह्मा जी ने सभी देवताओं को आमन्त्रित किया|

आदित्य देव  भी उत्सव में पधारे एवं सूर्यवंशी महाराज मनु को रंगनाथ भगवान के बारे में बताया, तदन्तर मनु जी ने इक्षवाकु को| इक्षवाकु महाराज को रंगनाथ अर्चा मूर्ति से अत्यधिक प्रेम हुआ एवं उन्हें पाने हेतु घोर तप किया| गर्मियों में अग्नि के मध्य एवं सर्दियों में शीतल जल में तप करते महाराज से डरकर इन्द्र ने अस्त्र से प्रहार किया, किन्तु सुदर्शन महाराज ने आकर अस्त्र को निष्फल कर दिए| सभी अप्सराएँ नृत्य करते-करते थक गयीं किन्तु महाराज की तपस्या में कोई भी विघ्न नहीं आया| तब भगवान ने प्रकट होकर उन्हें उनका वाँछित वर दिया| ब्रह्मा जी को भगवान ने आश्वस्त किया कि इस कल्प के अन्त में वो अवश्य वापस ब्रह्म-लोक आ जायेंगे|

सूर्यवंश में अनेक राजाओं से होते हुए रंगनाथ भगवान का सेवा-पूजा भगवान श्री राम तक आया| भगवान सीता के संग अपने ही अर्चा रूप की अराधना करते हैं|

गते पुरोहिते रामः स्नातो नियतमानसः | सह पत्न्या विशालाक्ष्या नारायणमुपागमत् || २-६-१

शेषं च हविषस्तस्य प्राश्याशास्यात्मनः प्रियम् | ध्यायन्नारायणं देवं स्वास्तीर्णे कुशसंस्तरे || २-६-३

वाग्यतः सह वैदेह्या भूत्वा नियतमानसः | श्रीमत्यायतने विष्णोः शिश्ये नरवरात्मजः || २-६-४

सूर्यवंश में महाराज दशरथ ने पुत्र प्राप्ति हेतु अश्वमेध यज्ञ एवं पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाया। उस यज्ञ में पूरे भारतवर्ष के राजा-महाराजा अतिथी बनकर आये थे। द्रविड़ देश के चोलवंशी राजा भी सूर्यवंशी ही थे । तब के चोल राजा ‘धर्मवर्मा‘ भी आये थे। यज्ञ की समाप्ति पर वो अयोध्या भ्रमण को निकले। अयोध्या की शोभा तो तीनों लोकों में अद्वितीय थी ही। वो सरयू नदी एवं तमसा नदी के मध्य के टापू में स्थित रंग विमान के दर्शन को गए एवं रंगनाथ भगवान की अर्चा मूर्ति को देखकर मन्त्रमुग्ध हो गए।

धर्मवर्मा को भगवान की अर्चा मूर्ति से अत्यधिक प्रेम उत्पन्न हो गया एवं उन्हें पाने के लिए उन्होंने चन्द्र-पुष्करिणी के पास तपस प्रारम्भ किया। चन्द्र-पुष्करिणी पुराणों में अत्यन्त प्रसिद्ध है। दक्ष प्रजापति की 27 पुत्रियों से चन्द्र देव का विवाह हुआ था किन्तु चन्द्र देव सिर्फ रोहिणी से ही गाढ़ प्रेम था, अन्य पत्नियों से नहीं। दक्ष प्रजापति ने चन्द्र देव को सावधान किया किन्तु उनके व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया। कुपित होकर दक्ष ने श्राप दिया कि तुझे क्षय रोग हो जाये। चन्द्र देव यहीं चन्द्र-पुष्करिणी के पास, वासुदेव भगवान के सान्निध्य में तप किये। भगवान के आशीष से पूर्णिमा को चन्द्र देव क्षय रोग से मुक्त हो जाते हैं। रुद्र देव को भी ब्रह्म-हत्या का जब पाप लगा और ब्रह्म-कपाल उनके हाथों में जुड़ गया; तब यहीं उन्होंने अनुष्ठान किया एवं उत्तमर कोईल नाम के स्थान पर भगवान ने उन्हें भिक्षा प्रदान कर पाप से मुक्त किया।

धर्मवर्मा को तपस करता देख ऋषि-मुनि आदि उनके पास आये एवं उनके तप का प्रयोजन जानना चाहा। धर्मवर्मा ने बताया कि वो भगवान रंगनाथ को द्रविड़ देश लाना चाहते हैं। ऋषि बोले, “राजन्, तुम्हारी ये तपस्या व्यर्थ है। क्योंकि भगवान का यहाँ आना निश्चित है। ऐसा भगवान ने स्वयं उन्हें कहा है। जब हम श्वेतगिरि के पास वन में तपस्या करते थे, तब राक्षसों का समूह हमें त्रास देता था। आतर भाव में हमने भगवान विष्णु को पुकारा। भगवान विष्णु प्रकट हुए एवं दैत्यों का संघार किया। हमने भगवान से प्रार्थना की कि आप यही रह जाईये तो भगवान ने कहा कि अयोध्या में वो राम के रूप में अवतार लेंगे एवं द्रविड़ भूमि में रंगनाथ के रूप में विराजमान होंगे। वहाँ कावेरी के मध्य में, श्रीरंगम में शेष-पीठ पूर्व से ही विराजमान है।” ऋषियों की बात मानकर राजा श्रीरंगम में शेष-पीठ की सेवा करने लगे एवं उसके चारों तरफ विभिन्न सुगन्धित पुष्पों का वन विकसित किये।

इधर अयोध्या में राजा रामचन्द्र विराजमान हुए एवं समस्त वानर जनों को एक-एककर विदा करने लगे। किन्तु विभीषण को उन्होंने रोक लिया और कहा कि आपको कुछ विशेष भेंट प्रदान करना है, आप कल विदा लीजिये। विभीषण जाने को तो उत्सुक नहीं थे, किन्तु भगवान ने उन्हें रंग-विमान को सौंप कहा कि आप इन्हें लंका में विराजमान करवाकर इनकी सेवा कीजिये। विभीषण जी भगवान को दोनों हस्तों से उठाकर वायु मार्ग से चल पड़े।

विभीषणोऽपि धर्मात्मा सह तैर्नैर्ऋतर्षभैः ।

लब्ध्वा कुलधनं राजा लङ्कां प्रायाद्विभीषणः ॥ (वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड)

चलते-चलते संध्याकाल आ गयी एवं विभीषण जी संध्या वन्दन करने हेतु कावेरी के मध्य उतर गए। वहाँ अत्यन्त मनोहर पुष्पों से रमणीय स्थल देख उन्होंने सोचा कि भगवान को रखने के लिए यही सर्वोचित स्थान है। भगवान को वहाँ विराजमान करवाकर वो कावेरी स्नान को चले गए। भगवान श्रीरंगम आ चुके हैं, यह समाचार जानते हीं समस्त ऋषि मुनि एवं महाराज धर्मदेव सहसा आ गए एवं भगवान की विभिन्न उपचारों से सेवा-अर्चना की। विभीषण लौट कर आये तो यह दृश्य देख अत्यन्त प्रसन्न हुए। अब वो लंका जाने को उद्यत हुए तो समस्त ऋषि-मुनि एवं धर्मवर्मा उन्हें रोकने लगे। सबने विनती की कि कुछ दिन और यहीं रुक जाईये। किन्तु विभीषण ने कहा कि उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र आने वाला है एवं कल से ही ब्रह्मोत्सव प्रारम्भ करना है। इस कारण मेरा शीघ्र वहाँ जाना अत्यन्त आवश्यक है। ऋषियों ने विनती की कि ये ब्रह्मोत्सव यहीं होने दीजिए। विभीषण भी प्रसन्न एवं चिन्तामुक्त हो गए। वो जानते थे कि ऋषियों के नेतृत्व में ब्रह्मोत्सव निर्विघ्न समाप्त हो जाएगा। धर्मदेव एवं विभीषण ने मिलकर 8 मण्डपों का निर्माण करवाया। वो मण्डप आज भी दृश्यमान हैं।

ब्रह्मोत्सव के पश्चात विभीषण प्रस्थान करना चाहते थे किंतु भगवान ने कहा कि वो यहीं श्रीरंगम में ही रहना चाहते हैं। विभीषण निराश हुए और उन्हें श्री राम के वचनों का स्मरण दिलाया। रंगनाथ भगवान ने उन्हें श्रीरंगम का माहात्म्य बताया एवं समझाया कि उनका ये अर्चावतार श्रीरंगम में विराजमान होने के लिए ही हुआ है। अतः वो निराश न हों। वो निरन्तर लंका की ओर मुख कर उन्हें कटाक्ष प्रदान करते रहेंगे। श्रीरंगम साक्षात भू-वैकुण्ठ है, वैकुण्ठ के समान ही इसकी रचना है। जैसे वैकुण्ठ के चारों ओर विरजा नदी है, वैसे ही श्रीरंगम के चारों ओर कावेरी नदी है। वैकुण्ठ की तरह ही यहाँ 7 प्राकार एवं गोपुरम हैं।

कावेरी विरजा तोयं वैकुण्ठं रंगमन्दिरम्।

परवासुदेवो रंगेश: प्रत्यक्षं परमं पदम्।।

श्री रंगनाथ भगवान की उत्सव मूर्ति “नम्पेरुमाल”
श्री रंगनायकी माताजी
श्रीरंगम गोदा माताजी
श्रीरंगम रामानुज स्वामीजी
Unknown's avatar

Author: ramanujramprapnna

studying Ramanuj school of Vishishtadvait vedant

Leave a comment