(संक्षिप्त श्री वैष्णव गृह आराधना, जो 20-30 में पूर्ण हो सकता है, द्राविड प्रबन्धों एवं संस्कृत स्तोत्रों के साथ के साथ दास ने प्रस्तुत किया है| सम्प्रदाय की आराधना-पद्धति के अनुसार, सांप्रदायिक विद्वानों से चर्चा करते हुए दास ने यह लिखा है| दोषों के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ|भगवान के प्रपन्न होने के कारण यदि में किसी हेतु के निमित्त (आयुष्य बढ़ जाये, काम निर्बाध पूर्ण हो जाये आदि) संकल्प आदि करना सम्प्रदाय विरुद्ध है| हम केवल भगवान की आज्ञा से एवं भगवान के कैंकर्यरूप पूजा ही करते हैं| मोक्ष की कामना से भी भगवान की आराधना करना प्रपत्ति-निष्ठा के विरुद्ध है| एकमात्र भगवान का निस्वार्थ कैंकर्य ही उद्देश्य होना चाहिए|)
इस प्रमाण के अनुसार, प्रातःकाल “हरि! हरि! हरि!” का उच्चारण कर उठने के बाद, हाथ-पैर धोकर, आचमन करके रहस्य-मन्त्रार्थों का अनुसन्धान करना चाहिए| प्रातःकाल अर्चिरादी मार्ग एवं भगवान के पाँच रूपों का भी ध्यान करना चाहिए|
तत्पश्चात स्नानादि, संध्या-वन्दनादि के पश्चात तुलसी पत्र अमनिया करके (तोड़कर) पूजा पात्र में रखना चाहिए| असावधानी से, जल्दबाजी में या अशुद्धावस्था में तुलसी का स्पर्श करना पाप माना गया है|
आराधन के लिए दीप प्रज्वलित करें और कम-से-कम आराधन समाप्त होने तक भगवान के बायीं ओर दीप जलती रहनी चाहिए|
फिर गृह मन्दिर के पास जाकर भगवान का सुप्रभात करते हैं| भगवान के सुप्रभात से पूर्व आलवारों एवं रामानुज स्वामी का सुप्रभात गा सकते हैं| मन्त्र गुरुपरंपरा एवं श्लोक गुरुपरम्परा का अनुसन्धान कर सकते हैं|
(स्त्रियों और पुरुषों, दोनों को गृह-आराधना का ज्ञान होना चाहिए| स्त्रियाँ मन्दिर की सफाई, माला बनाना, प्रसाद पकाना, भजन निवेदित करना आदि सेवा कर सकती हैं| स्त्री शरीर से शालग्राम एवं प्राण-प्रतिष्ठित विग्रहों के स्पर्श का निषेध है| लड्डू-गोपाल आदि उन विग्रहों की, जिनकी प्राण-प्रतिष्ठा नहीं हुयी है, उनकी सेवा वो कर सकती हैं| यदि घर के पुरुष न हों तो स्त्रियाँ शालग्राम जी के स्पर्श बिना उनका सामान्य आराधन कर सकती हैं| यदि घर की स्त्रियाँ न हों तब पुरुषों को भी भगवान के लिए पकवान तैयार करना, माला बनाना आदि कैंकर्य आने चाहिए| यदि घर से बाहर जा रहे हों, तब जैसे बच्चे को या तो अपने साथ ले जाते हैं या किसी अभिभावक के पास छोड़ जाते हैं; वैसे ही भगवान को या तो अपने साथ ले जाएँ या किसी उत्तम वैष्णव के पास आराधन की व्यवस्था कर दें|)
स्नान के पश्चात उर्ध्व पुण्ड्र धारण करते वक्त हम प्रायः मन्त्रार्थों का ध्यान करते हैं।
वाक्य-गुरूपरम्परा, मन्त्र-गुरूपरम्परा एवं अपने आचार्य से लेकर रंगनाथ भगवान तक के आचार्यों के तनियाँ का पाठ करें।
तीनों रहस्य मन्त्रों का ध्यान करें।
आचार्य के श्री चरणों को शिर पर धारण करें एवं आचार्य श्रीपादतीर्थ 2 बार धारण करें।
घर के स्त्रियां और अन्य सदस्य भी तिरुआराधना मे भाग ले सकते हैं – पुष्पमाला बनाना, तिरुआराधना के स्थान को साफ करना ,तिरुआराधना सामग्री को तैयार करना, नैवेद्य भोग बनाना, दिव्यप्रबन्ध-स्तोत्र पाठ करना आदि सेवा करके । वो कदापि भी शालग्राम जी का स्पर्श न करें।
भगवान के लिए पंच-पात्र की व्यवस्था रखें एवं स्वच्छ प्लोत वस्त्र साथ रखें, जिनके एक कोने से भगवान के चरण पोंछना और दुसरे कोने से श्री भगवान के हस्त और मुख(होंट) पोंछना चाहिए ।
श्री आराधना के बीच में आवश्यक हो जाने पर अपने हाथ धोने के लिये एक अलग छोटा कलश रखें ।
उत्थापन से स्नान के समय आचार्य से श्रीभगवान इस क्रम में सेवा करें (आरोहण) और भोग, अर्चना, पुष्प चन्दन समर्पण करते समय श्रीभगवान से आचार्य इस क्रम में सेवा करें (अवरोहण) ।
‘‘स्वाचार्य हस्तेन आराधनाभिमुखो भवेयम्’’ इस उक्ति के अनुसार हमारे हाथों द्वारा आचार्य ही भगवान की आराधना कर रहे है हम केवल निमित्त मात्र है , इस भाव को रखते हुये आराधना प्रारम्भ करें ।
अब तीन बार ताली बजाकर बोलें (इसे तालत्रयम् कहते- पहले दाहिने हाथ से बायें हाथ पर ताली, फिर बायें से दाहिने हाथ फिर दाहिने हाथ से बायें हाथ) एवं मन्दिर का खोलें:
यं वायवे नमः। वीर्याय अस्त्राय फट्।
भगवान को पंखा झलें (https://ramanujcreations.com/) एवं रात्री के पुष्प आदि निकाल लें| पूजा के पात्रों को धोकर ‘पात्र-परिकल्पनम्’ प्रारम्भ करें| पूर्णकुम्भ (श्रीकावेरी) में जल डालें एवं उसमें तुलसी, एला (इलाइची), भीमसेनी कर्पूर (खाने योग्य कर्पूर), केसर, पुष्प आदि डालकर मिश्रित कर लें| (आजकल बाजार में तीर्थ पोड़ी मिल जाता है, या घर में ही महीन पीस कर रख लें|)
अब पंचपात्र आदि पूजा पात्रों को समुचित क्रम में रख लें:
अर्घ्य पात्र (भगवान के श्री हस्त धुलाने के लिए)
पाद्य पात्र (भगवान के श्री पैर धुलाने के लिए)
आचमनीय पात्र (भगवान को आचमन करवाने के लिए)
स्नानीय पात्र (भगवान का अभिषेक/तिरुमज्जन करवाने हेतु एवं तत्पश्चात भगवान को भोग आदि के समय)
शुद्धोदक पात्र (विभिन्न उपचारों के बीच उद्धरिणी (कलछी) को शुद्ध करने के लिए)
प्रतिग्रह पात्र (उपचार समर्पित करने के पश्चात जल डालने का पात्र)
अभिषेक पात्र (जिस पात्र में शालग्राम को पधराकर मज्जन कराते हैं)
तुलसी, पुष्प आदि
आचार्य आराधन के लिए अर्घ्य पात्र
इसके पश्चात शोषण, दाहन, प्लावन, सुरभिमुद्रा एवं अस्त्र मन्त्र से पात्रों की शुद्धि करें|
अपने बायें हाथ से दाहिने हाथ पर लिखें: ‘यं’ एवं “यं वायवे नमः शोषयामि” उच्चारित कर पूजन सामग्रियों की ओर दाहिने हाथ को दिखाएँ|
अपने बायें हाथ से दाहिने हाथ पर लिखें: ‘रं’ एवं “रं अग्नये नमः दाहयामि” उच्चारित कर पूजन सामग्रियों की ओर दाहिने हाथ को दिखाएँ|
अपने दाहिने हाथ से बाँयें हाथ पर लिखें: ‘वं’ एवं “वं अमृताय नमः प्लावयामि” उच्चारित कर पूजन सामग्रियों की ओर बाएं हाथ को दिखाएँ|
अब हाथों की अँगुलियों को सुरभि मुद्रा में जोड़कर प्रत्येक पात्रों की दिखाएँ एवं उच्चारित करें: “ओं सुं सुरभिमुद्रायै नमः”। (बाएं हाथ की छोटी अंगुली को दाहिने हाथ के अनामिका अंगुली से जोड़े, दाहिने छोटी अंगुली को बाएं अनामिका अंगुली से; दाहिने तर्जनी को बाएं मध्यमा से एवं बाएं तर्जनी को दाहिने मध्यमा से; एवं दोनों अंगूठों को|)
अब तीन बार अपने दाहिने हस्त के अंगूठे एवं अनामिका अंगुली से चुटकी बजाते हुए, घड़ी की दिशा में घुमाते हुए बोलें “वीर्याय अस्त्राय फट्”।
अब पूर्णकुम्भ को दाहिने हाथ से ढककर 7 बार उच्चारण करें “श्रीमते नारायणाय नमः”
अब पूर्णकुम्भ से प्रत्येक पात्र में “ज्ञानाय हृदयाय नमः” उच्चारण करते हुए जल भर लें|
प्रत्येक पात्र के ऊपर दाहिने हस्त को रखकर निम्न मन्त्रों को पढ़ें:
ओं नमो नारायणाय अर्घ्य परिकल्पयामि।
ओं नमो नारायणाय पाद्यं परिकल्पयामि।
ओं नमो नारायणाय आचमनीयं परिकल्पयामि।
ओं नमो नारायणाय स्नानीयं परिकल्पयामि।
ओं नमो नारायणाय सर्वार्थतोयं परिकल्पयामि।
अब उद्धारिणी में जल लेकर, तुलसी पत्र डालकर, दाहिने हस्त से ढककर एवं अपनी वक्षस्थल की उंचाई तक लाकर बोलें:
एवं सभी पात्रों के ऊपर जल छिड़क दें और अपने मस्तक पर भी प्रोक्षण करें ।
सर्वप्रथम अपने आचार्य, रामानुज स्वामीजी, आल्वार एवं विष्वक्सेन नित्य सूरी आदियों का संक्षिप्त आराधन करते हैं| उसके पश्चात, आचार्य की आज्ञा लेकर भगवान का आराधन प्रारम्भ करते हैं| भोज्यासन आदि भगवान के भोग लगने के बाद ही करते हैं|
अब अपने आचार्य के चित्रपट या आचार्य पादुका (तिरुवडि) की सेवा करें ।
आचार्य सेवा विधि
आचार्य सेवा के लिये दो अलग पात्र रखे – आचार्याराधना पात्र जिस में अर्घ्य आदि के लिये जल हो और एक प्रतिग्रह पात्र ।
अस्मद् आचार्य का तनियन् बोले । पश्चात् यह चार वाक्य बोले – अस्मद्गुरुभ्यो नमः ,अस्मद् परमगुरुभ्यो नमः , अस्मद् सर्वगुरुभ्यो नमः, श्रीमते रामानुजाय नमः ।
अर्घ्य, पाद्य, आचमन , स्नान कराते समय आचार्याराधना पात्र से जल लेकर श्री आचार्य हस्त,चरण, मुख और दिव्यमंगल विग्रह को दिखाकर प्रतिग्रह पात्र मे डालें ।
यह बोलते हुए सब सेवा करे (प्रत्यक्ष न कर पाये तो मन से ध्यान करे) अस्मद्गुरुभ्यो नमः अर्घ्यम् ,पाद्यम्, आचमनीयम्, स्नानम्, वस्त्रायुग्मम्, यज्ञोपवीतम् , व्दादश उर्ध्वपुण्ड्रम् , तुलसी काष्ठ माला, कमलमणी माला समर्पयामि ।
ध्यान
अब मानसिक रूप से यह ध्यान करें की आप आचार्य-हस्त से अर्थात आचार्य-परतन्त्र होकर आराधन कर रहें हैं| आपके हस्त आचार्य के आराधन में उपकरण मात्र हैं:
अर्घ्य समर्पित करें: “श्रीमते नारायणाय नमः अर्घ्यं प्रतिगृह्णीष्व”| फिर उद्धरिणी को प्रतिग्रह पात्र में डुबाकर शुद्ध करें|
२ बार पाद्य समर्पित करें: “श्रीमते नारायणाय नमः पाद्यं प्रतिगृह्णीष्व”| प्रत्येक बार उद्धरिणी को शुद्धोदक में डुबाकर शुद्ध करें|
3 बार आचमन समर्पित करें: “श्रीमते नारायणाय नमः आचमनीयं प्रतिगृह्णीष्व”| प्रत्येक बार उद्धरिणी को शुद्धोदक पात्र में डुबाकर शुद्ध करें|
अब ‘प्लोत वस्त्र’ लेकर एक कोने से भगवान के ओष्ठ एवं हस्त एवं दूसरी ओर से श्रीपादों को पोंछने का भाव करें: “श्रीमते नारायणाय नमः प्लोतवस्त्रं’ प्रतिगृह्णीष्व”|
अब प्रणाम निवेदित करें: “सर्व-दिव्य-मंगल-विग्रहाय समस्त परिवाराय श्रीमते नारायणाय नमः|”
(‘प्रतिगृह्णीष्व’ के स्थान पर ‘समर्पयामि’ कहना भी प्रचलित हैं| किन्तु ‘समर्पयामि’ कहने से स्व-कर्तृत्व रूप अहंकार का बोध होता| “मैं समर्पित कर रहा हूँ” कहने के स्थान पर “आप अपनी कृपा से स्वीकार कीजिये”, ऐसा कहना हमारे पारतंत्र्य स्वरुप के अधिक अनुकूल है| श्री वरवरमुनि स्वामी ने ‘जीयरपड़ी तिरु-आराधन क्रमम्’ में ऐसा ही आदेश किया है|)
स्नानासन
तुलसी पत्र लेकर स्नानासन निवेदित करें एवं श्रीमज्जन के पात्र में भगवान को पधारायें|
उपर का वाक्य बोलते हुए श्रीभगवान को सर्वार्थतोयम् पात्र से अर्घ्य और आचमन कराके मुख शोधन कराये पश्चात् तैल लेपन कर के बेसन आदि चूर्ण से मालिश करे (भावना करे ) ।
पुनः अर्घ्य-पाद्य-आचमन निवेदित करके अभिषेक प्रारम्भ करें| जल, शुद्ध देशी गौ का दुग्ध, शुद्ध देशी गौ का दही, शुद्ध देशी गौ का घी, शहद, गुड़ का पानी आदि से एक-एक करके अभिषेक कर सकते हैं|
मज्जन समाप्त होने के पश्चात भगवान को वापस अपने स्थान पर लायें| सभी पात्रों के जल को सर्वार्थ-तोय पात्र में डाल दें एवं पूर्णकुम्भ से नया जल सभी पात्रों में भर लें| अब भगवान का अलंकार करें|
तुलसी पत्र लेकर स्नानासन निवेदित करें एवं श्रीमज्जन के पात्र में भगवान को पधारायें|
अब दो बार तुलसी पत्र लेकर भगवान के दांत धुलाने एवं जिह्वा धुलाने का भाव करें:
मज्जन समाप्त होने के पश्चात भगवान को वापस अपने स्थान पर लायें| सभी पात्रों के जल को सर्वार्थ-तोय पात्र में डाल दें एवं पूर्णकुम्भ से नया जल सभी पात्रों में भर लें| अब भगवान का अलंकार करें|
अलङ्कारासन
भगवान के चरणों में तुलसी पत्र निवेदित करें: “सर्व-दिव्य-मंगल-विग्रहाय समस्त परिवाराय श्रीमते नारायणाय नमः| अलङ्कारासनं स्वीकुरुष्व”
भगवान को वस्त्र निवेदित करें: “श्रीमते नारायणाय नमः| वस्त्रं प्रतिगृह्णीष्व”
अलंकार पूर्ण होने पर स्तोत्र-रत्न का यह श्लोक निवेदित करें:
हे कृष्ण ! अपने दिव्य मंगल विग्रह के सौकुमार्य को तुम बिलकुल नहीं जानते हुए गाय चराने के लिए अरण्य जाते हो । वहां पर इधर-उधर चलने फिरने से परम शोभन तुम्हारा दिव्य विग्रह फीका पड़ जाएगा। घर पर रहने पर तो, तुम्हारे दुश्मन लोग कहते हैं कि यह कृष्ण हमारे यहां घडों में रखे हुए कच्चे दूधको पी डालता है; परंतु उनको चाहे जो कहने दो; मैं उसकी परवाह नहीं करती हूं, मेरे लिए तो तुम्हारी सभी चेष्टाएं परम भोग्य होती हैं। हे मधुसे भी बढ़कर भोग्य, प्रभो कृष्ण ! तुम्हारे सिरपर चंपक पुष्प को पहिनाती हूं। इसलिए तुम यहां पर आजा ।।…. ..(२.७.१)
इस दशक का तात्पर्य संग्राहक पद्य यह है —
स्नातं संपुष्टकेशं सुतमथ कृसुमालंक्रियाढ्यं
चिकीर्षुः माता चाम्पेयमल्लीदमनकसुरपुन्नागमागध्यभिख्यम् ।
हिन्दी अनुवाद: पूर्वदशक में मीठी वचनों से गाय चराने उत्सुक बालकृष्ण को वनप्रयाण से रोककर घर में ठहराने के बाद, नानाविध सुगंधि पुष्पों से उसका श्रृंगार कर देखने इच्छुक यशोदाजी ने चंपक, मल्ली, दमन, सुरपुन्नाग, मालती इत्यादि अनेक तभी खिले हुए सुगंधित पुष्पों को लाकर श्रीकृष्ण से प्रार्थना की कि, “हे कृष्णकिशोर ! इन पुष्पों का धारण करने के लिए यहां आ जा ।” इस अर्थके वर्णन को दस दिव्य गाथाओं से करनेवाले श्रीविष्णुचित्तसूरि का मैं भक्त हूं ।
अब भगवान के द्वादश नामों से एवं श्री देवी के द्वादश नामों से पुष्प अर्चना करें
भोज्यासनम्
भगवान के चरणों में तुलसी पत्र निवेदित करें: “सर्व-दिव्य-मंगल-विग्रहाय समस्त परिवाराय श्रीमते नारायणाय नमः| भोज्यासनं स्वीकुरुष्व”
अर्घ्य पाद्य आचमन निवेदित करें
भोग की थाली सामने रख मूल मन्त्र उच्चारण करते हुए उद्धरिणी से जल लेकर थाली के चारो ओर जल गिराएँ| द्वय मन्त्र पढ़ते हुए उद्धरिणी से जल लेकर भोग का प्रोक्षण करें अर्थात जल छिड़कें|
भोग के ऊपर तुलसी पत्र रखकर भगवान को ग्रास मुद्रा के द्वारा भोग खिलाने का भाव करें|
(दाहिने हाथ के अंगूठे को मध्यमा एवं अनामिका से जोड़ कर ग्रास मुद्रा बनता है|)
बीच बीच में पानीय पात्र से जल अर्पित करते रहें| (मज्जन के बाद स्नानीय पात्र ही पानीय पात्र बन जाता है|)
हस्त-मुख-पाद-प्रक्षालन-आचमनीयानि प्रतिगृह्णीष्व
अब ताम्बूल समर्पित करें
सेवा काल
सेवा काल में हम द्रविड़ प्रबन्धों जैसे तिरुपल्लाण्डु, तिरुप्पावै, तिरुपल्लियेचि, रामानुज नुट्रन्दादि आदि| द्रविड़ वेदों के अनध्ययन काल में उपदेश रत्नमाला आदि प्रबन्धों का पाठ करते हैं|
जिन श्री वैष्णवों को द्रविड़ प्रबन्धों का ज्ञान न हो, वो निम्न स्तोत्रों का पाठ अवश्य करें: वरदवल्लभा स्तोत्र, आलवन्दार स्तोत्र (स्तोत्र रत्न) एवं यतिराज विंशति|
भगवान के चरणों में तुलसी पत्र निवेदित करें: “सर्व-दिव्य-मंगल-विग्रहाय समस्त परिवाराय श्रीमते नारायणाय नमः| पुनर्मंत्रासनं प्रतिगृह्णीष्व”
अर्घ्य पाद्य आचमन निवेदित करें
कर्पूर से नीराजन करते हुए इन मन्त्रों का अनुसन्धान करें:
मंगलाचरण
अब भगवान के भोग को आलवारों एवं आचार्यों को निवेदित करें|
शाट्रुमुरै
आराधना के अन्त भाग को शाट्रुमुरै कहते हैं| इसमें हम आलवारों एवं आचार्यों के प्रबन्धों के कुछ अंश पढ़ते हैं एवं गुरु परम्परा का मंगल गाते हैं| प्रारम्भ में गोदाम्बा जी के तिरुपावै के अन्तिम दो सूक्त एवं विष्णुचित्त आल्वार के तिरुपल्लाण्डु के प्रारम्भिक दो सूक्तों को पढ़ते हैं| इनके साथ अन्य प्रबन्धों के शाट्रुमुरै सूक्त भी पढ़ सकते हैं| सेवा काल में जिन प्रबन्धों का अनुसन्धान किया गया, अब उनका शाट्रुमुरै सूक्त अंश गाना आवश्यक है|