अब तक हम मिश्र-सत्त्व श्रृष्टि के विषय में पढ़ चुके हैं| प्रकृति से 11 इन्द्रिय एवं 5 भूतों की उत्पत्ति, पंचीकरण एवं भगवान के जगद कारणत्व के विषय में पढ़ चुके हैं|
ब्रह्म का जगद्-कारणत्व भाग 1
प्रकृति-महदादिशरीरक परमात्मा उपादान कारण है|
महदहङ्कारादिशरीरक परमात्मा ही कार्य हैं|
यहाँ ध्यान देने योग्य है कि प्रकृति शरीरक भगवान कारण ही हैं, कार्य नहीं| मूल-प्रकृति शरीरक भगवान से श्रृष्टि प्रारम्भ होती है| प्रकृति के पश्चात अन्य सभी कारण भी हैं और कार्य भी| जब प्रकृति शारीरक भगवान उपादान कारण होते हैं, तब महत् शरीरक भगवान कार्य होते हैं| जब महत् शरीरक भगवान उपादान कारण होते हैं, तब अहंकार शरीरक भगवान कार्य होते हैं| जब अहंकार शारीरक भगवान उपादान कारण होते हैं, तब 11 इन्द्रियाँ एवं 5 तन्मात्र कार्य होते हैं| इस प्रकार कारण एवं कार्य, दोनों भगवान ही हैं|
अनुप्रवेश
संकल्प एवं शक्ति आदि के आश्रय एवं काल-शारीरक भगवान निमित्त कारण हैं| काल भगवान का लीला उपकरण है, इस विषय में आगे पढेंगे|
पृथग भूतों के कार्य उत्पत्ति के असामर्थ्य को देखते हुए भगवान उनका आपस में मिश्रण करते हैं, जिसे हम पंचीकरण प्रक्रिया में पढ़ चुके हैं|
"अनेन जीवेन आत्मना अनुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि देवादिविचित्रसृष्टिं तन्नामधेयानि च करवाणि" (छान्दोग्य)|
इसके पश्चात भगवान जीव के द्वार से समस्त अचित में अनुप्रवेश करते हैं एवं नाम और रूप का निर्माण करते हैं| अनुप्रवेश का अर्थ ऐसा नहीं समझना चाहिए कि भगवान पूर्व में अन्तर्यामी नहीं थे, अब जाकर हुए हैं| यदि भगवान अन्तर्यामी नहीं होंगे तो किसी भी द्रव्य का अस्तित्व ही नहीं होगा| अर्थात जीव शरीरक भगवान ही नाम-रूप आदि का निर्माण कर स्वयं उन नाम रूपों से जाने जाते हैं| एक मत ऐसा है कि जितने भी वस्तुएं नाम सहित प्राप्त होते हैं, उनमें जीवात्मा है| जब उन वस्तुओं में भगवान जीवात्मा का प्रवेश कराते हैं, तब जीव-अन्तर्यामी भगवान का भी प्रवेश होता है| यही अनुप्रवेश है, अर्थात पुनः-प्रवेश| उस जीवात्मा के द्वार से भगवान उन वस्तुओं को नाम एवं रूप प्रदान करते हैं| पत्थर आदि में जो जीव हैं, कर्मवश उनका ज्ञान नगण्य है एवं एवं उन्हें सुख-दुःख आदि का भान नहीं होता| उसी प्रकार जीव शरीर में भगवान जीवात्मा का प्रवेश कराकर उसे नाम-रूप प्रदान करते हैं| हमारे शरीर में एक जीवात्मा ही नहीं अपितु अनन्त जीवात्मा हैं, जिनके धर्मभूत ज्ञान नगण्य हैं| एक प्रधान जीवात्मा जो शरीर का स्वामी होता है, उसका ज्ञान-विस्तार पुरे शरीर में होता है|
कारण और कार्य में अभेद है
कारण और कार्य में अभेद हैं, जैसे मिटटी ही घड़ा है या स्वर्ण ही कुण्डल है आदि| इसे ही कार्य-कारण समानाधिकरण कहते हैं| चूँकि भगवान जगत के उपादान कारण हैं, भगवान ही कार्य रूप जगत हैं; कार्य-कारण भाव से जगत एवं भगवान में अभेद है| कार्य-कारण भाव को समझने हेतु शरीर-आत्म भाव समझना आवश्यक है, जिसकी चर्चा पूर्व में की जा चुकी है|
अचित तत्त्व का नित्यत्व
अचित भी नित्य है| उत्पत्ति का अर्थ है अवस्थान्तर को प्राप्त होना| जैसे महत का अहंकार बनना| अचित स्वरुप से नित्य नहीं है अपितु प्रवाह से नित्य है| विनाश का अर्थ है, कार्य का कारण में लय हो जाना| जैसे भूत का तन्मात्र में लय| तन्मात्र का तामस अहंकार (भूतादि) में, अहंकार का महत में एवं महत का प्रकृति में| प्रकृति पुनः तमस, अव्यक्त आदि अवस्थाओं को प्राप्त कर नष्ट-प्राय हो जाती है| सृष्टि के काल में भगवान संकर्षण प्रकृति को अव्यक्त से व्यक्त अवस्था में लाते हैं|

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