हम पूर्व में पढ़ चुके हैं कि जीवात्मा ज्ञान-स्वरुप भी है और ज्ञानाश्रय भी| जीवात्मा ज्ञान का आश्रय/अधिकरण है, इस ज्ञान को धर्मभूत ज्ञान कहते हैं|भूत अर्थात जीवात्मा| धर्म अर्थात गुण| स्वरुप ज्ञान को धर्मि ज्ञान भी कहते हैं| धर्मि अर्थात जिसमें धर्म/गुण हो| वस्तु-स्वरुप कहने का अर्थ है, वो वस्तु स्वयं| जीव-स्वरुप का अर्थ है जीवात्मा स्वयं| जीवात्मा ज्ञान-स्वरुप है अर्थात् जीवात्मा स्वयं ज्ञान है| स्वरुप ज्ञान अर्थात स्वयं जीवात्मा| इस धर्मि जीवात्मा का धर्म की तरह है धर्मभूत ज्ञान|
स्वरुप ज्ञान की ही तरह धर्मभूत ज्ञान भी स्वरुप से नित्य है| अर्थात नष्ट नहीं होता| धर्मभूत ज्ञान के स्वरुप में कोई विकार नहीं होता किन्तु उसका संकुचन और विस्तार होता है| धर्मभूत ज्ञान स्वयं-प्रकाश (ज्ञानस्वरूप) द्रव्य है, यह हम पूर्व में पढ़ चुके हैं| अब प्रश्न यह है यदि धर्मभूत ज्ञान स्वयंप्रकाश है तो उसका ज्ञान हमें स्वयं ही क्यों नहीं होता? वो इन्द्रियों के द्वार पर क्यों निर्भर है?
“आत्मा मनसा संयुज्यते , मन इन्द्रियेण , इन्द्रियमर्थेन ततो ज्ञानम् ” ।
उत्तर यह है कि बद्ध जीवों का कर्म के वश होने के कारण उनका ज्ञान संकुचित होता है| अचित शरीर उनके ज्ञान के स्वयं-प्रकाशत्व को आवरण करता है| हमारे इन्द्रियों की क्षमता के अनुसार ही ज्ञान का प्रसार हो पाता है| मुक्त एवं नित्य जीवात्माओं का ज्ञान इन्द्रियों के द्वार से संकुचित नहीं है| उनके ज्ञान का सर्वत्र प्रसार होने के कारण यह नियम नहीं है कि आँखों से ही देखेंगे या कानों से ही शब्द को ग्रहण करेंगे| उनका चित ज्ञानमय शरीर धर्मभूत ज्ञान को सीमित नहीं करता|
सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न आदि ज्ञान की ही विशेष अवस्थाएं हैं| अनुकूल ज्ञान सुख है और प्रतिकूल ज्ञान दुःख| उसी प्रकार ज्ञान ही एक अवस्था में प्रेम, द्वेष, इच्छा आदि बन जाता है| प्रयत्न साक्षात् तो ज्ञान की अवस्था नहीं है किन्तु चिकीर्षा रूपी ज्ञान का ही परिणाम है|
स्वरुप-ज्ञान और धर्मभूत ज्ञान भिन्न द्रव्य नहीं हैं| दोनों ही ज्ञान द्रव्य हैं|
कुछ लोग स्वरुप ज्ञान और धर्म ज्ञान को भिन्न-भिन्न पदार्थ मानते हैं किन्तु ऐसा मानने का कोई प्रमाण नहीं है| जिस प्रकार सूर्य स्वयं प्रभा का घनीभूत है और उसके किरण भी प्रभा हैं, किन्तु दोनों में भेद है| प्रभा सूर्य पर आश्रित है| उसी प्रकार दोनों ही ज्ञान द्रव्य ही हैं किन्तु धर्म ज्ञान स्वरुप ज्ञान से ही निकलता है एवं उसी पर आश्रित होता है| जैसे किरणें भी अग्नि द्रव्य हैं और दीपक भी अग्नि द्रव्य है, उसी प्रकार दोनों ही ज्ञान द्रव्य ही हैं| दोनों भिन्न पदार्थ नहीं हैं
कुछ लोगों के मत में धर्मभूत ज्ञान द्रव्य नहीं हो सकता, क्योंकि यह जीवात्मा का गुण है। पूर्व में हमने पढ़ा था कि पदार्थ के दो भेद हैं: द्रव्य और अद्रव्य (गुण)। जो गुण है वो द्रव्य कैसे हो सकता है। किन्तु “ज्ञान” एकमात्र द्रव्य है, जो गुण भी है। प्रभा (किरण) की भाँति। प्रभा तेजस द्रव्य भी है और दीपक पर आश्रित भी।
ज्ञान द्रव्य भी है और गुण भी
न्याय में द्रव्य उसे कहते हैं जो गुण या क्रिया का आश्रय हो। ज्ञान क्रिया का आश्रय है क्योंकि इसमें संकोच और विस्तार होता है। मूर्च्छा की अवस्था में शून्य होता है तो मुक्ति की अवस्था में अनन्त। ज्ञान में संयोग, वियोग आदि गुण भी हैं। इस कारण ज्ञान का द्रव्यत्व सिद्ध होता है।
ज्ञान को गुण इसलिए कहना उचित है क्योंकि रूप, रस, गन्ध आदि की तरह ही यह अपने (धार्मि) जीवात्मा से स्वतन्त्र नहीं रहता, अर्थात धर्मि पर ही आश्रित मिलता है।
स्वतन्त्र द्रव्य कहना इसलिए उचित है क्योंकि जहाँ जीव नहीं है, वहाँ भी धर्मभूत ज्ञान होता है। जैसे मुक्त जीवों का ज्ञान विभू होता है।
ज्ञान के करण
ज्ञान के कारण तीन हैं: प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम। प्रत्यक्ष द्वारा जनित ज्ञान अनुभव है। प्रत्यक्ष अनुभव से मन में जो संस्कार जमा होता है, उससे बाद में जनित ज्ञान को स्मृति कहते हैं। इसलिए स्मृति भी प्रत्यक्ष ज्ञान ही है।

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