श्रीमते रामानुजाय नमः ।
अब तक हम अचित प्रकरण हम पूर्ण रूप से पढ़ चुके हैं। चित के दो प्रकार हैं: जीवात्मा एवं परमात्मा। अब जीव को दो परिभाषा देते हैं:

- ईश्वर से भिन्न चित जीव है।
यदि सिर्फ ईश्वर से भिन्न जीव, कहें तो परिभाषा का अचित में अतिव्याप्ति हो जाएगा। यदि सिर्फ ऐसा कहे कि चित जीवात्मा होता है तो फिर लक्षण का परमात्मा में अतिव्याप्ति हो जाएगा। - स्वाभाविक शेषत्व के साथ चेतन को जीवात्मा कहते हैं।
शेषत्वे सति ज्ञातृत्वं जीवात्मन: लक्षणम्।
केवल शेषत्व कहने से लक्षण का अचित में अतिव्याप्ति होगा एवं केवल ज्ञातृत्व कहने से लक्षण का परमात्मा में अतिव्याप्ति होगा। शेषत्व विशिष्ट ज्ञातृत्व केवल जीवात्मा में ही है।
जीवात्मा का आकार
जीवात्मा अणु है, अर्थात अत्यन्त सूक्ष्म है। शरीर के हृदय प्रदेश में अवस्थित होता है। फिर भी, आत्मा की चेतना पूरे शरीर में होती है। पूरे शरीर में सुख-दुख आदि अनुभव आत्मा को होता है। जिस प्रकार मणि या दीप एक स्थान पर रखे हों, किन्तु उनकी प्रभा पूरे घर में होती है, उसी प्रकार हृदय प्रदेश में सूक्ष्म रूप से अवस्थित होते हुए आत्मा का ज्ञान (धर्मभूत ज्ञान) पूरे शरीर में अवस्थित होता है। धर्मभूत ज्ञान के द्वारा आत्मा पूरे शरीर में विद्यमान होता है।
ज्ञान प्रसार
इन्द्रियों के द्वारा धर्मभूत ज्ञान शरीर से बाहर जाता है एवं वस्तुओं से संयोग कर उनके विषय में जानकारी वापस आकर इन्द्रिय, फिर मन और फिर आत्मा को देता है। इस कारण हमारा ज्ञान प्रसार इन्द्रियों की क्षमता के अनुसार सीमित हैं।
“आत्मा मनसा संयुज्यते , मन इन्द्रियेण , इन्द्रियमर्थेन ततो ज्ञानम्”
कई योगियों की दिव्य दृष्टि होती है। उनका धर्मभूत ज्ञान, योग बल सत्त्व गुण के वृद्धि के कारण, अधिक उद्भूत होता है एवं अधिक प्रसारित होता है।
धर्मभूत ज्ञान के बल से कई योगी कायव्यूह बनाते हैं। जैसे सौभरि, कर्दम आदि ऋषि एवं प्रजापति एक ही काल में अनेक शरीर धारण किये थे। आत्मा तो एक मूल शरीर में ही अवस्थित थी किन्तु धर्मभूत ज्ञान के द्वारा उन्होंने अन्य शरीरों में भी प्रवेश किया था एवं उनसे सुख-दुख प्राप्त होता है।
जैन मत का खण्डन
जैन मत में आत्मा को अणु नहीं अपितु शरीर के माप का बताया गया है। किन्तु यदि आत्मा योगबल से एक शरीर से दूसरे शरीर में जाये तो आत्मा का संकोच या विकास होगा। जैसे यदि चूहा के शरीर में जाये तो आत्मा को सिकुड़ना होगा। यदि हाथी के शरीर में जाये तो आत्मा को फैलना होगा। इस प्रकार का निर्विकारत्व नष्ट हो जाएगा। काय व्यूह के काल में भी आत्मा के माप को समझ पाना जैन मत से सम्भव नहीं है। इस कारण आत्मा के विषय में जैन-मत तर्क-पूर्ण नहीं है।
नैयायिक मत का खण्डन
नैयायिक मत में आत्मा विभू मानी गयी। कर्मसमानाधिकरण्य के आत्मा की उपस्थिति सर्वत्र है। तार्किक मत में धर्म और अधर्म आत्मा के गुण बताये गए हैं, जो आत्मा के साथ ही रहते हैं| कोई व्यक्ति मान लिया कि दिल्ली में कोई कार्य करता है और उसे उस कर्म का फल चेन्नई में मिलता है। इस कारण आत्मा को विभू मानना होगा।
इस कर्म का समानाधिकरण्य मानने से उत्तम यह समझना कि ईश्वर तो विभू हैं, सर्वत्र हैं। धर्म और अधर्म गुण नहीं अपितु कर्म हैं| इस कर्म का लेखा-जोखा भगवान के ज्ञान में होता है| एक स्थान पर जीवात्मा द्वारा किये गए कर्म को भगवान अपने स्मृति में रखते हैं एवं उचित काल में अन्य स्थान पर उसका फल देते हैं।
कर्मसमानाधिकरण्य भी दोषपूर्ण है। जातकर्म संस्कार में यह लागु नहीं होता। यहाँ भी कर्म पिता का है किन्तु फल पुत्र को मिल रहा है। जात्येष्टि संस्कार किया है पिता ने किन्तु उसका फल मिलता है पुत्र को।
अतः, आत्मा को अणु मानना तर्क-संगत भी है एवं शास्त्र संगत भी।

One thought on “जीव-तत्त्व निरूपण”