श्रीमते रामानुजाय नमः ।
सत्त्व गुण ज्ञानप्रद एवं आनन्दप्रद है। रजो गुण ज्ञान एवं आनन्द को आवरण करते हैं, सीमित करते हैं। प्राकृत द्रव्य मिश्र सत्त्व गुण के होते हैं, अर्थात सत्त्व गुण रजस और तमस से मिश्रित होता है। जब सत्त्व गुण का प्रसार अधिक होता तो ज्ञान का प्रसार होता है एवं आनन्द का अनुभव होता है। (आनन्द भी ज्ञान की ही अवस्था विशेष है। अनुकूल ज्ञान आनन्द होता है एवं प्रतिकूल ज्ञान दुःख।) रजस एवं तमस से मिश्रित होने के कारण संसार में धर्मभूत ज्ञान पूर्ण रूप से विकसित नहीं होता है। किन्तु परमपद के पंचोपनिषद तत्त्व शुद्ध सत्त्व गुण के होते हैं, अर्थात उनमें रजस एवं तमस का मिश्रण नहीं होता, केवल सत्त्व गुण होता है। इस कारण धर्मभूत ज्ञान एवं आनन्द पूर्ण रूप से उद्भूत होता है।

प्रकृति मण्डल के ऊपर अप्राकृत देश विशेष है शुद्ध-सत्त्व। प्राकृत का अर्थ है मूल प्रकृति से उत्पन्न द्रव्य: महत, अहंकार, इन्द्रिय, भूत आदि। अप्राकृत तत्त्व शुद्ध-सत्त्वमय होते हैं। उनके नाम हैं: परमेष्ठि, पुमान, विश्व, निवृत्त एवं सर्व। इन्हें पंचोपनिषद तत्त्व कहते हैं।
प्रकृति मण्डल एवं अप्राकृत परमपद के मध्य है विरजा। इसे परमव्योम, परमाकाश आदि नामों से श्रुति में कहा गया है:
तदक्षरे परमे व्योमन् । (महानारायण उपनिषद 1.2)
परमाकाश कदा वा प्राप्नुयाम् (सहस्रागीति)
इसे ही अयोध्या, अपराजिता, वैकुण्ठ आदि कहा गया है:
“देवानां पूरयोध्या तस्यां हिरण्मयः कोशः यो वै तां ब्रह्मणो वेदामृतेनामृतां पुरीम्”
“अपराजिता पूर्ब्रह्मणः प्रजापतेः सभां वेश्म प्रपद्ये”
अर्चिरादि गति इसका प्रमाण है। आतिवाहिक देवों एवं अमानव भगवान के द्वारा जीव अर्चिरादि मार्ग से परमाकाश लाया जाता है। वहाँ वैकुण्ठ का वर्णन होता है: दिव्य नगर, दिव्य भवन, विमान, दिव्य रत्नों से जड़ित वैकुण्ठ मण्डप आदि। ये सभी शुद्ध-सत्त्वमय द्रव्य निर्मित होते हैं।
नित्य, मुक्तों के शरीर एवं भगवान और लक्ष्मी देवी का लीला-विग्रह भी शुद्ध-सत्त्वमय होता है।
अर्थात, नित्य-मुक्त एवं स्वयं भगवान का शरीर भी पंचोपनिषद से निर्मित होता है। भगवान अपने शरीर से भिन्न हैं। भगवान चित हैं, जबकि भगवान का शरीर अचित। भगवान अपने शरीर के भी अन्तर्यामी हैं।
किन्तु भगवान का शरीर प्राकृत जैसा जड़ वस्तु भी नहीं है। शुद्ध-सत्त्व अजड़ अर्थात ज्ञान-स्वरूप होता है। अजड़ होते हुए भी अचित है क्योंकि वो ज्ञानाश्रय नहीं होता। स्वयं प्रकाश होता है किन्तु स्वस्मै-स्वयं-प्रकाश नहीं होता।
शुद्ध-सत्त्व निःसीम तेज स्वरूप का होता है एवं स्वयं प्रकाशमान होता है।
न तत्र सूर्यो भाति न च चन्द्रतारकम् । नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।।
(कठोपनिषत् ५/१५)
शुद्ध-सत्त्व परस्मै-स्वयं-प्रकाश द्रव्य है। (परस्मा एव भासमानं पराक्। स्वस्मै एव भासमानं प्रत्यक्।)
प्रश्न : यद्यपि भगवान शुद्ध-सत्त्व शरीर के साथ अवतार लेते हैं, अर्चा मूर्ति भी शुद्ध-सत्त्व होते है, किन्तु वह हम सभी को प्रकाशित क्यों नहीं होता?
उत्तर: क्योंकि बद्ध जीवों को शुद्ध-सत्त्व प्रकाशित नहीं होता। उसी प्रकार जैसे ज्ञान तो स्वयं-प्रकाश द्रव्य है किन्तु बद्ध अवस्था में उसका स्वयं-प्रकाशत्व अवरुद्ध होता है।

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