स्वयंप्रकाश, स्वस्मै स्वयं प्रकाश, परस्मै स्वयं प्रकाश, जड और अजड के विषय में ।

श्रीमते रामानुजाय नमः।

द्रव्य के दो प्रकार हैं: जड और अजड।

जड वस्तु ज्ञानस्वरूप होते हैं और अजड वस्तु ज्ञानस्वरूप नहीं होते। ज्ञानस्वरूप इस कारण कहते हैं क्योंकि ये द्रव्य स्वयं-प्रकाश हैं। इसे ही स्वयं-भासमान द्रव्य भी कई स्थल पर लिखे हैं।

जो स्वयं ही प्रकाशरूप हो, वो स्वयंप्रकाश है। जो वस्तु स्वयं-प्रकाश नहीं हैं, उन्हें देखने के लिए किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता है। जैसे बिजली चली जाए, तब घर की कोई भी वस्तु दिखाई नहीं देती। टॉर्च या दीपक जलायें, तब उसके प्रकाश में सभी वस्तुएँ दिखाई देती हैं। किन्तु यदि मणि रखा हो, तो वह अंधेरे में भी दिखाई पड़ता है। वह प्रकाशित होने के लिए प्रकाश के अन्य श्रोत पर निर्भर नहीं है। वह स्वयं ही प्रकाशरूप है।

वेदान्त देशिक स्वामी कहते हैं कि यहाँ प्रकाश का अर्थ ज्ञान समझना है। ज्ञानस्वरूप को समझने हेतु प्रकाश का उदाहरण दिया गया है। अजड वस्तएं अपना ज्ञान स्वयं नहीं देतीं। वो ज्ञानस्वरूप नहीं हैं। हमारे आत्मा से ज्ञान इन्द्रियों के द्वार बाहर जाता है, उसका उन द्रव्यों से संयोग होता है। ज्ञान जानकारी इकट्ठा कर आत्मा के पास वापस आती है। किन्तु अजड द्रव्य ज्ञानस्वरूप/स्वयं प्रकाश होते हैं। वो अपना ज्ञान स्वयं ही देते हैं। जीवात्मा, ईश्वर, धर्मभूत ज्ञान और शुद्ध सत्त्व अप्राकृत तत्त्व स्वयं प्रकाश हैं।

Q. अब प्रश्न कर सकते हैं कि भगवान का शरीर भी तो स्वयं प्रकाश द्रव्य है। तो फिर विभव या अर्चा अवतार में वो हमें स्वयं प्रकाशित क्यों नहीं करते? स्वयं अपना ज्ञान क्यों नहीं देते?
A. वो इस कारण क्योंकि कर्म के कारण हम प्राकृत देह में हैं और इस कारण स्वयं प्रकाश द्रव्य हमें प्रकाशित नहीं होते।

स्वस्मै स्वयं प्रकाश एवं परस्मै स्वयं प्रकाश।

स्वयं प्रकाश के पुनः दो भाग हैं: स्वस्मै-स्वयं प्रकाश एवं परस्मै-स्वयं प्रकाश। स्वस्मै स्वयं प्रकाश केवल स्वयं को प्रकाशित करते हैं। जैसे आत्मा स्वयं को प्रकाशित करता है। “मैं” की प्रतीति तो सभी जीवात्माओं को होती ही है। यह जीवात्मा के स्वस्मै-स्वयं-प्रकाशत्व के कारण हैं| स्वस्मै अर्थात स्वयं के लिए। कोई व्यक्ति यदि पूरी याददाश्त खो दे, अपने विषय में कुछ भी याद न हो, किन्तु “मैं” की प्रतीति तो उसे भी होती है। गहरी निद्रा में या मूर्च्छा अवस्था में धर्मभूत ज्ञान शून्य होता है। किन्तु “मैं” की प्रतीति तो होती है। जब व्यक्ति गहरी निद्रा से सोकर उठता है तो कहता है कि मैं सुखपूर्वक सोया। गहरी निद्रा में शरीर का, परिवार का, पद और प्रतिष्ठा आदि का बोध नहीं होता| अर्थात् धर्मभूत ज्ञान नगण्य होता है| किन्तु ‘मैं’ का बोध तो वहाँ भी होता ही है|

शुद्धसत्व एवं धर्मभूत ज्ञान ‘परस्मै-स्वयं-प्रकाश’ द्रव्य है। अर्थात ये ज्ञानस्वरूप अवश्य हैं किन्तु स्वयं को प्रकाशित नहीं करते। दूसरों को ही स्वयं-प्रकाशित करते हैं| परस्मै अर्थात दूसरों के लिए। “मैं” का बोध इनमें नहीं होता। अर्थात के अचेतन हैं। अचेतन किन्तु ज्ञानस्वरूप क्योंकि ये स्वयं-प्रकाश हैं। स्वयं के प्रति नहीं अपितु दूसरों को स्वयं प्रकाशित करते रहते हैं। श्री वैकुण्ठ के सभी अचित् वस्तुएँ परस्मै स्वयं प्रकाश हैं। वो स्वयं ही अपना ज्ञान देते हैं।

स्वस्मै एव भासमानं प्रत्यक्।

स्वस्मै-स्वयं-प्रकाश को प्रत्यक् या चेतन भी कहते हैं। जीवात्मा को शास्त्रों में प्रत्यक् बहुधा कहा गया है।

परस्मै एव भासमानं पराक्।

परस्मै-स्वयं-प्रकाश को पराक् या अचेतन भी कहते हैं।

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Author: ramanujramprapnna

studying Ramanuj school of Vishishtadvait vedant

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