अब तक हम अचेतन और जीवात्म स्वरुप निरूपण पढ़ चुके हैं| इश्वर स्वरुप निरूपण में भगवान सर्व-शरीरक होना एवं इस विषय में श्रुति-स्मृति प्रमाण भी अध्ययन कर चुके हैं| अब आगे भेद-अभेद श्रुतियों रामानुज मत में किस प्रकार निर्वाह होता है, ये पढेंगे|

वेदों में भेद परक श्रुति भी प्राप्त होते हैं जो जीव और ब्रह्म के मध्य भेद बताते हैं और जीव-ब्रह्म के मध्य अभेद बताने वाले अभेद श्रुति भी प्राप्त होते हैं| भेद श्रुति के उदाहरण हैं:
क्षरं प्रधानममृताक्षरम हरः क्षरत्मानाविशते देव एकः।। (श्वेताश्वतर उप.१.८०).
नित्योऽनित्यानां चेतनश्चेतनानाम् एको बहूनां यो विदधाति कामान् ।। क.उ. २.२.१३| इत्यादि|
अभेद श्रुति के उदाहरण है:
अहं ब्रह्मास्मि – “मैं ब्रह्म हुँ” ( बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१०)
तत्वमसि – “वह ब्रह्म तु है” ( छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७)
अयम् आत्मा ब्रह्म – “यह आत्मा ब्रह्म है” ( माण्डूक्य उपनिषद १/२)
प्रज्ञानं ब्रह्म – “वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है” ( ऐतरेय उपनिषद १/२)
सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् – “सर्वत्र ब्रह्म ही है” ( छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१
भेद एवं अभेद श्रुतियों का समानाधिकरण्य घटक श्रुतियों के आधार पर करते हैं| शरीर-आत्मा भाव, घटक श्रुति
समानाधिकरण्य का अर्थ है: भिन्न प्रवृत्ति शब्दानाम् एकस्मिन् अर्थे वृत्ति:| भिन्न प्रवृत्ति के श्रुति वाक्यों को एक अधिकरण देकर एक अर्थ में लाना, दोनों के परस्पर मतभेद को दूर करना समानाधिकरण्य है| घटक श्रुति चेतन और अचेतन समस्त को भगवान का शरीर बतलाता है|
यस्यात्मा शरीरं य आत्मानमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः – {शतपथब्राह्मणम् १४.६.७.[३०]}
इत्यादि प्रमाण हैं| चित और अचित सभी अवस्था में भगवान के शरीर होने के कारण सर्वदा चित और अचित को संबोधन भगवान का ही बोध कराते हैं|
शरीर-आत्मा का समानाधिकरण्य
लौकिक एवं वैदिक, दोनों व्यवहार में हम देखते हैं कि शरीर के प्रति किया गया सम्बोधन आत्मा का बोध कराता है| जैसे ‘वेदविद ब्राह्मण‘| यहाँ दोनों शब्द एक विभक्ति में प्रयुक्त हुए हैं| वेदविद आत्मा हैं| ब्राह्मण शरीर है| आत्मा का कोई वर्ण नहीं होता| किन्तु ‘वेदविद ब्राह्मण’ से शरीर को नहीं बल्कि शरीरक जीवात्मा को ही सम्बोधित किया जा रहा है| उसी प्रकार ‘राजा स्वर्गकाम:’ में राजा शरीर और स्वर्गकाम: आत्मा| किन्तु ‘स्वर्ग की इच्छा वाले राजा’ कहने से राजा शरीरक जीवात्मा को सम्बोधित किया जा रहा है| उसी प्रकार ‘पुत्र देखता है’ में पुत्र शरीर को सम्बोधन है जबकि देखना आत्मा का क्रिया है|
इन सभी उदाहरणों में हम देखते हैं कि शरीर को किया गया सम्बोधन वस्तुगत्या आत्मा को सम्बोधित करती है| ‘वेद जानने वाला ब्राह्मण’ का अर्थ है ‘ब्राह्मण शरीरक वेद जानने वाला जीवात्मा’| यहाँ शरीर-आत्म-भाव-समानाधिकरण्य है| इसी प्रकार अभेद श्रुतियों का निर्वाह करते हैं| शरीर वाचक शब्दों का शरीरि पर्यन्त अभिदेय करने में कोई विरोध नहीं है|
अपृथक-सिद्ध विशेषण
अपृथक-सिद्ध विशेषण को विशिष्ट वस्तु कहते हैं| अपृथक-सिद्ध अर्थात् जो कभी पृथक होकर न रहता हो| हमारा शरीर को एक जीवनकाल तक ही अपृथक होता है| यहाँ शरीर-आत्म सम्बन्ध कर्म सम्बन्ध से औपाधिक है| किन्तु समस्त चित-अचित का भगवान का शरीर होना निरुपाधिक है| समस्त चित-अचित वस्तुतः केवल भगवान के ही शरीर हैं| शरीर की परिभाषा हम ऊपर पढ़ चुके हैं| ‘दंडी पुरुष’ या ‘कुण्डली पुरुष’ सम्बोधन इस कारण होता है क्योंकि उस व्यक्ति से दण्ड या कुण्डल अपृथक रहता है| हमने उस व्यक्ति को जब भी देखा है, दण्ड या कुण्डल के साथ ही देखा है| दंडी या कुण्डली कहने से दण्ड धारण करने वाले व्यक्ति अर्थात् आत्मा का बोध हो रहा है| यही प्रकार-प्रकारी-भाव समानाधिकरण्य है|
अभेद श्रुतियों का अर्थ
‘तत्वमसि’ में तद सर्व कारण ब्रह्म है| त्वं जीवात्म-शरीरक ब्रह्म का वाच्य है| तदात्मकोसि, अर्थात तत् शब्द वाच्य जो परमात्मा है, वह सदा तुम्हारे अन्तर्यामी रूप से विराजते हैं।
‘अहम् ब्रह्मास्मि’ में अहं शब्द का अर्थ अहं वाच्य जीवात्मा के शरीरक परमात्मा है| ‘अहं ब्रह्मात्मको अस्मि’| अर्थात अहम् पदवाची जो जीव है, इसके भीतर अन्तर्यामी रूप से परमात्मा विराजते हैं।
सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् :- इदं दृश्यमान सर्वं अपि ब्रह्म ब्रह्मात्मकमित्यत्यर्थः, याने जो कुछ यह दिखाई पड़ता है, इन सब के भीतर अन्तर्यामी रूप से परमात्मा विराजते हैं ।
रामानुज मत में सामानाधिकरण्य श्रुति-सम्मत है| अन्तर्यामी ब्राह्मण आदि वेद भागों में प्राप्त होने वाले घटक श्रुति के द्वारा ही भेद श्रुति एवं अभेद श्रुति का समानाधिकरण्य किया गया है| किन्तु अद्वैत मत में अनेक प्रकार के समानाधिकरण्य की वैरूप्य कल्पना की गयी है| जीव-ऐक्य में अभेद समानाधिकरण्य, जड़-ब्रह्म ऐक्य में बाधार्थ समानाधिकरण्य एवं कार्य-कारण अभेद में आरोपित-उपादान आदि धर्म समानाधिकरण्य | रामानुज मत में सर्वत्र अपृथक-सिद्ध विशेषण के सामानाधिकरण्य से समाधान हो जाता है और श्रुति-मर्यादा भी बनी रहती है|

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