आत्म-बहुत्व का विषय भी विवाद योग्य नहीं है। यदि जीवात्म-ऐक्य होता तो एक व्यक्ति के द्वारा अनुभव किया गया विषय दूसरों को भी अनुभव हो जाता। यदि किसी व्यक्ति को किसी काल में सुख-दुःख की प्राप्ति हुई है तो दूसरों को भी उसी काल में वही सुख-दुःख प्राप्त होना चाहिए।
किन्तु ऐसा नहीं होता है।

यदि ऐसा कहे कि अविद्या रूपी उपाधि के कारण जीवात्म-भेद है तो ऐसा कहना भी उचित नहीं है। वेदों ने मुक्ति की अवस्था में भी अनन्त जीवात्मा बताए हैं।
यथा- सदा पश्यन्ति सूरय:। (यहाँ बहुवचन का प्रयोग हुआ है।)
अब ग्रन्थकार कहते हैं कि ये उपाधि सभी जीवों के लिए एक ही हैं, या भिन्न? एक ही हैं ऐसा कहने से दोष आएगा। यदि भिन्न कहें तो ऐसा कहना कि कल जो तुम्हारे तुम्हारे द्वारा अनुभव किया गया था, आज मेरे द्वारा अनुभव किया गया। ये व्यवहार सम्भव नहीं होता।
श्रुत-प्रकाशिका में इसका विस्तृत खण्डन है।
अतः जीव तीन प्रकार के हैं। तीनों ही अनन्त हैं। भगवान के शेषभूत, शरीरभूत एवं उनके अधीन हैं। यह सिद्ध इस प्रकार सिद्ध हुआ।
इस विषय पर भाष्यकार स्वामी का भगवद गीता 2.12 पर भाष्य भी देखना चाहिए जहाँ भगवान स्वयं ही जीवात्म-भेद एवं जीव-ब्रह्म भेद को पारमार्थिक बताते हैं।
आचार्य पूछते हैं कि कृष्ण ज्ञानी हैं या नहीं? यदि नहीं तो गीता क्यों पढ़ते हो? यदि हाँ तो भगवान स्वयं तत्त्व-ज्ञान के काल में भेद का ज्ञान क्यों दे रहे हैं?
यदि ऐसा कहे कि ज्ञानी को भी भेद का दर्शन होना बाधित-अनुवृत्ति है, जैसे वस्त्र के जल जाने पर भी वो कुछ काल तक वस्त्र जैसा ही दिखता है। तो भी यह समझना चाहिए कि ज्ञानी को भी मिथ्या के दर्शन तो होते हैं जैसे रेगिस्तान में जल का दिखना। किन्तु ज्ञानी उस भ्रम से प्यास बुझाने का व्यवहार तो नहीं करते।
यदि कृष्ण को भेद के दर्शन हो भी रहे हैं तो इसका उपदेश अर्जुन को क्यों करते?
यदि अर्जुन और कृष्ण एक ही है और अर्जुन का भिन्न रूप में अस्तित्व भ्रम मात्र है तो भी ज्ञानी कृष्ण उसे उपदेश क्यों कर रहे हैं? कोई अपनी ही छाया से बात करता है क्या?

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