श्रुतियों ने भगवान को निर्गुण भी कहा है एवं सगुण भी| भगवान निर्गुण हैं या सगुण, इस संशय का समाधान भगवद रामानुज स्वामी करते हैं:

निर्गुण का अर्थ प्राकृत हेय गुणों का अभाव होना| प्राकृत अर्थात् प्रकृति-जन्य गुण : – सत्त्व, रजस और तमस| हेय अर्थात् दोष| जिस प्रकार गरुड़ के पास सर्प नहीं आ सकते, उसी प्रकार भगवान में लेश मात्र भी हेय गुण नहीं होते जैसे असूया, बुढ़ापा, मतिभ्रम, भय, शोक आदि|
सगुण का अर्थ है समस्त कल्याण गुणों के सहित होना जैसे ज्ञान, शक्ति, तेज आदि; वात्सल्य, सौशील्य, सौलभ्य आदि|
अनेक श्रुति वाक्यों में भगवान को एकसाथ हेय गुणों से रहित एवं कल्याण गुणों से युक्त बताया गया है:
छान्दोग्य उपनिषद् 8.7.2
य आत्मापहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोको विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः|
पाप, बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, भूख, प्यास आदि से मुक्त एवं सत्यकाम और सत्यसंकल्प|
अनेक वेद वाक्य भगवान के सगुणत्व का वर्णन करते हैं:
यस्सर्वज्ञस्स सर्ववित्, यस्य ज्ञानमयं तपः| (मुण्डक उपनिषद् 1.1.9)
पराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते, स्वाभाविकी जानवलक्रिया च| (श्वेताश्वतरोपनिषद्.8)
सत्यकामस्सत्यसङ्कल्पः| (छान्दोग्य उपनिषद् 8.7.2)
भगवान को हेय गुणों से रहित बताने वाली श्रुतियाँ:
क्षयन्तमस्य रजसः पराके। (साम0 17।1।4।2), (ऋक्स0 2।6।25।5)
विश्वं पुराणं तमसः परस्तात् (तैत्तरीय अरण्यक 3.12.39)
सत्त्वादयो न सन्तीशे यत्र च प्राकृता गुणाः ।
न हि तस्य गुणास्सर्वे सर्वैर्मुनिगणैरपि ॥
वक्तुं शक्या वियुक्तस्य सत्त्वाद्यैरखिलैर्गुणैः ॥” (विष्णु पुराण)
यहाँ पराशर महर्षि प्रथम भगवान में सत्त्व, रजस एवं तमस से युक्त प्राकृत गुणों का भगवान में निषेध बताते हैं एवं पुनः भगवान को अनगिनत कल्याण गुणों से युक्त बताते हैं|
संख्यातुं नैव शक्यन्ते गुणा: दोषाश्च शार्न्गिणः।
अनन्तश्च प्रथमः राशि अभाव: इति पश्चिम:।।
भगवान के गुणों एवं दोषों को गिनना सम्भव नहीं है| गुण अनन्त हैं एवं दोषों का अत्यन्त अभाव है|
सकल जगत का शरीरक होने पर भी दोषरहित होना
शरीर के विकारों से आत्म-स्वरुप में विकार नहीं आता| आत्मा अविकार ही रहता है| बाल, युवा, वृद्धावस्था आदि विकार शरीर के होते हैं, आत्मा बाल, युवा आदि अवस्थाओं को प्राप्त नहीं होता|
शरीर के विकार बद्ध जीवों को कर्मवशत: प्रभावित करते हैं| जीवों को शरीर से सुख-दुःख कर्म के कारण प्राप्त होते हैं|
“न ह वै सशरीरस्य सतः प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति” (छान्दोग्योपनिषद 8.12.1)
देहधारी के लिए सुख और दुःख से कभी मुक्ति नहीं है| जब तक कोई व्यक्ति शरीर में रहता है, उसे अच्छे और बुरे का अनुभव होता रहेगा, लेकिन जब आत्मा शरीर से मुक्त हो जाती है (अशरीर हो जाती है), तो उसे ये सुख-दुःख छू नहीं पाते हैं|
किन्तु वेद प्रमाण से हीं भगवान शरीर में विद्यमान रहते हुए भी
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्ष परिषस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति अनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति” ।।
दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, घनिष्ठ सखा, समान वृक्ष पर ही रहते हैं; उनमें से एक वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है, अन्य खाता नहीं अपितु अपने सखा को देखता है।
यहाँ एक पक्षी जीव है और दूसरा परमात्मा| एक ही शरीर में दोनों अवस्थित हैं| फल यहाँ कर्म के सूचक हैं| जीव अपने कर्मों का भोग करता है किन्तु परमात्मा कर्म फलों का अनुभव नहीं करता, वो सिर्फ साक्षी है|
कर्तृत्व जीवात्मा का ही होता है इसलिए कर्मों का फल भी जीवों को ही भोगना है| भगवान को कर्ता इस कारण कहा जाता है क्योंकि भगवान के अनुमति दान के बिना जीव कोई प्रयत्न नहीं कर सकता|

One thought on “भगवान का उभय लिङ्गत्व”