श्रीमते रामानुजाय नमः
अब ग्रन्थ में आगे का विषय है: रुद्र आदि देवताओं का जगद कारणत्व असम्भव होना एवं विष्णु का जगद कारणत्व।

यद्यपि श्रुतियों में ब्रह्मा-विष्णु-रुद्र-इन्द्र आदियों का भी कारणत्व और कार्यत्व प्राप्त होता है, किन्तु जगत का कारण कोई एक ही हो सकता है। जगत का निमित्त और उपादान कारण एक से अधिक नहीं हो सकता।
यदि ऐसा कहे कि एक ही ईश्वर के ये विभिन्न रूप हैं तो इन सभी देवताओं का ऐक्य स्वीकार करना होगा। शास्त्रों में कई ऐसे प्रमाण प्राप्त होते हैं कि एक ब्रह्म ही ब्रह्मा-विष्णु-रुद्र के रूप में आकर सृष्टि, स्थिति और संहार करता है।
विष्णुरेव परं ब्रह्म त्रिभेदमिह पठ्यते ।
सृष्टिस्थित्यन्तकरणीं ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाम् ॥विष्णु ही परम ब्रह्म हैं जो ब्रह्मा, विष्णु एवं तीन भेद में सृष्टि, स्थिति एवं संहार करते हैं|
विष्णु पुराण 1.2.66 में भी
सृष्टिस्थित्यन्तकरणीं ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाम् ।
स संज्ञां याति भगवानेक एव जनार्दनः ॥६६॥स्त्रष्टा सृजाति चात्मानं विष्णुः पाल्यपाति च ।
उपसंह्रियते चान्ते संहर्ता च स्वयं प्रभुः ॥६७॥
ऐसे भी प्रमाण प्राप्त होते हैं कि स्व-स्वरूप से ब्रह्म स्वयं विष्णु अवतार में आते हैं। (स्व स्वरूपात् स्वयं विष्णुस्सत्वेन पुरुषोत्तम:)। ब्रह्मा और रुद्र भगवान के नियमन में कार्य करते हैं। भागवत पुराण में ब्रह्मा स्वयं कहते हैं कि भगवान के द्वारा नियुक्त होकर उनकी आज्ञा से वो सृष्टि करते हैं। उन्हीं की आज्ञा से रुद्र प्रलय करते हैं।
सृजामि तन्नियुक्तोऽहं हरो हरति तद्वश: ।
विश्वं पुरुषरूपेण परिपाति त्रिशक्तिधृक् ॥ 2.6.32 ॥
इन दोनों ही प्रमाणों का सामनाधिकरण्य से यह प्राप्त होता है भगवान का विष्णु अवतार स्व-स्वरूप से होता है। ब्रह्मा और रुद्र भगवान के शरीर होने से, भगवान के द्वारा किसी कार्य विशेष के लिए स्व-शक्ति द्वारा नियुक्त होने से वो भगवान के शक्त्यावेश अवतार कहे जा सकते हैं। साक्षात अवतार के रूप में तो कहीं भी वर्णन प्राप्त नहीं होता।
महाभारत शान्ति पर्व में ब्रह्मा रूद्र से कहते हैं-
विष्णुरात्मा भगवतो भवस्यामिततेजसः । तस्माद्धनुज्यसंस्पर्श स विषेहे महेश्वरः ।।
ब्रह्मरुद्रसंवादे-
तवान्तरात्मा मम च ये चान्ये देहिसंज्ञिताः ।
सर्वेषां साक्षिभूतोऽसौ न ग्राह्यः केनचित् क्वचित् ।।तुम्हारे अन्तरात्मा और मेरे भी और सभी देहधारियों के आत्मा
यहाँ ब्रह्मा और रुद्र के अन्तरात्मा भगवान को कहा गया है। अर्थात वो भगवान के शरीर हैं।

वेदों के प्रमाण से यह सिद्ध होता है कि प्रलय के बाद एवं सृष्टि से पहले सिर्फ नारायण (विष्णु) ही थे|
महोपनिषद
एको ह वै नारायण आसीत्।
न ब्रह्मा न ईशानो नापो नाग्निः न वायुः नेमे द्यावापृथिवी न नक्षत्राणि न सूर्यः।
सृष्टि काल में ब्रह्म से ब्रह्मा और रूद्र की सृष्टि का वर्णन मिलता है, किन्तु विष्णु की सृष्टि का नहीं| अर्थात्, विष्णु स्वयं भगवान के ही रूप हैं|
नारायण उपनिषद्
नारायणाद्ब्रह्मा जायते । नारायणाद्रुद्रो जायते । नारायणादिन्द्रो जायते । नारायणात्प्रजापतिः प्रजायते । नारायणादद्वादशादित्या रुद्रा वसवः सर्वाणि छन्दांसि नारायणादेव समुत्पद्यन्ते। नारायणात्प्रवर्तन्ते । नारायणे प्रलीयन्ते। एतदृवेदशिरोऽधीते ॥
अतः सिद्धान्त यह है भगवान स्वयं ब्रह्मा, विष्णु एवं रूद्र के तीन रूप लेकर सृष्टि, स्थिति एवं संहार करते हैं। इन त्रिमूर्ति में विष्णु स्वयं भगवान के स्व-स्वरुप से अवतार हैं, अर्थात भगवान ही हैं| ब्रह्मा और रूद्र का भगवान के अवतार के रूप में वर्णन नहीं आता। भगवान उन्हें सृष्टि एवं प्रलय का कार्य करने हेतु अपनी शक्ति-विशेष से सम्पन्न करते हैं। अतः ये दोनों भगवान के गौण अवतार (शक्त्यावेश) हैं|
अर्थात् में विष्णु स्वयं भगवान हैं एवं रक्षण का कार्य करते हैं जबकि सृष्टि एवं प्रलय का कार्य भगवान ब्रह्मा एवं रूद्र के अन्तर्यामी होकर करते हैं।
भगवान का सर्व-शब्द-वाच्यत्व
वेदों में कई स्थलों पर प्राण, आकाश, महत, इन्द्र, प्रजापति आदि का जगद-कारणत्व कहा गया है।
महर्षि व्यास स्वयं ब्रह्म सूत्र में इन प्रमाणों का सामानाधिकरण्य करते हैं।
वेदों में प्राप्त होता है कि भगवान चित-अचित में अनुप्रवेश करके उनमें नाम और रूपों की सृष्टि करते हैं। वो सभी भगवान के शरीर होने से सभी नाम और रूप भगवान को संबोधित करते हैं।
अनेन जीवेनात्मना अनुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि इति । – छान्दोग्योपनिषत् ६-३-२
इस प्रकार भगवान का सर्व-शब्द-वाच्यत्व है। सभी शब्दों के प्रधान वृत्ति में अर्थ भगवान ही हैं।
कई मतों का कहना कि वहाँ अनुप्रवेश भगवान का नहीं अपितु जीवात्मा का होता है। अतः ये सभी नाम रूप जीवात्मा के हैं।
किन्तु वेद कहते हैं ‘तत् सृष्ट्वा । तदेवानुप्राविशत् ॥‘ – (तैत्तिरीयोपनिषत् २-६-६)। सृष्टि करने वाले ने अनुप्रवेश किया है। जगद्–व्यापार–वर्जम् [वे.सू. ४.४.३३] सूत्र से कोई भी जीवात्मा जगत की सृष्टि नहीं कर सकता। अतः अनुप्रवेश भगवान का ही हुआ है।
अतः आकाश, प्राण, इन्द्र आदि शब्दों के अर्थ भगवान ही हैं। उन प्रमाणों में भगवान को ही जगत का कारण कहा गया है।

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