प्रपत्ति (शरणागति, न्यासं, आत्मसमर्पण, आत्म-निक्षेपं, भरन्यासम)
जब व्यक्ति यह समझता है कि वो खुद अपनी रक्षा करने में असमर्थ (कर्म, ज्ञान एवं भक्ति से हीन) है और भगवान के अलावा कोई और उसकी रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं तो वह भगवान को असहाय भाव में रक्षा करने को पुकारता है। मन कि इस अवस्था को को शरणागति (शरणं आगति) कहते हैं। अपनी हार स्वीकार कर भगवान को उपाय बनने की विनती करना ही उपाय है। ‘उप समीपे अयते इति उपायः’। जो लक्ष्य के करीब ले जाए उसे उपाय कहते हैं। शरणागति में तत्त्व नारायण हैं, पुरुषार्थ भी नारायण हैं और हित (उपाय) भी नारायण ही हैं।
अहमस्य अपराधानाम् आलयः अकिंचनोगति: ।
त्वमेव उपाय भूतो मे भव इति प्रार्थनामति: शरणागति:।।
शरणागति इति उक्त्वा सा देवेऽस्मिन प्रयुज्यताम्। (अहिर्बुध्व संहिता)
अपनी आत्मा को परमात्मा को सौंप देना ही शरणागति (आत्म-निक्षेप) है।
आत्मा आत्मीय भरण्यासो हि आत्मनिक्षेप उच्यते।। (लक्ष्मी तंत्र 17.29)
प्रपत्ति दो मूल धातु से बना है- ‘प्र’ और ‘पद’। ‘प्र’ का अर्थ है ऊँचा और ‘पद’ यानि कदम। अर्थात सर्वोच्च की ओर कदम बढ़ाना ही प्रपत्ति है।
प्रमाण
- नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः, तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ स्वाम्॥
{मुण्डक उपनिषद (3.2.3) और कठोपनिषद (1.2.23)}
लघु सिद्धांत में रामानुज स्वामीजी, इस श्लोक की व्याख्या करते हुए लिखते हैं:
यथा अयं प्रियतमः आत्मानम् प्राप्नोति, तथा भगवान स्वमेव प्रयतत इति भगवतैव उक्तं।
अर्थ: जैसे हम अपने प्रियतम को स्वयं प्रयत्न कर प्राप्त करते हैं, वैसे ही भगवान स्वयं, अपनी निर्हैतुक कृपा से, शरणागत जीवात्मा को अपना लेते हैं। एक शरणागत को भगवत-प्राप्ति हेतु अपनी ओर से कोई प्रयत्न नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा करना भगवान की निर्हैतुक कृपा में बाधा होगा।
- यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै ।
तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये ॥ – (श्वेताश्वतरोपनिषत् 6-18)
जो श्रृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा को उत्पन्न करता हैऔर जो उसके लिये वेदों को प्रवृत करता है, अपनी बुद्धि को प्रकाशित करने वाले उस देव की मैं मुमुक्षु शरण ग्रहण करता हूँ।
- अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।। (गीता 8.14)
जो पुरुष मुझ में अनन्य-चित्त होकर सदा ही निरंतर मुझ पुरुषोत्तम को स्मरण करता है, जो मेरे साथ निरंतर संपर्क चाहता है, उसे मैं सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।
‘अहं सुलभ’ की व्याख्या करते हुए स्वामीजी लिखते हैं: अहम् एव प्राप्यः न मद्भाव ऐश्वर्यादिकः।
मैं एकमात्र वस्तु हूं जो वह प्राप्त करना चाहता है और न कि मेरे किसी भी तरीके की संप्रभुता आदि। मैं उससे बहुत प्रिय हूं, वह मुझे याद किए बिना खुद को बनाए रखने में असमर्थ है। मैं उसे खुद को प्राप्त करने के लिए आवश्यक भक्ति अभ्यास में पूर्ण परिपक्वता प्राप्त करने की क्षमता प्रदान करता हूं।
तात्पर्य चन्द्रिका में स्वामी वेदांत देशिका ‘अहमेव’ शब्द की व्याख्या करते हुए लिखते हैं:
परमकारुणिकस्य ममैव अयं भर इति अभिप्रायः।
-
राम चरम श्लोक (रामायण युद्धकाण्ड 18.33)
जब विभीषण अपना सब कुछ त्यागकर भगवान की शरण में आते हैं तो भगवान ने शरणागति-मार्ग की व्याख्या करते हुए कहा:
‘सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते | अभयं सर्व भूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम ||’
जो एक बार भी मेरी शरण में आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर मुझसे अभय चाहता है, उसको मैं सब भूतों का अभयदान देता हूँ, यह मेरा व्रत है।
-
कृष्ण चरम श्लोक (गीता 18.66)
भगवान ने गीता में पहले कर्म-योग, उसके बाद ज्ञान योग और फिर भक्ति योग की विस्तृत व्याख्या की। सभी प्रकार के योगों के बारे में भगवान से सुनने के पश्चात अर्जुन ने अपनी असमर्थता व्यक्त की तो भगवान ने आखिरी उपदेश दिया:
सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षिष्यामी मा शुचः||
सभी उपायों (कर्म-योग, ज्ञान योग, भक्ति योग) को त्यागकर मेरी शरणागति करो, मैं तुम्हारे सभी पापों को नष्ट कर तुम्हें मोक्ष प्रदान करूँगा|
- लक्ष्मी तंत्र (१७.१००)
- शरणागतिः इति उक्त्वा सा देवे अस्मिन प्रयुज्यताम।
इदं तितिरिष्टाम पारं सर्वे नाश्यन्ति तातक्षनात।। {अहिर्बुधन्य संहिता (37.3)}
- (स्त्रोत रत्न. 22)
न धर्म निष्ठो, न च आत्मवेदी; न भक्ति माम त्वात चरणारविन्दे। अकिंचनो अनन्यगति शरण्यं, त्वत पाद मूलं शरणम् प्रपद्ये ।।
हे प्रभो! मैं न निष्ठापूर्वक धर्म का पालन (कर्म-योग) करनेवाला हूँ और न आत्म-तत्त्व (ज्ञान-योग) का ज्ञाता हूँ। न आपके चरण कमलों की भक्ति में संपन्न हूँ, न कोई अन्य साधन प्राप्त करने में समर्थ हूँ। असहाय अवस्था में, अन्य कोई गति न होने के कारण, आपके चरणतल में शरणागति करता हूँ।
- कोटि विप्र वध लागहिं जाहूं। आये शरण ताजऊँ नहीं ताहू।।
सनमुख होई जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अध नासहिं तबहीं।। (रामचरितमानस)
यहाँ सन्मुख होने का अर्थ शरणागति है|
उपाय को दो भागों में वर्गीकरण किया गया है:
१) साध्योपाय: वह उपाय जो हमारे द्वारा स्थापित किया जाये और हमारे द्वारा क्रियाशील हो। इसे स्वगत स्वीकारा भी कहते हैं क्योंकि इस उपाय में हम अपने प्रयत्नों द्वारा भगवान तक पहुँचने का प्रयत्न करते है। उदाहरण स्वरुप बांदरी का बच्चा जो स्वयं उछलकर अपने माँ को पकड़ता है। इसलिए इस उपाय को मर्कट-किशोर-न्याय भी कहते हैं। कर्म योग, ज्ञान योग और भक्ति योग साध्योपाय है।

२) सिद्धोपाय: वह उपाय जो पहले से स्थापित है और हमें सिर्फ उसका चुनाव करना है। इसे परगत स्वीकारा भी कहते हैं क्योंकि इस उपाय में हमारे भगवान तक पहुँचने का उत्तरदायित्व भगवान पर ही होता है और भगवान ‘सत्य-संकल्प’ हैं, कभी भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं चूकते। उदाहरण स्वरुप बिल्ली का बच्चा जिसे पकड़कर ले जाने की जिम्मेदारी स्वयं बिल्ली की है। इसलिए इस उपाय को मर्घर-किशोर न्याय भी कहते हैं। शरणागति सिद्धोपाय है। शरणागति भी भक्ति ही है पर भक्ति योग में भक्ति उपाय है और शरणागति में स्वयं भगवान ही उपाय हैं। एक शरणागत कर्म, ज्ञान, भक्ति सबका अनुशीलन करता है पर उपाय के तौर पर नहीं बल्कि सिर्फ भगवान के मुखोल्लाष के लिये। इस मार्ग में सफलता कि १०० फीसदी गारंटी है क्योंकि बांदरी का बच्चा शायद चूक भी जाए अपनी माँ को पकड़ने में, पर बिल्ली अपने बच्चे को सुरक्षित उस पार करने में कभी नहीं चुकती। यह उपाय खास तौर पर अयोग्य, लाचार और सभी साधनों से हीन साधकों के लिये है।

भक्ति योग के कर्म और ज्ञान योग दो अंग हैं। ज्ञानयुक्त कर्म ही भक्ति की ओर ले जाता है। भक्ति योग में मन, बुद्धि और शरीर निर्बाध भगवान की ओर होने चाहिए (अनन्य चिंतयतो माम; सततं कीर्तयन्तो माम)। प्रपत्ति मार्ग की सबसे बड़ी परेशानी यह है की मानसिक रूप से एक शरणागत के ढाँचे में ढलना मुश्किल है और दूसरा यह की हमें शरण्य (भगवान) के प्रति यह अटूट श्रद्धा होनी चाहिए की वो अवश्य हमारी रक्षा करेंगे। लेकिन एक बार शरणागत होने के बाद आगे का मार्ग अत्यंत सुगम हो जाता है।
उदाहरणस्वरुप छत पर जाने के दो उपाय हैं। एक तो सीढियों के द्वारा और दूसरा लिफ्ट से। सीढ़ी से चढ़ना साध्योपाय है क्योंकि व्यक्ति को अपने सामर्थ्य पर भरोसा है। लिफ्ट के द्वारा जाना सिद्धोपाय है क्योंकि लिफ्ट का उपयोग करने का अर्थ ही है की हमने अपनी हार स्वीकार कर ली है कि हम अपने स्वयं के प्रयास से छत पे चढ़ने में असमर्थ हैं और दूसरा की हम जल्दी से जल्दी छत पे जाना चाहते हैं। इस उदाहरण में लिफ्ट भगवान हैं और लिफ्टमैन गुरु। हमें लिफ्ट और लिफ्टमैन पर पूर्ण विश्वास होने की जरुरत है।
अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम। तस्मातकारुण्यभावेन रक्ष रक्ष परमेश्वर।।
शरणागत होने के लिये पूर्वापेक्षा
यूँ तो सभी तरह से अयोग्य होना ही सबसे बड़ी योग्यता है प्रपत्ति में, फिर भी आचार्य कुछ पूर्वापेक्षा बताते हैं| ये पूर्वापेक्षा को उपाय मान लेना भारी भूल होगी| भगवान को रक्षक/उपाय स्वीकार करना चेतन का चैतन्य-कार्य है| इसके बिना भगवान रक्षा नहीं करते:
1) स्वाधिष्ठे अनन्यसार्थे (निराश्रयता):-
- आकिंचन्यम: शरणागति ‘अहंकार, ममत्व और स्वातंत्र्य’ का त्याग है। इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति अपनी हार स्वीकार करने को तैयार नहीं है। हर व्यक्ति अपने-अपने अलग अलग प्रकार के अभिमान के साथ जी रहा है। अहंकार त्याग करने की मुश्किल के कारण ही शरणागति मुश्किल दृष्टिगोचर होती है। हमें यह स्मरण रखना चाहिए की सर्वोत्तम तत्त्व क्या है, सर्वोत्तम पुरुषार्थ क्या है और उसका उपाय क्या है। अगर मैं अपने प्रयासों से मोक्ष प्राप्त करने में सक्षम होता तो कई हजार वर्ष पहले ही कर चूका होता। आकिंचन्यम का अर्थ है अपने आप को कर्म, ज्ञान और भक्ति से हीन समझना और पछताते हुए भगवान से उपाय बनने की प्रार्थना करना। “हे श्रीमन नारायण! मैं सभी साधनों से हीन हूँ पर मैं आपके दिव्य धाम में आपके नित्य कैंकर्य की प्रार्थना करता हूँ कृपया अपने अहैतुकी कृपा से मुझे मोक्ष प्रदान करें।
- अनन्य-गतित्वं : इस बात का पूर्ण विश्वास की भगवान के अलावा कोई और हमारी मदद नहीं कर सकता। लोकाचार्य स्वामी बताते हैं की यदि पिता रक्षक होते तो हिरण्यकशिपू ने प्रह्लाद की रक्षा की होती। यदि माता रक्षक होती तो कैकेयी ने भरत की रक्षा की होती, यदि भाई रक्षक होता तो रावण ने विभीषण की रक्षा की होती। यदि पति रक्षक होते तो द्रौपदी के पाँच महाबली पतियों ने उनकी रक्षा की होती। यदि हम स्वयं अपने रक्षक होते तो गजराज ने ग्राह से स्वयं की रक्षा की होती। इन सभी की रक्षा श्रीमन नारायण ने ही की इसलिए श्रीमन नारायण ही एकमात्र रक्षक हैं। अन्य देवताओं के पास इस भाव से जाना की वो हमारी रक्षा करेंगे, यह शरणागति के प्रतिकूल है। शिव, इंद्र आदि देवता स्वयं संसार-मंडल में फंसे हैं अपनी रक्षा के लिये श्रीमन नारायण पर आश्रित हैं।
2) महाविश्वास : श्रीमन नारायण पर यह पूर्ण विश्वास की वो अवश्य ही हमारी रक्षा करेंगे। अगर महाविश्वास न हो तो फिर शरणागति का अर्थ ही क्या है।
उपजई राम चरण विश्वासा, भवनिधि तरहीं नर बिनहिं प्रयासा
संसारकूपे पतितोऽत्यागाधे, मोहान्धपूर्णे विषयाभितप्ते।
करावलम्बं मम देहि विष्णो, गोविन्द दामोदर माधवेति।।
हे गोविन्द! दामोदर! माधव! मैं मोह रूपी अंधकार से व्याप्त और समस्त विषयों की ज्वाला (दावाग्नि) से संतप्त इस संसार रूपी गहरे कुएँ में पड़ा हूँ। हे विष्णो! आप मेरा हाथ पकड़कर इस कुएँ से बाहर निकालिए। मुझे अपने हाथ का सहारा दीजिये, मैं अपने प्रयत्न से बाहर नहीं निकल सकता।
सवाल) भगवान हमारे ‘उपाय’ बनने को क्यों तैयार होंगे?
उत्तर): जीवात्मा एवं भगवान के मध्य स्वं-स्वामी सम्बन्ध है| भगवान मालिक हैं एवं जीव उनका माल है| मालिक का कर्तव्य है अपने माल के दोषों को दूर कर उसे प्राप्त करना| किन्तु भगवान तब तक हमें प्राप्त करने में विलम्ब करते हैं, जबतक हम स्वयं उन्हें उपाय न स्वीकार कर लें| यही हमारे ज्ञान का उपयोग है|वस्तुतः, शरणागति भी भगवद-कृत है|अनादि काल से भगवान के प्रयत्नों का ही फल है कि जीव के ह्रदय में भगवान के प्रति अद्वेष उत्पन्न हो जाता है| फिर धीरे धीरे जीव भगवान के अभिमुख होता है| जीव के अभिमुख होने पर भगवान उसे साधू-समागम प्रदान करते हैं| ऐसे जीवात्मा को जब भगवान गर्भकाल में जायमान-कटाक्ष प्रदान कर देते हैं, तब वो मुमुक्षु हो जाता है| ऐसे मुमुक्षु को आचार्य के शरण में शरणागति करवा कर भगवान उस जीव को मोक्ष प्रदान करते हैं|
भगवान हमेशा ही हमारे उपाय बनने को उत्सुक रहते हैं पर हमें अपने बल, बुद्धि और सामर्थ्य पर विश्वास होता है। हम भगवान से पृथक हो इस संसार का आनंद लेना चाहते हैं, इसलिए भगवान हमारे ‘उपाय’ नहीं बनते। जबतक हम अपनी हार स्वीकार कर भगवान से असहाय अवस्था में प्रार्थना नहीं करेंगे तबतक भगवान हमारे उपाय कैसे बन सकते हैं।
(नारायण अखिलगुरो भगवन नमस्ते)। (गजेन्द्र स्तुति)
कृष्ण! कृष्ण! महायोगिन्! विश्वात्मन! विश्वभावन। प्रपन्ना पाहि गोविन्द कुरुमध्येवासीदतीम्। (द्रौपदी स्तुति)
कोई कंजूष से महा-कंजूष व्यक्ति ही क्यों ना हो, यदि कोई भिखारी उसका चरण पकड़ ले तो वह कुछ न कुछ भीख अवश्य देगा तो फिर अपार-वात्सल्यमय भगवान हमारे उपाय बनने को तैयार क्यों नहीं होंगे। एक मालिक अपने कर्मचारियों को उनके योग्यता के अनुसार ही वेतन देता है पर यदि कोई उसके आगे दंडवत हो जाये और अपनी लाचारी जताए तो मालिक बिना किसी योग्यता के कुछ रुपये अवश्य देगा। इसी तरह हमारे कर्म, ज्ञान और भक्ति हीन होने के वावजूद भी हमें मोक्ष अवश्य प्रदान करेंगे अगर हम उनके चरणों का आश्रय लें। ऐसा स्वयं भगवान की प्रतिज्ञा है.
जिस तरह एक बछड़ा के धूल में लिपटे होने के वावजूद गाय उसे चाट-चाटकर साफ करती है, उसी प्रकार भगवान भी अपने शरणागतों के दोष और पूर्व के संचित पाप नहीं देखते।
न स्मरत्यपकाराणां शतमप्यात्मवत्तया । कथंचिदुपकारेण कृतेनैकेन तुष्यति ।।
इस पद्य में “कथंचित्” शब्द बड़ा मार्मिक है। सर्वभूतसुहृत् होने के कारण हमेशा सबका कल्याण करने की ही राह देखते रहते हैं । परन्तु बेचारा यह संसारी जीव आसुरी प्रकृति वाला होकर भगवान से दूर दूर ही रहते हुए आपसे दिये जाने वाले पुरुषार्थ लेने को भी तैयार नहीं होता है। तथापि भगवान ऐसे दुरभिमानियों को छोड़ नहीं सकते हैं अत: आप इनको भी सुधारने की कोशिश करते रहते हैं। मगर खेद की बात है कि सुधारने की अपेक्षित अत्यन्य मात्रा का पुण्य भी इनमें कदाचित् मिलता नहीं। ऐसी दशा में भी भगवान हताश नहीं होते हैं परन्तु इनकी जन्मपरंपरा में ढूँढते हैं कि इनमें ऐसा कोई पाप भी मिलेगा, जो किसी तरह से पुण्य कहना सकेगा ।
1. तथाहि शायद ये पापी हमेशा परहिंसा करते हुए उसके बीच में अकस्मात् एक भगवद्भागवत शत्रु का भी संहार किये होंगे, तब भगवान मानेंगे कि यह तो आश्रित जन विरोधि निरसन रूप बड़े पुण्य का काम हो गया ।2. अथवा जेब को काटने के लिए हमेशा जनता के पीछे पड़ने वाला एक चोर किसी पैसे वाले के साथ भगवान के मन्दिर में घुस गया होगा, जब भगवान मानेंगे कि यह तो मेरे मन्दिर में आने वाला मेरा भक्त है ।अथवा3. अपनी खेती में चरने वाली गाय को मारने के लिए, भय से दौड़ती हुई के पीछे दौड़ते, एक घातुक अकस्मात् एक मन्दिर के चारों तरफ फिरा होगा, जिसका भगवान ऐसा अर्थ करेंगे कि यह तो मेरी परिक्रमा करने वाला महात्मा है।अथवा4. एक भगवद्द्द्वेषी नास्तिक भगवान का नाम लेकर निंदा किया होगा, अथवा अपने बन्धु मित्रादियों को पुकारते हुए, अजामिल की तरह, भगवन्नाम का उच्चारण किया होगा, जिसको देखकर भगवान मानेंगे कि यह तो मेरा नाम संकीर्तन करने वाला संत है ।अथवा, एक पामर पहाड़ों को गिनते हुए, दूसरे पहाड़ों के साथ शेषाद्रि, सिंहाद्रि, यादवाद्रि इत्यादियों को भी गिना होगा, तब भगवान कहेंगे कि यह तो मेरे क्षेत्रों का नाम लेने वाला साधु है ।अथवा5. कितने साधु महात्मा लोग दिव्यदेश यात्रा करते हुए, जंगल में जाते रहते हैं, उनको लूटने के लिए एक चोर भी उधर आ पहुँचे, परन्तु ठीक उसी वक्त दूसरा एक चोर दैवयोग से उसी रास्ते से निकला होगा, जिसको देखते ही पहला चोर भय के मारे भाग गया होगा; तब भगवान कहेंगे कि यह (दूसरा चोर) तो मेरे भक्तों की रक्षा करने वाला उपकारक है।अथवा6. कभी परोपकार नहीं करने वाला एक कंजूस मानव, अपनी खेती में लहसुन, चड्स आदि को रोपकर यंत्र की मदद से दूर के कुँए से पानी खिंचवाकर सिंचाते होगा और उस समय में उस रास्ते में यात्रा करने वाले कतिपय महात्मा लोग गरमी से संतप्त होकर पानी को ढूँढते हुए उस पानी को देखकर उसमें अपने हाथ पैर धोकर किंचित् प्रसन्न हुए होंगे, जिसको देखकर भगवान समझेंगे कि यह तो मेरे भक्तों के दुःख को दूर करने वाला महापुरुष है ।अथवा7. द्यूत व्यभिचार इत्यादि दुर्विषय में लग्न कतिपय धूर्तलोग अपने ‘कुकाम के लायक एक एकांत मकान को बँधवाकर रखे होंगे; जहाँ पर वर्षा के समय में यात्रार्थी कतिपय भक्त लोग अकस्मात् आकर एक रात आराम किये होंगे, जिससे भगवना बोल उसी व्याज से उठेंगे कि ओह ! मेरे भक्तों के विषय में इन्होंने कैसा उपकार किया !
इस तरह से इस चेतन से किये जाने वाले आकस्मिक एवं अन्यार्थ कामों को भी ढूँढकर उनको पुण्य मानते हुए उसको अपने में अद्वेष, आभिमुख्य इत्यादियों को देकर, धीरे-धीरे उसको भक्त बनाकर, अन्त में उसको परमपद ले जाने से भगवान कृतज्ञ बिरुदधारी होते हैं।
सवाल) क्या शरणागति उपाय है?
उत्तर) वास्तव में शरणागति उपाय नहीं योग्यता (व्याज) है। उपाय तो केवल श्रीमन्नारायण की अहैतुकी कृपा है। चेतन होने के कारण हमसे यह अपेक्षा है कि हम भगवान को उपाय एवं उपेय मान अपनी रक्षण का भार उन्हें सौंप दें|
सवाल) क्या कोई भी शरण्य बन सकता है?
उत्तर) एक आदर्श शरण्य के पास निम्न दो गुण होने चाहिए:
१) परत्वं : जिसके जोड़ का दूसरा कोई न हो।
२) सौलभ्यम: जो सर्व-सुलभ हो ( भगवान अन्तर्यामी, अर्चा और आचार्य के रूप में सर्व-सुलभ हैं)
सवाल) क्या शरणागति कोई भी कर सकता है?
उत्तर): हाँ। शरणागति में जाति, कुल, रंग, जन्म आदि का कोई भेद नहीं है। शबरी (शूद्र वर्ण में जन्म); निषाद, सुग्रीव (बन्दर), विभीषण (राक्षस), विदूर (दासीपुत्र) इत्यादि उदाहरण हैं।
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ।। (गीता 9.73)
“हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि चाण्डाल आदि, जो कोई भी हो; वे भी मेरी शरण में आकर परमगति को ही प्राप्त होते हैं”।
आनयैनं हरिश्रेष्ठ दत्तमस्याभयं मया।
विभीषणो वा सुग्रीव यदि वा रावणः स्वयं।। ( रामायण युद्धकाण्ड 18.34)
हे वानरश्रेष्ठ सुग्रीव! वह व्यक्ति विभीषण हो अथवा स्वयं रावण भी हो, तो भी उसको ले आओ, मैं उसे अभी अभयदान दे दूँगा।
शरणागति के 6 अंग
आनुकूल्यस्य सङ्कल्पः प्रातिकूल्यस्य वर्जनं ।
रक्षिष्यतीति विश्वासो गोप्तृत्वे वरणं तथा ।
निक्षेपणमकार्पण्यं षड्विधा शरणागतिः ॥
१) भगवान के अनुकूल कर्म करना
२) भगवान के प्रतिकूल कर्म का परित्याग
३) यह विश्वास की भगवान अवश्य हमारी रक्षा करेंगे
४) भगवान से शरणागति की प्रार्थना करना, दैन्यभाव (गोप्तृत्वे वरणं)
५) स्वयं को कर्म, ज्ञान और भक्ति से हीन समझना (कार्पण्यं)
६) आत्मा जो की भगवान की सम्पत्ति है, भगवान को वापस सौंप देना।
कहानी: परकाल सूरी आलवार एक बार जब शालिग्राम गए थे, जहाँ विश्व का सबसे गहरा दर्रा है, उन्होंने देखा की दो कीड़े आपस में बात कर रहें हैं। पहले कीड़े ने कहा मैं दर्रे के उस पार सामने वाली पहाड़ी पे जाउँगा। दुसरे कीड़े ने मानने से इनकार कर दिया। एक कीड़े की आयु ही कितनी होती एक पहाड़ से उतरकर दूसरे पहाड़ पर चढ़ने में तो उसके कई जन्म बीत जायेंगे। दोनों में शर्त लगी। पास ही एक शेर छलाँग लगाने को था। उस कीड़े ने अपने को उसके पैरों के सामने कर लिया और वो शेर के पैर से चिपका हुआ उस पार चला गया। यही शरणागति है। सभी प्रकार से मोक्ष के अयोग्य होने के वावजूद भी अगर हम श्रीमन नारायण के चरणों का आश्रय लें तो श्रीमन नारायण अवश्य ही हमें परमपद देंगे।
टिप्पणी:- नारायण के प्रति कोई भी शरणागति बिना श्री (महालक्ष्मी माता) के पूर्ववर्ती शरणागति के सफल नहीं होती।
‘श्री’ शब्द महालक्ष्मी मैया को सूचित करता है, यह श्री सूक्तं से स्पस्ट है| हम माता महालक्ष्मी के माध्यम से भगवान नारायण की शरणागति करते हैं| वात्सल्यमयी माता (लक्ष्म्या सह हृषिकेश: देव्या कारुण्यरुपया) अपने पुत्रों को उसके दोषों समेत अपनाती हैं और हमारे अनर्थों को नष्ट कर, भगवान के समक्ष हमारे शरणागति कि सिफारिश करती हैं| माता के इस गुण को ‘पुरुषकारत्वं’ भी कहते हैं|
श्री शब्द का निम्न ३ अर्थ बताये गए हैं: (श्रिञ्- सेवायाम्, श्रृ-श्रवणे, शृ-हिंसायाम्, शृ-विस्तारे’)
१) श्रयते श्रीयते इति श्रियः
जो भगवान का आश्रय लेती हैं एवं जीवात्माओं को आश्रय प्रदान करती ।
२) श्रुणोति श्रावयति इति श्रियः
जो जीवात्माओं के प्रार्थनाओं को सुनती हैं एवं भगवान को सुनाती हैं (बाधा चढ़ा कर) ।
३)शृणाति शृृणाति इति श्रियः
जो हमारे पापों सहित संचित कर्मों को नष्ट करके हमें निर्मल बनाती हैं एवं हमारे गुणों का वर्धन करती हैं ।


One thought on “प्रपत्ति (शरणागति)”