अनादिमायया सुप्त इत्युक्तप्रकारेणाऽघऽचितसम्बन्धनिबन्धनाज्ञानांधकारेणाभिभूता आत्मस्वरूपं प्रकृतेः परं ज्ञानानन्दमयं भगवदनन्यार्हशेषमजानन्तो देवोऽहं मनुष्योऽहमिति जड़देहोऽहंबुद्धिकुर्वन्त: उत्पन्नेपि देहातिरिक्तात्मज्ञान इश्वरोहमहंभोगीति स्वतनूत्रमभिमन्यमाना:,
आत्मा को चेतन, चित, जीव, जीवात्मा, क्षेत्रज्ञ, अक्षर, पुमान, पुरुष इत्यादि नामों से भी जाना जाता है। ब्रह्माण्ड में अनंत जीव हैं। आत्मा ज्ञानमय और चेतना-युक्त है पर कर्म हेतु उसे शरीर की आवश्यकता होती है। शरीर आत्मं कुरु धर्मसाधन। जीवात्मा को भक्ति या शरणागति कर कर्म-बंधनों (सुख और दुःख) से मुक्त होने हेतु भगवान जीवात्मा को शरीर, इन्द्रियाँ और विवेक प्रदान करते हैं
एवं संसृतिचक्रस्थे भ्रम्यमाणे स्वकर्मभि:, जीवे दुक्खाकुले विष्णो: कृपा काप्युपजायते। (ahirbudhanya samhita)
प्रलय काल में जब जीवात्माएँ अति-सूक्ष्म अवस्था में और अचेतन/जड़ वस्तु के समान विवेक/ देह से हीन रहती है; तब अत्यंत कृपालु सर्वेश्वर, जीवात्माओं को विवेक/ शरीर आदि प्रदान करते है जिसके उपयोग से वह जीवात्मा भगवान के युगल चरण कमलों की और अग्रसर हो।
विचित्रा देह संपत्ति: ईश्वराय निवेदितुम्, पूर्वमेव कृता ब्रह्मण हस्तपादादि संयुता (Mahabharat)
अपने ह्रदय में उत्पन्न महान कृपा और करुणा के फल स्वरुप भगवान, जन्म के समय जीवात्माओं को ज्ञान/विवेक प्रदान करते है जिस के परिणाम स्वरुप वह इस संसार सागर से तरने/ उद्धार का मार्ग खोजना प्रारंभ करता है। एक मुमुक्षु के लिए, सही ज्ञान के अभाव में मोक्ष प्राप्त करना असंभव है।
जायमानं ही पुरुषं यं पश्येन् यं पश्येन् मधुसूदन: सात्विकस् स् तु विज्ञेयस् स् वै मोक्षार्थ्थ चिन्तक:।।
जो इस शरीर का इस्तेमाल संसार सागर से उद्धार का मार्ग खोजने में नहीं करता है, वो आत्म-हन है। आत्मा का वास्तविक स्वरुप भगवान का शेषी है और आत्मा को तुच्छ और क्षण-भंगुर सांसारिक भोग में लगाना भगवान की सबसे प्रिय वस्तु की चोरी करना है। इससे बड़ा पाप और क्या हो सकता है?
योन्यथा संतमात्मानम् अन्यथा प्रतिपद्यते, किम् तेन न कृतं पापं चोरेनात्मापहारिणा।।
जीवात्मा का स्वरुप भगवान ने भागवत गीता में बताया है (२.१८-२५)। आत्मा देह, इन्द्रियाँ, प्राण वायु, मन, मानस, और बुद्धि से भिन्न है। उदाहरण:
- “मेरा शरीर”, “मेरी इन्द्रियाँ”, “मेरा मानस” । ये सब मेरे हैं तो मैं कौन हूँ? कोई अनपढ़ भी “मैं हाथ” या “मैं शरीर” नहीं कहता। स्पष्ट है कि मैं शरीर, मन और बुद्धि से भिन्न हूँ।
- “मैं आत्मा” और “मेरा आत्मा”; इन दोनों संबोधनों का इस्तेमाल होता है। मैं स्वयं आत्मा हूँ और मेरे परमात्मा हैं। मेरे अन्दर परमात्मा अन्तर्यामी हैं।
- यह प्रश्न उठ सकता है कि “मैं दुबला हूँ” या “मैं मोटा हूँ”; क्या इसका अर्थ यह है कि आत्मा मोटा या पतला है? वास्तव में इसका अर्थ यह है कि ‘मेरे पास दुबला/मोटा शरीर है”। इसका विस्तृत विवरण “शरीर-आत्मा भाव” लेख में है। दूसरी बात यह कि मोटा या पतला होने का अनुभव सिर्फ जाग्रत अवस्था में होता है, सुसुप्त या स्वप्न अवस्था में नहीं। इससे सिद्ध होता है कि हमारी चेतना शरीर से भिन्न है।
आत्मा और शरीर एक दूसरे से भिन्न हैं परंतु वे परस्पर संबंधित हैं। शरीर चेतनाहीन, ज्ञानहीन और आत्मा द्वारा संचालित है। जब हम स्पष्टता से यह समझते हैं कि हम आत्मा हैं तो हम शरीर के लिए कर्म करना त्याग देते हैं।
जैसे कि कहा गया है “अनादी मायया सुप्त:” अर्थात अनंत समय से, जीवात्माएँ इस संसार में अचेतन वस्तुओं के प्रति अपने संबंध/लगाव के कारण, अज्ञानवश (अन्धकार) और अपनी बुद्धि से मलित होकर, यह जाने बिना ही जीवन यापन कर रहे है कि उनका स्वरुप अचेतन जड़ वस्तुओं से भिन्न है अर्थात जीवात्मा ज्ञान और परमानंद से परिपूर्ण है और उसका अस्तित्व मात्र भगवान के आनंद/मुखोल्लास के लिए ही है।
उचित रूप से समझे बिना ही,जीवात्मा विचार करता है,
- “देवोहम् मनुष्योहम्” (मैं देवता हूँ, मैं मनुष्य हूँ) और इस निर्जीव शरीर का ही आत्मा के रूप में बोध करता है
- यद्यपि वह यह जान भी जाता है कि आत्मा और शरीर एक दुसरे से भिन्न है, तथापि “ईश्वरोहम् अहं भोगी” (मैं ही संचालक हूँ और मैं ही भोगता हूँ), अर्थात वह यह विचार प्रारंभ कर देता है कि वह पुर्णतः स्वतंत्र है
- यद्यपि वह अपने स्वरुप को समझते हुए यह भी जानता है कि वह भगवान का दास है, तथापि नित्य कैंकर्य में संलग्न होने के बदले वह सांसारिक सुखों में ही डूबा रहता है
आत्मा स्वरूपतः अणु (सूक्ष्म) है। आत्मा न पुरुष है, नाहीं स्त्री या नपुंसक। कर्मों के अनुसार आत्मा को स्त्री, पुरुष का नपुंसक का शरीर धारण करना होता है (विष्णु पुराण २.१३.९८) और Srimad Bhagwat Puran(4.29.29).।
स्वभाव:
- आत्मा स्वयं आनंदमय है। इसे एक साधारण उदाहरण से समझा जा सकता है। जब कोई व्यक्ति गाढ़ी नींद से जागता है और कहता है, “आनंद आ गया”; इसका क्या अभिप्राय है? गाढ़ी नींद में व्यक्ति का किसी अन्य वस्तु से संपर्क नहीं होता। यह आनंद आत्मा का है। कोई यह तर्क कर सकता है कि आनंद तो जागने के बाद आया। इसका उत्तर यह है कि जब हम यह कहते हैं कि गाना गाकर आनंद आ गया; तो इसका अर्थ यह है कि गाना स्वयं ही आनंदपूर्ण था। आनंद गाना गाने के बाद नहीं अपितु गाने के दौरान आया। वेद इसकी पुष्टि करते हैं- “ज्ञानानंदमयस्त्वात्मा”; “ज्ञानान्दैकलक्षणं”; “निर्वाणमय एवायम् आत्मा”।
- आत्मा शाश्वत है। जन्म और मृत्यु का अर्थ शरीर का धारण और परित्याग है। न जायते म्रियते वा विपश्चित (गीता २.२०)
- आत्मा अणु है और शरीर के ह्रदयग्रंथि में स्थित होता है। उत्कान्तिगत्यागतिनाम् (ब्रह्म-सूत्र)। बालग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च। भागो जीवस्य विज्ञेयः।। एसोऽणुरात्मा।।
- आप्नोति इति आत्मा। यद्यपि आत्मा ह्रदय ग्रंथि में स्थित है, फिर भी धर्मभूत ज्ञान रूपी चेतना पुरे शरीर में व्याप्त होती है, जैसे सूर्य और उसकी रौशनी। धर्मभूत ज्ञान के द्वारा आत्मा एक से अधिक शरीर में भी व्याप्त हो सकता है जैसा कि शौभरि मुनि ने किया था। गुणद्वा अवलोकवत् (ब्रह्म-सूत्र)
- आत्मा मन, बुद्धि, इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है। अव्यक्तोऽयम अचिन्त्योऽयम (गीता २.२५)।
- आत्मा अविकार और अपरिवर्तनशील है (अमृताक्षरं हरः)। जैनों यह मत कि आत्मा शरीर के आकार का होता है, ऐसा मानने से आत्मा परिवर्तनशील हो जाएगी क्योंकि आत्मा तो अनेक शरीर धारण करती है।
- आत्मा गुणों (सत्त्व, राजस, तामस) के प्रभाव में कर्म करता है। सांख्य दर्शन का मत है कि कर्ता आत्मा नहीं अपितु गुण ही हैं। यदि ऐसा होता तो शास्त्र हमें कर्म के नियम क्यों बताते हैं? (कर्ता शास्त्रार्थवत्वात् (ब्रह्म-सूत्र))
धर्मी ज्ञान और धर्म-भूत ज्ञान
आत्मा स्वयं ज्ञानमय है और ज्ञानी/ज्ञाता भी है। धर्मी ज्ञान स्वयं आत्मा का स्वरुप है। आत्मा स्वयं ज्ञान (चेतना) है। धर्मी ज्ञान हमें जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्त, समाधि आदि अवस्थाओं में स्वरुप का बोध कराता है। गाढ़ी नींद या स्वप्न में विभिन्न लोकों की सैर के बाद भी, जागने पर हम स्वयं को नहीं भूलते। याद्दास्त विस्मृत हो जाने पर भी स्वयं को नहीं भूलता। यही धर्मी ज्ञान है। धर्मी ज्ञान परिवर्तन से रहित है।
धर्म-भूत ज्ञान वह है, जो आत्मा को बाह्य प्रयोजनों से प्रकाशित करता है। अपने शरीर, संबंधियों और वातावरण का ज्ञान। इस ज्ञान संकुचन और विस्तार होता है, अर्थात नित्य परिवर्तनशील है। धर्म-भूत ज्ञान बद्ध अवस्था में संकुचित होती है और मुक्तावस्था में इसका पूर्ण विस्तार होता है। इसे स्वयं-प्रकाश भी कहते हैं। जैसे एक लैंप बाह्य वातावरण को प्रकाशित करती है उसे प्रकाश के किसी दूसरे स्रोत की आवश्यकता नहीं है। आत्मा स्वयं-प्रकाश है। अत्रायं पुरुषः स्वयंज्योतिः भवति।
स्वस्मै-प्रकाश का अर्थ है स्वयं को प्रकाशित करना। एक लैंप बाह्य वातावरण को प्रकाशित करती है पर स्वयं को नहीं देख सकती। केवल आत्मा ही स्वस्मै-प्रकाश है।
बौद्धों का ऐसा मत है कि व्यक्ति केवल ज्ञान है, ज्ञाता नहीं। लेकिन इस तर्क से “मैंने वाक्य का अर्थ समझ लिया”, “मैं आपकी बात से सहमत हूँ”; ऐसा कहना मिथ्या हो जायेगा। इस तरह से आत्मा स्वयं ज्ञान है और ज्ञान ग्रहण भी करता है।
जीवात्माएं तीन वर्गों में विभाजित है – नित्यसुरी (जो सदा के लिए मुक्त है), मुक्तात्मा (जो एक समय संसार बंधन में थी परंतु अब मुक्त है) और बद्धात्मा (जो संसार चक्र में बंधे है)। बद्धात्माओं को पुनः भूभूक्षु (वह जो संसार को भोगना (भुक्ति) चाहते है) और मुमुक्षु (वह जो मोक्ष प्राप्त करना (मुक्ति) चाहते है) में वर्गीकृत किया गया है।
- बद्ध आत्माएं: बद्ध आत्माएं वे हैं, जो अनादी समय से इस संसार चक्र में फसें हुए हैं। वे अज्ञानवश, जन्म मृत्यु चक्र में बंधे हैं, जिससे पापों/ पुण्यों का संचय होता है। वे सभी जीवात्माएं, जिन्हें अपने सच्चे स्वरुप के विषय में ज्ञान नहीं है, वे इस वर्ग में आते हैं। वे आत्मा के सच्चे स्वरुप के ज्ञान को खोकर, स्वयं का बोध देह, इन्द्रियाँ आदि के द्वारा करते हैं। ऐसी बद्ध आत्माएं भी हैं, जो स्वयं को संपूर्णतः स्वतंत्र मानकर कृत्य करते हैं।
बद्ध आत्माओं को कर्मानुसार सुख और दुःख का अनुभव होता है। संसार मंडल में तीन प्रकार के दुःख हैं:
- आध्यात्मिक क्लेश: जो स्वयं के कारण होता है।
- आधिभौतिक क्लेश: जो दूसरों के कारण होता है।
- आधिदैविक क्लेश: जो प्राकृतिक घटनाओं के कारण होता है ।
2. मुक्त आत्माएं: ये वह जीवात्माएं हैं, जो किसी समय संसार (भौतिक जगत) में फंसे हुए थे, परंतु अब परमपद (आध्यात्मिक जगत) में सुशोभित हैं। ये जीवात्माएं स्वप्रयासों (कर्म, ज्ञान, भक्ति योग) द्वारा अथवा भगवान की निर्हेतुक कृपा द्वारा परमपद पहुँचते हैं। संसार से निवृत्त होकर, ये मुक्त जीवात्माएं अर्चिरादी गति द्वारा, विरजा नदी में स्नान करके एक सुंदर दिव्य देह को प्राप्त करते हैं। वहाँ नित्यसुरीगण और अन्य मुक्त जीवात्माएं, श्री वैकुंठ में उनका स्वागत करते हैं और फिर वे सभी भगवान की नित्य सेवा को प्राप्त करते हैं।
वो बद्ध आत्माएं जो भगवान से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की आशा रखते हैं वो एकांति कहलाते है। वो भक्त आत्माएं जो ज्ञान और भक्ति की सर्वोच्च अवस्था में होते हैं, वो भगवान से मोक्ष भी नहीं माँगते, भगवत-सेवा में ही लीन रहते हैं। ऐसे भक्तों को परमैकांति कहते हैं। ये अत्यंत दुर्लभ अवस्था है।
- नित्य आत्माएं : यह वह जीवात्माएं हैं, जो कभी संसार चक्र के बंधन में नहीं बंधे। वे सदा परमपद में अथवा जहाँ भी भगवान हो, उनकी नित्य सेवा करते हैं। मुख्य नित्यसूरीगण, जो सदा भगवान की सेवा करते हैं। जैसे:
- आदिशेषजी
- गरुड़जी
- विश्वकसेनजी, आदि
कुछ लोग एकैक आत्मा के सिद्धांत का प्रचार करते हैं (शास्त्रों में पाए जाने वाले अद्वैत के सिद्धांत का गलतफ़हमी करते हुए) जो अज्ञान से आच्छादित होकर , स्वयं को अनेकों (बहुवचन) मानकर भ्रमित होती होते हैं। परंतु यह तर्क और शास्त्र के विपरीत है।
यदि हर आत्मा एक ही होती तो एक आत्मा के मुक्त होने पर सारे आत्माओं को मुक्त हो जाना चाहिए। यदि केवल एक ही आत्मा है, तब एक व्यक्ति के सुखी होने पर, अन्य व्यक्ति को दुखी नहीं होना चाहिए। परंतु क्योंकि दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं, किसी एक व्यक्ति में एक ही समय पर भिन्न भाव नहीं हो सकते। शास्त्र यह भी कहता है कि कुछ आत्माएं मुक्त हैं और कुछ अभी भी संसारी हैं, कुछ आचार्य हैं और अन्य शिष्य हैं, इसलिए बहुत सी जीवात्माएं सृष्टि में हैं। एकैक आत्मा का सिद्धांत, शास्त्रों के कथन के भी विरुद्ध है, क्योंकि शास्त्रों में कहा गया है कि सृष्टि में बहुत सी जीवात्माएं हैं। नित्योऽनित्यानां चेतनश्चेतनानाम् एको बहूनां यो विदधाति कामान् ।। क.उ. २.२.१३; श्वे.उ. ६.१३॥
मोक्ष की अवस्था में भी, असंख्य जीवात्माएं हैं। (सदा पश्यन्ति सूरयः)।
हमें यह शंका हो सकती है कि –परमपद में निवास करने वाले जीवात्माएं भिन्न हैं, क्योंकि उनमें क्रोध, इर्ष्या, आदि कोई अवगुण नहीं है, जो इस भौतिक जगत में देखे जाते हैं। यद्यपि गुणात्मक रूप से उस स्थिति में सभी आत्माएं समान हैं, जिस प्रकार बहुत से पात्र जो वजन और माप में एक समान है, परंतु फिर भी एक दूसरे से भिन्न हैं, उसी प्रकार परमपद में निवास करने वाले जीवात्माएं भी एक समान होते हुए भी एक दूसरे से भिन्न हैं।
इस प्रकार, यह स्पष्टता से समझा जा सकता है कि भौतिक और आध्यात्मिक जगत दोनों ही स्थानों पर असंख्य जीवात्माएं हैं।
उपसंहार
यहाँ आत्मा की स्वाभाविक ज्ञानमय और आनंदपूर्ण स्थिति के विषय में बताया गया है। ज्ञान के सम्पूर्ण उदय या विस्तार से आत्मा को आनंदपूर्ण अवस्था प्राप्त होती है। जब अस्त्र अथवा विष (कोई भी वस्तु जो देह, मानस आदि के लिए प्रतिकूल हो) से हमारा सामना होता है, वह दुख जनित होता है। परंतु वह इसलिए है, क्योंकि हम आत्मा को देह मानकर भ्रमित होते हैं- परंतु जब हम समझ जाते हैं कि अस्त्रों से केवल देह प्रभावित होती है, आत्मा नहीं, तब हमें कोई पीढ़ा नहीं सताएगी।
हमारे अपने कर्म ही हमें भयभीत करते हैं।
हमें इस विषय में पूर्ण समझ नहीं है कि भगवान सभी में व्याप्त हैं (उन अस्त्रों में भी)– प्रहलाद आलवान पूर्णतः आश्वस्त थे कि भगवान सभी में व्याप्त हैं और साँप, हाथियों अथवा अग्नि द्वारा भयभीत किये जाने पर भी उन्होंने कोई विरोध नहीं किया। वे उनमें से किसी से भी प्रभावित नहीं हुए। क्योंकि सभी में भगवान व्याप्त हैं इसलिए सभी को अनुकूल ही समझना चाहिए। प्रतिकूलता, हमारे विवेक का भ्रम है।
किसी के अनुकूल होने का यदि कोई कारण है, तो उसी जीवात्मा के लिए अन्य परिस्थितियों, अन्य समय में वही वस्तु प्रतिकूल प्रतीत होती है। उदहारण के लिए, गर्म पानी शीत ऋतू में अनुकूल प्रतीत होता है, परंतु ग्रीष्म ऋतू में प्रतिकूल – इसलिए गर्म पानी स्वतः ही अच्छा अथवा बुरा नहीं है- यह उसे उपयोग करने वाले की अनुभूति और आसपास के पर्यावरण से प्रभावित उसके देहिक विचार पर आधारित है।
एक बार जब हम यह देखते हैं कि सभी भगवान से सम्बंधित है, हम स्वतः ही आनंद का अनुभव कर सकते हैं।
यद्यपि यहाँ तत्व त्रय नामक दिव्य ग्रंथ से चित प्रकरण का भली प्रकार से विवेचन किया गया है, यह अनुशंसा की गयी है कि इस ग्रंथ के कालक्षेप को आचार्य के सानिध्य में श्रवण करने से सच्चे ज्ञान की प्राप्ति होती है।
रहस्य तत्वत्रयतय विवृत्या लोकरक्षिणे। वाक्बोशा कल्परचना प्रकल्पायास्तु मंगलम।।
श्रीमते रम्यजामातृ मुनींद्राय महात्मने। श्रीरंगवासिने भूयात नित्यश्री नित्य मंगलं।।
http://ponnadi.blogspot.com/2013/10/aippasi-anubhavam-pillai-lokacharyar-tattva-trayam.html
अति उत्तम विचार व्यक्त किए हैं ।
आत्मा की जानकारी व्यक्ति को होना अनिवार्य है ।
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