अचित
अचित (अ+चित) का अर्थ है चेतना से रहित। चित्त,जो अपरिवर्तनीय है, से भिन्न अचित परिवर्तन से गुज़रती हैमाया ज्ञानहीन है और परिवर्तन का निवास है। क्योंकि माया ज्ञानहीन है, वह पुर्णतः दूसरों के भोग के लिए सृष्टि में है।
शुद्ध सत्त्व
शुद्ध सत्त्व अप्राकृत और आध्यात्मिक वस्तु है जो केवल श्रीवैकुण्ठ में पाया जाता है। शुद्ध सत्त्व का अर्थ है- रजस और तमस गुणों से रहित होना। यह प्राकृत ‘सत्त्व गुण’ से भी बिल्कुल अलग है। श्रुति वाक्य – राजसः पराके; तमसस्तु पारे; तमसः परस्तात इत्यादि।
यह मुख्यतः परमपद में पाए जाने वाली सभी माया/ वस्तुयें हैं। स्वरुप से यह नित्य/ अनादी हैं और ज्ञान और आनंद का स्त्रोत है। श्रीमन्नारायण भगवान का आध्यात्मिक निवास, जो दिव्य पदार्थ से निर्मित मंडपों, बागीचों, आदि से सुसज्जित है, यह शुद्ध सत्वता है। भगवान की दिव्य अभिलाषा को प्रत्यक्ष करते विमानों/ मीनारों, मंडपों आदि, जो कर्म में बंधे जीवात्मा द्वारा निर्मित नहीं है। भगवान जब संसार-मंडल में अवतार लेते हैं तो उनका शरीर भी शुद्ध सत्त्व से निर्मित होता है। (आप प्रकट भये, विधि न बनाए)
निज इच्छा निर्मित तनु, माया गुण गोपार।
यद्यपि शुद्ध सत्त्व प्रकाशमान है, फिर भी इसे अचित कहा गया है। शुद्ध सत्त्व ‘स्वयं-प्रकाश’ तो है पर ‘स्वस्मै-प्रकाश’ नहीं है। जैसे एक लैंप जो प्रकाशमान तो है पर स्वयं को प्रकाशित नहीं कर पाता। लैंप को इस बात का ज्ञान नहीं कि वह क्या कर रहा है।
इसका तेज सूर्य और अग्नि से भी अधिक है और इतना विशाल, जिसे नित्य, मुक्त और स्वयं भगवान भी पूर्णतः समझ नहीं सकते। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी इस पर एक प्रश्न करते हैं और फिर स्वयं उसका उत्तर भी देते हैं – यदि भगवान स्वयं इसे पूर्णतः समझ नहीं सकते, तो क्या यह उनके सर्वज्ञत्वं (सर्व ज्ञाता गुण) को ग़लत साबित नहीं करेगा? फिर वह सुंदरता से समझाते हैं कि सर्व ज्ञाता होना अर्थात सभी के सच्चे स्वरुप जो जानना – इसलिए, भगवान जानते हैं कि शुद्ध सत्व असीमित है, जो उसका सच्चा स्वरुप है और यही उनका सच्चा सर्वज्ञत्वं है।
यह धर्मभूत ज्ञान से भिन्न है क्योंकि यह दूसरों की सहायता के बिना ही विभिन्न रूपों में प्रत्यक्ष है (ज्ञान का कोई स्थूल स्वरुप नहीं है)। यह विभिन्न रूपों में परिवर्तित हो जाता है। यह जीवात्मा के स्वरुप से भिन्न है क्योंकि इसे स्वयं की अनुभूति नहीं है। यह नित्य, मुक्त और भगवान के समक्ष वह प्रत्यक्ष है। परंतु संसारी उसे समझ पाने में असमर्थ है।
२. मिश्र सत्त्व (अशुद्ध साधुता)
स्वरूप से, यह सत्व, रजस और तमस का मिश्रण है। इसे प्रकृति, अविद्या और माया के नाम से भी जाना जाता है। यह नित्य और परिवर्तन-रहित है। यह लीला-विभूति में ईश्वर के क्रीड़ा हेतु है और समय (सृष्टि और संहार) और परिस्थिति (अव्यक्त और व्यक्त) के अनुसार कभी एक दूसरे के समान और कभी एक दूसरे से भिन्न है।
- प्रकृति – क्योंकि वह सभी परिवर्तनों का स्त्रोत है, इसे निम्न रूप में जाना जाता है।
- अविद्या – क्योंकि वह सच्चे ज्ञान से भिन्न है।
- माया – क्योंकि इसका परिणाम अद्भुत और भिन्नता से परिपूर्ण है।
सत्त्व – ज्ञान और आनंद का श्रोत है।
रजस/ राग- ‘लौकिक कामनाओं की आसक्ति और तृष्णा’ का स्त्रोत है।
तमस – ‘विकृत ज्ञान, कृतघ्नता, आलस्य और नींद’ का स्त्रोत है।
यह जीवात्माओं के लिए विकृत ज्ञान का स्त्रोत है। रजस और तमस गुण, जीवात्मा के ज्ञान और आनंद को आवृत कर देते हैं। इसके कारण केवल ज्ञान और आनंद घटता या लोप हो जाता है, अपितु जीवात्मा आनंद की अन्यत्र खोज करने लगता है, स्वयं के स्वतंत्र होने का अभिमान पाल लेता है, शरीर को ही आत्मा समझ लेता है, क्षणिक सांसारिक सुखों का भोग करने लग जाता है, अपने वास्तविक और चरम लक्ष्य को भूल जाता है और भगवान के छोड़ अन्यत्र उपायों को अपनाता है।
प्रलय काल में यह सूक्ष्म (अव्यक्त) अवस्था में, नाम रूप से हीन होता है। तब तीनों गुण समानता से विभाजित होते हैं। इसे ‘मूल-प्रकृति’ कहा जाता है। श्रृष्टि के बाद यह स्थूल (प्रकट, व्यक्त) अवस्था में, नाम और रूप से युक्त हो जाता है। तब तीनों गुण असमान रूप से विभाजित होते है। व्यक्त अवस्था में इसे ‘प्रकृति’ कहा जाता है।
तिरुवाय्मौली 10.7.10 में श्रीशठकोप स्वामीजी द्वारा यह बताया गया है कि माया के 24 तत्व हैं :-
- पञ्च तन्मात्र – 5 अनुभूति के स्त्रोत – शब्द (आवाज), स्पर्श, रूप, रस (स्वाद), गंध।
- पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ – 5 ज्ञानेन्द्रियाँ- श्रोत्र (कान), त्वक (त्वचा), चक्षु (नेत्र), जिह्वा, ग्राह्णा (नासिका)।
- पञ्च कर्मेन्द्रियाँ – 5 कर्मेन्द्रियाँ – वाक् (मुख), पाणी (हस्त), पाद (पैर), पायु (मल उत्सर्जन अंग), उपस्थ (संतति के अंग)।
- पञ्च भूत – 5 महान तत्व – आकाश (नभ), वायु (हवा), अग्नि, जल, पृथ्वी।
- मानस – मस्तिष्क।
- अहंकार – अहं (यह अहंकार मनुष्य के गुण रूपी अहंकार से अलग है)।
- महान – पदार्थ का प्रत्यक्ष स्वरुप।
- मूल प्रकृति – पदार्थ का अव्यक्त स्वरुप।
श्रृष्टि की प्रक्रिया
तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः। आकाशाद्वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्भ्यः पृथिवी। पृथिव्या ओषधयः। ओषधीभ्योऽन्नम्। अन्नात्पुरुषः। ।।तैतरीय उपनिषद 2.1.1।।
उस आत्मासे ही आकाश उत्पन्न हुआ। आकाशसे वायु, वायुसे अग्नि, अग्निसे जल, जलसे पृथिवी, पृथिवीसे ओषधियाँ, ओषधियों से अन्न।
महान व्यक्त पदार्थ की प्रथम अवस्था है और उससे ही अहंकार उत्पन्न होता है। तदन्तर महान और अहंकार से ही सभी अन्य तत्व (जैसे तन्मात्र, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, आदि) व्यक्त होते है। पञ्च तन्मात्र (अनूभुती के विषयवस्तु) पुच भूतों अर्थात सकल तत्वों की सूक्ष्म अवस्था है। भगवान इन विभिन्न तत्वों के मिश्रण से व्यक्त ब्रह्माण्ड का निर्माण करते है (पंचिकरनम)। भगवान ब्रह्माण्ड और उसके कारक का निर्माण करते है। अर्थात, अपने संकल्पमात्र से अनायास ही भगवान अव्यक्त मूल प्रकृति को व्यक्त स्थिति में परिवर्तित करते है। ब्रह्माण्ड में रहने वाले सभी जीवों का निर्माण ब्रह्मा, प्रजापति आदि के माध्यम से भगवान द्वारा किया गया है (उनमें अन्तर्यामी होकर)। ऐसे असंख्य ब्रह्माण्ड अस्तित्व में है।
विस्तृत विवरण ‘श्रृष्टि स्थिति संहार’ लेख में है। श्रृष्टि स्थिति संहार
लीला विभूति (संसार) की संरचना
प्रत्येक ब्रह्माण्ड की 14 परतें है।
7 नीचे की परतें
ऊपर से नीचे तक जाते हुए, क्रमश: उनका नाम है – अतल, वितल, नितल, कपस्थिमत (तलातल), महातल, सुतल और पाताल।
ये राक्षसों, सांपो, पक्षियों, आदि के रहने का स्थान है। यहाँ बहुत से सुंदर महल, मकान आदि है जो स्वर्ग लोक से भी अधिक आनंददाई है
7 ऊपर की परतें
- भू लोक – जहाँ मानव, पशु, पक्षी आदि निवास करते है। यह 7 बड़े द्वीपों में विभाजित है। हम जम्भूद्वीप में रहते है।
- भूवर लोक – जहाँ गंधर्व (आकाशीय गायक) निवास करते है
- स्वर्ग लोक – जहाँ इंद्र (वह पद जो भूलोक, भूवर लोक और स्वर्ग लोक की गतिविधियों का प्रबंध करता है) और उसके सहयोगी निवास करते है
- महर लोक – जहां निवृत्त इंद्र या आने वाले इंद्र निवास करते है
- जनर लोक – जहाँ अनेकों महान ऋषि जैसे ब्रह्मा के चार पुत्र – सनक, सनकाधिक, सनातन और सनंदन आदि निवास करते है
- तप लोक – जहाँ प्रजापति (मौलिक प्रजनक) निवास करते है
- सत्य लोक – जहाँ ब्रहमा, विष्णु और शिव, अपने भक्तों के साथ निवास करते है
प्रत्येक ब्रह्माण्ड (14 परतों से निर्मित) सुरक्षा की 7 परतों से घिरा है – जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महान और अंततः मूल प्रकृति।
३. सत्व शून्य – समय
समय तीनों गुणों से रहित है। समय अखंडित और अनादी है – अर्थात उसका कोई आदि और कोई अंत नहीं है। श्री पेरियवाच्चान पिल्लै समझाते हैं – “परमपद और संसार दोनों में ही समय का स्वरुप एक समान है”। ईश्वर के क्रीड़ा के लिए सहायक है और स्वयं भगवान के स्वरुप का अंश है। हमने अपने अपने व्यव्हार की कुशलता के लिये समय को विभिन्न मापदण्डों विभाजित किया है (जैसे दिन, सप्ताह, महीना आदि)।
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, नुदुविल तिरुवेधिप पिल्लै भट्टर द्वारा समझाए गए समय के वर्गीकरण को समझाते हैं।
निमेषम (क्षण, पलक झपकने का समय – एक सेकंड के बराबर) समय की सबसे सूक्ष्म इकाई है
15 निमेषम = 1 काष्ट
30 काष्ट = 1 कलई
30 कलई = 1 मुहूर्त
30 मुहूर्त = 1 दिवस (1 दिन)
30 दिवस = 2 पक्ष (पंद्रह दिन) = 1 मास (महीना)
2 मास = 1 ऋतू
3 ऋतू = 1 अयन (6 मास – उत्तरायण और 6 मास – दक्षिणायण)
2 अयनं = 1 संवत्सर (वर्ष)
360 मानव संवत्सर = 1 देव संवत्सर
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