तत्त्व-त्रय- ईश्वर (ब्रह्म)

नमो नमस्तेऽखिलकारणाय निष्कारणायाद्भुतकारणाय| सर्वागमाम्नायमहार्णवाय नमोऽपवार्गायपरायणाय||

ब्रह्मशब्देन च स्वभावतः निरस्तनिखिलदोषः अनधिकाशय असंख्येयकल्याणगुणगणः पुरुषोत्तमो अभिधीयते (श्रीभाष्य)।cropped-srirangam-ranganathaswamy-periyaperumal.jpg

ब्रह्म को परिभाषित करते हुए रामानुज स्वामीजी कहते हैं:

  • जो समस्त दोषों से रहित हैं। (अखिल हेय प्रत्यनिक)। निर्गुण निरंजन शब्दों  का अर्थ समस्त दूषणों और रज, तम  गुणों से रहित होना है।
  • जो अनन्त कल्याण गुणों से युक्त हैं जैसे सत्यकाम, सत्यसंकल्प, कारुण्य, ज्ञान, बल, आदि। (अनंत कल्याण गुणाकरम)
  • श्रृष्टिस्थितिसंघारत्वं: जो सृष्टि की उत्पत्ति, पोषण और संहार को पुर्णतः नियंत्रित करते हैं।
  • ज्ञानान्दैकस्वरुपं: संपूर्ण ज्ञान और अपरिमित आनंद का भण्डार हैं।
  • वह जो श्रीदेवीजी, भूदेवीजी और नीलादेवीजी के प्राण प्यारे नाथ हैं।

यस्मात् सर्वेश्वरात् निखिलहेयप्रत्यनीक स्वरूपात् सत्यसंकल्पात् ज्ञानानन्दाद्यनन्तकल्याणगुणात् सर्वज्ञात् सर्वशक्ते: परमकारुणिकात् परस्मात् पुंसः श्रृष्टिस्थितिप्रलयाः प्रवर्तते, तत् ब्रह्मेति सूत्रार्थः (श्रीभाष्य)।

भगवान समय/ काल के संदर्भ में (नित्य/ अनादी) और स्थान के संदर्भ में (सर्वव्यापी स्वरुप) असीमित हैं। वह प्रत्येक जीवात्मा में अन्तर्यामी परमात्मा हैं (दिव्य-आत्म स्वरुप)। भगवान विभु हैं जबकि जीवात्मा अणु। ईश्वर शब्द का अर्थ है कि जो समस्त ऐश्वर्यों से परिपूर्ण हो। भगवान की सम्पत्ति क्या है? नित्यविभूति और लीला विभूति। नित्य विभूति विरजा नदी के उस पार है। वहाँ भगवान अपने पर-स्वरुप (दिव्य मंगल विग्रह) में नित्य एवं मुक्त आत्माओं के संग विराजमान हैं। लीला विभूति भगवान का क्रीडास्थल है। यहाँ भगवान लीला हेतु अवतार लेते हैं। लीला विभूति में बद्ध जीवात्माओं का निवास होता है। लोकवत्तु लीलाकैवल्यं

वेदार्थ संग्रह का मंगल-श्लोक:

भगवान विष्णु के तीन गुण है:

[i] अशेष – चिद् – अचिद् – वस्तु – शेषिन्

समस्त चेतन और अचेतन के स्वामी है।

[ii] शेषशायिन

आदिशेष पर विराजमान होते है।

[iii] निर्मलाकान्त कल्याण निधिः

भगवान विष्णु पवित्र और समाप्त न होने वाले शुभ के स्वामी है। भगवान् विशुद्ध सत्त्व है। भगवान् कभी भी कलंकित नही हो सकते है। उनके विभिन्न अवतार अकलंकित, दोष रहित एवं दिव्य है। वह पारलौकिक तो है ही अपितु मोक्षदाता भी है (सभी जीवों को मोक्ष प्रदान कर सकते है)। भगवान् ऐसे असीमित दिव्य शक्तियों से युक्त है जिनसे वह मोक्षदाता व मोक्षप्रदायक के रूप में प्रकाशमान है। अतः यह स्पष्ट है कि हम उसके (भगवान् के) प्रति समर्पित हो और मोक्ष प्राप्त करें।

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भगवान के दिव्य कल्याण गुण और उन गुणों के लक्ष्य-

  • भगवान का ज्ञान, उन जीवों की सहायता के लिए है, जो स्वयं को अज्ञानी स्वीकार करते हैं।
  • भगवान की शक्ति, उनकी सहायता के लिए है, जो स्वयं को दीन समझते हैं।
  • भगवान की क्षमा, उनकी सहायता के लिए है, जो स्वयं को अपराधी मानते हैं।
  • भगवान की कृपा, उनके लिए है, जो स्वयं को इस संसार पीढ़ा से व्यथित जानते हैं।
  • भगवान का वात्सल्य, उनकी सहायता के लिए है जो स्वयं को सदा दोषयुक्त समझते हैं।
  • भगवान का शील (भव्यता), उनकी सहायता के लिए है, जो स्वयं को दलित समझते हैं।
  • भगवान का आर्जवं (सत्यता), उनकी सहायता के लिए है, जो स्वयं को कपटी समझते हैं।
  • भगवान का सौहाद्र (सह्रदयता), उनकी सहायता के लिए है, जो स्वयं को अच्छा नहीं मानते हैं।
  • भगवान का मार्धवं (ह्रदय की कोमलता), उनकी सहायता के लिए है, जो भगवान से वियोग सहन नहीं कर सकते।
  • भगवान का सौलभ्यं (सुलभता), उनकी सहायता के लिए है, जो सदा उनके दर्शन को चाहते हैं।

 

भगवान के प्रत्येक दिव्य गुण जीवात्मा के लिये कल्याणकारी हैं। लोकाचार्य स्वामी बताते हैं कि जो जीवात्मा भगवान के परत्वं और स्वातंत्रियम से डरकर भगवान के समीप जाने से संकुचाते हैं, उन्हें भगवान के सौलभ्यम (सुगमता से प्राप्त होने वाले), सौशील्य (दयालुता/ उदारता), कारुण्य और वात्सल्य (मातृ प्रेम) गुणों का ध्यान करना चाहिए। श्रीराम का गुहा, हनुमान आदि में हिलना मिलना और श्रीकृष्ण का ग्वाल-बालों के संग हिलना मिलना भगवान के सौलभ्यम और सौशील्य गुणों के उदाहरण हैं। भगवान इस संसार में पीड़ित जीवात्माओं के दुःख को देखकर व्यथित/ चिंतित रहते हैं  और सदा उनके कल्याण के लिए सोचते हैं (परदुःख असहत्वं)। जो भगवान के शरणागत होते हैं, उन जीवों के लिए भगवान जन्म, ज्ञान, कर्मों आदि पर आधारित उनके किसी भी दोष को नहीं देखते हैं।

वैषम्यनैघृण्ये न सापेक्षत्वात् (ब्रह्म सूत्र 2.1.34)

There is no chance of partiality or lack of compassion of supreme being. He who performs good works becomes good, he who performs bad works becomes bad. He becomes pure by pure deeds and bad by bad deeds.

सर्वोच्च होने की करुणा की कमी का कोई मौका नहीं है। जो अच्छा काम करता है वह अच्छा हो जाता है, जो बुरा काम करता है वह बुरा हो जाता है। वह शुद्ध कर्मों से शुद्ध हो जाता है और बुरे कर्मों से बुरा होता है।

वैकुण्ठ

जगत कारणं

जिस प्रेम और चिंता से एक गाय अपने नये जन्में बछड़े के लिए बड़े बछड़ों को दूर कर देती है उसी प्रकार, भगवान भी नये जीवात्मा के शरणागत होने पर श्रीमहालक्ष्मीजी और नित्यसूरियों को पीछे करते हैं।

तैतारियोपनिषद (3.1.1)

यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जातानि जीवन्ति। यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तद्विजिज्ञासस्व। तद्ब्रह्मेति।

जिससे निश्चय ही ये सब भूत उत्पन्न होते हैं? उत्पन्न होनेपर जिसके आश्रयसे ये जीवित रहते हैं और अन्तमें विनाशोन्मुख होकर जिसमें ये लीन होते हैं उसे विशेषरूपसे जाननेकी इच्छा कर वही ब्रह्म है।

जिससे सारा जगत उत्पन्न हुआ है, जिसमें ही यह प्रलय के समय लीन होता है और जिसके द्वारा यह धारण किया जाता है

स्वरुप निरूपक धर्म:

  1. सत्यत्व (eternality),
  2. ज्ञानत्व (form made of knowledge),
  3. अनंतत्व (not being limited by time, place, object),
  4. आनंदत्व (boundless bliss),
  5. अमलत्व (free from any blemishes)

निरुपित स्वरुप विशेषण: (भग)

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः।  ज्ञानवैराग्योश्चैव षण्णां भग इतीरणा।। (विष्णु पुराण ६.५.७४)

“सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सम्पूर्ण धर्म, सम्पूर्ण यश, सम्पूर्ण ज्ञान और सम्पूर्ण वैराग्य – इन छहों का नाम ‘भग’ है”। ये सब जिसमें हों, उसे भगवान कहते हैं।

उत्त्पतिं प्रलयं चैव भुतानमागतिं गतिम्। वेत्ति विद्यामविद्याम च स वाच्यो भगवानिति।। (विष्णु पुराण ६.५.७८)

अर्थात “उत्पत्ति और प्रलय को, भूतों के आने और जाने को तथा विद्या और अविद्या को जो जानता है, वही भगवान है”। अतः भगवान’ का अर्थ सर्वऐश्वर्यसंपन्न, सर्वज्ञ और साक्षात् परमेश्वर है।

प्रवरगुणषट्कं प्रथमजं गुणानांनिस्सीम्नां गणनविगुणानां प्रसवभूः। (वरदराजस्तव.15)

भगवान के ६ प्रमुख गुण अनंत कल्याण गुणों (जैसे कृपा) की जननी है।

भगवान् चूंकि कलंक रहित व दिव्य शक्तियों से युक्त व पूर्णतया शुद्ध व अतिशयोक्ति सुन्दरता से युक्त है, भगवान् श्री विष्णु का यह अनुभव बहुत आनन्दप्रद है। इस प्रकार जीव भगवान् विष्णु के साथ अपने निज व नित्य सम्बन्ध को समझकर भगवान् के प्रति समर्पित हो, तब वह जीव सुख व आनंद का अनुभव करता है। उनका स्वामित्व व आधिपत्य अपने आप मे आनन्दमय है। भगवान् अपने स्वामित्व का प्रभाव किसी भी जीव पर जोर जबरदस्ती से नही करते। परन्तु, आध्यात्मिक ज्ञानाभिज्ञ जीव जैसे सन्त महापुरुष यथार्थ रूपेण भगवदानुभव करते है और इस अनुभव के प्रभाव से भगवद् प्रेम से पूरित रहते है। भगवद् सेवाभाव का प्रादुर्भाव ऐसे प्रेम युक्त भगवदानुभव से होता है। अतः ऐसे भगवान् का अभिमत व सोद्देश्य की सेवा करने से, जीव आनन्द व परिपूर्ण तृप्ति प्राप्त करता है। भौतिक संसार का सम्बन्ध अनित्य एवं बहुत दुःखद है। भगवान् विष्णु का जीव से सम्बन्ध निज एवं नित्य व आनन्दमय हैं।

नारायण

नारानाम नित्यनाम अयनं इति नारायण|

नर= न + र

अर्थात जिसका कभी क्षय न हो, जो शाश्वत (नित्य) है, उसे नर कहते हैं

नार = नर का बहुवचन, नरों का समूह अर्थात जगत्

नार + अयन = नारायण (संधि)

क) नराणाम् अयनं नारायणम् ( तत्पुरुष समास )

जो समस्त जगत के आधार हैं (बहिर्व्याप्ती) एवं हर नर के अन्दर आधार स्वरुप अंतर्यामी परमात्मा हैं ( अंतर्व्याप्ती), वो नारायण हैं|

ख) नारः अयनं यस्य सः नारायणं ( बहुब्रीहि समास)

समस्त जगत (नारः) जिनका शरीर (अयनं) है एवं जो जगत के आत्मा हैं, वो नारायण हैं (शरीर-आत्मा भाव)।

भगवान के अनंत रूप हैं और उन अनंत रूपों में एक रूप अरूप होना या निराकार होना भी है।

अवतार

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Pic Credit: Tanuja Joshi

मर्त्यावातारस्तिवः मर्त्यशिक्षणम, रक्षो बधायै व सज्जनाय केवलंविभो:।

भगवान यद्यपि इन आँखों के विषय नहीं हैं, फिर भी,वो इन आँखों के देखने लायक हो जाते हैं। इसी को कहते हैं अवतार लेना। निर्गुण-निराकार; सगुण-साकार बनकर आ जाते हैं। उनको सगुण साकार मानना कोई अतिशयोक्ति या काल्पनिक बात नहीं है। गोसाईं जी ने एक पद में सीधे समझा दिया है:

निर्गुण ब्रह्म सगुन सोई कैसे, जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥

अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥

जल हम पेय पदार्थ तरल देख रहें हैं। यदि हम एक टन पानी भी किसी के सर पे गिरा दें तो कोई विशेष पीड़ा नहीं होगा लेकिन अगर १ लीटर जल को भी बर्फ बना दिया जाए और सात फीट की ऊँचाई से सर पे पटक दिया जाए तो मजा आ जाये। क्या विशेषता हो गयी? उस जल में है तो वही हाइड्रोजन और ऑक्सीजन लेकिन विशेषता है ठंढ की। ठंढ बढ़ गयी तो ठोस हो गया और मजा अलग हो गया। जिस तरह तरल पानी वह काम नहीं कर सकता जो बर्फ कर सकता है, उसी तरह निर्गुण, निराकार वह काम नहीं कर सकता जो सगुण, साकार कर सकता है।

कहते हैं कि एक रोते हुए पोता को चुप कराने में लगे बाबा जब उपाय करते-करते थक गए तो अपने ही गाल में एक तमाचा मार लिया और रोने का बहाना करने लगे। पोता चुप हो गया और बाबा को चुप कराने का प्रयास करने लगा। देखने वाले को अजीब लग सकता है। वास्तव में वह रो नहीं रहा है अपितु रोने वाले को चुप कराने का उपाय कर रहा है। यह एक मनोवैज्ञानिक सच्चाई है, वास्तविकता है। अज्ञानी मनुष्य को प्रशिक्षित करने के लिये भगवान भी कभी-कभी उसी बाबा की तरह नकल करने लग जाते हैं।

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Author: ramanujramprapnna

studying Ramanuj school of Vishishtadvait vedant

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