सौर तिथि के अनुसार, इस महीने का नाम धनुर्मास है | इस महीने में धनुर नक्षत्र रहता है | सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करना संक्रांति कहलाता है | इस महीने में सूर्य धनुर नक्षत्र से मकर नक्षत्र में प्रविष्ट होता है, और उस दिन को मकर संक्रांति कहते हैं |
चांद्र तिथि के अनुसार इस महीने को मार्ग़ली मास और मार्गशीर्ष मॉस कहते हैं | पूर्ण चंद्र और एक विशष्ट तारे से चांद्र तिथि का निर्णय किया जाता है | इस महीने में मार्गशीर्ष नक्षत्र लगा रहता है, इस कारण महीने का नाम मार्गशीर्ष हुआ|
भगवद्गीता(१०.३५ ) में भगवान नारायण स्वयं कहते हैं:
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः।।10.35।।
मैं मासों में मार्गशीर्ष (दिसम्बर जनवरी के भाग) और ऋतुओं में वसन्त हूँ।।

यह महीना फसलों की कटाई का महीना है। मौसम भी बेहद मनभावन रहता है। यह पवित्र धर्मों को सम्पादित करने का महीना है, इसमें लोग धनुर्मास आराधना करते है। इस महीनेमें सत्त्व गुण प्रधान रहता है।
परम पुरुष श्री नारायण वैसे तो सृष्टि का कार्य ब्रह्मा जी से करवाते हैं, और संहार का कार्य श्री रूद्र से करवाते हैं, किन्तु पालन का कार्य वे स्वयं श्री विष्णु रूप में करते हैं। अतः श्री कृष्ण कहते हैं के समस्त मासों में वे मार्गशीर्ष मास हैं।
यह महीना देवताओं का ब्रह्म मुहूर्त है। हमारे लिए जब सूर्य उत्तरायण रहते हैं, तब
देवताओं के लिए दिन होता है, और जब दक्षिणायन रहते हैं, तब देवताओं के लिए रात्रि रहती है है। यह महीना शीत वातावरण वाला भी है, अतः गोकुल के अन्यान्य लोग श्री कृष्ण और गोपियों की लीलाओं से अलग अनभिज्ञ ही रहेंगे। अतः यह गोपिकाओं के लिए कृष्णानुभवम के लिए सर्वश्रेष्ठ मास है|
“मार्ग” यानी रास्ता।
कर्म, ज्ञान व भक्ति ही मार्ग हैं। इन तीनों मार्गों में पथिक स्वयं के बल पर आश्रित रहता है। लेकिन सबसे श्रेष्ठतम और सुरक्षित मार्ग तो स्वयं श्री भगवान ही हैं। इसी कारणवश भगवान शीर्षतम मार्ग, मार्गशीर्ष हैं। इसलिए व्रत का नाम भी मार्गशीर्ष व्रत है।
देखा जाए तो ज़्यादातर प्रकरणों में लक्ष्य व साधन अलग अलग होते हैं। उदाहरणार्थ यदि किसी को कॉलेज जाना हो, तो कॉलेज हो गया लक्ष्य, और चलना, मोटर बाइक इत्यादि जैसे परिवहन साधन हो जाते हैं साधन। किन्तु श्री भगवान को प्राप्त करने के लिए एकमात्र उपाय भी स्वयं श्री भगवान ही स्वयं हैं।
जैसे किसी रोते हुए बालक के लिए माँ ही उपाय और उपेय दोनों है। वह बाला अपनी माँ की गोद मेंजाना चाहता है, अतः केवल क्रंदन करता है। अब वह अपनी माँ की गोद तक किस प्रकार पहुंचेगा? स्वयं माँ ही बालक को उठाकर अपनी गोद में रख लेंगी। एक और दृष्टांत यह है कि एक गौ को बुलाने के लिए हम उसे हरी घांस दिखा सकते हैं, और जब वह गौ आ जाए, तब वही घांस उसको खिला देंगे। ठीक इसी तरह, परम पुरुषार्थ के लिए भी, श्री भगवान ही उपेय और उपाय दोनों हैं।


“बृहति बृंहयति इति ब्रह्म” इस उपनिषदोक्ति से ब्रह्म शब्द का अर्थ समझा जा सकता है। वह जो स्वयं बड़ा है, और उनको भी बड़ा करता है जो उसतकपहुँच जाते हैं, उसे ब्रह्म कहते हैं।
श्री गोदा महारानी को श्री कृष्ण तक पहुंचना था| उन्होंने इसके लिए अपने पिता व गुरु श्री विष्णुचित्त स्वामीजी महाराज से सलाह ली। उन्होंने सुझाव दिया कि गोदा देवी वही व्रत करें, जिसे द्वापर युग में गोपिकागणों ने श्री कृष्ण को प्राप्त करने के लिए किया था।
अतः, अपने मन में अत्यंत सुन्दर और विलक्षण भाव बनाकर गोदा देवी ने श्रीविल्लिपुत्तूर के श्री वटपत्रशायी भगवान को कृष्ण माना, श्री विल्लिपुत्तूर को गोकुल माना, और अपनीसहेलियों को ब्रज गोपिकाएं माना। नप्पिणइ जो की स्वयं नीला देवी हैं, वे श्री प्रभु के विशेष स्नेह को प्राप्त करती हैं। वे उनके मामा की बेटी हैं। श्री प्रभु को उनसे विवाह करने का मन था, और उसके लिए एक शर्त को पूरा करते हुए उन्होंने सात भयंकर अलमस्त सांडों को नियंत्रित किया।
गोदा महारानी अपने भाव की प्रगाढ़ता में इस तरह डूबीं की उन्हें स्वतः गोकुल, गोपियों और श्री प्रभु की सुगंध आती थी, जिसमें मक्खन और घी की खुशबू मिली हुई थी| ब्राह्मण कुल में पली बढ़ी गोदा की भाषा भी बिलकुल गोपिकाओं जैसी हो गयी| भाव की इसउच्चतम अवस्था में स्थित श्री गोदा महारानी ने स्वयं को भी एक गोपिका ही अनुभव किया।
श्री तिरुप्पावई के तीस पद पांच पांच के समूहों में विभाजित हैं, और हर समूह अपने अंदर अपार भाव सौंदर्य और सार्थकता समेटे हुए है।
एक विनोद का भाव यह है की गोपिकाओं को श्री प्रभु का संग बस कुछ समय तक मिला (लीला में), परन्तु श्री गोदा मैया को श्री प्रभु का अनंतकाल व्यापी मिलन प्राप्त हुआ है। देखा जाए तो उन्होंने केवल गोपियों का अनुकरण ही किया, परन्तु फिर भी उन्हें विशेषतर कृपा प्राप्त हुई। अतः यदि हम उनका अनुकरण करेंगे, तो हमें विशेषतम कृपा प्राप्त होगी!
श्री प्रभु की कृपा का कोई ठौर नहीं है। और हमारी श्री गोदा मैया तो प्रभु के साथ विराज ही रही है, ताकि वे यह कह सकें, “अहो! ये तो मेरे अपने बालक ही है!” गोदा देवी ने वेदों केसार स्वरूप श्री तिरुप्पावई का गान किया है।
व्रत के कुछ नियम
१ सूर्योदय से पूर्व स्नान
२ अनुष्ठान इत्यादि
३ आचार्यों के श्रीपाद तीर्थ को पाना तथा गुरु परंपरा मंत्र का गान
४ नारायण महामंत्र पर ध्यान लगाना
५ आराधना
६ हविष्य देना
७ श्री तिरुप्पावई का गान करना
८ आरती उतारना
९ शत्तुमुरई
१० पवित्र महीने को श्री प्रभु के नाम रूप लीला गुण का गान करना
श्री गोदा देवी ने श्री प्रभु से आनंद प्राप्त किया और उस आनंद को हमसे, जो उनके बालक हैं, कृपावश बांट रही हैं। जिस प्रकार एक माँ अपने बच्चे का भरण पोषण करती है, उसीप्रकार श्री गोदा देवी ने अपने गीतों द्वारा हमारा पोषण किया है।

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