ध्रुव चरित्र

हम मनु की संतान हैं। “मनोर जासौ अयतौ सुख: च”। मनु की संतान होने के कारण ही हम मननशील, चिन्तनशील मानव/मनुष्य हैं। उन्हीं मनु की संतानों में उत्तानपाद हुए थे। संस्कृत भाषा की यही सुन्दरता है कि शब्द में ही उनके जीवन की प्रक्रिया वैसे भर दी जाती है, जैसे छोटे से पीपल के बीज में विशाल वृक्ष। कोई भी लैब में यह साबित नहीं कर सकता की छोटे से बीज में इतना विशाल वृक्ष कैसे छिपा था वरना बरसिम्ह का बीज तो इतना बड़ा होता है।

उत्तानपाद शब्द का अर्थ ही है, जिनका पैर उठा हुआ हो। यानि जीवन के संघर्ष की लड़ाई में उनका पैर उठ चूका है और अब वो गिरेंगे। गिरते कब हैं? जब आपका भीतर का दुश्मन बलवान हो जाता है, जब आप भीतर से टूट जाते हैं तो जीवन से पराजित हो जाते हैं। बड़े मनोवैज्ञानिक हैं भागवत की कथाएँ।

उत्तानपाद की दो पटरानियाँ थीं- सुनीति और सुरुचि।

सुनीति यानि सुन्दर नीति। नीति का अर्थ है सदाचार, धर्म। ये तीनों शब्द अलग हैं पर सच्चाई एक ही है। “ध्रीयते धार्यते इति धर्मः”। धर्म का अर्थ है कर्तव्य, जो हमें धारण करता है। कर्तव्य के विपरीत कर्म करना ही अधर्म है। आँख का जो कर्तव्य है वो कान का नहीं हो सकता। समाज के हर वर्ग को अपना नियत कर्म करना चाहिए। जैसे शरीर को तभी स्वस्थ समझा कहा जाता है जब उसके सारे अंग ठीक काम करें, वैसे ही समाज भी तभी स्वस्थ कहा जाता है जब सभी अपने-अपने अपने धर्म का पालन करें।

सुरुचि यानि सुन्दर रूचि। रूचि का अर्थ है इच्छा या चाह। गुणों के तारतम्य से रूचि सात्त्विक, राजस या तामसी होती है। इन दोनों के नाम से ही इनके जीवन का चरित्र स्पष्ट है। सुनीति के पुत्र का नाम ध्रुव रखा गया और सुरूचि के पुत्र का नाम उत्तम। राजा की आसक्ति नीति में कम और रूचि में अधिक थी इसलिए उनका नाम उत्तानपाद हुआ। ध्रुव उत्तम से बड़े थे।

एक बार की बात है, राजा उत्तम को अपनी गोद में लिये सिंघासन पे बैठे थे। ध्रुव ने देखा तो उसकी भी इच्छा हुयी अपने पिता के गोद में बैठने की और वह धीरे-धीरे अपने पिता के करीब पहुँच गया। पिता ने डर से छोटी रानी की ओर देखा पर सुरुचि ने मना कर दिया और ध्रुव की ओर मूंह करके के कहा:

“ रे ध्रुव मेरा पुत्र करहीं, चाह न कर नृप गोदन का

चाहे मेरा सुत बनना तो ध्यान धरो पुरुषोत्तम का”

सुरुचि ने कहा कि अगर तु राजा की गोद में बैठना चाहता है तो तुझे मेरी कोख से जन्म लेना होगा और इसके लिये तुझे भगवान की तपस्या करनी होगी।

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रानी की इस बात पे उत्तानपात कुछ भी नहीं कह सके। ममता, मोह व्यक्ति को कितना कमजोर कर देती है। चक्रवर्ती सम्राट चाहते हुए भी अपने पुत्र को गोद में न ले सके। ध्यान दें, मूल बात से अलग न जाएँ। जब तक की ज्ञान यानि विवेक और उसका साथी वैराग्य न होगा तब तक जीवात्मा भगवान का नहीं होगा। अब वो पत्नी के हो गए। पहले पति थे, अब हो गए मोमबत्ती। पत्नी कहेगी वही सुनेंगे। पत्नी जलेगी तो ये भी जल जायेंगे, पत्नी मरेगी तो ये भी मर जायेंगे। याद रखें, हम अपने शुभ-अशुभ संस्कार से अनंत काल से इस संसार में भटक रहे हैं। कितनी बार आम के पेड़ से फल बने, फल से फिर गुठली और गुठली से फिर से आम। यह कब से हो रहा है इसका कोई दिन या तारीख बताने वाला नहीं है।

आकर चार लाख चौरासी। जोनि भ्रमत यह जीव अविनाशी।।

फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा॥ कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही॥

जैसे नदी के प्रचण्ड प्रवाह में लकड़ियाँ बह रही हैं, कभी किनारे से सट जा रही हैं, कभी हट जा रही हैं। वैसे ही काल की धारा में हम सब बह रहे हैं। कब से पुत्र, पति, पत्नी, पिता बन रहे हैं इसका कोई हिसाब किताब नहीं है।

माँ का मार्गदर्शन

ध्रुव और उत्तम दोनों ही उत्तानपाद के बच्चे हैं पर पूर्व-संस्कार अलग अलग है। एक ही बाप का बेटा, कोई कवि बन जाता है, कोई विद्वान तो कोई चोर। आप लाख कोशिश करो सुधरने का, नहीं सुधरेगा क्योंकि पूर्व-जन्म का संस्कार अलग-अलग है। ध्रुव का पूर्व-संस्कार उद्भुत हुआ। वह आँखों में आंसू लिये, तेज धड़कन के साथ अपनी माँ के पास पहुँचा। जो आश्रय होता है उसी के पास तो व्यक्ति पहुंचता है। माँ ने कहा, “बेटा! ये सुख और दुःख मान्यता-सापेक्ष हैं। एक व्यक्ति किसी बात से सुखी हो जाता और दूसरा उससे दुखी”। ध्रुव के मन में सौतेली माँ की बात बैठ गयी थी। उसने माँ से पूछा, “माँ ये पुरुषोत्तम क्या होता है? भगवान गीता में बताते हैं:

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।15.18।।

क्षरं प्रधानममृताक्षरम हरः क्षरत्मानाविशते देव एकः।। (श्वेताश्वतर उप.)

क्षर (शरीर), अक्षर(आत्मा) और ईश्वर, यही तत्त्व त्रय है। ध्रुव नव कहा, “माँ! यदि परमात्मा के ध्यान धरने से काम बनता है तो क्यों न मैं ध्यान धरुँ”? माँ घबरा गयी। छोटा बच्चा है, आज ही से भगवान के ध्यान में लग जायेगा तो मेरा क्या होगा। इसी के सहारे तो मैं अपने दिन गुजार रहीं हूँ। दुर्दिन में भी सुदिन मना रही हूँ। माँ समझती है, “बेटा, ननिहाल चलो। तुम्हारी नानी प्यार करती है, तुम्हारे नाना तुझे दुलार दते हैं। वहीं दिन बीत जायेगा”। लेकिन ध्रुव के मन में यह बात बैठ गयी, “ध्यान धरो पुरुषोत्तम का”।

ध्रुव का अर्थ ही है अटल, जो हिले न, डुले न। ध्रुव के हठ को देखकर माँ मान गयी।

गुरुर्न स स्यात्स्वजनो न स स्यात्पिता, न स स्याज्जननी न सा स्यात्।

              दैवं न तत्स्यान्न पतिश्च स स्यान्न, मोचयेद्यः समुपेतमृत्युम् ॥ ( भागवत ५.५.१८)

मौत की साया सबके सर पर है। उस विभीषिका से जो त्राण दिला दे, वही स्वजन है। वास्तव में माता, पिता, गुरु और स्वजन का कर्तव्य यही है कि वो अपने पुत्र और शिष्य को परमात्मा के राह में आगे बढ़ाये। कुतिया भी अपने बच्चों से प्यार करना जानती है। अगर हम भी अपने बच्चों से इतना ही प्यार करते हैं, संसार में रहने भर, तो यह प्यार नहीं बल्कि दुत्कार है। हमारे गुरुदेव कहते हैं:

है जननी जगत सो, जो भगवत में लगा दे। है पूज्य गुरु सो, जो भगवत में लगा दे।

है स्वजन वही, जो भगवत में लगा दे। जल्लाद है वही जो, इस जगत में फंसा दे।।

माँ का मातृत्व, वात्सल्य छलक गया। वात्सल्य का अर्थ अंध-आसक्ति नहीं है। माँ ध्रुव के मन की उत्कंठा देख आशीर्वाद दिया, “जा बेटा! तेरा मार्ग निष्कंटक हो। मेरा रोम-रोम तुम्हें आशीर्वाद देने के लिये तैयार है”। माँ ने ह्रदय से लगाया, आँख से आंसू छलक आये। ह्रदय से माँ और पिता का आशीर्वाद हो और जीवन में सफलता न मिले, ऐसा हो नहीं सकता। सौतेली माँ के डांट से ध्रुव को चोट लगी, ममता टूट गयी। माँ से ममता थी पर माँ ने सही राह दिखाया। बाल्यावस्था में लगी चोट को मनुष्य जल्दी भूल जाता है पर जो चोट गहरी लगे, उसे जीवन भर नहीं भूलता। बार-बार यह उदाहरण दिया गया है कि बिना ममता गए भक्ति नहीं आती।‘होई विवेक मोह-भ्रम भागा, तब रघुनाथ चरण अनुरागा’। माया का काम ही हमें ठोकर देना, दुःख देना ताकि हमारी ममता छूटे और हमें यह आत्मानुभव हो कि हमारा संबंध इस दुखों की नगरी  (दुखालायम अशाश्वतं) से नहीं है अपितु हम वास्तव में भगवान के हैं

 

गुरू नारद महर्षि की परीक्षा और मार्गदर्शन:

ध्रुव कुछ दूर ही चला था कि उसके सत्य-संकल्प की परीक्षा लेने नारद जी आ गए। बालक, जो मात्र साढ़े चार वर्ष का था, चरणों में लोट गया और प्रार्थना करने लगा:

बाबा राह बता दो हमको।

गंगा पाप हरति हिमकर तप, सुरतरु हर दारिद को।

संत दरश पाप …..

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गंगा पापं शशि तापं, दैन्यं कल्पतरु यथा, पापं तापं च दैन्यं च हरति संत समागम।

नारद जी ने कहा, “छोटा बच्चा है, अभी तो खेलने खाने का उम्र है। माँ की बात से घायल होकर घर से निकल गया। क्या भगवत-प्राप्ति सुलभ है”? ध्रुव ने स्पष्ट कहा, “आप राह बताईये, घर लौटने को मत कहिये”।

चल जाऊं कहीं, तल जाऊं कहीं; मिट जाऊं कहीं घर जाऊं नहीं।

कट जाऊं कहीं, मिट जाऊं कहीं; तल जाऊं कहीं घर जाऊं नहीं।।

नारद जी ने हिला-डुला कर देख लिया, फिर कहा, “वृन्दावन के पास मधुवन चले जाओ। वहाँ तुम ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’; द्वादश अक्षर मंत्र का ध्यान करना”। जैसे श्रीमद वाल्मीकि रामायण के २४००० श्लोकों को मथकर चौबीस अक्षर का गायत्री मंत्र निकाला गया है वैसे ही भागवत के बारहों स्कंध में से एक-एक अक्षर मक्खन की तरह निकालकर यह मंत्र बना है। अगर खखन हो तो खा लेना। बहुत ही प्रत्यक्ष फल मिलता है इस मंत्र का।

“ॐ नमो भगवते वासुदेवाय”


ओम (ॐ) सभी ग्रंथों का सार है। अकार भगवान विष्णु हैं और मकार जीव। उकार जीवात्मा और परमात्मा के मध्य के संबंध को दर्शाता है। प्रणव (ॐ) धनुष है और आत्मा बाण। जो प्रणव रूपी धनुष से आत्मा रूपी बाण को शरीर से त्यागता है, वो लौटकर इस लोक में नहीं आता, मुक्त हो जाता है।

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नमः (न + मः) शब्द का अर्थ है – मेरा कुछ नहीं है, सबकुछ भगवान का है। मैं स्वयं भी अपना नहीं हूँ, भगवान का हूँ। नमः शब्द का अर्थ समर्पण और अहंकार का त्याग है।

भग शब्द में तद्धित प्रत्यय लगाने से बना है ‘भगवत्’। ‘भगवत्’ का अर्थ है कला।

 

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः।  ज्ञानवैराग्योश्चैव षण्णां भग इतीरणा।। (विष्णु पुराण ६.५.७४)

“सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सम्पूर्ण धर्म, सम्पूर्ण यश, सम्पूर्ण ज्ञान और सम्पूर्ण वैराग्य – इन छहों का नाम ‘भग’ है”। ये सब जिसमें हों, उसे भगवान कहते हैं।

उत्त्पतिं प्रलयं चैव भुतानमागतिं गतिम्।

                           वेत्ति विद्यामविद्याम च स वाच्यो भगवानिति।। (विष्णु पुराण ६.५.७८)

अर्थात “उत्पत्ति और प्रलय को, भूतों के आने और जाने को तथा विद्या और अविद्या को जो जानता है, वही भगवान है”। अतः भगवान’ का अर्थ सर्वऐश्वर्यसंपन्न, सर्वज्ञ और साक्षात् परमेश्वर है।

वासुदेव का अर्थ है, “जो सबमें बसे”। इस प्रकार द्वादश अक्षर मंत्र का अर्थ हुआ, “ ओंकार स्वरुप, सबमें बसने वाले, भगवान को नमस्कार”।

 

ध्रुव की ध्रुव तपस्या

ध्रुव चले गए मधुवन में जहाँ कईल के काँटे और घोर जंगल था। मथुरा स्टेशन से दक्षिण का भाग मधुवन कहलाता था। मनुष्य का तो वहाँ जाना ही दुर्लभ था। याद रखें, यदि भगवान के राह में चलने का दृढ निश्चय कर लोगे तो तो आपके मार्ग की बाधाओं को दूर करने का दायित्व भगवान का हो जाता है। जैसे हम सब ने माँ का बेटा बनकर देख लिया। नाक से नेटा आ गया, आँख से किच्ची, शरीर गन्दा हो गया, जो भी हो साफ करना माँ का ही काम है और इसके लिये माँ को कहना भी नहीं पड़ता। माँ का बेटा बन गए तो तो माँ सारी गन्दगी साफ करती है, इत्र या रुमाल नहीं खोजती। जब एक माँ ऐसा कर सकती है तो माँ से हजारों गुना अधिक वात्सल्य के निधि जो भगवान हैं, क्या वो तुम्हारे राह के सारे विघ्न दूर नहीं करेंगे। भगवान का होकर तो देखो जरा, भगवान की राह पे चलकर देखो तो जरा। भगवान का हो गये, फिर सारी जिम्मेदारी भगवान कि हो गयी।

१. पहले तो वह कंद, मूल, फल जो भी मिल जाता उसी को खाकर १ महीने तक नित्य प्रति जप करता और भगवान का काल्पनिक जो भी रूप आता, उसी का ध्यान करता।

2. फिर दूसरा महीना आया तो कंद-मूल भी कौन खोजने जाये, पत्ता खाने लगा। हर १२वें दिन पे वह स्थान बदल देता। शरीर सुखने लगा पर कोई परवाह नहीं।

३. तीसरा महीना आया तो पत्ता भी त्याग दिया, सिर्फ जल पीकर रहने लगा।

४. चौथे महीने में पानी पीना और पांचवें महीने में हवा लेना भी छोड़ दिया। बिना श्वांस लिये खड़े रह गया।

५. छठे महीने में तो उसके शरीर के रोम-रोम से अग्नि के कण प्रकट होने लगे। इतना तेज निकला कि देवताओं के लोक में हलचल मच गयी। इंद्र घबराया कि छोटा क्षत्रिय बालक अवश्य मेरा पद लेना चाहता है। उसने विघ्न डालने का प्रयास किया पर निष्फल हो गया।

उस ध्रुव को लाख बाघ सिंह आते हैं।

पर वैर छोड़ प्रेम ही बढ़ाते हैं, साथ बैठ पास चाट-चाट जाते हैं।।

अंत में भगवान ने देखा की ६ महीने बीत गए, छोटा बच्चा अपना निश्चय नहीं बदल रहा, अब बिलम्ब लगाना अच्छा नहीं। जिस रूप का वह ध्यान कर रहा था, उस रूप को भगवान ने बाहर खींच लिया। व्याकुल होकर ध्रुव ने आँखें खोला तो देखा कि जिसका चिंतन वो कर रहा था वो उसके सामने खड़े थे।

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हमने पहले बताया था, ज्ञान होगा फिर वैराग्य होगा तब भक्ति आएगी लेकिन ध्रुव जी ने साबित कर दिया कि ज्ञान-वैराग्य नहीं है तो चिंता मत करो, केवल भगवान के भरोसे तुम उसकी ओर बढ़ चलो। इसका नाम है शरणागति। जैसे बच्चा माँ की शरण में आ चुका हो।

वैष्णवाचार्य कहते हैं, “बिल्ली के बच्चे पर और बांदरी के बच्चे पे ध्यान दो। क्या अंतर है? जब संकट आता है तो बांदरी भागती है और वो बच्चे को नहीं पकड़ती, बच्चा ही बंदरिया को पकड़ता है (मर्कट किशोर न्याय, साध्योपय)। अयोध्या वृन्दावन में जाकर खुद देख लेना। बिल्ली का बच्चा माँ को कभी नहीं पकड़ता, वो अपनी माँ पर आवलम्बित है (मार्जर किशोर न्याय,सिद्धोपाय)। बिल्ली खुद बच्चे को पकड़ती है, वो भी टांग या पूंछ नहीं; गर्दन। कभी ऐसा नहीं हुआ की बिल्ली बच्चे को पकड़ रही थी, गर्दन में दांत गर गया, घाव हो गया। यही शरणागति मार्ग है। भगवान पर पूर्ण रूप से समर्पित हो जाना”।

ध्रुव की इच्छा हो रही थी भगवान की वंदना करने की, उनके स्वरुप का गुणगान करने की पर कुछ पढ़े-लिखे तो थे नहीं। भगवान ने अपने बायें हाथ से शंख धीरे से उनके गाल में छुआ दिया। शंख ज्ञान का प्रतिक है। ध्रुव स्तुति करने लगे:

योऽन्तःप्रविश्य मम वाचमिमां प्रसुप्तां, सञ्जीवयत्यखिलशक्तिधरः स्वधाम्ना ।

अन्यांश्च हस्तचरणश्रवणत्वगादीन्, प्राणान् नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम् ॥

“जिसने मेरे अंतःकरण में प्रवेश कर अपने तेज से मेरी इस सोयी हुयी वाणी को को सजीव कर दिया, जो इन्द्रियों और प्राणों को चेतना देते हैं, उस अन्तर्यामी परमात्मा को मैं नमन करता हूँ” ।

संसार में किसी भौतिक वास्तु की चाह अगर है तो याद रखो, मुक्ति नहीं मिलेगी। संसार में लौट जाना पड़ेगा। चाह ही राह में बाधा बन कर आती है।

चाह गयी चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह। जिसको कछु न चाहिए सोई शहंशाह।।

कब यह विवेक पैदा होगा कहा नहीं जा सकता। विवेक तभी पैदा होगा जब पूर्व का संचित पुण्य उदित हो। ऐसे कई उदहारण हैं। लेकिन पुण्य-पूंज उदित होने कि आशा में साधना मत छोड़ो। भगवान मिलेंगे, इस विश्वास के साथ साधना में लगे रहो।

जहाँ राम तहाँ काम नहीं, जहाँ काम तहाँ राम। तुलसी कबहू न हो सके रवि रजनी एक ठाम।।

भगवान ने गोद में बैठाकर ध्रुव से उसकी इच्छा पूछी। कहा, “तु मन में कुछ भाव लेकर आया था। राजा के गोद में बैठने की चाह थी। तुम्हारी वासना पूर्व-जन्म से थी गद्दी पाने की। जाओ, गद्दी तुम्हें मिलेगी। भगवान ने माथे पर हाथ रखा। इधर, नारद ऋषि उत्तानपाद के पास आये और उन्हें उनका सौभाग्य बताया। “राजन! अब भी तुम मोह निद्रा में रानी का गुलाम बनकर जीना चाहते हो तो यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा”। उत्तानपाद की आँख खुल गयी। उत्तानपाद हाथी और बाजा सजाकर ध्रुव की आगवानी करने पहुंचे।

जो रो रो घर से जाता है, वो बाजा से घर आता है।

जिसको यह जगत भगाता है, उसको ईश्वर अपनाता है।।

राजा अब स्त्री के गुलाम नहीं अपितु ज्ञान के गुलाम हो गये। देर लगाये बिना ध्रुव को गद्दी सुपुर्द कर दिया और वन को प्रस्थान किये। ज्ञान से वैराग्य आता है। वैराग्य ही वास्तविक सुख देता है। राज्य, परिवार या सम्पत्ति किसी को शांति नहीं दे सकते। अब सही में उत्तानपाद हो गये। पैर उठा और फिर लौटकर घर नहीं आये।

Author: ramanujramprapnna

studying Ramanuj school of Vishishtadvait vedant

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