विलक्षण मोक्षाधिकार निर्णय (1-25)
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनये नमः
एरुम्बियप्पा (देवराज स्वामी) तनियन

सौम्यजामातृयोगीन्द्र चरणांबुज शट्पदम् ।
देवराज गुरुं वन्दे दिव्यज्ञान प्रदं शुभम् ।।
रम्यजामातृ मुनि के श्रीचरणकमलों पर भ्रमर of रसास्वादन करनेवाले , अपने आश्रितों को श्रेष्ठ ब्रह्म ज्ञान को प्रदान करनेवाले , ज्ञान और अनुष्ठान से सुशोभित , देवराज गुरु को वंदन करता हूँ । ( देवराजगुरु – एरुम्बियप्पा ( एरुम्बि नामक गाँव से थे ) – श्रीवरवरमुनि के अष्टदीग्गजों में से एक हैं ।)
पोरेट्रु नायनार् तनियन् ( समरपुंगव स्वामी तनियन् )
शमदमादि गुणैकनिकेतनं ,
चरमपर्वणि निश्चल चेतम् ।
यतिवरांघ्रि सरोरुह शट्पदं ,
समरपुंगव सद्गुरुमाश्रये ।।
मन और इन्द्रियों पर काबू आदि सद्गुणों के निकेतन , चरमपर्व श्रीवरवरमुनि आचार्य के प्रति दृढ़ भक्ति युक्त , यतिराज श्रीरामानुजाचार्य के श्रीचरणकमलों में भ्रमर जैसे अवगाहन करनेवाले , समर पुंगव नामक सद्गुरु को शरण जाता हूँ ।
समरपुंगव गुरु – श्रीवरवरमुनि के नवरत्न शिष्यों में से , एक थे । ( प्रमाण – पेरिय तिरुमुडी अडैवु )
इस कंदाडय समरपुंगवजी को श्रीभाष्य , प्रतिवादि भयंकर अण्णा स्वामी ने , प्रसादित किया था ।
सेनापतियाल्वान् के आचार्य थे समरपुंगव स्वामी । अतः उनका तनियन् , यहाँ अनुसंधेय है ।
श्री:
श्रीपरांकुशपरकालयतिवरवरमुनिभ्यो नमः
श्रीवादिभीकरमहागुरवे नमः
श्री देवराज स्वामीजी
(श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के अष्ट दिग्गजों में से एक)
https://guruparamparaihindi.wordpress.com/2015/10/02/erumbiappa/
https://guruparamparaihindi.wordpress.com/2015/10/02/erumbiappa/
सौम्यजामात्रु योगीन्द्र शरणाम्बुज शठपदम् ।
देवराज गुरुं वन्दे ज्ञान प्रदं शुभं ।।
तुला मास
रेवती नक्षत्र
अवतार स्थल – येरुम्बी
आचार्य – श्री वरवरमुनि स्वामीजी
रचनायें – पूर्व दिनचर्या, उत्तर दिनचर्या,वरवरमुनि शतकम, विलक्षण मोक्ष अधिकारी निर्णय, उपदेश रत्नमाला का अंतिम पाशुर ।
आप श्री अण्णन् स्वामीजी के सम्बन्धी थे । आपने श्री वरवरमुनि स्वामीजी का बहुत वैभव सुना था और उनके दर्शन करना चाहते थे ।
उनके दर्शन हेतु आप श्रीरंगम पधारे और जब आप मठ पहुंचे तब श्री वरवरमुनि स्वामीजी सहस्रगीति के पहले पाशुर का अर्थ बतारहे थे। कालक्षेप (प्रवचन) के बाद श्री वरवरमुनि स्वामीजी ने आपका स्वागत किया और आशिर्वाद देते हुए वहीं प्रसाद पाकर जाने कहा ।
परन्तु सामान्य शास्त्र को मानकर आपने प्रसाद नहीं पाया और ऐसे ही वापस गांव लोट गये। सामान्य शास्त्र के अनुसार हमें एक सन्यासी से दिया गया प्रसाद नहीं पाना चाहिए लेकिन विषेश शास्त्र के अनुसार हमें एक श्रीवैष्णव ( भले वे सन्यासी भी हो ) द्वारा दिये गये प्रसाद को अति आदर और प्रेम से ग्रहण करना चाहिए।
जब वे अपने गांव पहुँच अपने श्री आराधना विग्रह श्रीसीतारामजी के दर्शन हेतु जब पूजा मंदिर का किवाट खोलने लगे तब किवाट खुला ही नहीं । आप दुखी होकर बिन प्रसाद पाये ही सोगये ।
सपने मे आपके श्रीसीतारामजी भगवान आकर आपसे बोले – आप श्री वरवरमुनि स्वामीजी कि शरण लो । वे श्री आदिशेषजी ही है जो त्रेता युग मे श्री लक्ष्मणजी बनकर आये और अभी फिर से संसारीयों का दुख दुर करने अवतरित हुए हैं ।
आप अगले सुबह श्रीरंगम् पधारकर श्री अण्णन् स्वामीजी के पुरुषकार से श्री वरवरमुनि स्वामीजी के शरण लिए और उनके प्रिय शिष्य बने ।
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के सुबह उत्थापन से लेकर शयन के समय तक सभी कार्यों का वर्णन दो स्त्रोत्रों में किया गया है ।
http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/05/sri-varavaramuni-dhinacharya-hindi/
“पुर्वदिनचर्या “ में स्वामीजी के दिन के पहिले हिस्से की गतिविधियों का वर्णन है , और ( सुबह से लेकर दोपहर तक)
“उत्तर दिनचर्या” में दिन के दुसरे हिस्से की गतिविधियों का वर्णन है । ( दोपहर से लेकर रात तक)
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी दोपहर में यतिराज विंशति का अनुसंधान करते थे ।इसलिये श्रीवैष्णव जन पूर्वदिनचर्या, यतिराज विंशति, उत्तरदिनचर्या का अनुसंधान इस क्रम करते है ।
श्रीवैष्णवों को इन स्तोत्रों का अनुसंधान किये बिना प्रसाद भी नहीं लेना चाहिये, ऐसा अपने आचार्यजन कहते हैं ।
इन स्त्रोत्रों का अर्थ इतना विलक्षण है जिससे सुनने पर पत्थर भी पिघल जाता है ।
श्री देवराज स्वामीजी का मंगल हो
पोस्ट – १
श्रीमद् वरवरमुनि के शिष्य एरुम्बियप्पा से , समरपुंगवजी के सद् शिष्य सेनापतियाल्वान् आदि श्रीवैष्णवों ने दंडवत करके निवेदन किया कि , ” हम सभी दास , मोक्ष के इच्छुक हैं ; हमें विलक्षण मोक्षाधिकारीयों का स्वरूप को निर्णय करके , प्रसादित कीजिए “। (विलक्षण इसलिए क्योंकि ये वैष्णव ऐश्वर्य , कैवल्य मोक्ष आदि के इच्छुक नही हैं।)
तब एरुम्बियप्पा ने कहा, ” इस विषय में , हम अब नया क्या कह सकते हैं ? सभी सामान्य शास्त्र , सभी विशेष शास्त्र, वेदवेदांत प्रतिपाद्य गीताचार्य ( श्री कृष्ण ) , सभी ऋषी , सभी आल्वार् , सभी आचार्य ने , पर्वत के शिखर पर प्रज्वलित दीपक जैसे, प्रकाशित तो किया है न ! फिर भी , लोक हितार्थ निमित्त , आप लोगों ने जो प्रश्न किया है , उसके उत्तर के रूप में, हमारे आचार्य श्रीवरवरमुनि के, उक्तियों के अर्थ विशेषों को विज्ञापन करता हूँ ।
श्रियःपति , निखिल हेय गुणों के विरुद्ध , कल्याणगुणों का एकमेव निकेतन , सर्वेश्वर , निरंकुश स्वतंत्र , परन्तु परम कारुणिक भगवान , अनेक प्रकार के , मोहित करानेवाले कार्यों से , लीला विभूति के जीवों के साथ क्रीड़ा करते हुए , कोई विरले लोगों को संसार से उत्तीर्ण करने की इच्छा करता है ।
( सेनापतिआल्वान् के प्रश्न के उत्तर के रूप में , यह ग्रन्थ अवतरित हुआ है; अतः ग्रन्थ के अध्ययन के पूर्व , सेनापतिआल्वान् के आचार्य समरपुंगवजी का तनियन् अनुसंधेय है ।)
” एवं संसृतिचक्रस्थे भ्रम्यमाणे स्वकर्मभि:,
जीवे दुक्खाकुले विष्णो: कृपा काप्युपजायते। ।। ( अहिर्बुद्न्य संहिता )
( इसप्रकार जन्म मरण रूपी संसार चक में फँसकर , अपने पुण्य पाप कर्मों के कारण घूमता हुआ , दुःखों में डूबा हुआ , जीव पर , विष्णु को अहेतुकी कृपा उत्पन्न हो जाती है ।)
इस प्रमाणानुसार , यह जीव , संसार चक्र में रहकर , अपने संपादित पुण्य पापों के कारण , जनम लेना , मरना , नरक में यातना सहन करना आदि दुःखों से कष्ट पाता है । इसे देखकर , उसके प्रति दया के कारण,
” नासौ पुरुषकारेण नचाप्यन्येन हेतुना ।
केवलं स्वेच्छयैवाहं प्रेक्षे कंचित् कदाचन ।।( लक्ष्मी तंत्र )
(मैं , श्रीदेवी की पुरुषकार से अथवा कर्मयोग, ज्ञानयोग आदि अन्य कारणों से नही , बल्कि मेरे स्वतन्त्र इच्छा मात्र से ही किसी एक पर , किसी एक समय में , कृपा कटाक्ष करता हूँ ।)
इस प्रमाणानुसार , राजा के हाथी और राजा के समान , निर्हेतुकी कृपा करता है ।
discussion:
मत्प्राप्ति प्रतिजंतूनां संसारे पतितामधः ।
लक्ष्मी: पुरुषकारत्वे निर्दिष्टा परमर्षिभि : । मामपि च मतं ह्येष नान्यथा लक्षणं भवेत् ।।”
यह श्लोक भी आगम में प्राप्त होता है जिसमें मुक्ति का हेतु श्रीअम्मा जी के पुरुषकार को प्रकाशित किया गया है । तब दोनों श्लोकों का सामन्जस्य कैसे होगा ?
answer:
माता का पुरुषकार भी भगवान के इच्छा के अधीन ही है । वह स्वतंत्र होने से , बिना पुरुषकार भी कृपा कर सकता है। तब ही तो उसे निरंकुश स्वतंत्र कहा गया है ।
आचार्यों ने अनेक बार कहा है कि भगवान का उपाय नैरपेक्षत्व, पुरुषकार का भी अपेक्षा नही करता है। परन्तु स्वेच्छा से माता के पुरुषकार को स्वीकारता है ।
पोस्ट – ३
“जायमानं ही पुरुषं यं पश्येन् यं पश्येन् मधुसूदन:
सात्विकस् स् तु विज्ञेयस् स् वै मोक्षार्थ्थ चिन्तक:।।( महाभारत – मोक्षधर्म )
(जिस मनुष्य को , जन्म लेते समय , मधुसूदन कटाक्ष करता है , वही सत्वगुण से पूर्ण होता है , ऐसा जानने योग्य है । वही मोक्ष पुरुषार्थ का चिंतन करता है ।)
इस प्रमाणानुसार , जायमान कटाक्ष से , परम सत्वनिष्ठ होकर , मोक्ष का इच्छुक बनता है । परन्तु ” ज्ञानात् मोक्षः आज्ञानात् संसारः” , प्रमाणानुसार, वह मोक्ष का लाभ, अर्थपंचक ज्ञान के अनुष्ठान से ही प्राप्त होगा। उस ज्ञान के अनुरूप , अनुष्ठान के अभाव में , पुनः पुनः जन्म मरण रूपी संसार दुःख ही बढ़ने से , मोक्ष असंभव ही है ।
माता का पुरुषकार भी भगवान के इच्छा के अधीन ही है । वह स्वतंत्र होने से , बिना पुरुषकार भी कृपा कर सकता है। तब ही तो उसे निरंकुश स्वतंत्र कहा गया है ।
पोस्ट – ४
” तत् विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् ,
समित् पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्म निष्ठम् ।
तस्मै स विद्वान् उपसन्याय सम्यक् ,
प्रशांत चित्ताय शमान्विताय ,
येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यं प्रोवाच तां ,
तत्त्वतो ब्रह्म विद्याम् ।।(मुंडक – १-२-१२,१३)
( परमात्मा को प्राप्त करने की उपाय को अच्छी तरह जानने हेतु , उस मनुष्य को , वेदों को जाननेवाले , ब्रह्म साक्षात्कार प्राप्त , आचार्य के पास ही , समिधा हाथों में लेकर जाना चाहिए ।। वह मोक्षोपाय के ज्ञाता आचार्य को , अपने पास ब्रह्मोपदेश पाने हेतु आये शिष्य को , जिसका मन और इन्द्रियाँ वश (शम दम ) में है , अक्षर परम पुरुष का ज्ञान को , यथार्थ रूप से उपदेश करना चाहिए ” )
इस प्रमाणानुसार , वह मुमुक्षु को , ब्रह्म ज्ञानार्थ , आचार्य के प्रति कैंकर्यों को करने की इच्छा से , वेद वेदान्त सारार्थ के पूर्ण जानकार , परमात्मा के सिवाय ,अन्य विषयोंमें वैराग्य पूर्वक परमात्मा में निष्ठ , एक आचार्य का शरण लेना चाहिए।
वह आचार्य भी , शिष्य जो शम दमादि गुण संपन्न है , उसके ब्रह्म ज्ञान के प्रति , तीव्र इच्छा का परीक्षा लेकर , पश्चात ही ब्रह्म ज्ञान को उपदेश करके और उस ज्ञान के अनुरूप अनुष्ठानों को भी , अच्छी तरह सिखाता है ।
पोस्ट – ५
वह शिष्य भी ,अपने आप को कृतकृत्य मानकर , मोक्षाधिकारी बनकर , पश्चात मोक्ष को प्राप्त करता है ।
इस श्रुति प्रमाण में , ” सम्यक् प्रशांत चित्ताय ” इन शब्दों में कहे गये शम और दम दोनों , आत्मगुणों में प्रधान होने से , इन गुणों को कहने से , उपलक्षण रूप में , सद् शिष्य के अन्य लक्षणों को भी कहा गया है ।
पोस्ट – ६
” श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ” वेद शास्त्रों में पारंगत और ब्रह्म निष्ठ , यह दो गुण , सदाचार्य के अन्य लक्षणों का उपलक्षण है । ( मतलब – सदाचार्य में अन्य अनेक सद्गुण होते हैं ।)
सद् शिष्य के लक्षण इसप्रकार है :
” शरीरंवसू विज्ञानं वासः कर्म गुणानसून् ।
गुर्वर्थं धारयेद् यस्तु स शिष्यो नेतरः “
( जयाख्य संहिता ) ( जो व्यक्ति अपने शरीर , संपत्ति , बुद्धि , घर , कर्म , सद्गुण , प्राण आदि , अपने आचार्य के निमित्त धारण करता है , वही शिष्य कहलाता है , अन्य नही )
इस प्रमाणानुसार , एक सद् शिष्य , अपने शरीर , धन, प्राण , घर , खेतीबाड़ी , पुत्र , पत्नी आदि को आचार्य को समर्पण करके , सभी स्वप्रयत्नों को छोड़कर , आचार्य के अभिमान रूपी छाया में वास करता हुआ , आचार्य कहे तो बिक जाने के लिये भी , तत्पर रहता है ।
पोस्ट ७
” सद्बुद्धिः साधु सेवी समुचित चरितः , तत्व बोधाभिलाषी – सुश्रूस् त्यक्तमानः प्रणिपतनपरः प्रश्न काल प्रतीक्षः शांतो दांतोन ( अ) सूयुः शरणमुपगतः शास्त्र विश्वास शाली शिष्यः प्राप्तः परीक्षां कृतविदभिमतः तत्वतः शिक्षणीयः ” ( न्यास विंशति – ३ )
इस प्रमाणानुसार , आचार्य से सत्विषयों को समझने में इच्छुक , साधु सेवा में तत्पर , सदनुष्ठान संपन्न , तत्व ज्ञान समझने के लिये उत्सुक , गुरू सेवा में तत्पर , अभिमान रहित , दंडवत प्रणाम करने में पर तत्पर , पश्न पूछने के लिये ठीक समय की प्रतीक्षा करनेवाले , मन और इन्द्रियों को वश में किया हुआ , मात्सर्य रहित , शरणागत , शास्त्रों में विश्वास रखनेवाले , कृतज्ञ , आचार्य ने ली हुई परीक्षा में उत्तीर्ण ( शिष्य , ऊपर बताये हुए गुणों को सचमुच पाया है क्या , इसकी परीक्षा ) शिष्य को ही यथार्थ पूर्ण रूप से सत्विषयों को ही , आचार्य पढाता है ।
पोस्ट – ८
जो शिष्य ऐसा सद्गुण संपन्न नही है , उसे उपदेश नही करना चाहिए । ख्याति , धन , पूजा , सेवा निमित्त , देवतांतर भजन करनेवाले , कर्मयोग – ज्ञानयोग- भक्तियोग आदि अन्य उपायों को करनेवाले, शब्दादि विषयों में रमन करनेवाले दस बद्ध संसारीयों को बुलाकर , पूर्वाचार्यों के वचनों को त्यागकर , अपने दुर्वासनाओं के कारण अपने मनमें जो कुछ शास्त्र विपरीत अर्थ सूझता है, उन्हें उन लोगों को सुनाकर , उनसे धन लाभ प्राप्त करके , अपना देहयात्रा को ही ध्येय मानकर विचरनेवाला आचार्य , ” यजमान कृतं पापं द्रव्यमाश्रित्य तिष्ठति ” प्रमाणानुसार (यजमान का पाप उसके धन में होता है ) , ” शिष्यपापं गुरोरपि ” प्रमाणानुसार ( शिष्य के पाप भी गुरू को ही भोगना पडता है), अनधिकारी शिष्य के द्रव्य द्वारा उसके पाप को भी अपने पाप के साथ भोगकर, अपने स्वरूप का नाश कर लेता है ।
पोस्ट ९
शिष्य हो या आचार्य हो , विलक्षण संबंध की ही आवश्यकता है । जिसप्रकार शिष्य को सदाचार्य की आवश्यकता है , उसीप्रकार आचार्य को भी सत्शिष्य के संबंध की अपेक्षा होनी चाहिए और इसलिए विलक्षण व्यक्तियों को ही शिष्य के रूप में स्वीकारना चाहिए ।
श्री रामानुजाचार्य ने गुरु श्रीगोष्ठीपूर्णजी के आज्ञा का उल्लंघन करके , इच्छुक श्रीवैष्णवों को अष्ठाक्षर मंत्र के अर्थ को उपदेश किया था । अतः उन्होंने यह माना कि इस अपचार के फलरूप अपना दुर्गति निश्चित है । परन्तु जब कूरेष को नम्पेरुमाल के कहे वचनों को सुना , तब इतने खुश हुए कि वे अपने काशाय वस्त्र को आकाश में उडाकर नृत्य करने लगे ।( कूरेष को भगवान ने कहा था कि “तुमसे जिन जिन का संबंध है, वे भी परमपद पायेंगे।” )
“सोयं रामानुजमुनिरपि स्वीयमुक्तिं करस्थां यत्संबंधादमनुतकथं वर्ण्यते कूरनाथः”
( जिस रामानुज के संबंध से उनके पूर्वाचार्यों और शिष्यों की मुक्ति निश्चित थी , वे रामानुज स्वयं के मुक्ति को , कूरेषजी के संबंध से, निश्चित मानते हैं ; ऐसे कूरेषजी के प्रभाव का वर्णन कौन कर सकता है ? )
” गुरोर्वचोतिक्रमणे निश्चित्य स्वस्यदुर्गतिम् ।
परानर्थासहिष्णुत्वात् मंत्रं प्रोवाच भाष्यकृत् ।। ( इस श्लोक का अर्थ पोस्ट ९ में हैं ।)
इसप्रकार जैसे विलक्षण शिष्य का संबंध से उद्धार होता है , उसीप्रकार अविलक्षण शिष्य का संबंध भी अनर्थ का हेतु बनता है । सत्पुत्र का संबंध , पिता को नरक से उद्धार करता है परन्तु कुपुत्र के बुरे कर्मों से , पिता को नरक यातना देता है , यमराज । ( …..पितृन् प्राचयते यमः )
पोस्ट – ११
” स ही विद्यातस्तं जनयति तत्श्रेष्ठं जन्म गरीयान् ब्रह्मदः पिता गुरुः पिता मुमुक्षोस्तु ” ( आपस्तंप धर्मसूत्रम् १.१.१६ )
( मुमुक्षु के लिये , ब्रह्म विद्या प्रदान करनेवाले आचार्य , जन्मदाता पिता से भी श्रेष्ठ है । )
प्रमाणानुसार आचार्य और शिष्य के बीच पिता पुत्र संबंध होता है । अतः बुरे वर्तनवाले शिष्य से हुआ संबंध , उसके दिये हुए धन के स्वीकृति द्वारा , आचार्य को हानिकारक होकर , उसे नष्ट कर देता है । जब इसप्रकार का शिष्य संबंध ही हानिकारक है, तो ज्ञान और अनुष्ठान हीन आचार्य का संबंध , शिष्य के लिये , कितना हानिकारक है , क्या इसे कहने की आवश्यकता है ?
” ज्ञानहीनं गुरुं प्राप्य कुतो मोक्षमवाप्नुयात् – भिन्न नावाश्रय स्तब्धो यथा पारन्न गच्छति ” प्रमाणानुसार , ज्ञान हीन आचार्य के आश्रित हुआ शिष्य कैसे मोक्ष को प्राप्त होगा ? टूटा हुआ नाव में चढा हुआ व्यक्ति , क्या उस पार , पहुँच सकेगा ?
अतः ज्ञान हीन आचार्य का संबंध शिष्य के लिये हानिकारक है ।
अतः ” सिद्धं सत्संप्रदाये ” यह ” न्यास विंशति ” के प्रथम श्लोक में वर्णित सदाचार्य लक्षणों से युक्त अति श्रेष्ठ आचार्य के संबंध ही मोक्ष का कारण है । उसीसे शिष्य का उद्धार होगा ।
” सिद्धं सत्संप्रदाये स्थिरधीः यमनघं श्रोत्रियं ब्रह्म निष्ठं सत्वस्थं सत्य वाचं समयनियतया साधुवृत्या समेतम् ।
डंभासूयाविमुक्तं जितविषयगणं दीर्घ बन्धुं दयालुं स्खालित्ये शासितारं स्वपरहितपरं देशिकं भूश्णुरीप्सेत् ( न्यास विंशति )
( ( जन्म को सफल बनाने के इच्छुक ) शिष्य को – नाथमुनि , आलवन्दार , श्री रामानुज आदि आचार्यों के सत्संप्रदाय में आया हुआ , स्थिर बुद्धि युक्त , पाप हीन , वेदांत के ज्ञाता , भगवान में निष्ठ , सत्व गुण में स्थित , सत्य वचन बोलनेवाले , शिष्टाचार युक्त सत्कर्म में निरत , आडम्बर , मात्सर्य आदि दुर्गुण रहित , इन्द्रियों को वश में रखनेवाले , शिष्य को बीच में न छोडनेवाले , परम दयालु , शिष्य के दोषों को सुधारनेवाले , स्वयं के और, दूसरों के हित चिंतक आचार्य के , आश्रय लेना चाहिए ।
उपदेश रत्नमाला ग्रन्थ में श्री वरवरमुनि कहते हैं कि शिष्य को आचार्य के देह पोषण में तत्पर रहना चाहिए और आचार्य को शिष्य के आत्मोद्धार का ही लक्ष्य होना चाहिए ।
पोस्ट – १३
इस श्लोक के अनुसार , सत्संप्रदाय में स्थित , सुस्थिर बुद्धि युक्त , शिष्य को उपदेश करने से , अपने लाभ का विचार न करनेवाले , दोष रहित , वेदांत के सही तात्पर्य के ज्ञाता , भगवान में ही निष्ठ हृदय के कारण श्रेष्ठ , प्रकृति के तीन गुणों में वश हुए लोगों के जैसे सुख दुःख में हर्षित और दुःखित न होकर , ” समदुःखसुखस्वस्थः समलोष्टाष्म कांचनः । तुल्यप्रियाप्रियोतीतः तुल्यनिंदात्मसंस्तुतिः । मानावमानयोस्तुल्यः तुल्यो मित्रारीपक्षयोः । सर्वारंभ परित्यागी गुणातीतस्स उच्यते ।।( गीता ) प्रमाणानुसार , सुख दुःख को सम मानकर अपने स्वाभाविक समता में स्थित , मिट्टी और स्वर्ण को एक समान माननेवाले , प्रिय और अप्रिय दोनों को एक समान माननेवाले , निन्दा स्तुति को एक समान माननेवाले , मान और अपमान को एक समान माननेवाले , मित्र और शत्रु को एक समान माननेवाले , अपने हित के लिये स्वयत्न को छोड़कर ( भगवान को ही उपाय मानकर ) जो व्यक्ति है , वही गुणातीत कहलाता है ।
श्री अरैयर स्वामीजी के पुत्र दुसंगति के कारण अनुष्ठान आदि सब छोड़ वहीं चले गए ,तब श्री रामानुज स्वामीजी खुद चलकर वहाँ से उन्हें वापस ले आया ।
पोस्ट-१४
प्रकृति के तीन गुणों के स्पर्श रहित , शुद्ध सत्व गुण में स्थित , शास्त्रों के ज्ञान को बताने में समर्थ , पूर्वाचार्यों के अनुष्ठान के अनुसार , आहार नियति , सहवास नियति आदि सदाचार से युक्त , आडंबर , मात्सर्य आदि दुर्गुण रहित , शब्दादि विषयों में अनासक्त , शिष्य अपने को त्यागने पर भी शिष्य को कदापि न त्यागनेवाले , दूसरों के अनर्थ को न सहनेवाले परम दयालु , शिष्य सद् मार्ग से च्युत होने पर उसे बलात्कार से सुधारनेवाले , अपने में किसी प्रकार का निषिद्ध आचरण न होने देते हुए , अपने को और दूसरों के हित का ही चिंतन करनेवाले ऐसे आचार्य के आश्रित होकर , जो शिष्य आचार्य के उपदेशों का पालन करनेवाला होता है , वही भगवान का प्रियतम हो जाने से , मुक्त होगा ।
पोस्ट – १५
” ज्ञानं अनुष्ठानं इवै नन्रायुडयनान गुरुवै अडैंदक्काल् मानिलत्तीर् तेनार् कमलत् तिरुमामगल् कोलुनन् ताने वैकुंदम् तरुम् ” , ऐसे हमारे आचार्य ( श्रीवरवरमुनि ) ने कहा है ।
( ज्ञान और अनुष्ठान से भलीभांति युक्त आचार्य को पा लेने से , श्रियःपति अपने आप , वैकुंठ प्रदान करेगा – उपदेश रत्नमाला )
सदाचार्य का सत्संप्रदाय सिद्ध होने का मतलब – प्रपन्न जन कूटस्थ शठकोप मुनी से लेकर स्वाचार्य पर्यन्त जो ज्ञानवंश परंपरा है , उसके बीच में अयोग्य संबध न होने के कारण , दोष रहित होना ।
आचार्य के दोष रहित होने का मतलब बताते हैं यहाँ । उपदेश करने का फल – इस जगत में धन आदि का अनुभव , शिष्य का मोक्ष प्राप्ति , शिष्य का सहवास आदि को फल न मानकर, शिष्य को भगवान के मंगलाशासन के लिये योग्य बनाना ही है और स्वयं को आचार्य न मानकर , शिष्य को आपना शिष्य न मानकर , शिष्य को अपने सहपाठी मानना ही है ।
आहार नियति – नीच माने जानेवाले भक्ष्य पदार्थों और पापी के संबंधित भक्ष्य पदार्थों को त्यागकर , ऊँचे माने जानेवाले पदार्थों और सद्पुरुषों के संबंधित पदार्थों को , याने भगवद् भागवतों का अन्न शेष पदार्थों को स्वीकार करना चाहिए ।
शास्त्रों में नीच बताये गये पदार्थ –
( लशूनं मद्यमांसानि मूलंघृंजनं तथा । तिलपिष्टं तथासीगृं बिल्वं कोशातकीं तथा । अलाबुं श्वेतवार्त्ताकं विठ्वनीकं तथैवच । एवमादीन्य भक्ष्याणि शास्त्र दुष्टानि ये नराः खादंति ते नरा यांति विण्मूत्र, क्रिमिभोजनम्”)
लहसून , मांस , मूली , प्याज , ढोल की छडी , बिल्व , लौकी, सफेद बैंगन आदि को शास्त्र ने निषिद्ध बताया है । इन अभक्ष्य पदार्थों को जो लोग खाते हैं , वे नरक में मल , मूत्र , कीडे आदि को भक्षण करेंगे ।
Discussion:
Prohibited are onion,.garlic,.लौकी , raddish,, drumstick , white bringjal , bilva. Gobi, cabbage, carrots too banned. Strictly speaking the vegetables which are used in shraadh are only supposed to be taken.
See , vegetables like carrot, potato, tomato , chillies etc did not exist in smritikara’s times, These have come from abroad . Hence not mentioned in the shloka.
मेरे हिसाब से onion, garlic, raddish , drumstick को छोड़कर आप जो खाते हैं वह सब ठीक ही है समयानुसार ।
As a final conclusion……the text clarifies the rules….to accept or not is left to the people, their understanding and their desacharas and how much they are unmukha or vimukha to both sampradaya. As well as their local customs…so lets conclude this as its beginning to carry no value
भतपुरी उत्तरादी मठ के वर्तमान स्वामीजी के दादाजी नेपाल में रहते थे, 50 पहले की बात है । एक दिन स्वामीजी नदी स्नान करके आते समय रास्ते में गलती से उन्होंने टमाटर के ऊपर पैर रख दिया, उस अशुद्धि को दूर करने के लिए वे पुनः नदी में स्नान करने के लिए गए ।
कितना श्रेष्ठ आचरण उनका था ।
पोस्ट – १७
परन्तु , सदाचार को ही प्राधान्यता देनेवाले श्रीराम , ” नमांसं राघवो भुंक्ते न चापि मधु सेवते ” ( श्रीरामायण सुंदर काण्ड ३६-४१) इस प्रमाणानुसार , सीता वियोग में, मधु मांस नहीं खाये थे; ऐसा कहने से , सीताजी के साथ रहते समय , खाते थे , ऐसा प्रतीत होता है । “मर्यादानांच लोकस्य कर्ता कारयिता च सः ” ( श्रीरामायण सुंदर ३५-११)(शास्त्र के मर्यादाओं का , उस रामने स्वयं अनुष्ठान करके , औरों से भी अनुष्ठान कराया ) , “धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ” ( गीता ४-८) ( धर्म के स्थापन के लिये ही हर एक युग में प्रकट होता हूँ ) आदि प्रमाणानुसार धर्म संस्थापनार्थ लिये गये अवतारों का आचरण का अनुकरण क्या करना नहीं चाहिए ?
पोस्ट – १८ अ
इसका उत्तर इसप्रकार है – श्रीराम का सामान्य धर्म में निष्ठा होने के कारण, क्षत्रिय धर्म के अनुरूप जो योग्य मांस हैं , जो सुगंध यूक्त पुष्पों से बनाया हुआ मधु है, उन्हीं को ही स्वीकार किया था । अपने क्षत्रिय धर्म के लिये जो अयोग्य मधु और मांस था , उन्हें स्वीकार नहीं किया था ।
वर्ण धर्मों का आचरण करनेवाले , वर्ण के तारतम्य के अनुरूप , कुछ वस्तुओं को अपनाते हैं और कुछ वस्तुओं का त्याग करते हैं । परन्तु सत्वगुण निष्ठ परमैकान्ति के लिये ” उभे विद्वान् पुण्य पापे विधूय “( ज्ञानी , पुण्य और पाप दोनों को छोड़कर ) प्रमाणानुसार , भगवद् अनुभव के व्यतिरिक्त , अन्य सभी विषय त्याज्य ही है , स्वीकारने योग्य नही है ।
पोस्ट – १८ब
” ब्राह्मणस्य मधूकमैक्षवंतालं कार्जूरं पानसं तथा , द्राक्षं मधुजमारिष्टं मैरेयं नालीकेरजं । इत्येकादशमद्यानि निषाद्धानि द्विजन्मनां । सुरांबुकृतगोमूत्र पयसामन्यतममग्निस्पर्शाद्दाहकशक्तिं कृत्वा पीत्वा मरणात् शुद्धिं प्राप्नुयात् “
( ब्राह्मण के लिये महुआ , गन्ना , ताड, खजूर , कटहल , द्राक्ष , मधु , छास , गूड ,नारियल आदि से बनाया हुआ दस प्रकार के सुरापान त्याज्य है ; परन्तु दारू , घी , गोमूत्र , दूध आदि इनमें से किसी एक को , दाह शक्ति को बढाने के लिये , गरम करके पीने से , पहले वर्णित दस सुरापानों के सेवन करने से जो पाप होता है , वह दूर होकर , वह शुद्ध हो जाता है । ” )
इसप्रकार सत्वगुण निष्ठ ब्राह्मण जाती के लिये , जिस पदार्थ को , घोर पाप का कारण बताया गया है , वह पदार्थ , रजोगुण और तमोगुण तनिक भी न मिश्रित , शुद्ध सत्वगुण निष्ठ , अपना परिचय के लिये भी गाँव , कुल आदि को छोड़कर , सभी वर्णाश्रमों से विलक्षण( श्रेष्ठ ) होकर , श्रीरामदास , श्रीकृष्णदास आदि भगवद संबंध नाम से से ही अपनेको परिचय करानेवाले , परमैकान्ति के लिये सोचना भी पाप है न !
परन्तु इन नीच पदार्थों का सेवन का निषेध का कारण जाती मात्र नही है ।( नीच जाती – तामसिक पदार्थ )
” द्रव्यं निन्द्यसुरादि दैवत मतिक्षुद्रंच बाह्यागमोदृष्टिर्देवलकाश्च देशिकजना दिग्दिग्दि गेशां क्रमः “ ( क्षुद्र देवताओं के लिये चढाये जानेवाले भोग, धर्म ग्रन्थों द्वारा निषिद्ध माने गये, सुरा पानादि है । इसके लिये प्रमाण है वेद के विरुद् कहे जानेवाले शैवागमादि है।
इसप्रकार क्षुद्र देवताओं के विषय में कहनेवाले , वेद विरुद्ध शैवागम में , कहे हुए नीच कार्य होने से , इन पदार्थों का सेवन का शिष्ट लोग निंदा करते हैं ।
“यजन्ते सात्विका देवान्” ( गीता १७-४) इस प्रमाणानुसार सभी देवता, सात्विक लोगों के लिये पूज्य है, ऐसा मानकर, जैसे भगवान ने अपने अवतारों में रुद्र, इन्द्र, सूर्य आदि देवताओं की पूजा की थी, ऐसा मानकर , महालक्ष्मीजी के समान, परिशुद्ध जीवात्मायें देवतांतर भजन तो नही कर सकते हैं न !
( परिशुद्ध जीवात्माओं का महालक्ष्मीजी से साम्य इसप्रकार है :
१) अनन्यार्हशेषत्व २) अनन्योपायत्व ३) अनन्यभोग्यत्व ४) वियोग में दुःखित होना ५) मिलन में सुखी होना ६) भगवद् आज्ञानुवर्तनम् )
ऐसा नही माने तो , भगवान के अवतारों में किये गये , अतिमानुष कार्य सब , हमें अनुकरणीय हो जायेंगे । तो ब्राह्मण रावण को मारना आदि ब्रह्महत्या , कृष्ण का जार चोरी आदि कार्य भी , हमारे लिये अनुकरणीय मानना होगा । अतः महा पातक कर्मों को भी प्रपन्न धर्म मानकर , आचरण करना होगा । इसलिये शास्त्र विरुद्ध होने से , इन्हें कदापि नहीं मान सकते हैं ।
पोस्ट १९
गीता चरमश्लोक ” सर्व धर्मान् परित्यज्य ” ( गीता १८-६६) में ” सर्व ” शब्द के अर्थ का संकोच न करते हुए , यदि ऐसा माना जाय कि अधर्म से निवृत्ति का जो धर्म है उसे भी त्यागकर , मधु मांस को खाना उचित मानना होगा ; परन्तु यह तो तीन कारणों से अनुचित है ऐसा मुमुक्षुपडि (२१० सूत्र) में बताया गया है । ( अपने को , ईश्वर को , फल को देखने से , यह अधर्म प्रवेश नहीं हो सकता १) भगवद् मुखोल्लास के लिये ही कर्म करनेवाले अपने शेषत्व स्वरूप , २) धर्मों को भी त्यागने के लिये कहनेवाले भगवान ३) भगवान का मुखोल्लास का फल – इन तीनों के देखने से , अधर्म का प्रवेश असंभव है )
मुमुक्षुपडि के सूत्र ( २०९) में सर्व शब्द , अधर्म निवृत्ति को भी कहा गया है ; फिर भी उस अर्थ का संकोच क्यों ? धर्म को अधर्म से निवृत्ति क्यों न माना जाय ? इसका उत्तर – सर्वज्ञ भगवान लोकायत,जैन , बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक , शैव ऐसे बाह्य मतों के दुर्वादों के नाश हेतु , सन्मार्ग के प्रतिष्ठापनार्थ कहे गये गीता चरमश्लोक का अर्थ अधर्म का अनुष्ठान ही है , यदि ऐसा मानेंगे तो , गुरु- मंत्र -देवता इन सबका अपमान होगा । यही नहीं बल्कि , शास्त्र विरुद्ध धर्म का आचरण ही , सर्व उपनिषदों का सार – गीता शास्त्र का तात्पर्य है ऐसा कहना पडेगा ।
पोस्ट – २०
यही नहीं बल्कि , ” उपायापाय निर्मुक्तो मध्यमां स्थितिमास्थितः ” प्रमाणानुसार प्रपत्ति, जो उपाय और अपाय दोनों से अछूत है , उस प्रपत्ति का भी अपमान हो जाने से , स्वरूप का नाश ही होगा । अतः ” उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ” ( गीता १७/१०) प्रमाणानुसार उच्छिष्ट ( श्रेष्ठ व्यतिरिक्त अन्यों का उच्छिष्ट ) और अमेध्य (मधु मांसादि ) पदार्थ तामसिक व्यक्तियों के लिये है , सत्व निष्ठ व्यक्तियों के लिये तो त्याज्य ही है ।
प्रकृति के तीन गुणों के अधीन कर्म करनेवाले व्यक्तियों के लिये ही , अपने अपने गुणानुसार कुछ पदार्थ स्वीकार योग्य और कुछ पदार्थ अस्वीकार योग्य है । ” सर्वं खल्विदं ब्रह्म ” ( छांदोग्य ३-१४-१) ( यह सब ब्रह्म ही तो है ।) , प्रमाणानुसार सभी पदार्थों को ब्रह्मात्क ( ब्रह्म के शरीर ) माननेवाले उत्तम अधिकारीयों के लिये , क्या कुछ त्याज्य भी है ? – यदि ऐसा माना जाय – तो यह जीवात्मा , त्रिगुणात्मक प्रकृति ( संसार )को त्यागकर , जब मुक्त होता है , उस वक्त ही , यह ब्रह्मात्मक सब लीला विभूति, तदीयत्व आकार के कारण ( भगवान का है इस कारण से ) अनुभव योग्य है ।
प्रकृति विशिष्ट होने पर भी , भगवान के प्रसाद से ज्ञान , भक्ति पाये हुए शठकोप मुनि , प्रह्लाद जैसे अपरोक्ष ज्ञानी , सभी पदार्थों में , भगवान का साक्षात्कार करके , विष , शस्त्र , अग्नि आदि में प्रतिकूल बुद्धि रहित होकर ,
” नाग्निर्दहति नैवायं शस्त्रैश्छिन्नो न चोरगेः । क्षयं नीतो न वातेन न विषेण न कत्यया ।।
सत्त्वासक्तमतिः कृष्णे दश्यमानो महोरगैः । न विवेदात्मनो गात्रं तत्स्मृत्याह्लाद सम्स्थितः “
( श्रीविष्णु पुराण १-१९-५९,६०)
( इस प्रह्लाद को अग्नि ने जलाया नही ; शस्त्र इसे काट नहीं सके ; सर्प, आंधी, विष , आभिचार पिशाच आदि इसका नाश न कर सके; वह प्रह्लाद तो भगवान के ध्यान में मग्न होकर आनंद में स्थित था, अतः महासर्पों के काटने पर , अपने शरीर का बोध रहित था ।)
रहने से , अग्नि आदि सभी प्रतिकूल पदार्थ , प्रह्लाद के लिये अनुकूल हो गये थे ।
” सर्वभूतात्मके तात जगन्नाथे जगन्मये । परमात्मनि गोविंदे मित्रामित्रगता कुतः ” ( श्री विष्णु पुराण १- १९-३७)( पिताजी ! सभी जीवों का और जड पदार्थो का आत्मा भगवान विष्णु का कौन मित्र हो सकता है और कौन शत्रु हो सकता है ? )
इस प्रमाणानुसार , सब में समता भाव करते थे प्रह्लाद ।
येइसीप्रकार शठकोप मुनि भी , सहस्त्रगीति ( ३-४-१,३-४-१०,६-९-१) के अनुसार , भूमि आदि महाभूत , उनसे उत्पन्न भौतिक पदार्थ और इनके व्यतिरिक्त , चेतन वर्ग आदि सभी में व्याप्त भगवान , वे सभी उसके शरीर होने से , सभी भगवान ही है ऐसा मानकर , सब में समता बुद्धि का अनुसंधान करते थे ।
इसप्रकार अनुसन्धान करनेवाले प्रह्लाद और शठकोप मुनि ने , भगवान सभी का आत्मा होने से , सभी में भगवान को देखा था ; परन्तु लहसून और प्याज में भी भगवान को देखकर उनका सेवन नही किया था ।
पोस्ट – २१-२५
नम्माल्वार् भगवान से ” मुझे दर्शन देने आओ ” ( सहस्त्रगीति ६-९-४) ऐसे प्रार्थना करते हैं । उत्तर में भगवान कहते हैं , ” हम ने आपको , विश्व रूपी विग्रह को दिखाया , क्या आपके प्राण धारण के लिये यह पर्याप्त नहीं है ? ” ; तब आल्वार् ने कहा , ” राज्य का कारागृह आदि सभी ऐश्वर्य , राजपुत्र के लिये , पिताजी का है यह मानकर , आदरणीय है । उसीप्रकार सभी अंड , उसके भीतर के देव , मनुष्य आदि पदार्थ , स्वर्ग – नरक आदि सुख दुःख के अनुभव स्थान , उन स्थानों को प्राप्ति के लिये किये जानेवाले पुण्य पाप आदि , इन सभी का स्वतन्त्र आस्तित्व नही है ; वे सभी तुम्हारे शरीर होने से , तुम्हारे अधीन ही है ऐसा मानकर आदर करता हूँ । परन्तु ” मैला शरीर ” ( सहस्त्रगीति ६-३-७) रक्त, मांस आदि से बाना हुआ इस शरीर का समूह , जो आपके स्वरूप को छुपाकर विपरीत ज्ञान को उत्पन्न करता है , ऐसे आपके जगत आकार शरीर , क्या आपके ” परंज्योति विग्रह ” (सहस्त्रगीति ६-३-७) के समान , मेरे लिये अनुभाव्य हो सकता है ?
आल्वार् ने ” चक्र, शंख धारण करके इस दुष्ट के सामने आओ ” (सहस्त्रगीति ६-९-१) ऐसे भगवान को , असाधारण दिव्य मंगल विग्रह के साथ आने के लिये प्रार्थना किया था न ?
आल्वार् , महालक्ष्मी -नित्यसूरि – मुमुक्षु आदि के अवस्था को प्राप्त होकर , मुक्त दशानुभव के समय में , समस्त पदार्थ भगवान के शरीर ही है ऐसा अनुसंधान करते हैं ; उसी आल्वार् ने , माता के दूध आदि सभी वस्तुओं को हेय मानकर त्यागकर , ” भक्ष्य अन्न, पीनेका जल , चबाने का बीडा , सब कुछ कृष्ण ही है ” ( सहस्त्रगीति ६-७-१) धारक ( अन्न) , पोषक ( जल), भोग्य ( बीडा – पान ) यह तीनों उनके लिये कृष्ण ही है, ऐसा अनुसन्धान करते हुए , प्राकृत वस्तुओं को ही अपना जीवन माननेवाले संसारी जीवों से मुँह फेरते हुए , भगवान से स्वयं को प्राकृत शरीर से मुक्त कराने के लिये प्रार्थना किया था ।
अतः सब कुछ ब्रह्म शरीर ही है , ऐसा मानकर , सभी हेय प्राकृत पदार्थ ( मधु मांसादि ) स्वीकार करने उचित नही हैं।
” आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः ” ( छांदोग्य – ७-२६-२) , ( शुद्ध आहार से मन की शुद्धि ) , ” सत्त्वात् संजायते ज्ञानम् ” ( गीता १४-१७) ( सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है ) , ” ज्ञानान् मोक्षः ” ज्ञान से ही मोक्ष की प्राप्ति होने से , ज्ञान – विरोधी वस्तुओं का त्याग करना चाहिए ।
आल्वारों को , स्वयं भगवान ने निर्मल ज्ञान और भक्ति प्रदान किया था ; अतः उनके लिये धारक, पोषक, भोग्य वस्तु सब स्वयं भगवान ही थे । परन्तु मुमुक्षुओं के लिये , सत्वगुण- प्रधान भक्ष्य पदार्थ ही सेवन के लिये उचित है और नीच (राजसिक , तामसिक) पदार्थ सभी , सर्वथा त्याज्य ही है ।
परन्तु दारू , घी , गोमूत्र , दूध ….
Here सुराम्बु has been translated as दारू . This is not correct. Former is flavored water whereas the latter is liquor. Liquor can never be a remedy for the das’a madhya paanam which are just fruit juices.
sura means water. ambu is andropogon (also known as coleus vettiveroides in ayurveda), also known as Vettiver in Tamil. And hence surAmbu is flavored water (mixed with vettiver).
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Thanks swami. That’s really helpful. It’s indeed blessing for us that you took time to give us correct meaning.
Adiyen Ramanuja dasan
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[das’a madhya paanam] to be read as [ekAdas’a madhya paanam]
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