पूर्व के भाग:-
विलक्षण मोक्षाधिकार निर्णय (1-25)
विलक्षण मोक्षाधिकार निर्णय (26-50)
विलक्षण मोक्षाधिकार निर्णय (51-75)

पोस्ट ७६,७७/76,77
दिव्यप्रबंध के अध्ययन का फल कहते समय कहा गया है, ” ज्ञान सहित अध्ययन करनेवालों को वैष्णवत्व सिद्धि ” । इस प्रमाणानुसार ,जानकर अनुष्ठान करने पर ही वैष्णवत्व सिद्धि हो सकती है । ” गान और नृत्य करने पर वैकुंठ प्राप्ति “, इस प्रमाणानुसार केवल कंठस्थ करने पर मुक्त नही हो सकते क्योंकि ” दर्वीपाकरसं यथा ” ( चम्मच को , भोजन का रस , नही पता होता है ) प्रमाणानुसार बिना अर्थानुसंधान के, यदि मात्र कंठस्थ पाठ करने से , मुझे ३००० पासुर कंठस्थ है , मुझे ४००० पासुर कंठस्थ है , ऐसा अहंकार का हेतु बनकर, विफलता ही प्राप्त होगा ।
परन्तु, ” पाठादेवप्रसमित तमः “ ( शास्त्र पडने से मात्र , अज्ञान रूपी अंधकार का नाश होता है ) कहा गया है; परन्तु शब्दार्थ रहित ज्ञान से, त्याज्य उपादेय विवेक उत्पन्न न होने से, अंधकार की निवृत्ति संभव नही है न !
फिर भी ऐसा कहने का तात्पर्य , शास्त्र का प्रभाव का स्तुति मात्र ही है ।
” पाठ करने में सक्षम होने से वैकुंठ प्राप्ति ” ( सहस्त्रगीति २-५-११) प्रमाणानुसार उन दस पासुरों का अनुसन्धान से मुक्ति प्राप्त है, ऐसा मानकर, उन पासुरों का पाठ मात्र करके, तद् विरुद्ध भगवद्-भागवत-अपचारों में प्रवृत्त होने से मुक्त नही हो सकता है न !
इसका तात्पर्य यह भी हो सकता है कि, ” यदि प्रतिकूल अनुष्ठान का निवृत्ति हो , तो पाठ मात्र पर्याप्त है ” । अतः सक्षम का अर्थ है “शब्दार्थ ज्ञान सहित तद् अनुरूप अनुष्ठान ” ।
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जैसे शास्त्र और आल्वार् आदि ने मूल ग्रन्थों में कहा है, वैसे ही उनके अर्थो को , क्यों नही ग्रहण करना चाहिए ? इसके उत्तर में कहते हैं कि सहस्त्रगीति में एक जगह, फलाश्रुति में कहा गया है, ” इस दस पासुरों को गानेवाले , कामिनीयों के प्रिय हो जायेंगे “; इसका अर्थ यह तो नही हो सकता है न ! इसका तात्पर्य अर्थ है , ” जिसप्रकार कामी , कामिनी के लिये भोग्य होते हैं, उसीप्रकार पासुरों को अभ्यास करनेवाले, नित्यसूरियों के लिये भोग्य होंगे ” । तो यह सिद्ध हुआ कि पासुरों का केवल पाठ ही पर्याप्त नही है, साथ साथ अर्थ ज्ञान और उसके अनुसार अनुष्ठान भी आवश्यक है। इसीप्रकार वेदों, ऋषियों, आल्वारों और आचार्यों का कथन कभी कभी प्रशंसा मात्र होते हैं, अतः उनके तात्पर्य का ज्ञान और अनुष्ठान अनिवार्य ही है ।
” चक्रं बिभर्त्ति वपुषा अभितप्तं फलं देवानां अमृतस्य विष्णोः स एति नाकं दुरिता विधूय विशन्तियद्यतयो वीतरागः “(अथर्व णम् ) इन्द्रियों के विषयों में अनासक्त व्यक्तियों द्वारा प्राप्त परमपद को विष्णु के चक्र का तप्त मुद्रा धारण करने से प्राप्त कर सकते हैं ।) प्रमाणानुसार , तप्त चक्र धारण मात्र से, शब्दादि विषयों में आसक्ति रहित सन्यासी परमपद को प्राप्त होते है; ऐसा अर्थ न लगाकर , देवतांतर में आसक्त , पर हिंसा आदि निषिद्ध अनुष्ठानवालों को भी चक्र धारण मात्र से परमपद प्राप्त होगा , ऐसा कहना उचित नही होगा न !
तो , ऐसा कहना उचित है कि भगवान के शंख चक्र को धारण करना ज्ञानीयों के लिये श्रेष्ठ संस्कार है , परन्तु शंख चक्र का धारण मात्र ही पर्याप्त है , ऐसा कहना अनुचित ही हैं । यहाँ प , वेदमें , पंच संस्कारों का श्रेष्ठता का स्तुति मात्र की गयी है , ऐसा ही मानना चाहिए ।
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” ये पापिनः अपि शिशुपाल सुयोधनाद्याः वैरानुबन्धमतयः परुषं वदन्तः , मुक्तिंगताः ये ” ( शिशुपाल , दुर्योधन आदि पापी , बैर के कारण , भगवान को कटु वचनों से गाली देकर मुक्त हो गये ) प्रमाणानुसार पापी शिशुपालादि भी गाली देकर मुक्त हुए ; ऐसा कहने का तात्पर्य उनके अंतिम भगवद् स्मरण का प्रभाव ही है क्योंकि भगवद् निन्दा करनेवालों को परमपद की प्राप्ति कदापि नही हो सकता
आल्वार् भी तोताद्री दिव्यदेश के महलों का वर्णन करते समय कहते हैं कि महल इतने ऊंचे हैं कि चंद्र को छू रहे हैं ( सहस्त्रगीति ५-७-२) । यह तो प्रत्यक्ष के विरुद्ध है । अतः इन्हें प्रशंसा मात्र ही मानना चाहिए ।
” यथा तथावापि सकृत् कृतोंजलिः “ ( स्तोत्ररत्न २८) , प्रमाण में अंजलि का स्तुति करते समय “ केनचित् ” , ” कदापि ” कहकर यह बताया गया है कि, किसी एक समय में एक अंजलि कर देने से , व्यक्ति के सभी पाप मिट जाते हैं और अभीष्ट फल प्राप्त होते हैं । इसका यह मतलब तो नही है न कि , एक अंजलि मात्र करके , परन्तु भगवद् आज्ञा का उल्लंघन करके , दुराचारों में प्रवृत्त होकर , भागवतों का अपचार करने से , उसके अनिष्ट की निवृत्ति पूर्वक इष्ट की प्राप्ति हो जायेगी ? यदि ऐसा ही मतलब मान लिया जाय , तो इस जगत में एक अंजलि भी न करनेवाले नही होने से , देवतांतर भजन करनेवाले , परम पुरुषार्थ के व्यतिरिक्त अन्य फलों को चाहनेवाले , दुराचारी , भागवत अपचार करनेवाले सभी चेतन को मुक्ति की प्राप्ति स्वीकारना पडेगा , जिससे वैष्णवत्व आदि योग्यताओं की आवश्यकता , व्यर्थ सिद्ध हो जायेगा ।
अतः , “ महतामपि केशांचिदतिवादाः प्रथग्विधाः तत्तदर्थ प्रशंसादि तत्परत्वाद बाधिताः ” ( कुछ महात्माओं का विविध प्रकार के अतिशयोक्ति शब्द का तात्पर्य प्रशंसा मात्र ही होने से स्वीकार्य है ) प्रमाणानुसार , ऐसे उक्तियों को प्रशंसा मात्र मान लेने से , दोष नही होता है ।
Discussion:
जय श्री सीता राम; अडियेन; दास की एक जिज्ञासा है.
आज के श्लोक में जो विधि निषेध पालन का वर्णन है. क्या यह साधन का ही एक स्वरूप माना जाये, क्योंकि शरणागत होने के बाद भी उपरोक्त विधी निषेध का पालन न करना मोक्षप्राप्ति के विरोधी है.
अतः शरणागत होने के पश्चात विधी निषेध पालन करना, भाव पूर्ण और चिंतनपूर्ण भगवद् विषय अनुसंधान करना ये कही न कही साधना के समान परिलक्षित होते है. एक भक्ति मार्ग का पथिक भी इन्हें करता है और शरणागत भी 🙏🙏🙏
पूर्व में ही कहा तो गया है कि ” सर्व धर्मान् परित्यज्य ” में अधर्म निवृत्ति रूपी धर्म का समावेश नही है । यदि सही माने में प्रपन्न होगा तो विधी निषेध का पालन भगवद्-प्रीत्यर्थ ही करेगा न कि साधन मानकर । जब हम संध्या वंदन या अन्य वैदिक कार्यों में संकल्प करते हैं तब यही कहते हैं कि “ भगवद् आज्ञा भगवद् कैंकर्य रूपम् ” । अतः हमारे लिये सब कुछ कैंकर्य ही है । इसलिए सदा गुरु परंपरा पूर्वक द्वयमंत्र का अनुसंधान का विधि , प्रपन्न के लिये आवश्यक है ताकि विरुद्ध आचार में मन न लगे और यह अनुसंधान भगवान के लिये अत्यन्त प्रिय है ।शिष्टाचार में जितना विधि का पालन है उतना ही करना है; उदाहरण: शास्त्र में हर एक मास के आरंभ में पितृ तर्पण का विधान है; परन्तु शिष्टाचार में चार मात्र मास ही है , महालय पक्ष में श्राद्ध का विधि है परन्तु तर्पण मात्र का शिष्टाचार है । हमारे आचार्यों ने ही विधियों को कम कर दिया है, परन्तु उतना तो शिष्टाचार के अनुसार, भगवद् कैंकर्य मानकर करना चाहिए ।
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दिव्यप्रबंध के अर्थ का अनुसंधान करके, अनुष्ठान करने का प्रकार का वर्णन :
” असत्य का ज्ञान ” ( तिरुवृत्तम् -१) कथनानुसार , देहात्माभिमान रूपी असत्य ज्ञान , सांसारिक दुष्कर्म प्रवृत्ति से मैला हुआ शरीर आदि त्याज्य है ऐसा जानकर , इनसे छुटकारा पाने के लिये भगवान से प्रार्थना करके , ” सबका त्याग करके , आत्मा को उसके मालिक में लगाओ ” ( सहस्त्रगीति – १-२-१) कथनानुसार, पिता, माता, पत्नी, पुत्र, घर, धन आदि जो भगवद् व्यतिरिक्त पदार्थ हैं; उन सबका परित्याग के पश्चात ही भगवान के प्रति आत्म समर्पण करके, ” आप और आपका , इन्हें समूल नष्ट करके ” ( सहस्त्रगीति १-२-३) कथनानुसार , संसार बीज रूपी अहंकार , ममकार को समूल नष्ट करके , ” मन के मल को धोकर ” ( सहस्त्रगीति १-३-८) कथनानुसार , स्वगुण और परदोषों का निरीक्षण रूपी मन के मल को दूर करके, ” मैं नीच हूँ , पापी हूँ ” ऐसे अपने दोषों को कहकर , ” किस दिन मैं आकर तुम से मिलूंगा “( सहस्त्रगीति ३-२-१) कथनानुसार , प्रतिकूल शरीर , इन्द्रियों को अन्य विषयों से निवृत्त करके , कब मैं तुम से आ मिलूंगा , ऐसे दुःखित होकर , ” सदा सर्व काल सेवा करना चाहिए ” ( सहस्त्रगीति ३-३-१) कथनानुसार , भगवान के प्रति , सर्व काल , सर्व देशों में , सर्व प्रकार के सेवा करने में , रुचि युक्त होकर , ” सभी चित् अचित् वस्तु वही है ” ( सहस्त्रगीति ३-४-१०) कथनानुसार , सभी जड , चेतन वस्तुओं का आत्मा भगवान ही है , ऐसा मानकर , उनके प्रति राग द्वेष रहित होकर , “हमारे सोच के अनुसार , रूप धारण करता है, भगवान ” ( सहस्त्रगीति ३-६-९) कथनानुसार , अर्चावतार के गुण पूर्ति का अनुसन्धान करके , उसमें अत्यन्त प्रीति युक्त होकर , “ भगवद् भक्त जो भी हैं , वे ही हमारे स्वामी हैं ” ( सहस्त्रगीति ३-७-१) कथनानुसार , भगवद् गुणों के अनुभव में मग्न , परम विलक्षण वैष्णव ही हमारे लिये उपेय हैं ऐसा अनुसंधान करके , अनधिकारी लोगों के सेवा से निवृत्त होकर , “ इन्द्रिय सुख- अल्प सुख ” ( सहस्त्रगीति ४-९-१०) कथनानुसार , ऐश्वर्य , कैवल्य को तुच्छ मानकर , ” यह कैसा संसार है ? ” ( सहस्त्रगीति ४-९-१) , ” दुष्ट संसार का दर्शन न कराओ ” (सहस्त्रगीति ४-९-७) कथनानुसार , इस संसार का व्यवहार असह्य होने से , इस संसार से घृणा करके , ” कोई कर्मयोग नही है , ज्ञानयोग नही है ” ( सहस्त्रगीति ५-७-१) कथनानुसार , अपने साधन रहित अवस्था का अनुसन्धान करके, विषयांतरों के दर्शन से दुःखित होकर , ” दिन रात , आँखें नींद से अनजान हैं ” ( सहस्त्रगीति ७-२-१) कथनानुसार , भगवान को न पाने से , निद्रा और आहार में रुचि रहित होकर , ” मेरे पिता , दर्शन देने की कृपा करो ” ( सहस्त्रगीति ८-१-१) कथनानुसार , भगवान को बुलाते हुए , ” मल्लिका पुष्प के गंध से युक्त शीतल पवन दाह देता है ” (सहस्त्रगीति ९-९-१) कथनानुसार ,भगवान के वियोग के समय में , भोग्य पदार्थ भी आग जैसे प्रतीत होते हुए , ” तुम्हारा शपथ ” ( सहस्त्रगीति १०-१०-२) , ” तुम्हारे सिवाय अन्य कोई उपाय न जानता हूं ” ( सहस्त्रगीति १०-१०-३) कथनानुसार , शपथ पूर्वक भगवान से प्रार्थना करके , प्रकृति संबंध का विच्छेद करा लेने में , परम व्याकुल होना ही , दिव्यप्रबंध का अध्ययन का फल है ।
तो हमें गुरु परंपरा पूर्वक द्वयमंत्र का जप करते रहना चाहिए , तब यह सब गुण आहिस्ता आहिस्ता हमारे में उदित हो जायेंगे ।
पोस्ट ८७,८८/87,88
श्रीवैष्णव दर्शन के दिव्यप्रबंधों के अर्थ के ज्ञान रहित लोग जन्म मरण रूपी संसार बंधन में जकडे होते हैं । परन्तु इन अर्थों को जानकर भी , जो विषयों में आसक्त होकर , पत्नी , पुत्र आदि में मग्न होकर , अहंकार और ममकार के वश में होकर , भागवत अपचारादि के प्रति बिना कोई भय के , एक दूसरों को , शास्त्र चर्चा रूपी स्पर्धा में , पराजित करके , ” गुरुं त्वगंकृत्य हुंकृत्य विप्रं निर्जित्य वादतः अरण्ये निर्जले देशे भवति ब्रम्हराक्षसः ” ( कार करके , वाद विवाद में उन्हें जो पराजित करता है , वह निर्जल वन में , ब्रम्हराक्षस का जन्म को प्राप्त होता है ) इस प्रमाण के अर्थ को उपेक्षित करके , राजा के महलों में सेवा के अयोग्य व्यक्तियों का सेवा करके , अधम क्षुद्र पुरुष को ” आप ही सर्वोत्कृष्ट पुरुष है ” ऐसे उनका स्तुति आदि करके जीवन चलानेवाला व्यक्ति आस्तिक-नास्तिक कहा जाता है ।
शास्त्र के ज्ञान रहित अज्ञानी और इस आस्तिकनास्तिक में अधिक अंतर है ।
शास्त्र अज्ञानी को शास्त्र ज्ञान प्रदान करके , सुधारा जा सकता है ; परंतु शास्त्र का ज्ञान होते हुए भी , अहंकार से दुराचारी आस्तिकनास्तिक को सुधारा नहीं जा सकता ।
“ विदुशोतिक्रमे दंड भूयस्त्वम् ” ( जानकारी होते हुए भी , जो ज्ञानी शास्त्र विधि का उल्लंघन करता है , उसके लिये दंड , ( साधारण व्यक्ति से ) अधिक होता है ।) प्रमाणानुसार आस्तिक-नास्तिक का अपराध बहुत माना जाता है । अतः , शिष्य व्यक्ति को , ऐसे आस्तिक-नास्तिक व्यक्ति के साथ सहवास नहीं करना चाहिए ।
यदि सहवास किया तो , ” दुर्गंध पदार्थ के संसर्ग से , (अच्छे पदार्थों में) दुर्गंध चढ जाता है ” ( उपदेशरत्नमाला – ७०) प्रमाणानुसार , उस व्यक्ति के दुर्वासना , इस पर हावी होकर , इसे संसार में बद्ध कर देगा ।
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यह अर्थ भगवान के अभिप्राय से भी सिद्ध होता है । ”
महत्सेवां द्वारं आहुः विमुक्तेः तमोद्वारं योषी तां संगिसंगं – महान्तः ते समचित्ताः प्रशांताः विमन्यवः सुहृदस्साधवो ये –
ये वा मयीशेकृत सौहृदार्थाः जनेषु देहं भरवार्त्ति केषू , गृहेषुजाया – आत्मजराति – मत्सु न प्रीतियुक्ता यावदर्थाश्च लोके ” ( महानुभावों के प्रति की गयी सेवा , मोक्ष के लिये मार्ग है , ऐसा कहा जाता है ; पत्नी , पुत्र में आसक्ति , अज्ञान रूपी अंधकार के लिये मार्ग है , ऐसा भी कहा गया है ; वे महानुभाव सम चित्तवाले , जगत के आसक्ति से मुक्त , क्रोध रहित, सबके मित्र, मुझ ईश्वर में प्रेम युक्त, शरीर, घर, पत्नी, बच्चे इनमें अनासक्त, जगत में जो मिला है उसीमें तृप्त होते हैं “।)
प्रमाणानुसार , महात्माओं की सेवा ही मुक्ति का द्वार है और पत्नी , पुत्र आदि में आसक्ति ही , अंधकार रूपी अज्ञान का द्वार है । वे महात्मा कौन हैं ?
” समश्शत्रौच मित्रेच तदा मान अवमानयोः – शीतोष्ण सुखदुःखेषु समस्संग विवर्जितः ” ( गीता १२-१८) ( शत्रु और मित्र , मान और अपमान , शीत और उष्ण , सुख और दुःख आदि में समता बुद्धि रखनेवाला , किसी में आसक्ति रहित रहनेवाला ) , ” तुल्य निन्दा स्तुतिर्मौनी संतुष्टो येन केनचित् ” ( गीता – १२-१९) ( निन्दा और स्तुति को सम मानकर , मौन धारण करके , जो मिलता है उसमें तृप्त होकर रहता है ) प्रमाणानुसार , शत्रु – मित्र , मान- अपमान , शीत- उष्ण , सुख- दुःख , लाभ- नष्ट , निन्दा – स्तुति आदि में समता चित्त युक्त होकर , प्रशांत चित्त होकर , क्रोध रहित , सर्व प्राणी के प्रति मित्रता भाव युक्त होकर , परम साधु , मेरे प्रति अति प्रेम युक्त होकर , पत्नी – पुत्र- गृह- क्षेत्र- धन आदि में विरक्त , जो मिलता है उसमें संतुष्ट होकर जो विचरण करते हैं , वे ही महात्मा हैं । इसप्रकार जो महात्मा हैं , उनका सहवास ही मुक्ति – द्वार है , ऐसा भगवान स्वयं ने कहा है न!
” नास्तिक , सदाचार युक्त आस्तिक , आस्तिक-नास्तिक – इन पर विचार करके , पूर्वोक्त और उत्तर उक्त दोनों को मूर्ख मानकर , मध्य भाग में जिस आस्तिक को अकहा है , उसका अनुसरण कर ” ( उपदेशरत्नमाला ६८) प्रमाणानुसार , शास्त्र ज्ञान विहीन होकर , निषिद्ध अनुष्ठान करनेवाले नास्तिक , सारतम शास्त्र का प्रतिपाद्य , सन्मार्ग का अनुसरण करनेवाले आस्तिक , शास्त्रार्थ को जानकर भी मनमानी आचरण करनेवाले आस्तिक-नास्तिक , इन पर अच्छी तरह विचार करके , पूर्वोत्तर में कहे गये व्यक्तियों को , मूर्ख मानकर त्याग करके, बीच में कहे गये आस्तिक व्यक्ति का अनुसरण करना चाहिए , ऐसे हमारे आचार्य ” पेरिय जीयर् ” ( महा जीयर् – श्रीवरवरमुनि ) ने कहा है न !
अतः , मोक्षाधिकारी को , सारतम शास्त्र मार्ग के अनुसरण करनेवाले , परम विलक्षण भागवतों का सहावास करते हुए आचार्य पद का अभिमान युक्त होकर , परन्तु सदाचार्य के कोई भी लक्षण के बिना , ” पूर्वों के वचन का अध्ययन करके , पश्चात उसका मनन करके , उसे न कहकर , अपने बुद्धि से विपरीत अर्थों को कहकर, यही शुद्ध उपदेश है , ऐसा कहनेवाले मूर्ख ही है ” ( उपदेशरत्नमाला – ७१) प्रमाणानुसार , पूर्वाचार्यों के श्रीसूक्तियों को सुनकर , पश्चात उस अर्थ के अनुकूल , अविरुद्ध अर्थ को न कहकर , मनमानी अर्थ लगाकर , यही शुद्ध संप्रदायार्थ है , ऐसे कहनेवाले मूर्ख है , ऐसे जीयर् के कथनानुसार , सही अर्थ का परित्याग करके , एक परम विपरीत सौ अर्थों का कल्पना करके , प्रतिकूल देहात्माभिमानादि का त्याग न करके , बद्ध संसारी बनकर , ” सदाचार्य कटाक्ष मुझपर है , मुझे किस चीज का भय…
पोस्ट ९२-९६/92-96
अतः , मोक्षाधिकारी को , सारतम शास्त्र मार्ग के अनुसरण करनेवाले , परम विलक्षण भागवतों का सहावास करते हुए आचार्य पद का अभिमान युक्त होकर , परन्तु सदाचार्य के कोई भी लक्षण के बिना , ” पूर्वों के वचन का अध्ययन करके , पश्चात उसका मनन करके , उसे न कहकर , अपने बुद्धि से विपरीत अर्थों को कहकर, यही शुद्ध उपदेश है , ऐसा कहनेवाले मूर्ख ही है ” ( उपदेशरत्नमाला – ७१) प्रमाणानुसार , पूर्वाचार्यों के श्रीसूक्तियों को सुनकर , पश्चात उस अर्थ के अनुकूल , अविरुद्ध अर्थ को न कहकर , मनमानी अर्थ लगाकर , यही शुद्ध संप्रदायार्थ है , ऐसे कहनेवाले मूर्ख है , ऐसे जीयर् के कथनानुसार , सही अर्थ का परित्याग करके , एक परम विपरीत सौ अर्थों का कल्पना करके , प्रतिकूल देहात्माभिमानादि का त्याग न करके , बद्ध संसारी बनकर , ” सदाचार्य कटाक्ष मुझपर है , मुझे किस चीज का भय है ” , ” मोहान्ध व्यक्ति एकान्त में , अंधकार के भय बिना , पाप कार्यों को करते हैं ” ( आर्तिप्रबंधम् ४४) प्रमाणानुसार , मोह से अंधा होकर (ज्ञान रहित होकर ), स्वयं पाप से भय रहित होकर , अपने शिष्य को भी पाप करने में , भय रहित करके , दोनों मिलकर चोर की तरह , आचार्य , भागवत , शिष्ट व्यक्ति , इन तीनों के लिये जो निंदनीय है , वह निषिद्ध अनुष्ठान से , अपने शिष्य का हत्या करके स्वयं नाश को प्राप्त करनेवाले , विपरीत अर्थों को उपदेश करनेवाले इस नीच आचार्य पर विश्वास न करके , आचार्य के लक्षणों से पूर्ण , एक सदाचार्य का आश्रय ग्रहण करके चिंता रहित होना चाहिए ।
” भक्तों में श्रेष्ठ और जाति से भी ब्राह्मण होते हुए ” ( तिरुमाला – ४३) प्रमाणानुसार , उत्कृष्ट वर्ण में जन्म लेकर , स्वयं को भागवतों में श्रेष्ठ मानकर , वैष्णव उचित तिलक, तुलसी माला आदि धारण करके, परन्तु मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण ऐसे महाभागवतों के लक्षण बिना , ( बिना स्नान काये ) पैर और हाथों को अच्छी तरह धोकर , शुभ्र वस्त्रों को पहनकर , द्वादश ऊर्ध्वपुण्ड्रों और उंगली में पवित्र ( दर्भ से अंगुठी ) धारण करके , वेदों का अध्ययन और अध्यापन आदि में प्रवीण बताकर , वेश्या के जैसे सर्वजन मनोहर वेषधारी बनकर , अहंकार और ममकार युक्त होकर , घर- क्षेत्र-पत्नी – पुत्र आदि में आसक्त होकर , रागद्वेश युक्त होकर , पैसे कमाने को ही अपना लक्ष्य बनाकर , दूसरों के संपत्ति को छीनकर , घमंड और धन में आसक्ति के कारण भागवत अपचारों को करनेवाले , बद्ध संसारी को देखकर , उनके पास जाने के लिये भयभीत होकर , परन्तु वैष्णव चिन्हों को देखने से , उनका अपमान न करके , इनसे मित्रता या शत्रुता न करके , अपने शक्ति के अनुसार कैंकर्य करके , विनम्रता से प्रणाम आदि से उन्हें प्रसन्न करके , अधिक नजदीक न जाकर , दूर रहकर ,
अर्थपंचक के तत्वज्ञ , आकार त्रय से ( अनन्यार्हशेषत्व , अनन्य उपायत्व, अनन्यभोग्यत्व ) संपन्न , महाभागवतों के साथ मिलकर , ” बोधयन्तः परस्परम् ” ( मेरे गुणों को एक दूसरे से कहकर संतुष्ट होते हैं – गीता १०-१) प्रमाणानुसार , स्वरूप के अनुरूप , एक दूसरे से भगवद् विषयों का आदान प्रदान करते हुए , जीवित काल में भगवद् गुणानुभव और कैंकर्यों में समय बिताते हुए , अहंकार रहित होकर , भागवत अपचार के प्रति भयभीत होकर , जो सावधानी से जीवन चलाते हैं , वे ही मोक्ष के अधिकारी है , ऐसे हमारे आचार्य (श्रीवरवरमुनि ) का कहना है ।
Discussion:-
जय श्रीसीताराम
स्वामी जी थोडा क्लिष्ट लग रहा है. पूर्णतः नही समझपारहाहूं🙏🙏🙇♂
क्लिष्ट ही है । यहाँ पर महाराज कह रहे हैं कि मोक्षाधिकारी को कपट आचार्यों को त्यागकर सदाचार्य का आश्रय ग्रहण करना चाहिए । वेशधारी कपट आचार्य स्वयं का और शिष्य का अहित करता है जिससे दोनों डूब मरते हैं ।परन्तु ऐसे वेशधारीयों के नजदीक न जाकर दूर रहकर ही उनका यथाशक्ति सेवा आदि करनी चाहिए ।
अंतिम में , मोक्षाधिकारी के का अनुष्ठान बताया गया ह
पोस्ट ९७_९८/97-98
परन्तु , दो तीन आल्वार्-आचार्यों को छोड़कर , अनेक आल्वार् और आचार्य ,संसार में , पुत्र , पत्नी आदि के साथ रहते थे ; परंतु वे तो मुक्ति के अधिकारी थे न ! इसका उत्तर : श्रीमन्नाथमुनी से लेकर अस्मदाचार्य ( श्रीवरवरमुनि ) पर्यन्त , सभी को सन्यासी ही मानना चाहिए क्योंकि ” निवृत्त रागस्य गृहं तपोवनं , प्रवसित इव गेह वर्तते यस्स मुक्ताः ” ( इतिहास संहिता अध्याय१३) ( अहंकार , ममकार का गर्व को छोड़कर , राग द्वेष से निवृत्त , जो रहते हैं , उनका घर ही तपोवन है ; उनको वन में निवास करने की आवश्यकता नही है ; ऐसे व्यक्ति को मुक्त ही जानना चाहिए ) प्रमाणानुसार , जो रागद्वेष से निवृत्त है , अहंकार और ममकार रहित है , शम दम गुणों से युक्त है , सर्वभूतों पर दया करनेवाले हैं , शत्रु और मित्र को समान रूप से देखनेवाले हैं , धन में आसक्ति रहित है , उंचवृत्ति आदि से साधुजीवन चलानेवाले हैं , आचार्य के आदेश के कारण अथवा दया के कारण , भोग्यता बुद्धि को त्यागकर , एक दो बच्चे के लिये पत्नी से कुछ दिन संबंध जोडकर , पश्चात विहित संभोग को भी त्यागकर अथवा संन्यास लेकर जो रहते हैं , परंतु यदि पत्नी ज्ञानी हो तो , परस्पर विषय से विरक्त होकर , कूरेषजी और उनके पत्नी आण्डाल् जैसे , भगवद् गुणानुभव कैंकर्यों को करते हुए जीते हैं , वे सन्यासी के तुल्य ही हैं ।
पोस्ट ९९ – १०१ / 99 – 100
” अहं ममेति चण्डालः ” ( अहंकार और ममकार नीच है ) प्रमाणानुसार , मनुष्य को कर्मचण्डाल बना देते हैं अहंकार और ममकार ।
” नाहं देवो न मर्त्यो वा न तिर्यक् स्थावरोपिवा , ज्ञानानन्दमयस्त्वात्मा शेषोहि परमात्मनः
न अहं विप्रो न च नरपति नापि वैश्ये न शूद्रोर्वा इन्दु
श्रीमद्भुवन भवनस्थित्यपायैक हेतोः , लक्ष्मी भर्त्तुः नरहरी तनोः दासदासस्य दासः “
( न मैं देव हूँ , न मनुष्य , न पशु , न पक्षी , न स्थावर , ज्ञानानंद स्वरूप , भगवान का शेषभूत , आत्मा हूँ ; न मैं ब्राह्मण हूँ , न राजा , न वैश्य , न शूद्र , न ब्रह्मचारी , न गृहस्थ , न वानप्रस्थ , न सन्यासी ; परन्तु जगत की सृष्टि , स्थिति , संहार का कारण , लक्ष्मी पति नरसिंह का दासानुदास का दास हूँ )
प्रमाणानुसार आत्मा के , भगवद् दासानुदास स्वरूप को भुलाकर ,
” विद्या मदो धनमदः तृतीयोभिजनोमदः ” ( भारतम् उद्योग पर्वा ३४-४६)
( विद्या , धन और कुल के कारण घमंड )
प्रमाणानुसार , अहंकार ममकार रूपी मदिरा का पान करके उन्माद होकर , द्वारिका के यादव लोग जिसप्रकार अपने नाश के कारण बने , उसीप्रकार एक दूसरे से बैर करके , दस बारह बच्चे पैदा करके , निन्दनीय देह के वर्धन में आसक्त , आत्मस्वरूप के विरोधी पत्नी और संसार वर्धक स्वरूप के अत्यन्त प्रतिकूल पुत्रों के वश होकर , उनके अत्यन्त परतंत्र बनकर , उनमें आसक्त होकर , देहांत तक उन्हें अपने आत्मस्वरूप के विरोधी न मानकर ,इसे देख शिष्य जन घृणा करेंगे इस लज्जा को भी छोड़कर , भगवान के अप्रिय , इन सांसारिक दुष्कर्म प्रवृत्ति के भय से रहित होकर , एक भगवद् प्रपन्न का भी पोषण न करके , पत्नी , पुत्र आदि भी भगवान के ही हैं ऐसा विपरीत ज्ञान युक्त होकर , ” स्वयं को शत्रु मानकर , अपने से संबंधित पत्नी , पुत्र आदि को सांप , आग आदि मानकर भयभीत होना चाहिए , एक प्रपन्न को ” ( श्रीवचनभूषण २४४) प्रमाणानुसार , ऐसा भयभीत न होकर , उन पत्नी , पुत्र के रक्षा के लिये , राजदरबार में अनेक बार जाकर , अवंदनीय व्यक्तियों की सेवा करके , दूसरों के धन को छीनकर , अयोग्य व्यक्तियों से याचना करके , अनधिकारियों को शिष्य बनाकर , अहंकार से दिया हुआ उनके धन को स्वीकार करके , जीवन नहीं चलाते थे हमारे गृहस्थ पूर्वाचार्य । अतः उनका उदाहरण देकर , हम भी क्यों न सांसारिक जीवन में रहें , ऐसा विचार करना अनुचित है ।