तिरुपावै 8

 

संस्कृत अनुवाद

Ts8

हिंदी छन्द अनुवाद 

Th8

इस आठवें पद में श्री गोदा महारानी और उनकी सखियां अब एक विशेष गोपी को जगा रहीं हैं । यह गोपी इतनी महिमावती है कि बाकी सब की सब गोपियों को आकर इन्हे जगाना पड़ रहा है


(मिक्कुळ्ळ पिळ्ळइग़ळुम) क्योंकि ये गोपी परम अलंकृत और श्री प्रभु की अत्यंत प्रिया है (कोथुकलम उडय पावाइ) । गोदा देवी इन श्री कण्णन एम्पेरुमान् के मन को भाने वाली परम उत्साहित और इसी उत्साहवश सोने में असमर्थ गोपी को जगा रहीं हैं ।
‌ बाहरी दृष्टि से गोदा महारानी सोती हुई गोपियों को जगाती हुई मालूम पड़ती हैं, लेकिन असल में यह कार्य कई गहरे अर्थों को समेटे हुए है । श्री प्रभु ने भी कुछ शिक्षाएं दी हैं, अर्जुन को, लेकिन वे सब नीरस हैं । वहीं श्री गोदा महारानी ने अपनी शिक्षाएं खूबसूरत कथा और बातचीत के लहज़े में दीं ।
‌ पक्षियों की चहचहाहट आचार्यों की शिक्षाओं का प्रतीक हैं । हम तक उनकी कृपा श्री भागवतों के माध्यम से पहुंचती है । गोदा महारानी और सभी गोपियां इन विशेष गोपी से पक्षियों की आवाज़ सुनकर जग जाने को कहती हैं । घंटाध्वनि कैंकर्य का प्रतीक है। जब हम जग जाते हैं व श्री आचार्य को सुनते हैं, तब वे हमें कैंकर्य में लगाते हैं, और हम धीरे धीरे योगी और मुनियों के स्तर पर चढ़ते हैं।

अगर हम साथी भक्तों को छोड़ दें और कण्णा तक अकेले पहुंचना चाहें, तब वे हमें स्वीकार नहीं करेंगे । हमारे साथ के भागवतों की कृपा से, उनके पुरष्कार से, वे हमें स्वीकार करते हैं । जिस तरह एक चूहा जो किसी ऐसे व्यक्ति के सूटकेस में पहुंच जाए जो हवाई जहाज से अमरीका जा रहा हो, किसी वीज़ा या आप्रवासन नियमों के बंधन की परवाह के बगैर स्वयं भी अमरीका पहुंच जाता है, उसी प्रकार हम भी उस परम चरम लक्ष्य तक पहुंच जाएंगे यदि हम ऐसे भक्तों के साथ हैं।

कोथुकलम उडय पावाइ – हे प्यारी खुशमिज़ाज़ लड़की (श्री प्रभु का विशेष प्यार और समान पाने वाली)


पावाइ का अर्थ होता है एक सुंदर लड़की । यह गोपी इतनी सुन्दर है की यह श्री प्रभु के हृदय में भी कौतूहल जगाती है । इतनी रूपवती कि अपनी एक चितवन से श्री प्रभु को मदमत्त कर सकती हैं । अतः इनको उडय पावाइ कहकर संबोधित किया गया है । श्री गोदा महारानी इनको किस तरह छोड़ सकती थीं ? यह गोपी श्री प्रभु को विशेष प्यारी है ।

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।।7.17।।

उनमें भी मुझ से नित्ययुक्त, अनन्य भक्ति वाला ज्ञानी श्रेष्ठ है, क्योंकि ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह मुझे अत्यन्त प्रिय है ।

कीळ्वानम् वेळ्ळेंड्र एरुमइ सीर्वीड : क्षितिज प्रकाशवान् होता जा रहा है, और भैंसें मुलायम घास चर रही हैं ।


कीळ्वानम् : पूर्व दिशा का आकाश
साफ व श्वेत दिख रहा है
सीर्वीड : (जल्दी भोर के समय) दुहने से पहले थोड़े समय के लिए चरने को छोड़ी गई
मेइवान : (ओस युक्त घास पर) चरने के लिए
परंदनकान् : (मैदानों में) फैली हुई

गाेदाम्बा सूर्योदय के लक्षणों को चिह्नित करती हैं । अंधेरा नष्ट व पूर्व में सूर्य उदय हो रहा है । गाय भैंसों को सवेरे के लिए चरने दिया जा रहा है । अंदर से उस गोपी का जवाब आता है, “आप सब सूर्योदय की प्रतीक्षा कर रहे थे (ताकि श्री कृष्ण विरह से मुक्त हों) लगातार पूर्व दिशा की ओर निहार रहे थे । आप सब तिंगल तिरुमुग़त्त सेयिळैयार (चन्द्र समान मुख वाली) हैं, और आप ही के मुख का प्रतिबिंब पूर्वाकाश में प्रकट हुआ है । और तो और आप सब दूध दही छाछ इत्यादि श्वेत पदार्थों को नित्य देख देख कर श्वेत रंग की ही आदत है इसीलिए आपको आकाश भी श्वेत प्रतीत हो रहा है । आपके पास इनके अलावा भोर का कोई और लक्षण है ?”
भैंसों को सवेरे घास दी जाती है । जब वे अपनी घास खा लेते हैं (सीर् वीड), तब उन्हें दुहा जाता है और कृष्ण उनको लेकर जंगल की ओर जाते हैं, व शाम से पहले नहीं लौटते । सूर्य उदित होने वाला है, और तुम अभी भी सो रही हो ? सुनो, अगर अभी नहीं उठी, तो कृष्ण जो कि ग्वाल हैं, गायों के पीछे पीछे चले जाएंगे और अपने नित्य कार्य में लग जाएंगे । “फिर हम किसका दर्शन कर पाएंगे ? कृपया उठ जाओ ।” श्री पेरियावाचान पिळ्ळइ (व्याख्यान चक्रवर्ती) अपना परम आश्चर्य प्रकट करते हैं कि अग्निहोत्र और यज्ञादिक के ज्ञाता, ब्राह्मण श्री विष्णुचित्त की पुत्री आंडाळ अब पूरी तरह से गोपी बन चुकी हैं क्योंकि वे उनके सब कार्यों और रीति रिवाजों से परिचित हैं ।

भैंसें सबसे मूर्ख जीवों में शामिल हैं, जैसा कीचड़ कहीं भी मिल जाए, वे उसी में लोट जाते हैं, व हमेशा चलती सड़कों के बीच खड़े हो जाते हैं व रास्ता छोड़ने को तैयार नहीं होते । ओ सखि ! भैंसों की तरह मूर्ख न बनो !

आंतरिक अर्थ
क्या हम तमोगुण से पूर्णतया अछूते रह सकते हैं ? नहीं । तो हमें उसे भी दुह लेना चाहिए अर्थात उससे काम निकाल लेना चाहिए । दुग्ध श्वेत का व भैंसें काले रंग के होते हैं । श्वेत सत्त्व गुण का प्रतीक है । हमें तमोगुण से भी सात्त्विक भाव खींचना है । जगत को श्री भगवान से जोड़कर उसने आनन्द लेना है ।
आचार्य वृंद ही हैं जो इन भैंसों को दुहते हैं ।

मेइवान परंदनकान् मिक्कुळ्ळ पिळ्ळइग़ळुम
पोवान् पोग़िन्रारैप्प पोक़ामल कात्त

वानम का अर्थ होता है आकाश । श्री कूरेश स्वामीजी सुंदराबाहू स्तवम में कहते कहते हैं, ” यं तं विदुर्दहरमष्टगुणोपजुष्टं, आकाशं औपनिषदीषु सरस्वतीषु ” जो कि ब्रह्मसूत्र “दहर उत्तरेभ्यः”(१.३.१४) पर आधारित है ।

मेइवान परंदनकान् मिक्कुळ्ळ पिळ्ळइग़ळुम
पोवान् पोग़िन्रारैप्प पोक़ामल कात्त
मिक्कुळ्ळ पिळ्ळइग़ळुम : और बाकी सभी लड़कियां
पोवान् पोग़िन्रारै : जो सिर्फ जाने के लिए ही जा रही हैं
पोक़ामल कात्त : जाने से रोकी गईं

वे जिनका जाने का मकसद ही अपने आप में जाना मात्र ही था व बाकी बची हुई लड़कियां रोक ली गईं । जब हम (मिक्कुळ्ळ पिळ्ळइग़ळुम) जाने वालीं थीं, तब हमने १० गोपीकाओं को अनुपस्थित पाया । अतः वे जाने से रोक दी गईं (पोक़ामल कात्त)
श्री कृष्ण तक पहुंचने का फल क्या है ? क्या कोई शिशुअपनी मां की ओर किसी दूसरी वस्तु को लक्ष्य करके जाता है ये केवल स्वयं अपनी मां को ही लक्ष्य करके जाता है ? अगर हमें कृष्ण मिल जाएं, तो और क्या मांगना बाकी रह जाएगा ? वहां जाना ही अपने आप में लक्ष्य है । लेकिन वहां हने सबके साथ जाना है, बिना किसी को छोड़े । जब विभीषण श्री राम के पास शरणागति के लिए गए थे, तो अकेले नहीं, वरन् दस लोगों के साथ गए थे ।

उन्नैक् कूवुवान वन्द निन्रोम्


उन्नैक् कूवुवान : आपको बुलाने के लिए
वन्द निन्रोम् : (आपकी दहलीज़ पर) यहां हम खड़े हैं

कोदुकलमुडय पावाइ एळुंदिराइ पाडिप् परइ कोंड


एळुंदिराइ : उठ जाओ
पाडि : गाओ (कृष्ण के दिव्य गुणों को)
परइ कोंड : (श्री कृष्ण से) परइ प्राप्त करो

हम इधर आए, और आपकी शैय्या के पास खड़े हुए, बिल्कुल विभीषण की तरह जोनाए और दृढ़ता से आकाश में खड़े रहे (श्री राम को देखने के लिए) । इससे साफ साफ यह दर्शाया गया है कि हमें श्री प्रभु के निकट श्री भागवतों की कृपा के बगैर अकेले नहीं जाना चाहिए । विभीषण श्री राम के पास चर राक्षसों के साथ गए, अकेले नहीं ।

ओ लड़की! उठो जागो, हमारे साथ गाओ और इच्छित वर मांगो ।
हम सब अब परम सौभाग्यशालिनी हुई हैं, क्योंकि हमने श्री कृष्ण को अनुभव किया है, अपने हृदय में ही भी बल्कि प्रत्यक्ष । उनके गुणों का गान करना ही गोपियों के लिए उज्जीवन है । उनके लिए यह सांस लीने की तरह है । और फलस्वरूप श्री कृष्ण हमें परइ प्रदान करेंगे । परइ दूसरों के लिए व्रत का फल है, किन्तु गोपियों के लिए वह केवल श्री कृष्ण की सेवा ही है । स्वयं कृष्ण ही फल हैं । कण्णा के बगैर हम और किसी भी फल का क्या करेंगें ? कोई भी लोक बगैर उनके किसी काम का नहीं है ।
क्या गाएं? गोदा महारानी हमें तीन नाम देती हैं :

मावाइ पिळंदानइ : अश्वासुर हंता
मल्लरइ माट्टिय : चाणूर मुष्टिक मर्दन देवाधिदेव

मावाइ पिळंदानइ मल्लरइ माट्टिय : उन प्रभु से जो राक्षसों और मल्लों को मार चुकें हैं
मा वाइ पिळंदानइ : वे प्रभु जिन्होंने जंगली घोड़े के रूप में आया हुआ असुर केशी का मुख फाड़ कर खोल दिया था
मल्लरइ माट्टिय : वो जिन्होंने दो मल्लों (चाणूर व मुष्टिक) को जीता व मारा

कृष्ण ने असुर घोड़े, व दो मल्ल जिनके नाम चाणूर व मुष्टिक हैं, उनको मारा । कृष्ण ने ऐसा केवल गोपों और गोपियों को बचाने के लिए किया । स्वयं को बचाकर वस्तुतः उन्होंने गोपी गोप वृंद की ही रक्षा की ।
ओ गोपी ! कृष्ण पर धेनुकासुर व मल्ल आक्रमण कर रहे हैं और तुम हो कि अबतक सो रही हो !

आंतरिक अर्थ :


हमारी इन्द्रियां ही घोड़े हैं, जैसा कि कृष्ण ने भगवद्गीता में कहा है । घोड़ों का उनपर कोई असर नहीं होता जो भागवतों की सन्निधि में रहते हैं । ये इन्द्रियां रूपी घोड़े इन्द्रियों के तत् तत् विषयों रूपी घास को चरते हैं । ये पुलिहोर प्रसाद से ज़्यादा पिज़्ज़ा की तरफ आकर्षित हैं ! जब हम कृष्ण को हमारे रक्षक के रूप में स्वीकार करते हैं, तब कृष्ण स्वयं उस इन्द्रिय सुख भोग को फाड़ देते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह उन्होंने केशी का मुख फाड़ दिया था । यानी, कृष्ण हमारी इन्द्रियों को सुधारते हैं, उन्हें नष्ट नहीं करते ।

इसका एक गुप्त अर्थ ये भी है कि यह घोड़ा हमारे अहंकार व ये दोनों मल्ल काम व क्रोध का प्रतीक हैं । ये तीनों भगवद् साक्षात्कार के मार्ग में हमारे सबसे बड़े बाधक हैं ।
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
(गीता ३.३७)

कामनाएं कभी पूरी व तृप्त नहीं होती । जीव को वह कभी सुखी नहीं रहने देती । ये काम रूपी मल्ल हमें कुचल रहा है । दूसरा मल्ल क्रोध का प्रतीक है । यह हमारी विवेक शक्ति को नष्ट कर देती है । यह दोनों रजस् के प्रतीक कंस से आ रहे हैं ।
श्री प्रभु के महान भक्तों के संग से को स्थितप्रज्ञ हैं, इं दोनों को काबू किया जा सकता है । उनकी मौजूदगी में हम काफी विकसित महसूस करते हैं । गोदा देवी ऐसी महान गोपिका को जगा रही हैं । कृपया हमारे पास रहें । प्रकाश अंधकार को नष्ट करता है । लेकिन जैसे ही प्रकाश चला जाता है, अंधकार स्वतः वापिस आ जाता है । अतः प्रकाश अंधकार को पूरा नष्ट नहीं कर सकता, व केवल उसके ऊपर कुछ समय तक अपना वर्चस्व स्थापित कर सकता है । इसीलिए हमें सदा सर्वदा भागवतों की सन्निधि में रहना चाहिए ।
ये दो मल्ल अहंकार और ममकार के भी प्रतीक हैं ।

देवाधिदेवनइ सेन्नृ नाम सेवित्ताल


देवाधिदेवनइ : नित्यासूरी वृंद के प्रभु (वो नित्यसूरी जिनके नित्य कैंकर्य में सदा रत उनके दिव्य लोक में सदा निवास करते हैं)
सेन्नृ नाम सेवित्ताल : अगर हम जाकर उन्हें प्रणाम निवेदित करेंगे
आराइंद : वे हमसे (हमारे कष्ट के बारे में) पूछेंगे
आवावेन्नृ अरुळेलोर : दयाप्लावित हो (वे हम पर) कृपा करेंगे


वैसे तो कृष्ण “देवाधिदेव” हैं, किन्तु अपने सौलभ्य से वे हमें सुलभ हो जाते हैं । वे हमारे साथ नाच व गा रहे हैं । इस सब के बावजूद भी आप सो क्यों रही हैं? जिस तरह मिठाई के लालच में बच्चे भजन गा लेते हैं, उसी तरह गोपियों के दिखाए हुए एक मुट्ठी माखन के लालच में कृष्ण अपनी कमर पर ढोल बांधे हुए नृत्य करते हैं (घट नृत्यं) । सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापी ईश्वर भी गोपियों को परम सुलभ है । अतः उनका नाम “वडुक्क आडुम पिळ्ळइ” है ।
ईश्वर करुणा सागर हैं व सदैव सूर्य कि भांति हैं पर कृपा वृष्टि करते हैं । हम स्वयं ही खोए हुए हैं क्योंकि हम सदैव उनके करुणामय अनुग्रह को ठुकराते रहे हैं ।

हमें उनके पास जाना चाहिए । उनकी कृपा पाने के लिए काषाय वस्त्र, तप, व बड़ी बड़ी पूजाएं नहीं चाहिए । द्रौपदी ने कौन सी तपस्या करी थी ? वह तो शरीर से उस समय पवित्र भी नहीं थीं । वह उस वक्त रजस्वला थीं, व स्नान आदि भी नहीं किया था । श्री पेरियवाचान पिळ्ळई स्वामीजी महाराज इसका इस प्रकार अर्थ करते हैं : “हम सब उनके घर उनको अपने विरह ग्रस्त तन की दशा दिखाने का रहे हैं ।”

आवावेन्नृ आराइंद अरुळेलोर एंपावाइ

वे ज़रूर हम पर कृपा बरसाएंगे । जब विभीषण ने श्री राम की शरणागति ग्रहण की थी, तब विभीषण को शरण देने चाहिए या नहीं, यह फैसला करने के लिए श्री राम ने एक सभा बुलाई । जहां सुग्रीव और बाकियों ने इसके खिलाफ अपनी राय दी, वहीं श्री प्रभु ने साफ कह दिया, “सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते| अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम||” (वा रा ६/१८/३३)

जब श्री प्रभु जाकर विभीषण से मिले, तब उनसे इतनी देर इंतज़ार करवाने के लिए क्षमा मांगी । यह कहते हुए की उन्हें विभीषण को जल्दी अपना लेना चाहिए था, वे प्रायश्चित्त करने लगे । ऐसी महानतम दया है श्री प्रभु की । जैसे ही कोई उनके सम्मुख होता है, तुरंत ही वे उसे अपना लेते हैं ।

भक्तों के लिए कृष्ण को सुख देना ही पुण्य व कृष्ण को सुख न देना ही पाप है ।

स्वापदेश

आंडाल अपनी सखियों में से एक को बुलाती हुई कहती हैं, ” हे कोथुकलम उडय पावाइ (परम उत्साहित लड़की) ! मैं दूसरों को जो व्रत के स्थान पावाइकालम् की ओर जा रहे थे, रोककर तुम्हें जगाने आई हूं ताकि तुम भी भगवदानुभव कर सको ।”

मुमुक्षु के लिए बढ़ती श्वेतिमा (वेळ्ळेनृ) एक महत्त्वपूर्ण बदलाव का प्रतीक है । आचार्य संबंध से पहले मुमुक्षु के लिए अंधकारमय निशा थी । किन्तु आचार्य अनुग्रह प्राप्त होने से भोर में ब्रह्म मुहूर्त आ गया है । हम तुम्हें आचार्य तक के हमारे सफर में शामिल करने व लेने आए हैं, वे आचार्य जो हमारी इन्द्रियों को विनाशकारी प्रवृत्तियों में जाने से बचाते हैं, वे आचार्य जो ज्ञान और अनुष्ठान सकती द्वारा हमारी नास्तिकता व कुदृष्टि ( विपरीत ज्ञान व वेद मंत्रों के गलत अर्थ समझना) नष्ट कर देते हैं । अतः सर्वेश्वर से भी श्रेष्ठ श्री आचार्य देव हैं । उनके तनियन श्लोक द्वारा हमें उनके गुणों का गान करना चाहिए । “सेन्नृ नाम सेवित्ताल” का आंतरिक अर्थ “आचार्य के प्रति प्रणाम” है, जो मूर्खों से भी बहुत (ज्ञान विषय) बुलवा सकते हैं । हम मृग समान ज्ञानहीन मूर्ख पशु हैं । श्री प्रभु आचार्य के रूप में अंतःक्षेप करते हैं, व जिस तरह केशी का मुख फाड़कर खोल दिया था, उसी प्रकार हमारा मुख खुलवाकर श्री प्रभु के ही नाम रूप का गान करवाते हैं । अतः आचार्य के पादपद्मों में गिरकर अत्यंत दीनता युक्त होकर अपने संदेहों को हल करवाना चाहिए ।

Author: ramanujramprapnna

studying Ramanuj school of Vishishtadvait vedant

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