इस पासुर में एक ऐसी गोपी को जगाया जा रहा है जो अपने नैनों की सुंदरता के कारण विख्यात है। उपनिषद भाष्यकार उसे ‘पुष्प-सौकुमार्य-हरिनयन” गोपिका कहते हैं, जिन्हें अपने अतिसुन्दर आँखों पर सात्विक अभिमान है। ये सुन्दर आंखें भगवान को भी घायल कर देती हैं। भगवान से मिलन की यादों में ऐसी खोयी हैं कि सुबह उठ ही नहीं पायीं| सर्वगंध भगवान की खुशबु उनके महल में सर्वत्र थी। गोपी अपने मन में विचार करती है कि उसके नैनो से घायल भगवान स्वयं उसे खोजते उसके घर आएंगे।
वहीँ दूसरी ओर राम-पक्षपाती एवं कृष्ण-पक्षपाती गोष्ठियों में द्वंद्व हो जाता है| इसे नहीं-निंदा-न्याय ही समझना चाहिए। भगवान राम सौलभ्य-सौकुमार्य-माधुर्य-कारुण्य आदि गुणों की सीमा हैं। वह गुह को अपना ‘आत्मसखा’ कहकर गले लगाते हैं, सबरी के जूठे बैर खाते हैं और राक्षस विभीषण की शरणागति को स्वीकार करते हैं| वाल्मीकि उन्हें ‘अतीव-प्रियदर्शन’ ‘दृष्टिचित्तापहारिनम’ आदि विशेषणों से निवेदित करते हैं| दूसरी गोष्टी कहती है कि भगवान कृष्ण पूतना को भी माँ का दर्जा देते हैं, स्वयं अपने शरणागत के सारथी बनते हैं, उनके दूत बनकर जाते हैं, विदुर के घर साग खाते हैं|
समझदार और वृद्धा गोपियाँ बिच-बचाव करती हैं, “दोनों ही नारायण हैं”। राम को वाल्मीकि “भवान नारायणो देवः” कहते हैं तो कृष्ण को व्यास “नारायण: न हि त्वं!” ऐसा कहते हैं। सभी गोपियाँ मिलकर भगवान के दोनों ही स्वरूपों के लीलाओं का गान कर गोपिका को जगाती हैं। “जिन्होंने वकासुर का वध किया, दश सिरों वाले रावण का उद्धार किया।”
पुळ्ळिन् वाय् कीण्डानैप् पोल्ला अरक्कनै
किळ्ळिक् कळैन्दानैक् कीर्त्तिमै पाडिप्पोय्
पिळ्ळैगळ् एल्लारुम् पावैक्कळम् पुक्कार्
वेळ्ळि एळुन्दु वियाळम् उऱन्गिऱ्ऱु
पुळ्ळुम् सिलम्बिन काण् पोदरिक्कण्णिनाय्
कुळ्ळक् कुळिरक् कुडैन्दु नीरडादे
पळ्ळिक् किडत्तियो? पावाय् नी नन्नाळाल्
कळ्ळम् तविर्न्दु कलन्दु एलोर् एम्बावाय्
व्रत धारिणी सभी सखियाँ, व्रत के लिये निश्चित स्थान पर पहुँच गयी है।
सभी सखियाँ सारस के स्वरुप में आये बकासुर का वध करने वाले भगवान कृष्ण और सभी को कष्ट देने वाले रावण का नाश करने वाले भगवान् श्रीरामजी का गुणानुवाद कर रही है।
आकाश मंडल में शुक्र ग्रह उदित हुये है, और बृहस्पति अस्त हो गये है। पंछी सब विभिन्न दिशाओं में दाना चुगने निकल गये।
हे! बिल्ली और हरिणी जैसे आँखों वाली, प्राकृतिक स्त्रीत्व की धनी! क्या आज के इस शुभ दिवस पर भी, हमारे साथ शीतल जल में स्नान न कर, हमारे साथ भगवद गुणानुवाद न कर, अकेली अपनी शैया पर भ्रम में भगवान् सुख भोगती रहोगी ?
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पुळ्ळिन् वाय् कीण्डानैप् : भगवान, जिन्होंने बकासुर का वध किया
यादवाभ्युदयम में श्री वेदान्ताचार्य स्वामी कहते हैं कि कन्हैया ने बकासुर के चोंच फाड़कर कर दो तरफ फेंक दिया और युवा गोपों ने उसके पंखों को नोंचकर तोरण बनाया ताकि फिर कभी यदि कोई भगवद अपचार को उद्यत हो तो उसे उसका परिणाम भी ज्ञात हो।

आतंरिक अर्थ
हम सब बगुले के समान कपटी हैं (बक-वृत्ति) । बगुला को बाहर से देखो तो साधू की तरह शान्त और ध्यानचित्त दिखता है लेकिन उसकी नजर अपने शिकार पर होती है। आचार्य इस बक-वृत्ति को श्री-सूक्ति का उपदेश कर नष्ट करते हैं, हमारे अन्दर सूक्ष्म नास्तिकता को दूर कर भगवद भक्त बनाते हैं।
बकासुर वो सभी लोग हैं जो बाह्य-रूप से वैष्णव दिखते हैं लेकिन उनसे मित्रता हमें आहिस्ता-अहिस्ता सद्मार्ग से दूर ले जाकर नास्तिक बना देती है ।
पोल्ला अरक्कनै : भगवान, जिन्होंने दुष्ट राक्षस (रावण) का वध किया
गोदा उस दुष्ट का नाम भी नहीं लेना चाहती जिन्होंने किशोरी जी को लाल जी से दूर किया । उसे दुष्ट राक्षस कहती हैं । विभीषण ‘साधू-राक्षस’ (नल्ला अरक्कन) है और रावण ‘दुष्ट-राक्षस’ ।
विभीषणः तु धर्मात्मा न तु राक्षस चेष्टितः | (रामायण)
आतंरिक अर्थ
रावण वो सभी लोग हैं जो दूसरों की सम्पत्ति चुराकर उसका भोग करना चाहते हैं, क्रोध, हवस और धन के मद में लोगों को त्रास देते हैं ।
हम भी भगवान की संपत्ति को भगवान से चुराकर उसे संसार में लगा रहे हैं । आत्मा भगवान की संपत्ति है और उसकी चोरी करने वाले हम सभी रावण ।
आचार्य हमारी इस रावण-वृत्ति को नष्ट कर भगवद-भागवत-कैंकर्य में लगाते हैं । रावण के दस मुख हमारी दस इन्द्रियाँ हैं ।
विभीषण सात्विक अभिमान हैं । आचार्य सात्विक अभिमान की रक्षा करते हैं और दुराभिमान को नष्ट करते हैं ।
अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥

किळ्ळिक् कळैन्दानैक् : खेल-खेल में रावण का वध किया और विभीषण की रक्षा किया
प्रेमी जन अपने प्रेमास्पद की वीरता का गान कर गर्व अनुभव करते हैं
रावण प्रभु की वीरता का शिकार हुआ, सूर्पनखा प्रभु की सुन्दरता का और विभीषण प्रभु के दिव्य कल्याण गुणों का ।
कीर्त्तिमै पाडिप्पोय् : उनकी कीर्ति का गान करेंगे
श्रीपरकाल आलवार के तिरुक्कोवलूर नामक दिव्य देश में जाते समय ‘समस्त प्रिय दिव्य देशों में (जाते समय) आपके दोनों चरणों का कीर्तन करके‘ इस उक्ति (स्वाभिमत दिव्यदेशे सर्वेष्वपि स्वचरणौ गीत्वा) के अनुसार और “पाथेयं पुण्डरीकाक्षनामसंकीर्तनामृतम्” के अनुसार भक्तों की शक्ति भगवान का नाम-संकीर्तन या द्वय-मन्त्रानुसन्धान ही होता है।
ब्राह्मो मुहूर्ते सम्प्राप्ते व्यक्तनीद्र: प्रसन्नधी: ।
प्रक्षाल्य पादावाचम्य हरिसंकीर्तनं चरेत् ।।
पिळ्ळैगळ् एल्लारुम् : छोटे उम्र की सभी लडकियाँ
पावैक्कळम् : व्रत के लिए पूर्व-निश्चित स्थान
पुक्कार् : पधार चुकी हैं
आतंरिक अर्थ
व्रत के लिए पूर्व-निश्चित स्थान का अर्थ है ‘कालक्षेप मण्डप’ जहां आचार्य श्री-सूक्तियों का उपदेश करते हैं और शिष्यगण अपने आचार्य का गुणानुवाद करते हैं ।
आगे गोदा प्रभात होने के लक्षण बताती हैं :
वेळ्ळि : शुक्र ग्रह
एळुन्दु : उदय हो चूका है
वियाळम् : वृहस्पति
उऱन्गिऱ्ऱु : अस्त हो चूका है
अन्दर सो रही गोपी प्रत्युत्तर देती हैं कि तुमलोग कन्हैया से मिलने को इतनी आतुर हो कि सभी तारें शुक्र और बृहस्पति प्रतीत हो रहे हैं । कोई और लक्षण हो तो बताओ ।
आतंरिक अर्थ
आचार्य के कालक्षेप से अज्ञान रूपी अन्धकार चला गया और ज्ञान रूपी प्रकाश का उदय हुआ ।
पुळ्ळुम् सिलम्बिन काण् : पक्षियाँ चहक रही हैं
पोदरिक्कण्णिनाय् : लाल कमल या हरिन के सामान आँखों वाली सखी
गोपी की आंखों की सुंदरता सम्मोहित करने वाली है। कन्हैया प्रथम प्रथम उसकी आंखों से ही सम्मोहित हुए थे। पुष्प सुकुमार हरि नयन गोपी बिस्तर पर पड़े पड़े भगवान के दिव्य लीलाओं का गुना अनुवाद कर रही है वह पिछले रात सर्वगन्ध भगवान के साथ हुए मिलन के दिव्य गन्ध को अब तक अनुभव कर रही है

कुळ्ळक् कुळिरक् कुडैन्दु नीरडादे : तुम शीत जल में स्नान किये बिना (कन्हैया के सानिध्य का आनंद ले रही हो)
कृष्ण के विरह में हम सभी तप्त हैं, आओ इससे पहले कि सूर्योदय हो और जल भी तप्त हो जाए, हम ठण्ढे जल में स्नान करें।
आतंरिक अर्थ
काम और वासनाओं से तप्त जीवात्मा के लिए भागवतों का सहवास और आचार्य उपदेश ही शीतल जल में स्नान है । आचार्य और भागवतों का मंगलाशासन ही व्रत है।
पळ्ळिक् किडत्तियो? पावाय् नी नन्नाळाल्: तुम अब तक बिस्तर पर सो रही हो, यह कैसा आश्चर्य है
कळ्ळम् तविर्न्दु कलन्दु : एकान्त में भगवद अनुभव का आनंद लेना छोड़ो
एलोर् एम्बावाय् : आओ हम अपना व्रत पूरा करें