आज की 15वी गाथा तिरुपावै ग्रन्थ के मध्य में है एवं तिरुपावै का सार है। इसे ‘तिरुपावै में तिरुपावै’ कहते हैं। जिस प्रकार सहस्रगीति (तिरुवाईमोलि) में “एम्माविडु” दशक पारतंत्र्य की शिक्षा देते हुए सम्पूर्ण ग्रन्थ का सार है, उसमें भी ‘तनक्के आघ’ पासूर। तिरुपावै की 15वीं गाथा भी, पारतंत्र्य की पराकाष्ठा भागवत-शेषत्व की शिक्षा देता है।
गोदाम्बा अन्दर सो रही सखी को “बालशुक” कहकर सम्बोधित करती है। ये गोपी अत्यन्त मधुर स्वर के कारण प्रसिद्ध है। अन्दर सोते हुए कुछ कृष्ण-संबंधित राग गुनगुना रही है एवं उसी में भाव-विभोर है।
वेद कहते हैं, “आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यः मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः।” प्रथम दो गोपियाँ ‘श्रोतव्यः’ की शिक्षा देती हैं। मध्य की गोपियाँ ‘मन्तव्य:’ की शिक्षा देती हैं। 15वें पासूर की गोपी ‘निदिध्यासितव्यः’ की शिक्षा देती हैं।
एल्ले इळम् किळिये इन्नम् उऱन्गुदियो
चिल्लेन्ऱु अळियेन्मिन् नन्गैमीर् पोदर्गिन्ऱेन्
वल्लै उन् कट्टुरैगळ् पण्डे उन् वाय् अऱिदुम्
वल्लीर्गळ् नीन्गळे नानेदान् आयिडुग
ओल्लै नी पोदाय् उनक्कु एन्न वेऱु उडैयै
एल्लारुम् पोन्दारो पोन्दार् पोन्दु एण्णिक्कोळ्
वल् आनै कोन्ऱानै माऱ्ऱारै माऱ्ऱु अळिक्क
वल्लानै मायनैप् पाडु एलोर् एम्बावाय्
श्री उ वे भरतन् स्वामीजी द्वारा संस्कृत अनुवाद
१५.शुकशाबोपमेये! भोः किन्निद्रास्यधुनाऽप्यहो ।
मा स्माह्वयत दुःश्राव्यम् आयाम्याभीरबालिकाः !।।
चिरादेवोक्तिकाठिन्यं समर्थे! विद्म भोस्तव ।
समर्थास्तत्र यूयं हि भवान्येषैव वा तथा ।।
सत्वरं त्वं समायाहि पृथक्कृत्येन किं तव ।
किमु सर्वाः समायाता ? आमेत्य गणय स्वयम् ।।
मत्तं कुवलयापीडं हन्तारमतिदक्षिणम्।
शत्रूणां बलविध्वंसे मायिनं कीर्तयेमहि ।।
हिन्दी छन्द अनुवाद



(इस पाशुर का अर्थ, देवी अपनी सखियों के संग जगाने आयी एक सखी के द्वार पर खड़ी, बाहर खड़ी सखियों और भीतर की सखी के मध्य वार्तालाप के अनुरूप दिया है।)
एल्ले इळम् किळिये इन्नम् उऱन्गुदियो
गोदाम्बा : हे ! युवा तोते जैसी नवयौवना, मधुर वार्तालाप वाली, हम सब तेरे द्वार पर खड़ी हैं, और तुम निद्रा ले रही हो ?
गोदाम्बा पुकारती हैं, “तुम बालशुक के समान मधुर वार्तालाप करती हो। तुम्हें लिए बिना हम कैसे जा सकती हैं। कृष्ण को रिझाने हेतु तुम हमारे साथ अवश्य आओ।”
(सामान्यतः हम समझते हैं कि भगवान का कैंकर्य ही प्राप्य है किन्तु सम्प्रदाय में भागवतों से चर्चा करना, उनके सुख-दुःख बाँटना भी परम प्राप्य है। यदि हम भोजन कर रहे हों या भगवद-अर्चन कर रहे हों और कोई भक्त गृह पधारें; तब हम उसे बीच में रोककर, उठकर उनका सत्कार करते हैं। यही विशेष धर्म है।)
चिल्लेन्ऱु अळियेन्मिन् नन्गैमीर् पोदर्गिन्ऱेन्
अन्दर की सखी : हे! भगवद प्रेम में परिपूर्ण सखियों, इतने क्रोध में न बोलो, मैं अभी आ रही हूँ ।
वल्लै उन् कट्टुरैगळ् पण्डे उन् वाय् अऱिदुम्
गोदाम्बा : तुम वार्ता में बहुत चतुर हो, हम सब हम आपके अशिष्ट शब्दों के साथ-साथ आपके मुंह को भी बहुत पहले से जानते हैं।
वल्लीर्गळ् नीन्गळे
अन्दर की सखी : तुमलोग ही कठोर वचन बोल रही थी।
नानेदान् आयिडुग
“अच्छा, मैं ही गलत हूँ। अब बोलो मुझे क्या करना है?”
(यहाँ बालशुक गोपी एक उत्तम शिक्षा देती है। यदि भागवत हमारे कुछ दोष गिनायें, हमारी निन्दा करें तो उसे मान लेना चाहिए। जैसे राम के वनवास में भरत जी अपना ही दोष मानते हैं; मंथरा, कैकेयी, दशरथ या राम का दोष नहीं।
यदि वो क्रोध में कुछ वचन बोलें तो हमें प्रत्युत्तर नहीं देना चाहिए। यदि दोनों तरफ से लोग क्रोध में निन्दा वचन बोलें तो विषय गम्भीर हो जाएगा।
पराशर भट्ट की एक वैष्णव निन्दा कर रहा था। तब पराशर भट्ट ने उन्हें पारितोषिक हार प्रदान किया।
ओल्लै नी पोदाय् उनक्कु एन्न वेऱु उडैयै
गोदाम्बा : जल्दी से उठो। क्या तुम्हारे जागने में कोई बाधा है?
एल्लारुम् पोन्दारो
अन्दर की सखी : क्या सब लोग जाने के लिए आ गए?
पोन्दार् पोन्दु एण्णिक्कोळ्
गोदाम्बा : आ गए हैं। (एक तुम ही आखिरी बची हो)। आकर गिनती कर लो
वल् आनै कोन्ऱानै माऱ्ऱारै माऱ्ऱु अळिक्क
वल्लानै मायनैप् पाडु एलोर् एम्बावाय्
कुवलयापीड़ हाथी को मारनेवाले, अपने शत्रुओं का बल हरने वाले, अद्भुत गतिविधियां करने वाले भगवान् कृष्ण के गुणानुवाद करेंगे।
भगवान को क्षति पहुँचाने की चेष्टा करने वाले कुवलयापीड हैं। यहाँ भगवान के जीवन-रक्षण के प्रयत्न में हानि पहुँचाने वाले अहँकार एवं ममकार को समझना चाहिए।
गोपियाँ अपना स्त्री-अभिमान छोड़कर भगवान के पास स्वयं जा रही हैं। स्त्री-अभिमान यह है कि प्रेमी ही प्रेमिका के पास आकर प्रेम-निवेदन करेगा।
