किन्तु भगवान इन असंख्य अण्डों का निर्माण क्यों करते हैं? मोर अपने पंख फैलाकर नृत्य क्यों करता है? मोरनी को मोहने हेतु|
उसी प्रकार भगवान भी किसी अन्य प्रकार से जीवों की रक्षा कर सकते थे| किन्तु सृष्टि और प्रलय के चक्र के द्वारा ही जीवों की रक्षा क्यों करते हैं? महालक्ष्मी अम्माजी को प्रसन्न करते हेतु|सृष्टि का प्रधान हेतु है लीला या क्रीडा| इसका प्रधान उद्देश्य है लक्ष्मी देवी (श्री देवी) की प्रसन्नता|
(मोर का उदहारण सर्वाधिक उचित है| जिस प्रकार मोरनी को प्रसन्न करने हेतु मोर अपने पंख फैलाकर नृत्य करता है, वैसे ही भगवान इस सूक्ष्म प्रकृति को नाम-रूप प्रदान करते हुए फैलाते हैं (स्थूल प्रकृति)| मोर के पास ही पंख होता है, मोरनी के पास नहीं| उसी प्रकार जगत के कारण एकमात्र भगवान ही हैं| श्री देवी जगत की सृष्टि में पुरुषकार हैं|)
महालक्ष्मी भगवान के लिए इतने महत्वपूर्ण हैं कि उनकी प्रसन्नता हेतु भगवान सृष्टि प्रलय आदि व्यापार करते हैं? प्रहलाद आदि भक्तों के लिए तो इतना बड़ा कार्य नहीं करते?
क्योंकि श्री देवी भगवान की स्वरुप-निरूपक धर्म हैं| भगवान की पहचान है – श्रियः पतित्वम्|
भक्तिसार आलवार कहते हैं: तिरुविला देवै तेरेमिल देवै| अर्थात जिनके वक्षस्थल में श्री देवी का निवास नहीं है, मैं उसे नहीं मानूंगा|
अर्थात् आपसे अनपायनी रहने वालीं सुकोमल पद्मजा, जो नित्य आपके वक्षस्थल में रहती हैं|
भगवान के वक्षस्थल में एक त्रिभुजाकार चिन्ह है, जिसे श्रीवत्स चिन्ह कहते हैं| यह भगवान के दिव्य मंगल विग्रह में लक्ष्मी देवी का निवास स्थान है|अतः श्री देवी के बिना भगवान तो भगवान ही नहीं हैं|
श्री देवी का हमारे गुरु परम्परा में क्या स्थान है?
श्री वैष्णव सम्प्रदाय में तीन मन्त्र हैं| मूल मन्त्र (नारायण अष्टाक्षरी महामन्त्र) बद्रिकाश्रम में नारायण ऋषि ने नर ऋषि को प्रदान किया| द्वय मन्त्र क्षीराब्धि में भगवान विष्णु ने लक्ष्मी देवी को दिया| चरम श्लोक भगवान कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में अर्जुन को दिया| किन्तु किसी भी मन्त्र की गुरु-शिष्य परम्परा नहीं चली|
श्रीरंगम में रंगनाथ भगवान ने ये तीनों मन्त्र रंगनायकी अम्माजी को दिए| रंगनायकी अम्माजी ने मन्त्र प्राप्त कर इसे आगे बढ़ाया और इस प्रकार श्री वैष्णव सम्प्रदाय बना|
श्रुतियों ने भगवान को निर्गुण भी कहा है एवं सगुण भी| भगवान निर्गुण हैं या सगुण, इस संशय का समाधान भगवद रामानुज स्वामी करते हैं:
निर्गुण का अर्थ प्राकृत हेय गुणों का अभाव होना| प्राकृत अर्थात् प्रकृति-जन्य गुण : – सत्त्व, रजस और तमस| हेय अर्थात् दोष| जिस प्रकार गरुड़ के पास सर्प नहीं आ सकते, उसी प्रकार भगवान में लेश मात्र भी हेय गुण नहीं होते जैसे असूया, बुढ़ापा, मतिभ्रम, भय, शोक आदि|
सगुण का अर्थ है समस्त कल्याण गुणों के सहित होना जैसे ज्ञान, शक्ति, तेज आदि; वात्सल्य, सौशील्य, सौलभ्य आदि|
अनेक श्रुति वाक्यों में भगवान को एकसाथ हेय गुणों से रहित एवं कल्याण गुणों से युक्त बताया गया है:
यहाँ पराशर महर्षि प्रथम भगवान में सत्त्व, रजस एवं तमस से युक्त प्राकृत गुणों का भगवान में निषेध बताते हैं एवं पुनः भगवान को अनगिनत कल्याण गुणों से युक्त बताते हैं|
संख्यातुं नैव शक्यन्ते गुणा: दोषाश्च शार्न्गिणः।
अनन्तश्च प्रथमः राशि अभाव: इति पश्चिम:।।
भगवान के गुणों एवं दोषों को गिनना सम्भव नहीं है| गुण अनन्त हैं एवं दोषों का अत्यन्त अभाव है|
सकल जगत का शरीरक होने पर भी दोषरहित होना
शरीर के विकारों से आत्म-स्वरुप में विकार नहीं आता| आत्मा अविकार ही रहता है| बाल, युवा, वृद्धावस्था आदि विकार शरीर के होते हैं, आत्मा बाल, युवा आदि अवस्थाओं को प्राप्त नहीं होता|
शरीर के विकार बद्ध जीवों को कर्मवशत: प्रभावित करते हैं| जीवों को शरीर से सुख-दुःख कर्म के कारण प्राप्त होते हैं|
देहधारी के लिए सुख और दुःख से कभी मुक्ति नहीं है| जब तक कोई व्यक्ति शरीर में रहता है, उसे अच्छे और बुरे का अनुभव होता रहेगा, लेकिन जब आत्मा शरीर से मुक्त हो जाती है (अशरीर हो जाती है), तो उसे ये सुख-दुःख छू नहीं पाते हैं|
किन्तु वेद प्रमाण से हीं भगवान शरीर में विद्यमान रहते हुए भी
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्ष परिषस्वजाते ।
दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, घनिष्ठ सखा, समान वृक्ष पर ही रहते हैं; उनमें से एक वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है, अन्य खाता नहीं अपितु अपने सखा को देखता है।
यहाँ एक पक्षी जीव है और दूसरा परमात्मा| एक ही शरीर में दोनों अवस्थित हैं| फल यहाँ कर्म के सूचक हैं| जीव अपने कर्मों का भोग करता है किन्तु परमात्मा कर्म फलों का अनुभव नहीं करता, वो सिर्फ साक्षी है|
कर्तृत्व जीवात्मा का ही होता है इसलिए कर्मों का फल भी जीवों को ही भोगना है| भगवान को कर्ता इस कारण कहा जाता है क्योंकि भगवान के अनुमति दान के बिना जीव कोई प्रयत्न नहीं कर सकता|
अब ग्रन्थ में आगे का विषय है: रुद्र आदि देवताओं का जगद कारणत्व असम्भव होना एवं विष्णु का जगद कारणत्व।
यद्यपि श्रुतियों में ब्रह्मा-विष्णु-रुद्र-इन्द्र आदियों का भी कारणत्व और कार्यत्व प्राप्त होता है, किन्तु जगत का कारण कोई एक ही हो सकता है। जगत का निमित्त और उपादान कारण एक से अधिक नहीं हो सकता।
यदि ऐसा कहे कि एक ही ईश्वर के ये विभिन्न रूप हैं तो इन सभी देवताओं का ऐक्य स्वीकार करना होगा। शास्त्रों में कई ऐसे प्रमाण प्राप्त होते हैं कि एक ब्रह्म ही ब्रह्मा-विष्णु-रुद्र के रूप में आकर सृष्टि, स्थिति और संहार करता है।
विष्णु ही परम ब्रह्म हैं जो ब्रह्मा, विष्णु एवं तीन भेद में सृष्टि, स्थिति एवं संहार करते हैं|
विष्णु पुराण 1.2.66 में भी
सृष्टिस्थित्यन्तकरणीं ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाम् । स संज्ञां याति भगवानेक एव जनार्दनः ॥६६॥
स्त्रष्टा सृजाति चात्मानं विष्णुः पाल्यपाति च । उपसंह्रियते चान्ते संहर्ता च स्वयं प्रभुः ॥६७॥
ऐसे भी प्रमाण प्राप्त होते हैं कि स्व-स्वरूप से ब्रह्म स्वयं विष्णु अवतार में आते हैं। (स्व स्वरूपात् स्वयं विष्णुस्सत्वेन पुरुषोत्तम:)। ब्रह्मा और रुद्र भगवान के नियमन में कार्य करते हैं। भागवत पुराण में ब्रह्मा स्वयं कहते हैं कि भगवान के द्वारा नियुक्त होकर उनकी आज्ञा से वो सृष्टि करते हैं। उन्हीं की आज्ञा से रुद्र प्रलय करते हैं।
इन दोनों ही प्रमाणों का सामनाधिकरण्य से यह प्राप्त होता है भगवान का विष्णु अवतार स्व-स्वरूप से होता है। ब्रह्मा और रुद्र भगवान के शरीर होने से, भगवान के द्वारा किसी कार्य विशेष के लिए स्व-शक्ति द्वारा नियुक्त होने से वो भगवान के शक्त्यावेश अवतार कहे जा सकते हैं। साक्षात अवतार के रूप में तो कहीं भी वर्णन प्राप्त नहीं होता।
महाभारत शान्ति पर्व में ब्रह्मा रूद्र से कहते हैं-
विष्णुरात्मा भगवतो भवस्यामिततेजसः । तस्माद्धनुज्यसंस्पर्श स विषेहे महेश्वरः ।।
ब्रह्मरुद्रसंवादे- तवान्तरात्मा मम च ये चान्ये देहिसंज्ञिताः । सर्वेषां साक्षिभूतोऽसौ न ग्राह्यः केनचित् क्वचित् ।।
तुम्हारे अन्तरात्मा और मेरे भी और सभी देहधारियों के आत्मा
यहाँ ब्रह्मा और रुद्र के अन्तरात्मा भगवान को कहा गया है। अर्थात वो भगवान के शरीर हैं।
वेदों के प्रमाण से यह सिद्ध होता है कि प्रलय के बाद एवं सृष्टि से पहले सिर्फ नारायण (विष्णु) ही थे|
महोपनिषद
एको ह वै नारायण आसीत्। न ब्रह्मा न ईशानो नापो नाग्निः न वायुः नेमे द्यावापृथिवी न नक्षत्राणि न सूर्यः।
सृष्टि काल में ब्रह्म से ब्रह्मा और रूद्र की सृष्टि का वर्णन मिलता है, किन्तु विष्णु की सृष्टि का नहीं| अर्थात्, विष्णु स्वयं भगवान के ही रूप हैं|
अतः सिद्धान्त यह है भगवान स्वयं ब्रह्मा, विष्णु एवं रूद्र के तीन रूप लेकर सृष्टि, स्थिति एवं संहार करते हैं। इन त्रिमूर्ति में विष्णु स्वयं भगवान के स्व-स्वरुप से अवतार हैं, अर्थात भगवान ही हैं| ब्रह्मा और रूद्र का भगवान के अवतार के रूप में वर्णन नहीं आता। भगवान उन्हें सृष्टि एवं प्रलय का कार्य करने हेतु अपनी शक्ति-विशेष से सम्पन्न करते हैं। अतः ये दोनों भगवान के गौण अवतार (शक्त्यावेश) हैं|
अर्थात् में विष्णु स्वयं भगवान हैं एवं रक्षण का कार्य करते हैं जबकि सृष्टि एवं प्रलय का कार्य भगवान ब्रह्मा एवं रूद्र के अन्तर्यामी होकर करते हैं।
भगवान का सर्व-शब्द-वाच्यत्व
वेदों में कई स्थलों पर प्राण, आकाश, महत, इन्द्र, प्रजापति आदि का जगद-कारणत्व कहा गया है।
महर्षि व्यास स्वयं ब्रह्म सूत्र में इन प्रमाणों का सामानाधिकरण्य करते हैं।
वेदों में प्राप्त होता है कि भगवान चित-अचित में अनुप्रवेश करके उनमें नाम और रूपों की सृष्टि करते हैं। वो सभी भगवान के शरीर होने से सभी नाम और रूप भगवान को संबोधित करते हैं।
इस प्रकार भगवान का सर्व-शब्द-वाच्यत्व है। सभी शब्दों के प्रधान वृत्ति में अर्थ भगवान ही हैं।
कई मतों का कहना कि वहाँ अनुप्रवेश भगवान का नहीं अपितु जीवात्मा का होता है। अतः ये सभी नाम रूप जीवात्मा के हैं।
किन्तु वेद कहते हैं ‘तत् सृष्ट्वा । तदेवानुप्राविशत् ॥‘ – (तैत्तिरीयोपनिषत् २-६-६)। सृष्टि करने वाले ने अनुप्रवेश किया है। जगद्–व्यापार–वर्जम् [वे.सू. ४.४.३३] सूत्र से कोई भी जीवात्मा जगत की सृष्टि नहीं कर सकता। अतः अनुप्रवेश भगवान का ही हुआ है।
अतः आकाश, प्राण, इन्द्र आदि शब्दों के अर्थ भगवान ही हैं। उन प्रमाणों में भगवान को ही जगत का कारण कहा गया है।
अब तक हम अचेतन और जीवात्म स्वरुप निरूपण पढ़ चुके हैं| इश्वर स्वरुप निरूपण में भगवान सर्व-शरीरक होना एवं इस विषय में श्रुति-स्मृति प्रमाण भी अध्ययन कर चुके हैं| अब आगे भेद-अभेद श्रुतियों रामानुज मत में किस प्रकार निर्वाह होता है, ये पढेंगे|
वेदों में भेद परक श्रुति भी प्राप्त होते हैं जो जीव और ब्रह्म के मध्य भेद बताते हैं और जीव-ब्रह्म के मध्य अभेद बताने वाले अभेद श्रुति भी प्राप्त होते हैं| भेद श्रुति के उदाहरण हैं:
क्षरं प्रधानममृताक्षरम हरः क्षरत्मानाविशते देव एकः।। (श्वेताश्वतर उप.१.८०).
समानाधिकरण्य का अर्थ है: भिन्न प्रवृत्ति शब्दानाम् एकस्मिन् अर्थे वृत्ति:| भिन्न प्रवृत्ति के श्रुति वाक्यों को एक अधिकरण देकर एक अर्थ में लाना, दोनों के परस्पर मतभेद को दूर करना समानाधिकरण्य है| घटक श्रुति चेतन और अचेतन समस्त को भगवान का शरीर बतलाता है|
यस्यात्मा शरीरं य आत्मानमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः – {शतपथब्राह्मणम् १४.६.७.[३०]}
इत्यादि प्रमाण हैं| चित और अचित सभी अवस्था में भगवान के शरीर होने के कारण सर्वदा चित और अचित को संबोधन भगवान का ही बोध कराते हैं|
शरीर-आत्मा का समानाधिकरण्य
लौकिक एवं वैदिक, दोनों व्यवहार में हम देखते हैं कि शरीर के प्रति किया गया सम्बोधन आत्मा का बोध कराता है| जैसे ‘वेदविद ब्राह्मण‘| यहाँ दोनों शब्द एक विभक्ति में प्रयुक्त हुए हैं| वेदविद आत्मा हैं| ब्राह्मण शरीर है| आत्मा का कोई वर्ण नहीं होता| किन्तु ‘वेदविद ब्राह्मण’ से शरीर को नहीं बल्कि शरीरक जीवात्मा को ही सम्बोधित किया जा रहा है| उसी प्रकार ‘राजा स्वर्गकाम:’ में राजा शरीर और स्वर्गकाम: आत्मा| किन्तु ‘स्वर्ग की इच्छा वाले राजा’ कहने से राजा शरीरक जीवात्मा को सम्बोधित किया जा रहा है| उसी प्रकार ‘पुत्र देखता है’ में पुत्र शरीर को सम्बोधन है जबकि देखना आत्मा का क्रिया है|
इन सभी उदाहरणों में हम देखते हैं कि शरीर को किया गया सम्बोधन वस्तुगत्या आत्मा को सम्बोधित करती है| ‘वेद जानने वाला ब्राह्मण’ का अर्थ है ‘ब्राह्मण शरीरक वेद जानने वाला जीवात्मा’| यहाँ शरीर-आत्म-भाव-समानाधिकरण्य है| इसी प्रकार अभेद श्रुतियों का निर्वाह करते हैं| शरीर वाचक शब्दों का शरीरि पर्यन्त अभिदेय करने में कोई विरोध नहीं है|
अपृथक-सिद्ध विशेषण
अपृथक-सिद्ध विशेषण को विशिष्ट वस्तु कहते हैं| अपृथक-सिद्ध अर्थात् जो कभी पृथक होकर न रहता हो| हमारा शरीर को एक जीवनकाल तक ही अपृथक होता है| यहाँ शरीर-आत्म सम्बन्ध कर्म सम्बन्ध से औपाधिक है| किन्तु समस्त चित-अचित का भगवान का शरीर होना निरुपाधिक है| समस्त चित-अचित वस्तुतः केवल भगवान के ही शरीर हैं| शरीर की परिभाषा हम ऊपर पढ़ चुके हैं| ‘दंडी पुरुष’ या ‘कुण्डली पुरुष’ सम्बोधन इस कारण होता है क्योंकि उस व्यक्ति से दण्ड या कुण्डल अपृथक रहता है| हमने उस व्यक्ति को जब भी देखा है, दण्ड या कुण्डल के साथ ही देखा है| दंडी या कुण्डली कहने से दण्ड धारण करने वाले व्यक्ति अर्थात् आत्मा का बोध हो रहा है| यही प्रकार-प्रकारी-भाव समानाधिकरण्य है|
अभेद श्रुतियों का अर्थ
‘तत्वमसि’ में तद सर्व कारण ब्रह्म है| त्वं जीवात्म-शरीरक ब्रह्म का वाच्य है| तदात्मकोसि, अर्थात तत् शब्द वाच्य जो परमात्मा है, वह सदा तुम्हारे अन्तर्यामी रूप से विराजते हैं।
‘अहम् ब्रह्मास्मि’ में अहं शब्द का अर्थ अहं वाच्य जीवात्मा के शरीरक परमात्मा है| ‘अहं ब्रह्मात्मको अस्मि’| अर्थात अहम् पदवाची जो जीव है, इसके भीतर अन्तर्यामी रूप से परमात्मा विराजते हैं।
सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् :- इदं दृश्यमान सर्वं अपि ब्रह्म ब्रह्मात्मकमित्यत्यर्थः, याने जो कुछ यह दिखाई पड़ता है, इन सब के भीतर अन्तर्यामी रूप से परमात्मा विराजते हैं ।
रामानुज मत में सामानाधिकरण्य श्रुति-सम्मत है| अन्तर्यामी ब्राह्मण आदि वेद भागों में प्राप्त होने वाले घटक श्रुति के द्वारा ही भेद श्रुति एवं अभेद श्रुति का समानाधिकरण्य किया गया है| किन्तु अद्वैत मत में अनेक प्रकार के समानाधिकरण्य की वैरूप्य कल्पना की गयी है| जीव-ऐक्य में अभेद समानाधिकरण्य, जड़-ब्रह्म ऐक्य में बाधार्थ समानाधिकरण्य एवं कार्य-कारण अभेद में आरोपित-उपादान आदि धर्म समानाधिकरण्य | रामानुज मत में सर्वत्र अपृथक-सिद्ध विशेषण के सामानाधिकरण्य से समाधान हो जाता है और श्रुति-मर्यादा भी बनी रहती है|
आत्म-बहुत्व का विषय भी विवाद योग्य नहीं है। यदि जीवात्म-ऐक्य होता तो एक व्यक्ति के द्वारा अनुभव किया गया विषय दूसरों को भी अनुभव हो जाता। यदि किसी व्यक्ति को किसी काल में सुख-दुःख की प्राप्ति हुई है तो दूसरों को भी उसी काल में वही सुख-दुःख प्राप्त होना चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं होता है।
यदि ऐसा कहे कि अविद्या रूपी उपाधि के कारण जीवात्म-भेद है तो ऐसा कहना भी उचित नहीं है। वेदों ने मुक्ति की अवस्था में भी अनन्त जीवात्मा बताए हैं। यथा- सदा पश्यन्ति सूरय:। (यहाँ बहुवचन का प्रयोग हुआ है।)
अब ग्रन्थकार कहते हैं कि ये उपाधि सभी जीवों के लिए एक ही हैं, या भिन्न? एक ही हैं ऐसा कहने से दोष आएगा। यदि भिन्न कहें तो ऐसा कहना कि कल जो तुम्हारे तुम्हारे द्वारा अनुभव किया गया था, आज मेरे द्वारा अनुभव किया गया। ये व्यवहार सम्भव नहीं होता। श्रुत-प्रकाशिका में इसका विस्तृत खण्डन है।
अतः जीव तीन प्रकार के हैं। तीनों ही अनन्त हैं। भगवान के शेषभूत, शरीरभूत एवं उनके अधीन हैं। यह सिद्ध इस प्रकार सिद्ध हुआ।
इस विषय पर भाष्यकार स्वामी का भगवद गीता 2.12 पर भाष्य भी देखना चाहिए जहाँ भगवान स्वयं ही जीवात्म-भेद एवं जीव-ब्रह्म भेद को पारमार्थिक बताते हैं।
आचार्य पूछते हैं कि कृष्ण ज्ञानी हैं या नहीं? यदि नहीं तो गीता क्यों पढ़ते हो? यदि हाँ तो भगवान स्वयं तत्त्व-ज्ञान के काल में भेद का ज्ञान क्यों दे रहे हैं?
यदि ऐसा कहे कि ज्ञानी को भी भेद का दर्शन होना बाधित-अनुवृत्ति है, जैसे वस्त्र के जल जाने पर भी वो कुछ काल तक वस्त्र जैसा ही दिखता है। तो भी यह समझना चाहिए कि ज्ञानी को भी मिथ्या के दर्शन तो होते हैं जैसे रेगिस्तान में जल का दिखना। किन्तु ज्ञानी उस भ्रम से प्यास बुझाने का व्यवहार तो नहीं करते। यदि कृष्ण को भेद के दर्शन हो भी रहे हैं तो इसका उपदेश अर्जुन को क्यों करते?
यदि अर्जुन और कृष्ण एक ही है और अर्जुन का भिन्न रूप में अस्तित्व भ्रम मात्र है तो भी ज्ञानी कृष्ण उसे उपदेश क्यों कर रहे हैं? कोई अपनी ही छाया से बात करता है क्या?
यथार्थं सर्व विज्ञानम्। विशिष्टाद्वैत में सभी ज्ञान सत्य हैं|
शुक्तिका में रजत का आभास, रेगिस्तान में जल का आभास आदि भ्रम और स्वप्न में तात्कालिक पदार्थों का अनुभव भी सत्य है, असत्य नहीं। रज्जु में सर्प या खम्भे में पुरूष का भ्रम भी सत्य है।
इसकी व्याख्या यहाँ की गई है|
श्री वैष्णव सम्प्रदाय में ‘सत्-ख्याति’ का सिद्धान्त है। “यथार्थं सर्व विज्ञानम्”। अर्थात सभी ज्ञान सत्य हैं। जगत सम्पूर्ण रूप से सत्य है क्योंकि ज्ञान के सभी विषय से सत्य है।
बौद्ध मत में असत-ख्याति है अर्थात शून्यवाद। योगाचार बौद्धों में ज्ञान-ख्याति है, अर्थात जगत ज्ञान मात्र है। अद्वैत मत के ज्ञानवाद बौद्ध दर्शन के समान होने कारण उसे प्रच्छन्न बौद्ध भी कहते हैं। अद्वैत मत ‘अनिर्वचनीय ख्याति’ है। सत् अपि न, असत् अपि न। जगत का पारमार्थिक दृष्टि से अस्तित्व ही नहीं है, इसलिए सत् नहीं कह सकते। जगत का व्यवहार होता है, इस करण असत् भी नहीं कह सकते।
विशिष्टाद्वैत में ‘पंचीकरण’ के सिद्धान्त से भ्रम भी सत्य हैं। पंचीकरण
रेगिस्तान में जल का भ्रम होना भी सत्य है क्योंकि पृथ्वी तत्त्व में जल तत्त्व भी पंचीकरण की प्रक्रिया से विद्यमान है। पूर्व में हम पंचीकरण पढ़ चुके हैं। पंचीकरण
यदि जल विद्यमान है तो उसका व्यवहार क्यों नहीं होता? क्योंकि जल अति अल्प मात्रा में विद्यमान है। इस कारण उससे प्यास नहीं बुझा सकते।
शुक्तिका (sea shell) में रजत का भ्रम होता है। शुक्तिका तो पृथ्वी तत्त्व है और रजत अग्नि/तेज तत्त्व। पृथ्वी में अग्नि तत्त्व होने के कारण ये भ्रम भी सत्य ही है। यदि सत्य है तो हमेशा ये भ्रम क्यों नहीं होता? प्रकाश के reflections आदि उपाधि के कारण ये भ्रम उत्पन्न हुआ है। उपाधि न होने से भ्रम नहीं होता|
रज्जु में सर्प का भ्रम
अँधेरे में रज्जु (रस्सी) में सर्प का भ्रम होता है। यहां समझने की बात यह है कि रज्जु में सर्प का ही भ्रम क्यों हुआ? हाथी का क्यों नहीं? अश्व का क्यों नहीं? और सर्प भी क्या रेंगता हुआ या फण उठाये भ्रम हुआ?
नहीं।
रज्जु में सर्प का भ्रम इस कारण क्योंकि रज्जु और सर्प के कुछ विशेषण एक समान हैं। दोनों एक आकार के हैं। अन्धकार की उपाधि के कारण रज्जु के वो विशेषण तो ग्रहण हुए जो सर्प के समान हैं किन्तु उन विशेषणों का ग्रहण नहीं हुआ जो सर्प से भिन्न है। इस कारण व्यक्ति को वहाँ सर्प का भ्रम हुआ।
किन्तु जो ज्ञान ग्रहण हुआ है, वो तो सत्य ही है। कुछ ज्ञान ग्रहण नहीं हुआ है (रज्जू का वह विशेषण जो सर्प से भिन्न है, वो ग्रहण नहीं हुआ), अर्थात अख्याति है। कुछ ज्ञान ग्रहण हुए हैं, जो सर्प के समान हैं, इस कारण सर्प का भ्रम हुआ है।
किन्तु ज्ञान का विषय तो सत्य ही है, असत्य नहीं।
उसी प्रकार रेगिस्तान में जल का ज्ञान भी भ्रम है किन्तु सत्य ज्ञान है। उपाधि के कारण केवल जल ही दिखा, पृथ्वी नहीं। किन्तु, जो दिखा वो सत्य ज्ञान ही है।
इस कारण भ्रम भी यथार्थ ज्ञान है किन्तु व्यवहारानुगुण नहीं है।
इसी प्रकार स्तम्भ (खम्भे) में पुरुष का भ्रम होना सत्य है क्योंकि खम्भा की आकृति पुरुष के समान है।
यदि असत्य ज्ञान ही होना था तो खम्भा में सर्प का भ्रम हो जाता, या रज्जु में पुरुष का भ्रम हो जाता। किन्तु ऐसा तो किसी को नहीं अनुभव होता|
हम पूर्व में पढ़ चुके हैं कि जीवात्मा ज्ञान-स्वरुप भी है और ज्ञानाश्रय भी| जीवात्मा ज्ञान का आश्रय/अधिकरण है, इस ज्ञान को धर्मभूत ज्ञान कहते हैं|भूत अर्थात जीवात्मा| धर्म अर्थात गुण| स्वरुप ज्ञान को धर्मि ज्ञान भी कहते हैं| धर्मि अर्थात जिसमें धर्म/गुण हो| वस्तु-स्वरुप कहने का अर्थ है, वो वस्तु स्वयं| जीव-स्वरुप का अर्थ है जीवात्मा स्वयं| जीवात्मा ज्ञान-स्वरुप है अर्थात् जीवात्मा स्वयं ज्ञान है| स्वरुप ज्ञान अर्थात स्वयं जीवात्मा| इस धर्मि जीवात्मा का धर्म की तरह है धर्मभूत ज्ञान|
स्वरुप ज्ञान की ही तरह धर्मभूत ज्ञान भी स्वरुप से नित्य है| अर्थात नष्ट नहीं होता| धर्मभूत ज्ञान के स्वरुप में कोई विकार नहीं होता किन्तु उसका संकुचन और विस्तार होता है| धर्मभूत ज्ञान स्वयं-प्रकाश (ज्ञानस्वरूप) द्रव्य है, यह हम पूर्व में पढ़ चुके हैं| अब प्रश्न यह है यदि धर्मभूत ज्ञान स्वयंप्रकाश है तो उसका ज्ञान हमें स्वयं ही क्यों नहीं होता? वो इन्द्रियों के द्वार पर क्यों निर्भर है?
उत्तर यह है कि बद्ध जीवों का कर्म के वश होने के कारण उनका ज्ञान संकुचित होता है| अचित शरीर उनके ज्ञान के स्वयं-प्रकाशत्व को आवरण करता है| हमारे इन्द्रियों की क्षमता के अनुसार ही ज्ञान का प्रसार हो पाता है| मुक्त एवं नित्य जीवात्माओं का ज्ञान इन्द्रियों के द्वार से संकुचित नहीं है| उनके ज्ञान का सर्वत्र प्रसार होने के कारण यह नियम नहीं है कि आँखों से ही देखेंगे या कानों से ही शब्द को ग्रहण करेंगे| उनका चित ज्ञानमय शरीर धर्मभूत ज्ञान को सीमित नहीं करता|
सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न आदि ज्ञान की ही विशेष अवस्थाएं हैं| अनुकूल ज्ञान सुख है और प्रतिकूल ज्ञान दुःख| उसी प्रकार ज्ञान ही एक अवस्था में प्रेम, द्वेष, इच्छा आदि बन जाता है| प्रयत्न साक्षात् तो ज्ञान की अवस्था नहीं है किन्तु चिकीर्षा रूपी ज्ञान का ही परिणाम है|
स्वरुप-ज्ञान और धर्मभूत ज्ञान भिन्न द्रव्य नहीं हैं| दोनों ही ज्ञान द्रव्य हैं|
कुछ लोग स्वरुप ज्ञान और धर्म ज्ञान को भिन्न-भिन्न पदार्थ मानते हैं किन्तु ऐसा मानने का कोई प्रमाण नहीं है| जिस प्रकार सूर्य स्वयं प्रभा का घनीभूत है और उसके किरण भी प्रभा हैं, किन्तु दोनों में भेद है| प्रभा सूर्य पर आश्रित है| उसी प्रकार दोनों ही ज्ञान द्रव्य ही हैं किन्तु धर्म ज्ञान स्वरुप ज्ञान से ही निकलता है एवं उसी पर आश्रित होता है| जैसे किरणें भी अग्नि द्रव्य हैं और दीपक भी अग्नि द्रव्य है, उसी प्रकार दोनों ही ज्ञान द्रव्य ही हैं| दोनों भिन्न पदार्थ नहीं हैं
कुछ लोगों के मत में धर्मभूत ज्ञान द्रव्य नहीं हो सकता, क्योंकि यह जीवात्मा का गुण है। पूर्व में हमने पढ़ा था कि पदार्थ के दो भेद हैं: द्रव्य और अद्रव्य (गुण)। जो गुण है वो द्रव्य कैसे हो सकता है। किन्तु “ज्ञान” एकमात्र द्रव्य है, जो गुण भी है। प्रभा (किरण) की भाँति। प्रभा तेजस द्रव्य भी है और दीपक पर आश्रित भी।
ज्ञान द्रव्य भी है और गुण भी
न्याय में द्रव्य उसे कहते हैं जो गुण या क्रिया का आश्रय हो। ज्ञान क्रिया का आश्रय है क्योंकि इसमें संकोच और विस्तार होता है। मूर्च्छा की अवस्था में शून्य होता है तो मुक्ति की अवस्था में अनन्त। ज्ञान में संयोग, वियोग आदि गुण भी हैं। इस कारण ज्ञान का द्रव्यत्व सिद्ध होता है।
ज्ञान को गुण इसलिए कहना उचित है क्योंकि रूप, रस, गन्ध आदि की तरह ही यह अपने (धार्मि) जीवात्मा से स्वतन्त्र नहीं रहता, अर्थात धर्मि पर ही आश्रित मिलता है। स्वतन्त्र द्रव्य कहना इसलिए उचित है क्योंकि जहाँ जीव नहीं है, वहाँ भी धर्मभूत ज्ञान होता है। जैसे मुक्त जीवों का ज्ञान विभू होता है।
ज्ञान के करण
ज्ञान के कारण तीन हैं: प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम। प्रत्यक्ष द्वारा जनित ज्ञान अनुभव है। प्रत्यक्ष अनुभव से मन में जो संस्कार जमा होता है, उससे बाद में जनित ज्ञान को स्मृति कहते हैं। इसलिए स्मृति भी प्रत्यक्ष ज्ञान ही है।
जीवात्मा ज्ञानस्वरूप एवं ज्ञानाश्रय दोनों है। अर्थात जीवात्मा स्वयं ही ज्ञान है और ज्ञान का आश्रय भी है।
जीवात्मा स्वयं ही ज्ञान है अर्थात् स्वयं-प्रकाश है| इस ज्ञान को स्वरूप-ज्ञान कहते हैं।
जीवात्मा ज्ञान का आश्रय है, ऐसा कहने का अर्थ है कि ज्ञान जीवात्मा का गुण है। इसे ही धर्मभूत ज्ञान कहते हैं। भूत अर्थात आत्मा और धर्म अर्थात गुण। वो ज्ञान जो आत्मा के गुण रूप में आत्मा में विद्यमान है, वो धर्मभूत ज्ञान है।
अर्थात जीवात्मा स्वयं ही ज्ञान है और ज्ञाता भी है। ज्ञानात्मकत्व (ज्ञानस्वरुप होना) और ज्ञातृत्व (ज्ञाता होना), दोनों ही जीवात्मा के पास हैं।
सुसुप्ति अवस्था (गहरी निद्रा) में भी स्वरूप ज्ञान का बोध होता, इसकी चर्चा हम पूर्व में ही कर चुके हैं।
आनन्द स्वरूप
जीवात्मा को ज्ञानस्वरूप के साथ-साथ आनन्द स्वरूप भी कहा जाता है। इनमें कोई विरोधाभास नहीं है। आनन्द ज्ञान की ही विशेष अवस्था है। अनुकूल ज्ञान आनन्द है और प्रतिकूल ज्ञान दुख। जीवात्मा को स्वाभाविक रूप से सदैव सभी ज्ञान अनुकूल है, इस कारण उसे आनन्द-स्वरूप कहते हैं। अज्ञान के कारण ही कोई ज्ञान प्रतिकूल समझ आता है और दुःख-जनक होता है।
कोई व्यक्ति गहरी निद्रा में होता है तो उसके इन्द्रिय ज्ञान का किसी वस्तु से संयोग नहीं रहता है| फिर जब वह सो कर उठता है और कहता है कि मैं सुखपूर्वक सोया, तो यह सुख उसे कहाँ से प्राप्त हुआ? यदि ऐसा कहे कि सोकर उठने के बाद आनन्द आया (क्योंकि मस्तिष्क को आराम मिल गया) तो ऐसा कहना भी उचित नहीं है| क्योंकि कोई ऐसा नहीं कह सकता कि संगीत सुनने के बाद आनन्द आया| संगीत सुनना और आनन्द आना एक साथ ही हुआ है| इसी प्रकार, गहरी निद्रा के काल में जीवात्मा को आनन्द का अनुभव हो रहा था, किसी अन्य द्रव्य से संयोग के बिना ही| इस कारण यह सिद्ध होता है कि जीवात्मा ज्ञान-स्वरुप है| (आगे यह पढेंगे कि गहरी निद्रा में जीवात्मा ब्रह्म का अनुभव कर रहा होता है|)
स्वरुप ज्ञान और धर्मभूत ज्ञान, दोनों एक ही द्रव्य हैं, किन्तु एक-दुसरे से भिन्न हैं|
जिस प्रकार सूर्य स्वयं प्रभा का घनीभूत है और उसके किरण भी प्रभा हैं किन्तु दोनों में भेद है| प्रभा सूर्य पर आश्रित है| उसी प्रकार दोनों ही ज्ञान द्रव्य ही हैं किन्तु धर्म ज्ञान स्वरुप ज्ञान से ही निकलता है एवं उसी पर आश्रित होता है| जैसे किरणें भी अग्नि द्रव्य हैं और दीपक भी अग्नि द्रव्य है, उसी प्रकार दोनों ही ज्ञान द्रव्य ही हैं| दोनों भिन्न पदार्थ नहीं हैं
जड वस्तु ज्ञानस्वरूप होते हैं और अजड वस्तु ज्ञानस्वरूप नहीं होते। ज्ञानस्वरूप इस कारण कहते हैं क्योंकि ये द्रव्य स्वयं-प्रकाश हैं। इसे ही स्वयं-भासमान द्रव्य भी कई स्थल पर लिखे हैं।
जो स्वयं ही प्रकाशरूप हो, वो स्वयंप्रकाश है। जो वस्तु स्वयं-प्रकाश नहीं हैं, उन्हें देखने के लिए किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता है। जैसे बिजली चली जाए, तब घर की कोई भी वस्तु दिखाई नहीं देती। टॉर्च या दीपक जलायें, तब उसके प्रकाश में सभी वस्तुएँ दिखाई देती हैं। किन्तु यदि मणि रखा हो, तो वह अंधेरे में भी दिखाई पड़ता है। वह प्रकाशित होने के लिए प्रकाश के अन्य श्रोत पर निर्भर नहीं है। वह स्वयं ही प्रकाशरूप है।
वेदान्त देशिक स्वामी कहते हैं कि यहाँ प्रकाश का अर्थ ज्ञान समझना है। ज्ञानस्वरूप को समझने हेतु प्रकाश का उदाहरण दिया गया है। अजड वस्तएं अपना ज्ञान स्वयं नहीं देतीं। वो ज्ञानस्वरूप नहीं हैं। हमारे आत्मा से ज्ञान इन्द्रियों के द्वार बाहर जाता है, उसका उन द्रव्यों से संयोग होता है। ज्ञान जानकारी इकट्ठा कर आत्मा के पास वापस आती है। किन्तु अजड द्रव्य ज्ञानस्वरूप/स्वयं प्रकाश होते हैं। वो अपना ज्ञान स्वयं ही देते हैं। जीवात्मा, ईश्वर, धर्मभूत ज्ञान और शुद्ध सत्त्व अप्राकृत तत्त्व स्वयं प्रकाश हैं।
Q. अब प्रश्न कर सकते हैं कि भगवान का शरीर भी तो स्वयं प्रकाश द्रव्य है। तो फिर विभव या अर्चा अवतार में वो हमें स्वयं प्रकाशित क्यों नहीं करते? स्वयं अपना ज्ञान क्यों नहीं देते? A. वो इस कारण क्योंकि कर्म के कारण हम प्राकृत देह में हैं और इस कारण स्वयं प्रकाश द्रव्य हमें प्रकाशित नहीं होते।
स्वस्मै स्वयं प्रकाश एवं परस्मै स्वयं प्रकाश।
स्वयं प्रकाश के पुनः दो भाग हैं: स्वस्मै-स्वयं प्रकाश एवं परस्मै-स्वयं प्रकाश। स्वस्मै स्वयं प्रकाश केवल स्वयं को प्रकाशित करते हैं। जैसे आत्मा स्वयं को प्रकाशित करता है। “मैं” की प्रतीति तो सभी जीवात्माओं को होती ही है। यह जीवात्मा के स्वस्मै-स्वयं-प्रकाशत्व के कारण हैं| स्वस्मै अर्थात स्वयं के लिए। कोई व्यक्ति यदि पूरी याददाश्त खो दे, अपने विषय में कुछ भी याद न हो, किन्तु “मैं” की प्रतीति तो उसे भी होती है। गहरी निद्रा में या मूर्च्छा अवस्था में धर्मभूत ज्ञान शून्य होता है। किन्तु “मैं” की प्रतीति तो होती है। जब व्यक्ति गहरी निद्रा से सोकर उठता है तो कहता है कि मैं सुखपूर्वक सोया। गहरी निद्रा में शरीर का, परिवार का, पद और प्रतिष्ठा आदि का बोध नहीं होता| अर्थात् धर्मभूत ज्ञान नगण्य होता है| किन्तु ‘मैं’ का बोध तो वहाँ भी होता ही है|
शुद्धसत्व एवं धर्मभूत ज्ञान ‘परस्मै-स्वयं-प्रकाश’ द्रव्य है। अर्थात ये ज्ञानस्वरूप अवश्य हैं किन्तु स्वयं को प्रकाशित नहीं करते। दूसरों को ही स्वयं-प्रकाशित करते हैं| परस्मै अर्थात दूसरों के लिए। “मैं” का बोध इनमें नहीं होता। अर्थात के अचेतन हैं। अचेतन किन्तु ज्ञानस्वरूप क्योंकि ये स्वयं-प्रकाश हैं। स्वयं के प्रति नहीं अपितु दूसरों को स्वयं प्रकाशित करते रहते हैं। श्री वैकुण्ठ के सभी अचित् वस्तुएँ परस्मै स्वयं प्रकाश हैं। वो स्वयं ही अपना ज्ञान देते हैं।
स्वस्मै एव भासमानं प्रत्यक्।
स्वस्मै-स्वयं-प्रकाश को प्रत्यक् या चेतन भी कहते हैं। जीवात्मा को शास्त्रों में प्रत्यक् बहुधा कहा गया है।
परस्मै एव भासमानं पराक्।
परस्मै-स्वयं-प्रकाश को पराक् या अचेतन भी कहते हैं।
अब तक हम अचित प्रकरण हम पूर्ण रूप से पढ़ चुके हैं। चित के दो प्रकार हैं: जीवात्मा एवं परमात्मा। अब जीव को दो परिभाषा देते हैं:
ईश्वर से भिन्न चित जीव है। यदि सिर्फ ईश्वर से भिन्न जीव, कहें तो परिभाषा का अचित में अतिव्याप्ति हो जाएगा। यदि सिर्फ ऐसा कहे कि चित जीवात्मा होता है तो फिर लक्षण का परमात्मा में अतिव्याप्ति हो जाएगा।
स्वाभाविक शेषत्व के साथ चेतन को जीवात्मा कहते हैं।
शेषत्वे सति ज्ञातृत्वं जीवात्मन: लक्षणम्।
केवल शेषत्व कहने से लक्षण का अचित में अतिव्याप्ति होगा एवं केवल ज्ञातृत्व कहने से लक्षण का परमात्मा में अतिव्याप्ति होगा। शेषत्व विशिष्ट ज्ञातृत्व केवल जीवात्मा में ही है।
जीवात्मा का आकार
जीवात्मा अणु है, अर्थात अत्यन्त सूक्ष्म है। शरीर के हृदय प्रदेश में अवस्थित होता है। फिर भी, आत्मा की चेतना पूरे शरीर में होती है। पूरे शरीर में सुख-दुख आदि अनुभव आत्मा को होता है। जिस प्रकार मणि या दीप एक स्थान पर रखे हों, किन्तु उनकी प्रभा पूरे घर में होती है, उसी प्रकार हृदय प्रदेश में सूक्ष्म रूप से अवस्थित होते हुए आत्मा का ज्ञान (धर्मभूत ज्ञान) पूरे शरीर में अवस्थित होता है। धर्मभूत ज्ञान के द्वारा आत्मा पूरे शरीर में विद्यमान होता है।
ज्ञान प्रसार
इन्द्रियों के द्वारा धर्मभूत ज्ञान शरीर से बाहर जाता है एवं वस्तुओं से संयोग कर उनके विषय में जानकारी वापस आकर इन्द्रिय, फिर मन और फिर आत्मा को देता है। इस कारण हमारा ज्ञान प्रसार इन्द्रियों की क्षमता के अनुसार सीमित हैं।
“आत्मा मनसा संयुज्यते , मन इन्द्रियेण , इन्द्रियमर्थेन ततो ज्ञानम्”
कई योगियों की दिव्य दृष्टि होती है। उनका धर्मभूत ज्ञान, योग बल सत्त्व गुण के वृद्धि के कारण, अधिक उद्भूत होता है एवं अधिक प्रसारित होता है।
धर्मभूत ज्ञान के बल से कई योगी कायव्यूह बनाते हैं। जैसे सौभरि, कर्दम आदि ऋषि एवं प्रजापति एक ही काल में अनेक शरीर धारण किये थे। आत्मा तो एक मूल शरीर में ही अवस्थित थी किन्तु धर्मभूत ज्ञान के द्वारा उन्होंने अन्य शरीरों में भी प्रवेश किया था एवं उनसे सुख-दुख प्राप्त होता है।
जैन मत का खण्डन
जैन मत में आत्मा को अणु नहीं अपितु शरीर के माप का बताया गया है। किन्तु यदि आत्मा योगबल से एक शरीर से दूसरे शरीर में जाये तो आत्मा का संकोच या विकास होगा। जैसे यदि चूहा के शरीर में जाये तो आत्मा को सिकुड़ना होगा। यदि हाथी के शरीर में जाये तो आत्मा को फैलना होगा। इस प्रकार का निर्विकारत्व नष्ट हो जाएगा। काय व्यूह के काल में भी आत्मा के माप को समझ पाना जैन मत से सम्भव नहीं है। इस कारण आत्मा के विषय में जैन-मत तर्क-पूर्ण नहीं है।
नैयायिक मत का खण्डन
नैयायिक मत में आत्मा विभू मानी गयी। कर्मसमानाधिकरण्य के आत्मा की उपस्थिति सर्वत्र है। तार्किक मत में धर्म और अधर्म आत्मा के गुण बताये गए हैं, जो आत्मा के साथ ही रहते हैं| कोई व्यक्ति मान लिया कि दिल्ली में कोई कार्य करता है और उसे उस कर्म का फल चेन्नई में मिलता है। इस कारण आत्मा को विभू मानना होगा।
इस कर्म का समानाधिकरण्य मानने से उत्तम यह समझना कि ईश्वर तो विभू हैं, सर्वत्र हैं। धर्म और अधर्म गुण नहीं अपितु कर्म हैं| इस कर्म का लेखा-जोखा भगवान के ज्ञान में होता है| एक स्थान पर जीवात्मा द्वारा किये गए कर्म को भगवान अपने स्मृति में रखते हैं एवं उचित काल में अन्य स्थान पर उसका फल देते हैं।
कर्मसमानाधिकरण्य भी दोषपूर्ण है। जातकर्म संस्कार में यह लागु नहीं होता। यहाँ भी कर्म पिता का है किन्तु फल पुत्र को मिल रहा है। जात्येष्टि संस्कार किया है पिता ने किन्तु उसका फल मिलता है पुत्र को।
अतः, आत्मा को अणु मानना तर्क-संगत भी है एवं शास्त्र संगत भी।