तत्त्व, हित, पुरुषार्थ

तत्त्व क्या है, जीवन का लक्ष्य (पुरुषार्थ) क्या होना चाहिए? उपाय (means) क्या है लक्ष्य प्राप्त करने का??

तत्त्व, हित, पुरुषार्थ

एक बार की बात है, एक राजा प्रमोद करने हेतु वन में गया पर उसका छोटा-सा बच्चा वन में कहीं खो गया। शिकारियों के समाज ने उसे पाला-पोसा और वह बच्चा शिकारियों के बीच बड़ा हुआ। एक बार शहर का एक व्यक्ति वन से जा रहा था तो उसने उस बालक को देखा जिसकी हरकतें तो बिल्कुल शिकारियों के जैसे थी पर रंग-रूप में वह बाकियों से बिल्कुल अलग था। उसने पूछताछ की तो पता चला की इस बालक को वन में अकेला पाया गया था। उस व्यक्ति को समझते देर न लगी की यह राजा का ज्येष्ठ पुत्र ही है। उसने राजकुमार से बात की तुम वास्तव में राजकुमार हो और राजा की अपार सम्पत्ति के उत्तराधिकारी। बालक को विश्वास नहीं हुआ और वह अपने साथियों के साथ खेलने लगा। उस व्यक्ति ने अपने तर्कों से बालक को समझाया तो बालक को समझ में आ गया की वो वास्तव में राजकुमार ही है। वो छोटी सी सम्पत्ति और छोटे से समाज में ख्याति के लिये संघर्ष कर रहा था जबकि राजा की असीमित सम्पत्ति और सुख-शांतिमय जीवन उसे बस राजा का पुत्र बन जाने मात्र से मिल जायेगा। बालक अपने पालकों का आशीर्वाद लेकर राजमहल की ओर दौरा। राजा को खबर मिली तो उसने रास्ते में फूल बिछवा दिए और अपने पुत्र को कलेजे से लगा लिया। ये उदाहरण स्वामी वेदांत देशिका अपने ‘रहस्य-त्रय सारम्’ में देते हैं।

हम सभी उस परमात्मा की संतान हैं पर अपने दिव्य आनंद और दिव्य सम्पत्ति को न केवल छोड़ दिया है अपितु उसका हमें एहसास भी नहीं है। भौतिक संसार एक जेल की भाती है और प्रकृति के तीन गुण इसकी बेड़ियाँ हैं। हम सभी ए-ग्रेड कैदी बनकर खुश हैं या उसके लिये हड्डी-तोड़ मेहनत कर रहें। पर कैदी तो आखिर कैदी ही है चाहे वो आईएएस कैदी हो या विद्वान कैदी। बुद्धिमान व्यक्ति वही है जो इस जेल के बाहर जाने की सोचता है। गुरु हमें इस बात का ज्ञान दते हैं की हम वास्तव में इस जेल के निवासी नहीं अपितु परमात्मा की असीम सम्पत्ति हमारे प्रतीक्षा में है। शाश्वत, ज्ञानमय और आनंदमय जीवन हमारी प्रतीक्षा कर रहा है। हम चेतन और शाश्वत हैं और जड़ एवं अशाश्वत प्रकृति से हमारा संबंध नहीं बल्कि चेतन, शाश्वत और आनंदमय परमात्मा से है। जीवात्मा और परमात्मा सजातिय हैं जबकि जीवात्मा और प्रकृति विजातिय।

नित्यो नित्यानाम चेतनस्य चेतानानाम, एको बहूनां यो विदधाति कामान।

गुरु हमें रहस्य-मंत्र देकर जेल से बाहर जाने का रास्ता बता देते हैं। जब हमें पूर्ण-विश्वास हो जाता है की हम वास्तव में भगवान के हैं तो अपने हम भगवान की शरणागति करते हैं और भगवान हमें वैकुण्ठ-धाम में बास देते हैं।

दैवी ही ….

हम सभी अपने जीवन में अपनी रूचि के हिसाब से लक्ष्य निर्धारित करते हैं और लक्ष्य लक्ष्य तय करने के बाद लक्ष्य को प्राप्त करने का उपाय ख्होजाते हैं। इसे ही वेदांत की भाषा में ‘तत्त्व, हित, पुरुषार्थ’ कहते हैं। व्यक्ति जिस तत्त्व को यथार्थ मानता है, वैसा ही पुरुषार्थ (लक्ष्य) भी निर्धारित करता है और उसके बाद उपाय की तालाश करता है।

तत्त्व हित (उपाय) पुरुषार्थ (लक्ष्य)
१) अचित नौकरी,विवाह,रत्न, गाड़ी,महल,ब्यूटी-पार्लर इत्यादि ऐश्वर्यानुभवम (भौतिक सुख)
२) चित कर्म योग, ज्ञान योग कैवल्यानुभवं (आत्म-साक्षात्कार)
३) ईश्वर भक्ति योग, शरणागति कैंकर्यानुभवं (भगवत-साक्षात्कार)

 

अगर हम अचित (जड़) वस्तु को ही सच्चाई समझते हैं या अपने आप को चेतन जानने के बावजूद जड़ वस्तु को ही सर्वोत्तम मानते हैं तो हमारा पुरुषार्थ (लक्ष्य) होता है विषयों का भोग कर भौतिक सुख उठाना। भौतिक सुख के भी कई स्तर हैं। इन्द्रियों के सुख से उपर है मन का सुख और उससे उपर है बुद्धि का सुख और उससे भी ऊपर है अहंकार का सुख। जैसे भारत-पकिस्तान क्रिकेट मैच का आखिरी ओवर चल रहा हो और माँ हमें हमारा पसंदीदा खाना लेकर दे तो वो हमें नहीं रुचेगा क्योंकि मन का सुख इन्द्रियों के सुख से उपर है। बुद्धि का सुख उठा रहे वैज्ञानिक या शतरंज खिलाड़ी को इन्द्रियों या मन का सुख तुच्छ लगता है। अहंकार का सुख सबसे उपर है। मान लिया हमने महल तैयार किया या महंगी कार खरीदी तो उसका सुख हमें तबतक नहीं मिलेगा जबतक कोई आकर हमारे महल एवं कार की प्रशंसा ना करे या अपने से दूसरों की तुलना कर उसे तुच्छ न समझें। सुख वास्तव में महल, कार या गहनों में नहीं है क्योंकि ये सब तो अचेतन, ज्ञानहीन और निरानंद वस्तु हैं, सुख अहंकार को मिल रहा है।

जब व्यक्ति अपार भौतिक सुखों (पद, पैसा, प्रतिष्ठा, परिवार) के बावजूद शांति महसूस नहीं करता तो वह आत्म-चिंतन करता है। जब वह चेतन (आत्मा) को सर्वश्रेष्ठ समझता है तो आत्म-साक्षात्कार ही पुरुषार्थ बन जाता है और उपाय होता है कर्म-काण्ड या ध्यान-योग।

जब व्यक्ति यह महसूस करता है कि चेतन सर्वश्रेष्ठ तत्त्व नहीं अपितु वह ईश्वर के नियंत्रण में है तो भगवत-साक्षात्कार पुरुषार्थ बन जाता है। उपाय भक्ति या प्रपत्ति है जिसके बारे में विस्तार से अगले लेख में बताया गया है।

 

 

 

Author: ramanujramprapnna

studying Ramanuj school of Vishishtadvait vedant

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